B.A.I, Political Science II Show
प्रश्न 8."भारत का संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।" व्याख्या कीजिए।अथवा '' भारतीय गणतन्त्र के संविधान का स्वरूप यद्यपि संघात्मक है, परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है ? विवेचना कीजिए। अथवा "भारतीय संविधान एकात्मक तथा संघात्मक, समय तथा परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार दोनों ही हो सकता है।" डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के इस कथन का मूल्यांकन कीजिए। अथवा "भारतीय संविधान में संघात्मक तथा एकात्मक सिद्धान्तों का मिश्रण विश्व में अनोखा है।" इस कथन की व्याख्या कीजिए। उत्तर– शासन शक्तियों के वितरण के आधार पर शासन दो प्रकार का हो सकता है—एकात्मक एवं संघात्मक। यदि शासन की शक्तियों का एकमात्र प्रयोग केन्द्र सरकार करती है और प्रान्त उसके अधीन होते हैं, तो उसे एकात्मक शासन कहते हैं। इसके विपरीत यदि शक्तियों को संविधान द्वारा केन्द्र व राज्यों (संघ की इकाइयों) में विभाजित कर दिया जाता है और दोनों सरकारें अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होती हैं, तो उसे संघात्मक शासन कहते हैं। - संघात्मक शासन की परिभाषा करते हुए प्रो. गार्नर ने लिखा है कि "संघ शासन सामान्य प्रभुत्व के अधीन संयुक्त, केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों की एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्रीय तथा राज्य सरकारें अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होती हैं और उनके क्षेत्र संविधान द्वारा अथवा उस व्यवस्था को जन्म देने वाले संसदीय अधिनियम द्वारा निर्धारित होते हैं।" फ्रीमैन ने कहा है कि "संघात्मक शासन वह है जो दूसरे राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध में एक राज्य के समान हो, परन्तु आन्तरिक शासन की दृष्टि से वह अनेक राज्यों का योग हो।" संघात्मक शासन के आवश्यक लक्षण:-जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है, संघीय व्यवस्था में आवश्यक रूप से निम्नलिखित लक्षण होने चाहिए- (1) शक्तियाँ और कार्यों का वितरण:-संघ शासन में शासन की कुल शक्तियों व कार्यों को केन्द्र सरकार व विभिन्न स्थानीय इकाइयों के मध्य विभाजित कर दिया जाता है। देश की सुरक्षा, मुद्रा, यातायात व संचार के साधन, डाक व तार, नागरिकता आदि विषय, जिनमें समस्त देश में एकरूपता की आवश्यकता होती है, केन्द्र को दिए जाते हैं । स्थानीय महत्त्व के विषय कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई, कानून एवं शान्ति आदि राज्य अर्थात् इकाइयों को दे दिए जाते हैं। (2) संविधान की सर्वोच्चता:-संघ शासन में संविधान सर्वोच्च होता है। पानों सरकारों को संविधान का आदर करना पड़ता है। यदि कोई भी सरकार संविधान का उल्लंघन कर कानून बनाती है, तो न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है। (3) न्यायपालिका का विशेष स्थान:-संघ राज्य में कई सरकारें होने के कारण उसके मध्य क्षेत्राधिकार को लेकर संघर्ष होने की सम्भावना रहती है। इससंघर्ष का फैसला स्वतन्त्र न्यायपालिका, जिसे प्रायः सर्वोच्च न्यायालय कहते हैं, के द्वारा किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय आवश्यकता पड़ने पर संविधान की व्याख्या का संरक्षक भी होता है। यह प्रत्येक सरकार के प्रत्येक अंग के कार्यों की समीक्षा करता है व निर्णय देता है कि कोई कार्य संविधान के अनुकूल है या नहीं। अमेरिका और भारत में सर्वोच्च न्यायालय की विशिष्ट स्थिति है। इन देशों में संविधान एक पवित्र लेख माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय उसका संरक्षक माना जाता है। (4) संघ शासन के अन्य लक्षण:-संघ शासन के कुछ अन्य लक्षण भी हैं, जिन्हें गौण लक्षणों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें दो लक्षण उल्लेखनीय- (i) दोहरी नागरिकता:-प्रायः संघ राज्य में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है—एक सम्पूर्ण संघ की और दूसरी उस राज्य की जहाँ वह निवास करता है। अमेरिका में नागरिकों को दोहरी नागरिकता ही प्राप्त है। भारत में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए इकहरी नागरिकता (भारत की नागरिकता) की व्यवस्था की गई है। (ii) द्विसदनात्मक विधानमण्डल:-संघ राज्य में केन्द्रीय विधानमण्डल में दो सदन होते हैं। एक सदन समस्त जनता का तथा दूसरा विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय संविधान संघात्मक है:-संघ शासन की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत का संविधान संघात्मक है। भारतीय संविधान में निम्नलिखित संघात्मक तत्त्व (1) शक्तियों का विभाजन:-भारतीय संविधान द्वारा भी केन्द्र और राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है। इस उद्देश्य से संविधान में तीन सूचियों का उल्लेख किया गया है। (2) संविधान की सर्वोच्चता :-भारतीय संविधान इस देश का सर्वोच्च कानून (3) स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय:-भारतीय संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के रूप में एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायालय की व्यवस्था की गई है। (4) लिखित और कठोर संविधान:-भारतीय संविधान लिखित है और कठोर भी, किन्तु यह अमेरिकी संविधान जितना कठोर नहीं है। फिर भी इसमें साधारण कानून और संवैधानिक कानून में अन्तर किया गया है। भारतीय संविधान के एकात्मक तत्त्व :-यद्यपि भारतीय संविधान में संघीय शासन के उपर्युक्त सभी लक्षण विद्यमान हैं, तथापि संविधान में ऐसे तत्त्व भी हैं जो केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाते हैं या जिनसे संविधान की एकात्मकता की प्रवृत्ति प्रकट होती है- (1) शक्तिशाली केन्द्र:-केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए संविधान में अनेक उपबन्ध हैं। संविधान देश में संघीय कार्यपालिका शक्ति की प्रधानता स्थापित करता है। राज्य वित्त पर भी संघ का अत्यधिक नियन्त्रण है। केन्द्रीय संसद राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है, उनके नाम बदल सकती है, जैसा कि सन् 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम द्वारा हुआ। इसके बाद भी पंजाब में से हरियाणा राज्य बना, और भी दूसरे राज्य बने हैं। अमेरिका में ऐसा सब कुछ नहीं हो सकता। (2) शक्तियों का वितरण केन्द्र के पक्ष में :-केन्द्र तथा राज्यों में शक्तियों का वितरण इस प्रकार किया गया है कि केन्द्र का पलड़ा भारी है। संघ सूची में 97 विषय हैं, जिन पर केन्द्र का एकमात्र अधिकार है। राज्य सूची में केवल 66 विषय ही हैं। इतना ही नहीं, कई परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर केन्द्रीय संसद कानून बना सकती है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। यद्यपि इन विषयों पर दोनों ही कानून बना सकते हैं, फिर भी विरोध की स्थिति में केन्द्र का कानून मान्य समझा जाएगा। विशिष्ट विषय भी केन्द्र को प्राप्त हैं। (3) राज्यों के विषयों पर केन्द्र का क्षेत्राधिकार:-शान्तिकाल में भी केन्द्र राज्य सूची विषयों पर कानून बना सकता है (i) यदि राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पारित करे कि राज्य सूची का अमुक विषय अब राष्ट्रीय महत्त्व का है। (ii) दो या दो से अधिक राज्यों की प्रार्थना पर। (iii) संसद अपने अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिए भी राज्य सूची , के विषय पर कानून बना सकती है। (4) संकटकाल में संविधान का बिना संशोधन के एकात्मक रूप ग्रहण कर लेना:-प्रायः संघात्मक संविधान में एकात्मक रूप देने के लिए संविधान मेंसंशोधन करना आवश्यक होता है, परन्तु भारतीय संविधान की एक विशेषता यह है कि संशोधन किए बिना ही इसको एकात्मक रूप दिया जा सकता है। अनुच्छेद 352, 356 व 360 के अन्तर्गत राष्ट्रपति आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत लागू की गई आपात स्थिति की घोषणा के अन्तर्गत भारत के संघात्मक ढाँचे को एकात्मक रूप दिया जा सकता है। अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत केवल सम्बन्धित राज्य सरकार अथवा राज्य सरकारों को समाप्त किया जा सकता है। अनुच्छेद 360 के अन्तर्गत वित्तीय संकट की स्थिति में राज्य सरकारों के व्यय पर वित्तीय प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं। राष्ट्रपति की ओर से आपात स्थिति की घोषणा होने से राज्यों की स्वायत्तता समाप्त हो सकती है। (5) राज्यों के पृथक् संविधानों का अभाव:-संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैण्ड जैसे संघीय प्रणाली वाले देशों में संघ की इकाइयों के अपने पृथक् संविधान हैं, लेकिन भारत में राज्यों को अपने संविधान का निर्माण करने का अधिकार नहीं है। सम्पूर्ण देश के लिए एक ही संविधान है, जिसमें केन्द्र और राज्यों के शासन की संरचना के सम्बन्ध में प्रावधान है। राज्यों के पृथक् संविधान का अभाव संघीय प्रणाली के अनुरूप नहीं है। (6) इकहरी नागरिकता:-संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैण्ड के संविधानों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति संघ का नागरिक होने के साथ-साथ अपने राज्य का भी नागरिक होता है। उस राज्य की ओर से उसको कुछ विशेष सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। भारत के संविधान में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था नहीं है, अपितु प्रत्येक व्यक्ति भारत का ही नागरिक है तथा सबको सभी राज्यों में समानता के आधार पर संविधान की ओर से अधिकार प्राप्त हैं। केवल जम्मू-कश्मीर इसका अपवाद है। इकहरी नागरिकता एकात्मकता की द्योतक है। (7) संवैधानिक संशोधन में केन्द्र की श्रेष्ठता:- संविधान में संशोधन करने के सम्बन्ध में केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं। संविधान की अधिकांश व्यवस्थाओं में संसद साधारण बहुमत से अथवा विशेष प्रक्रिया द्वारा परिवर्तन कर सकती है। लेकिन ऐसी व्यवस्थाएँ बहुत कम हैं जिनमें संसद की विशेष प्रक्रिया के साथ-साथ कम-से-कम आधे राज्यों की स्वीकृति आवश्यक है। अमेरिका की भाँति प्रत्येक संवैधानिक संशोधन की स्वं कृति राज्यों से नहीं लेनी पड़ती है। राज्य सरकारें स्वयं कोई संवैधानिक संशोधन प्रस्तावित नहीं करसकतीं। संवैधानिक संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की नगण्य भूमिका संघीय प्रणाली के अनुकूल नहीं है। (8) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति :-भारत में राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और वे राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त ही अपने पद पर रहते हैं। इसके विपरीत अमेरिका में राज्यपाल राज्य के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं और निश्चित अवधि तक अपने पद पर रहते हैं। राज्यपालों की दोहरी भूमिका है—एक ओर वे राज्यों में संवैधानिक प्रमुख हैं और दूसरी ओर वे राज्यों में केन्द्र के अभिकर्ता हैं। वह केन्द्र और राज्य के प्रति विरोध की स्थिति में केन्द्र को ही प्रसन्न रखना चाहेगा, चाहे इसके लिए उसे राज्य के हितों का बलिदान क्यों न करना पड़े। (9) राज्यों का राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व:-विश्व के प्रायः सभी संघीय राज्यों में दूसरा सदन प्रायः समानता के आधार पर राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में प्रत्येक राज्य को सीनेट में दो प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है। ऑस्ट्रेलिया और स्विट्जरलैण्ड में भी इकाइयों के समान प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को अपनाया गया है। लेकिन भारत की राज्यसभा में राज्यों को प्रतिनिधित्व समानता के आधार पर नहीं, अपितु जनसंख्या के आधार पर दिया गया है, जो संघात्मक प्रणाली के सिद्धान्त के विरुद्ध है। (10) एकीकृत न्याय व्यवस्था:-संघ प्रणाली में संघ और राज्यों के कानूनों को लागू करने के लिए दोहरी न्याय व्यवस्था आवश्यक है। भारतीय संघ में अमेरिका की तरह दोहरी न्याय व्यवस्था का प्रबन्ध करने के स्थान पर न्याय व्यवस्था को एकीकृत कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के बाद न्यायालयों का गठन एक पिरामिड के रूप में होता है। (11) राज्यों की वित्त के सम्बन्ध में केन्द्र पर निर्भरता:-संविधान द्वारा वित्तीय दृष्टि से राज्य केन्द्र सरकार पर निर्भर बना दिए गए हैं। केन्द्र द्वारा राज्यों को विभिन्न प्रकार के अनुदान आदि दिए जाते हैं और इस आर्थिक सहायता के कारण केन्द्र राज्यों पर छाया रहता है। आर्थिक क्षेत्र में आत्म-निर्भर न होने के कारण राज्यों की स्वायत्तता नाममात्र की है। (12) प्रारम्भिक बातों में एकरूपता:-कुछ प्रारम्भिक बातों में एकता भारतीय संविधान की मुख्य विशेषता है, जैसे कि (i) समस्त देश के लिए एक ही चुनाव आयोग है। (ii) समस्त देश के लिए ही वित्त आयोग राष्ट्रपति की ओर से समय-समय पर नियुक्त किया जाता है। (iii) अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य केन्द्र और राज्यों में शासन का प्रबन्ध करते हैं। (iv) एक ही नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक की नियुक्ति होती है, जो राज्यों के वित्त का भी निरीक्षण करता है। उपर्यक्त व्यवस्थाओं के अतिरिक्त भारत की राजनीतिक व्यवस्था में कतिपय ऐसे राजनीतिक तत्त्वों का उदय और विकास दिखाई देता है जिनसे एकात्मकता में वृद्धि हुई है और केन्द्रीकृत संघवाद का चलन हुआ है। ये तत्त्व निम्नलिखित हैं (i) प्रधानमन्त्री का करिश्माई व्यक्तित्व, (ii) एकदलीय प्रभुत्व, (iii) योजना आयोग, तथा (iv) राष्ट्रीय विकास परिषद्। निष्कर्ष:-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय संघ में पर्याप्त मात्रा में एकात्मक तत्त्व हैं। संकट के समय तो वह पूर्णतया एकात्मक हो जाता है। भारतीय संघ में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि भारत एक संघ नहीं हैं। भारत में संघात्मक शासन है, किन्तु देश की एकता को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से केन्द्र को संघवाद की सीमाओं में रहते हुए अधिक-से-अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। डॉ. जैनिंग्स के शब्दों में कहा जा सकता है, "भारतीय संघ एक संघात्मक व्यवस्था है, जिसमें कठोर केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति विद्यमान है।" भारत में संघवाद क्यों अपनाया गया?भारत का प्रधानमंत्री बहुमत दल प्राप्त नेता को बनाया जाता है। वर्तमान समय में लोकतंत्र विश्व के विभिन्न देशों में फैला है। भारत में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था पाई जाती है और देश की जनसंख्या अधिक होने से कार्य भार बढ़ जाता है। जिसके कारण भारत ने संघवाद व्यवस्था को अपनाया है।
भारत में संघवाद क्या है?संघवाद सरकार का वह रूप है जिसमें शक्ति का विभाजन आंशिक रूप से केंद्र सरकार और राज्य सरकार अथवा क्षेत्रीय सरकारों के मध्य होता है। संघवाद संवैधानिक तौर पर शक्ति को साझा करता है क्योंकि इसमें स्वशासन तथा साझा शासन की व्यवस्था होती है। आजादी के उपरांत से लेकर अब तक भारतीय संघवाद का स्वरूप बदलता रहा है।
भारत में संघीय व्यवस्था कब लागू हुई?यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है जिसे संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को ग्रहण किया गया तथा जो 26 जनवरी 1950 को प्रवृत्त हुआ। संविधान में सरकार के संसदीय स्वरूप की व्यवस्था की गई है जिसकी संरचना कतिपय एकात्मक विशिष्टताओं सहित संघीय हो। केन्द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्ट्रपति है।
संघवाद सरकार क्या है?इस आधार पर कहा जा सकता है कि संघवाद सरकार का वह रूप है जिसमें देश के भीतर सरकार के कम-से-कम दो स्तर मौजूद हैं- पहला केंद्रीय स्तर पर और दूसरा स्थानीय या राज्यीय स्तर पर। भारत की स्थिति में संघवाद को स्थानीय, केंद्रीय और राज्य सरकारों के मध्य अधिकारों के वितरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
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