💐💐 भारत दुर्दशा 💐💐 Show ◆ नाटककार :- भारतेन्दु हरिश्चंद्र ◆ प्रकाशन :-1880 ई. में ◆ यह एक नाट्यरासक ◆ शैली :- प्रतीकात्मक व्यंग्यात्मक ◆ अंक :- 6 अंक ◆ यह नाटक भारत की तत्कालीन यथार्थ दशा से परिचित करता है। ◆ हिंदी का पहला राजनीतिक नाटक ◆ नाटक के पात्र :- 1. भारत
दुदैव (देश का विनाश का मूल,आधा किस्तानी आधा मुसलमानी वेशधारी) ◆ नाटक का प्रमुख उद्देश्य :- तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दुर्दशा करनेवालों का यथार्थ चित्र उपस्थित करना । ◆ नाटक का विषय : ★असहनीय अंग्रेजी व्यवस्था का चित्रण ★ भारत की सभ्यता का चित्रण ★ देश की दुर्दशा का चित्रण ◆ नाटक की दृश्य योजना :– ★ पहला अंक स्थान :- बीथी (मार्ग) ★ दूसरा अंक स्थान :- श्मशान ★
तीसरा अंक स्थान :- मैदान ★ चौथा अंक :- कमरा ★ पाँचवाँ अंक स्थान- किताबखाना ★ छठा अंक स्थान :- गंभीर वन का मध्यभाग (भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है )【भारत भाग्य का प्रवेश 】 ◆ नाटक का सारांश:- ★ प्रथम अंक में :- योगी का लावनी गान द्वारा भारत के प्राचीन गौरव, पारस्परिक फूट और कलह के फलस्वरूप यवनों के भारतागमन और भारत मे अंगरेजी राज्य की स्थापना और आर्थिक शोषण तथा दुरवस्था का वर्णन है। ★ दूसरे अंक में :- दीन भारत बिलख-बिलख कर अपनी दुर्दशा का वर्णन कर मूर्च्छित होता है। उसी अवस्था में निर्लज्जता और आशा उसे उठाकर ले जाती हैं। ★ तीसरे अंक में :- भारत दुर्देव सत्यानाश, फूट, सतोष, डाह, लोभ, भय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आदि की सहायता से भारत के धन, बल और विद्या तीनों को नष्ट करता है । ★ चौथे अंक में :- पुनः भारत दुर्दैव रोग, आलस्य, मदिरा, अहंकार आदि की सहायता से भारत की रही-सही दशा को भी नष्ट करने की योजना बनाता है। ★ पाँचवें अंक में:-सात सभ्यों की एक कमेटी भारत दुर्दैव से भारत की रक्षा के उपायों पर विचार करती है। उसी समय ‘डिसलॉयलटी’ प्रवेश कर सबको गिरफ्तार कर ले जाती है। ★छठे अंक में :- भारत भाग्य मूर्च्छित भारत को जगाने का प्रयत्न करता है। वह उसे प्राचीन गौरव की स्मृति दिलाता है। अंग्रेजी राज्य में उन्नति की संभावनाओं पर प्रकाश डालता है। जब उधर से भी उसकी आशा नष्ट हो जाती है, तो अंत में निराश होकर सीने में कटार मार लेता है। ◆ नाटक की गीत योजना :- ★ जय
सतजुग-थापन करन,नासन म्लेच्छ अचार । √ कठिन शब्दार्थ :- (1.) म्लेच्छ :- सीमा के पार रहनेवाले लोग, यहां अंग्रेजों को म्लेच्छ कहा गया है। (2.) कल्कि :- विष्णु के दस अवतारों में से अंतिम अवतार । भारतेन्दु की इस कृति में कलि की सेना का उल्लेख हुआ है । ★
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई । ★ लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी । ★ कोऊ नहि पकरत मेरो हाथ । √ शब्दार्थ :- (1.) दुखगाथ :- दुख की गाथा अर्थात् कहानी ( भारत के दुर्दिन की कहानी ) । (2.) टकरावत निज माथ- अर्थात् मारा-मारा फिरता है। ★ अरे ! उपजा ईश्वर कोप से, औं आया भारत बीच। काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग । फूट वैर औ कलह बुलाऊ, ल्याऊँ मुस्ती जोर। मरी बुलाऊँ देस उजाडूं, महँगा करके अन्न । सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न।। √ शब्दार्थ :- (1.) भारत दुर्देव तथा उसकी फौज :-भारत जो एक समय सभ्यता के सर्वोच्च शिखर पर था उसी का आज पतन हो गया, यह दुर्दैव है। निरुद्यमता, फूट, कलह, रोग, मॅहगी, अविद्या, सतोप, अपव्यय, दूसरों का अन्धा नुकरण, विज्ञान का अभाव, निज भाषा और वस्तुओं के व्यवहार का अभाव आदि कारण ही दुदैव की फौज है । (2.) पानी उलटा कर बरसाऊँ :- उलटा कर औधा कर अर्थात् अतिवृष्टि। इसका एक और अर्थ ‘विपरीत गति से पानी बरसाना’ भी हो सकता है, अर्थात् जब पानी की आवश्यकता हो तब तो अनावृष्टि और जब आवश्यकता न हो तो अतिवृष्टि । (3.) काफिर :- मुसलमानों के अनुसार उनसे भिन्न धर्म का माननेवाला। उन्होंने ही यह नाम भारतवासियों को दिया था। यह नाम भारतवासियो की दासता का प्रतीक है। (4.) काला :- यह नाम अँगरेजो का दिया हुआ है। यह भी भारत की दासता का प्रतीक है। ★ हमारा नाम है सत्यानास √ शब्दार्थ :- (1.) सत्यानाश फौजदार :- सत्यानाश व्यापक चीज़ होने के कारण फौजदार कहा गया है। जिन कारणों से सत्यानाश हुआ वे उसकी फौज है। (2.) घर के हम… खराब :- फूट-कलह, अविद्या, मद्यपान, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, मॅहगी, रोग, फैशन, अपव्यय, सतोष, छुआछूत आदि सत्यानाश के कारण ही उसके विविध रूप है। (3.) हलाकू :- विध्वंस और क्रूरता का प्रतीक । (चंगेज खाँ का उत्तराधिकारी) (4.) चंगेजी :- विध्वंस और क्रूरता का प्रतीक । (5.) दुरानी अहमद :-विध्वस और क्रूरता का प्रतीक (अफगानिस्तान का नेता) ( 6.) नादिरसाह– सर्वनाश का प्रतीक।( प्रसिद्ध ईरानी सैनिक नेता ) (7′) “इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, ★ धर्म ने सबके पहिले सेवा की। शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए । जाति अनेकन करी नीच अरु ऊँच बनायो । खान पान सबंध सबन सो बरजि छुड़ायो ।। जन्मपत्र बिधि मिले ब्याह नहि होन देत अब । बालकपन मे ब्याहि प्रीति-बल नास कियो सब ॥ करि कुलीन के बहुत ब्याह बल बीरज मारयो । विधवा-व्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचारयो ।। रोकि विलायत-गमन कूपमंडूक
बनायो। ★ जगत सब मानत मेरी आन । अत्तार :- देशी दवाईयाँ बेचने वाला ★ दुनिया में हाथ-पैर हिलाना नही अच्छा। बिस्तर पर मिस्ले लोथ पडे रहना हमेशा । उमरा को हाथ-पैर चलाना नही अच्छा ॥ फाको से मरिए पर न कोई काम कीजिए । दुनिया नही अच्छी है जमाना नही अच्छा ॥ सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिये । मिल जाय हिंद खाक मे हम काहिलो को क्या । (आलस्य गजल गाता है, चौथा अंक) ★ कोउ नृप होउ हमे का हानी, ★ ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम । दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥’ ★ “जो पढतव्यं सो मरतव्यं, जो न पढतव्यं सो भी मरतव्य, तब फिर दतकटाकट किं कर्तव्यं
? ★ दूध मुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम । सुधरी आजादी सुरा जगत सुरामय होय ॥ ★ जागो जागो रे भाई ! निसि की कौन कह दिन बीत्यो काल राति चलि आई। देखि परत नह हित-अनहित कछु परे बैरि-बस जाई ॥ निज उद्धार पथ नहि सूझत सीस चुनत पछिताई । अबहूँ चेति, पकरि राखो किन जो कछु बची बड़ाई ॥ फिर पछिताए कछु नहि है रहि जैही मुँह वाई । जागो जागो रे भाई
। ◆ नाटक के कथन :- ★ “हा ! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व – करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था “सूच्यग्र नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव” और आज हम उसी भूमि को देखते है कि श्मशान हो रही है । अरे यहाँ की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता, सत्य सब कहाँ गए ?(भारत का कथन) √ शब्दार्थ :- (1.) श्मशान .. पड़ी है :- भारत की उजड़ी हुई अवस्था के लिए यही पीठिका उपयुक्त हो सकती थी। (2.) “सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव” का अर्थ :– हे केशव ! बिना युद्ध के सुई की नोक की बराबर भी भूमि नही दूंगा ।( दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को कहा था।) ★ ” अरे पामर जयचन्द्र ! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था ? हाय । अब मुझे कोई शरण देने वाला नही । ( रोता है) मात, .
राजराजेश्वरि, विजयिनी मुझे बचाओ। अपनाए की लाज रक्लो । अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ । हाय ! मैने जाना था कि अँगरेजो के हाथ में आकर हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेगे और सुख मानकर जन्म बितावेगे पर दैव से वह भी न सहा गया । हाय ! कोई बचानेवाला नही । √ शब्दार्थ :- ( 1.) पामर जयचन्द्र – भारत में फूट तथा कलह और फलत विनाश का प्रतीक । (2.) मातः… अपनाए की लाज रक्खो :- यहाँ ‘राजराजेश्वरी’ से विक्टोरिया का तात्पर्य है। भारतेन्दु के समय में ‘राजा कृष्ण समान’ वाली भावना कार्य कर रही थी। भारतेन्दु ने भारत में अगरेज कर्मचारियो से पीडित होने का उल्लेख किया है, किन्तु सम्राज्ञी के प्रति भक्ति प्रकट की है। (3.) दुखी मन को… बचाने वाला नहीं :- अर्थात् अँगरेजी राज्य में, सब प्रकार की विघ्नबाधाओ और यातनाओं से मुक्त रहते हुए विद्याध्ययन कर जीवन को सुखी बनावेंगे, किन्तु भाग्य में यह भी नहीं था। ★ “अरे यह विकरालवदन कौन – मुँह बाए मेरी ओर दौड़ता चला आता है ? हाय-हाय इससे कैसे बचेगे । अरे यह तो मेरा एक ही कौर कर जायगा । हाय ! परमेश्वर बैकुठ मे और राजराजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी ? हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा ? अब कोई उपाय नही । अब मरा, अब मरा।”(भारत डरता और कॉपता हुआ रोकर कहता है।) √ शब्दार्थ :- (1.) परमेश्वर…. समुद्र पार :- परमेश्वर बैकुठ में होने के कारण नही सुनता और सात समुद्र पार होने के कारण राजराजेश्वरी विक्टोरिया नही सुनती ( क्योकि उनके प्रतिनिधि शासक अपने मन की करते है, प्रजा के हित का ध्यान नही रखते) । ★ मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र । छि छि ! जीओगे तो भीख माँग खाओगे । प्राण देना तो कायरो का काम है। क्या हुआ, जो धन-मान सब गया “एक जिन्दगी हजार नेआमत है ” अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चले । नही – नही, मुझसे अकेले न उठेगा “(निर्लज्जता भारत को उठाते हुआ कहा है) (1.) निर्लज्जता :- लज्जा का त्याग, अर्थात् अपमानित होते हुए भी मजे से रहने की अवस्था (2.) नेआमत :- धन, माल (3.) एक जिंदगी… नेआमत है अर्थात् जीवित रहना ही एक परम लक्ष्य हो, फिर चाहे जिस अवस्था में रहना पड़े । ★”कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है ? देखो तो अभी इसकी क्या-क्या दुर्दशा होती हूँ।” (भारतदुर्दैव का कथन ) ” एक पोस्ती ने कहा, पोस्ती ने पी पोस्त नौ दिन चले ! अढ़ाई कोस । दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूंड़ी के उस पार या इस पार ठीक है।” (आलस्य का कथन) √ शब्दार्थ :- (1.)पोस्ती :- अफीमची । (2.) पोस्त :- अफीम के पौधे का डोंडा । (3.) पोस्ती नौ… कोस :– एक अफीमची अफीम का डोडा पीकर नौ दिन मे केवल ढाई कोस चला । आलस्य का प्रतीक । (4.) डाक का हरकारा :- राज्य की ओर से चिट्ठी-पत्री ले जाने वाला । जब आधुनिक डाक व्यवस्था नही थी, उस समय हरकारे तेज़ी के साथ पैदल दौड-दौड कर डाक ले जाते थे । पोस्ती का नौ दिन मे अढ़ाई कोस चल लेना भी बहुत है । (5.) कूड़ी के पार :- जब अफीम पी तो या तो कूँडी (पत्थर का प्याला ) के इधर ही बैठे रहे, बहुत चले तो उसकी दूसरी ओर पहुँच गए। आलस्य का प्रतीक । ★”भगवान् सोम की में कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मै सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणो में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई। तत्र तो केवल मेरे ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल है, हिंदू, बौद्ध, मुसलमान और किस्तान इन चारो मे मेरी चार पवित्र प्रतिमूर्ति विराजमान है। सोमपान, बीराचमन, शराबुन्तहूरा और बापटैजिंग वाइन । भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध ? या जो पशु है उन्होंने
अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहने वालो के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी सैकड़े दस होंगे, जगत् मे तो हम व्याप्त है। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते है। और फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्र भूषण है। ★ “संगीत-साहित्य की तो एकमात्र जननी हूँ ।” ★ ” हमारा सृष्टि-संहार-कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लपटों के हम एकमात्र जीवन है । पर्वतों की गुहा, शोकितो के नेत्र, मूर्खो के मस्तिष्क और खलों के चित्त मे हमारा निवास है। हृदय के और प्रत्यक्ष, चारो नेत्र हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते है। हमारे दो स्वरूप है, एक आध्यात्मिक और एक आधि भौतिक, जो लोक मे अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध है। (अंधकार अपना परिचय देता है) ★ अंधकार का परम पूज्य मित्र :-भारत दुर्देव ★” हमारा देश में भारतउद्धार नामक एक नाटक बना है। उसमे अंगरेजों को निकाल देने का जो उपाय लिखा, सोई हम लोग दुर्देव का वास्ते काहे न अवलंबन करे। ओ
लिखता पाँच जन बंगाली मिल के अँगरेजों को निकाल देगा । उसमे एक तो पिशान लेकर स्वेज का नहर पाट देगा। दूसरा बाँस काट-काट के पिवरी नामक जलयत्र विशेष बनावेगा। तीसरा उस जलयत्र से अँगरेजो की आँख में धूर और पानी डालेगा।(भारत दुर्देव से भारत को बचाने का उपाय एक ★” जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिह, बाणभट्ट प्रभृति कवियों के नाममात्र से अब भी सारे संसार से ऊँचा है, उस भारत की यह दुर्दशा । जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम-रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा ! जिस भारत में राम, युधिष्ठिर, नल, हरिश्चद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्र के लोग हो गए है उसकी यह दशा !”(भारत भाग्य भारत को जगाते हुये कहता है,छठा अंक) ★” भैया, मिल लो, अब में विदा होता हूँ | भैया, हाथ क्यों नहीं उठाते ? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर के वास्ते में विदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं मिलते। मैं ऐसा ही अभागा हूं तो ऐसे अभागे जीवन ही से क्या।बस यह लो।” ( भारत दुर्दशा नाटक की अन्तिम पंक्ति भारत भाग्य का भारत को जगाने की अंतिम प्रयास, भारत नही जगाता है तो भारत भाग्य कटार का छाती मे आघात कर लेता है) ◆ महत्वपूर्ण बिन्दु :- ★ मंगलाचरण के संबंध में :- √ मंगलाचरण या नांदी एक प्रकार की स्तुति है जो विघ्न मंगलाचरण- शांति के लिए की जाती है। √ भारतीय नाट्य शास्त्र के अनुसार प्रत्येक नाट्य-कृति का प्रारंभ और अंत ऐसे ही मंगल वाक्यों से माना गया है। √ मंगलाचरण या नांदी पूर्वरग नामक नाटकीय भूमिका अंतर्गत है। √ मंगलाचरण तीन प्रकार का माना जाता है :– √ जहाँ ‘जय’ शब्द का प्रयोग होता है वहाँ आशीर्वादात्मक मंगलाचरण समझना चाहिए। √ नाट्यकृति के अंत में आने वाले मंगल-पाठ को ‘भरत-वाक्य’ कहते हैं । √ ‘भारत-दुर्दशा’ का यह मंगलाचरण केवल स्तुति के रूप मे है,न कि प्राचीन परंपरा के अनुसार नाटकीय भूमिका के अंग के रूप में, क्योंकि इस मंगल-पाठ के अनंतर सूत्रधार प्रवेश आदि कुछ भी नही है । √ इस मंगलाचरण में श्रीकृष्ण के कलियुग अवतार की स्तुति इसमें की गई है। ★ समाज व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, सरकारी व्यवस्था, देसवासियों तथा समाज सुधारकों सभी पर तीखे व्यंग्य दिखाई देते हैं। ★ इसमें भारतेंदु की राजभक्ति तथा भारत का धन विदेश जाने की चिंता साफ-साफ नजर आती है ★ “भारत-दुर्दशा नाटक के सम्बन्ध में यह आपत्ति उठाई गई है कि वह दुःखान्त है, और उसमें आशा का सन्देश नहीं है। यह ठीक है, किन्तु कहीं-कहीं करूणा का आधिक्य लोगों को उद्योगशील बना देता है। करूणा में प्रायः वीररस की ‘आवृत्ति’ हो जाती है, ‘आइ गयहु हनुमान जिमि करूना मँह वीररस’ । कवि का लक्ष्य जागृति उत्पन्न करना था, वह चाहे आशा और उत्साह द्वारा हो और चाहे करूणा के द्वारा ।(बाबू गुलाब राय का कथन) ★ “भारत दुर्दशा में ‘भारत’ और ‘भारत भाग्य का पढ़ा अत्यन्त दबा हुआ है। भारत को नायक माने तो उसका नायकत्व परम्परागत बिल्कुल नहीं है अनोखा हो तो हो ।” (डॉ. रेवतीरमण की ने कहा ) ★ नवीन नाट्य पद्धति का योग होने पर भारतेन्दु ने ‘भारत दुर्दशा’ को ‘नाट्यरासक’ के नाम से पुकारा है। ★ भारतेन्दु ने नाट्यरासक की परिभाषा :- ★ भारत दुर्दशा’ में नवीन और प्राचीन का मिश्रण है। ★ ‘भारत दुर्दशा’ नाटक का उद्देश्य देशवत्सलतापूर्ण और समाज-संस्कारक है। ★’भारत दुर्दशा’ नाटक का में वीर और करुण रस की प्रधानता है। ★ भारतदुर्दशा का नायक :- भारत(धीरोदात्त नायक) ★ भारतदुर्दशा का उपनायक :-भारत-भाग्य, ★ अंत में जब भारत भाग्य छाती में कटार का आघात कर लेता है तो निर्वहण संधि ( कार्य नामक अर्थ – प्रकृति और फलागम नामक कार्यावस्था) है। ★ तीसरे-चौथे अंको में :- बिन्दु अर्थ प्रकृति, प्रयत्न कार्यावस्था और प्रतिमुख सधि। ★ पाँचवे अंक में :- पताका अर्थप्रकृति (भारतवासियों की दुर्बलताएँ और डिसलायलटी द्वारा सब का पकडा जाना प्रधान फल का सिद्ध करने वाला है) चन्द्रगुप्त नाटक स्कन्दगुप्त नाटक ध्रुवस्वामिनी नाटक अंधायुग नाटक बकरी नाटक अन्धेर नागरी नाटक अधिक जानकारी के लिए क्लिक करे। भारत दुर्दशा नाटक का उद्देश्य क्या है?यह नाटक भारत की तत्कालीन यथार्थ दशा से परिचित करता है। नाटक का प्रमुख उद्देश्य :- तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दुर्दशा करनेवालों का यथार्थ चित्र उपस्थित करना ।
भारत दुर्दशा नाटक में क्या दर्शाया गया है?भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1880 ई में रचित एक हिन्दी नाटक है। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अन्त करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं।
भारत दुर्दशा शीर्षक कविता का केन्द्रीय विषय क्या है?यह कविता भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक 'भारत-दुर्दशा' से ली गयी है। इस कविता का मुख्य विषय देश प्रेम है और इसमें भारतेन्दु समस्त भारतवासियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि इस समय, अंग्रेज़ों के राज में, भारत की वह दुर्दशा हो चुकी है जो मुझसे देखी नहीं जाती और जिस पर हम सभी भारतीयों को चिंता और चिंतन करना चाहिए।
भारत की दुर्दशा का प्रमुख कारण कवि ने क्या बताया था?भारत दुर्दशा में भारतेन्दु ने बताया है कि वर्तमान भारत किस प्रकार विनाश के मार्ग पर बढ़ रहा है। इसकी आर्थिक, राजनीतिक और सामजिक संरचनाएँ पूर्णत: खंडित हो गयी हैं और सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि भारत के निवासी इस दुर्दशा को दूर करने के लिये प्रतिबद्ध भी नहीं दिखते।
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