बस्तर की प्राकृतिक सम्पदा एवं पर्यटन - bastar kee praakrtik sampada evan paryatan

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पर्यटक स्थल

बस्तर की प्राकृतिक सम्पदा एवं पर्यटन - bastar kee praakrtik sampada evan paryatan

बस्तर की प्राकृतिक सम्पदा एवं पर्यटन - bastar kee praakrtik sampada evan paryatan

कैलाश गुफा

बस्तर घने जंगलों, सर्पिन घाटियों, नदियों, के साथ एक रहस्यमय भूमि है। कैंगेर वैली नेशनल पार्क में तीन असाधारण गुफाएं…

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तीरथगढ जलप्रपात

जगदलपुर से 35 किलामीटर की दूरी पर स्थित यह मनमोहक जलप्रपात पर्यटकों का मन मोह लेता है। पर्यटक इसकी मोहक…

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कोटमसर गुफा

कोटसर गुफा को शुरू में गोपांसर गुफा (गोपन = छुपा) नाम दिया गया था, लेकिन वर्तमान नाम कोटसर अधिक लोकप्रिय…

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नारायणपाल मंदिर

नारायणपाल मंदिर बस्तर की विरासत में अपने सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक मूल्य के लिए जाने-माने है। जगदलपुर के उत्तर-पश्चिमी तरफ,…

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तामड़ा घुमर

बस्तर प्रकृति की विशाल सुंदरता के लिए जाना जाता है। मारडूम के पास चित्रकोट के रास्ते पर, एक बारहमासी झरना,…

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मेन्द्री घुमर जलप्रपात

मेन्द्री घुमर जलप्रपात  विशाल चित्रकोट झरने के रास्ते पर एक सुंदर मौसमी झरना है। प्रसिद्ध रूप से ‘घाटी की धुंध’…

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चित्रधारा जलप्रपात

बस्तर में झरनों की एक श्रृंखला है, उनमें से कई बारहमासी हैं, जबकि कुछ गर्मियों के दौरान पानी से वंचित…

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चित्रकोट जलप्रपात

चित्रकोट जलप्रपात भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर ज़िले में इन्द्रावती नदी पर स्थित एक सुंदर जलप्रपात है। इस जल…

बस्तर ,भारत के छत्तीसगढ़ प्रदेश के दक्षिण दिशा में स्थित जिला है। बस्तर जिले एवं बस्तर संभाग का मुख्यालय जगदलपुर शहर है। ख़ूबसूरत जंगलों और आदिवासी संस्कृति में रंगा ज़िला बस्तर, प्रदेश‌ की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर जाना जाता है। 6596.90 वर्ग किलोमीटर में फैला ये ज़िला एक समय केरल जैसे राज्य और बेल्जियम, इज़राइल जैसे देशॊ से बड़ा था। बस्तर जिला सरल स्वाभाव जनजातीय समुदाय और प्राकृतिक सम्पदा संपन्न हुए प्राकृतिक सौन्दर्य एवं सुखद वातावरण का भी धनी है।

उड़ीसा से शुरू होकर दंतेवाड़ा की भद्रकाली नदी में समाहित होने वाली करीब 240 किलोमीटर लंबी इंद्रावती नदी बस्तर के लोगों के लिए आस्था और भक्ति की प्रतीक है। इंद्रावती नदी के मुहाने पर बसा जगदलपुर एक प्रमुख सांस्कृतिक एवं हस्तशिल्प केन्द्र है। यहां मौजूद मानव विज्ञान संग्रहालय में बस्तर के आदिवासियों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं मनोरंजन से संबंधित वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं। डांसिंग कैक्टस कला केन्द्र, बस्तर के विख्यात कला संसार की अनुपम भेंट है। बस्तर जिले के लोग दुर्लभ कलाकृति, उदार संस्कृति एवं सहज सरल स्वभाव के धनी हैं ।

बस्तर जिला घने जंगलों, ऊँची, पहाड़ियों, झरनों, गुफाओ एवं वन्य प्राणियों से भरा हुआ है। बस्तर महल,  बस्तर दशहरा ,दलपत सागर, चित्रकोट जलप्रपात, तीरथगढ़ जलप्रपात, कुटुमसर और कैलाश‌ गुफ़ा आदि पर्यटन के मुख्य केंद्र हैं |


  1. चित्रकोट जलप्रपात 
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    चित्रकोट जलप्रपात भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर ज़िले में इन्द्रावती नदी पर स्थित एक सुंदर जलप्रपात है। इस जल प्रपात की ऊँचाई 90 फीट है।इस जलप्रपात की विशेषता यह है कि वर्षा के दिनों में यह रक्त लालिमा लिए हुए होता है, तो गर्मियों की चाँदनी रात में यह बिल्कुल सफ़ेद दिखाई देता है।

    जगदलपुर से 40 कि.मी. और रायपुर से 273 कि.मी. की दूरी पर स्थित यह जलप्रपात छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा, सबसे चौड़ा और सबसे ज्यादा जल की मात्रा प्रवाहित करने वाला जलप्रपात है। यह बस्तर संभाग का सबसे प्रमुख जलप्रपात माना जाता है। जगदलपुर से समीप होने के कारण यह एक प्रमुख पिकनिक स्पाट के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। अपने घोडे की नाल समान मुख के कारण इस जाल प्रपात को भारत का निआग्रा भी कहा जाता है। चित्रकूट जलप्रपात बहुत ख़ूबसूरत हैं और पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। सधन वृक्षों एवं विंध्य पर्वतमालाओं के मध्य स्थित इस जल प्रपात से गिरने वाली विशाल जलराशि पर्यटकों का मन मोह लेती है।

    ‘भारतीय नियाग्रा’ के नाम से प्रसिद्ध चित्रकोट प्रपात वैसे तो प्रत्येक मौसम में दर्शनीय है, परंतु वर्षा ऋतु में इसे देखना अधिक रोमांचकारी अनुभव होता है। वर्षा में ऊंचाई से विशाल जलराशि की गर्जना रोमांच और सिहरन पैदा कर देती है।वर्षा ऋतु में इन झरनों की ख़ूबसूरती अत्यधिक बढ़ जाती है।जुलाई-अक्टूबर का समय पर्यटकों के यहाँ आने के लिए उचित है।चित्रकोट जलप्रपात के आसपास घने वन विराजमान हैं, जो कि उसकी प्राकृतिक सौंदर्यता को और बढ़ा देती है।रात में इस जगह को पूरा रोशनी के साथ प्रबुद्ध किया गया है। यहाँ के झरने से गिरते पानी के सौंदर्य को पर्यटक रोशनी के साथ देख सकते हैं।अलग-अलग अवसरों पर इस जलप्रपात से कम से कम तीन और अधिकतम सात धाराएँ गिरती हैं।


  3. तीरथगढ़ जलप्रपात
  4. बस्तर की प्राकृतिक सम्पदा एवं पर्यटन - bastar kee praakrtik sampada evan paryatan

    तीरथगढ़ के झरने छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले में कांगेर घाटी पर स्थित हैं। ये झरने जगदलपुर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 35 कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं।”कांगेर घाटी के जादूगर” के नाम से मशहूर तीरथगढ़ झरने भारत के सबसे ऊँचे झरनों में से हैं। छत्तीसगढ़ के सबसे ऊंचे जलप्रपात में इसे गिना जाता है। यहां 300 फुट ऊपर से पानी नीचे गिरता है। कांगेर और उसकी सहायक नदियां ‘मनुगा’ और ‘बहार’ मिलकर इस सुंदर जलप्रपात का निर्माण करती हैं। विशाल जलराशि के साथ इतनी ऊंचाई से भीषण गर्जना के साथ गिरती सफ़ेद रंग की जलधारा यहां आए पर्यटकों को एक अनोखा अनुभव प्रदान करती है। तीरथगढ़ जलप्रपात को देखने का सबसे अच्छा समय वर्षा के मौसम के साथ-साथ अक्टूबर से अप्रैल तक का है।


  5. कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान
  6. बस्तर की प्राकृतिक सम्पदा एवं पर्यटन - bastar kee praakrtik sampada evan paryatan

    कांगेर घाटी नेशनल पार्क छत्तीसगढ़ कांगेर घाटी की 34 किलोमीटर लंबी तराई में स्थित है। यह एक ‘बायोस्‍फीयर रिजर्व’ है।कांगेर घाटी नेशनल पार्क भारत के सर्वाधिक सुंदर और मनोहारी नेशनल पार्कों में से एक है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता और अनोखी समृद्ध जैव विविधता के कारण प्रसिद्ध है। कांगेर घाटी को 1982 में ‘नेशनल पार्क’ का दर्जा दिया गया।
    वन्‍य जीवन और पेड़ पौधों के अलावा पार्क के अंदर पर्यटकों के लिए अनेक आकर्षण हैं। जैसे -कुटुमसार की गुफाएं, कैलाश गुफाए, डंडक की गुफाए और तीर्थगढ़ जलप्रपात। इस पार्क में बड़ी संख्‍या में जनजातीय आबादी भी रहती है और प्रकृति प्रेमियों, अनुसंधानकर्ताओं, वैज्ञानिकों के अलावा छत्तीसगढ़ के सर्वोत्तम वन्‍य जीवन का दर्शन करने का इच्‍छुक लोगों के लिए यह एक आदर्श पर्यटन स्‍थल है, जहाँ क्षेत्र की अनोखी जनजातियों को भी देखा जा सकता हैं।

    पार्क की वनस्‍पतियों में मिश्रित नम पतझड़ी प्रकार के वन हैं, जिसमें मुख्‍यत: साल, टीक और बांस के पेड़ हैं।वास्‍तव में कांगेर धाटी भारतीय उपमहाद्वीप में एकमात्र ऐसा स्‍थान है जहाँ अब तक इन अछूते और पहुँच से दूर वनों का एक हिस्‍सा बचा हुआ है। कांगेर घाटी नेशनल पार्क में पाए जाने वाले प्रमुख जीव जंतु हैं – बाघ, चीते, माउस डीयर, जंगली बिल्‍ली, चीतल, सांभर, बार्किंग डीयर, भेडिए, लंगूर, रिसस मेकाका, स्‍लॉथ बीयर, उड़ने वाली गिलहरी, जंगली सुअर, पट्टीदार हाइना, खरगोश, अजगर, कोबरा, घडियाल, मॉनिटर छिपकली तथा सांप। कांगेर घाटी नेशनल पार्क में मुख्‍य रूप से पहाड़ी मैना, चित्तीदार उल्‍लू, लाल जंगली बाज़, रैकिट टेल्‍ड ड्रोंगो, मोर, तोते, स्‍टैपी इगल, लाल फर वाला फाल, फटकार, भूरा तीतर, ट्री पाइ और हेरॉन पक्षी पाए जाते हैं।


  7. कुटुम्बसर गुफा
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    कुटुम्बसर गुफ़ा छत्तीसगढ़ में जगदलपुर के निकट स्थित है। यह गुफ़ा मानव द्वारा निर्मित है, जिसे ‘केम्पीओला शंकराई गुफ़ा’ भी कहा जाता है। इस गुफ़ा के अंधेरे में कई रहस्य छुपे हुए हैं, जिनका पता आज भी लगाया जा रहा है। यह माना जाता है कि कभी कुटुम्बसर गुफ़ा में आदिमानवों का बसेरा था। कुटुम्बसर गुफ़ा में अंधी मछलियाँ पाई जाती हैं। कई वैज्ञानिकों तथा जन्तु विज्ञान शास्त्रियों ने यहाँ पर अपना शोध कार्य किया है, जिसे लेकर पूरे विश्व में इस गुफ़ा की प्रसिद्धि है।

    इस गुफ़ा की खोज 1951 में प्रसिद्ध भूगोल वैज्ञानिक डॉ. शंकर तिवारी ने की थी। स्थानीय भाषा में ‘कोटमसर’ का अर्थ “पानी से घिरा क़िला” है। भू-गर्भ शास्त्रियों ने इस गुफ़ा में प्रागैतिहासिक मनुष्यों के रहने के अवशेष भी पाए हैं। उनके अध्ययन के अनुसार पूर्व में यह समूचा इलाका पानी में डूबा हुआ था और कोटमसर की गुफ़ाओं के बाहरी और आंतरिक हिस्से के वैज्ञानिक अध्ययन से इसकी पुष्टि भी होती है।

    गुफ़ा का निर्माण भी प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण पानी के बहाव के कारण ही हुआ है। लाइम स्टोन से बनी इस गुफ़ा की बाहरी और आन्तरिक सतह का अध्ययन बताता है कि इसका निर्माण लगभग 250 करोड़ वर्ष पूर्व का हुआ है। ‘फ़िजीकल रिसर्च लेबोरेटरी’, अहमदाबाद; ‘बीरबल साहनी इंस्टीटयूट ऑफ़ पेल्कोबाटनी’, लखनऊ और ‘भू-गर्भ अध्ययनशाला’. लखनऊ के भू-गर्भ वैज्ञानिकों ने अपने रिसर्च में ‘कार्बन डेटिंग प्रणाली’ से अध्ययन कर इस गुफ़ा में प्रागैतिहासिक मानवों के रहने की भी बात की है।

    शिवालय से नीचे जाने पर एक के बाद एक तीन जलप्रपात या झरने मिलते हैं। पहला झरना तीस फिट उँचाई का है। इससे नीचे उतरने के बाद लगभग साढे तीन इंच चौड़ा, पैंतालीस इंच उँचा व 65 इंच लंबा एक अंधकारमय गलियारा मिलता है। इसके दाहिनी ओर चूने की चटटाने हैं, जिन पर जल के बहने के निशान तथा बांयी ओर बंद छत पर लटकते हुए स्तंभों के दर्शन होते हैं। इस गुफ़ा की सबसे ख़ास बात यह है कि यहाँ जो स्तंभ बने हैं, वह अपने आप प्राकृतिक तरीके से बने हैं। पानी की बूंदों के साथ जो कैल्सियम गिरता गया, उसने धीरे-धीरे स्तंभों का रूप ग्रहण कर लिया और अब गुफ़ा में चमकते हुए स्तम्भ दिखाई देते हैं। इस गुफ़ा के पत्थरों को आकाशवाणी केन्द्र ने वादय यंत्रों की तरह इस्तेमाल किया था, इनसे विभिन्न तरह के स्वर निकाले गए थे।


  9. बस्तर दशहरा
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    बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में से सर्वश्रेष्ठ पर्व है। बस्तर दशहरा पर्व का सम्बन्ध महाकाव्य रामायण के रावण वध से नहीं है, अपितु इसका संबंध सीधे महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा से जुड़ा है। पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को माँ दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर को शिरोच्छेदन किया था। यह पर्व निरंतर ७५ दिन तक चलता है। पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है। बस्तर दशहरा में राज्य के दूसरे जिलो के देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है।

    1. इतिहास:
    2. बस्तर के चौथे चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पैदल तीर्थयात्रा कर मंदिर में स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्ण भूषण आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी। यहाँ पुजारी ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति की उपाधि से विभूषित किया। जब राजा पुरुषोत्तम देव पुरी धाम से बस्तर लौटे तब उन्होंने धूम-धाम से दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा का शुभारम्भ किया और तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी।

    3. काछनदेवी और दशहरा :
    4. १७२५ ई. में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समुदाय के लोग रहते थे। तब तात्कालिक नरेश दलपत से कबीले के मुखिया ने जंगली पशुओं से अभयदान मांगा। राजा इस इलाके में पहुंचे और लोगों को राहत दी। नरेश यहां की आबोहवा से प्रभावित होकर बस्तर की बजाए जगतुगुड़ा को राजधानी बनाया। राजा ने कबीले की ईष्टदेवी काछनदेवी से अश्विन अमावस्या पर आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया। तब से यह प्रथा चली आ रही है।

    5. तैयारी :
    6. पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म के साथ होती है। इसके लिए परंपरानुसार बिलोरी जंगल से साल लकड़ी का गोला लाया जाता है। काष्ठ पूजा के बाद इसमें सात मांगुर मछलियों की बलि और लाई-चना अर्पित कियाजाता है। इस साल लकड़ी से ही रथ बनाने में प्रयुक्त औजारों का बेंठ आदि बनाया जाता है। पाटजात्रा रस्म के बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करने के साथ विशाल रथ निर्माण प्रक्रिया शुरु की जाती है।

    7. काछिनगादी:
    8. काछिनगादी ( काछिन देवी को गद्दी ) पूजा बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है। काछिनगादी बेल कांटों से तैयार झूला होता है। पितृमोक्ष अमावस्या के दिने काछनगादी पूजा विधान होती है। काछिनगादी में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है जो काछिनगादी पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व की अनुमति देती है।

    9. जोगी बिठाई:
    10. दशहरा निर्विघ्न संपन्न कराने ने लिए किया है। जिस दिन बस्तर दशहरा अपना नवरात्रि कार्यक्रम आरम्भ करता है। उसी दिन सिरासार प्राचीन टाउन हॉल में जोगी बिठाई की प्रथा पूरी की जाती है। जोगी बिठाने के लिए सिरासार के मध्य भाग में एक आदमी की समायत के लायक एक गड्ढा बना है। जिसके अंदर हलबा जाति का एक व्यक्ति लगातार ९ दिन योगासन में बैठा रहता है।

      जोगी बिठाई के दूसरे दिन से रथ चलना शुरू हो जाता है। रथ प्रतिदिन शाम ( अश्विन शुक्ल २ से लेकर लगातार अश्विन शुक्ल ७ तक ) एक निश्चित मार्ग को परिक्रम करता हाँ और राजमहलों के सिंहद्वार के सामने खड़ा हो जाता है। पहले-पहले १२ पहियों वाला एक रथ होता था परंतु असुविधा के कारण रथ को आठ और चार पहियों वाले दो रथों में विभाजित कर दिया गया। अश्विन शुक्ल ७ को समापन परिक्रमा के दूसरे दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है। दुर्गाष्टमी के अंतर्गत निशाजात्रा का कार्यक्रम होता है। निशाजात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है।९ वे दिन जोगी उठाई मावली पर घाव की किया जाता है।

    11. मावली परघाव :
    12. अर्थ है देवी की स्थापना। मावली देवी को दंतेश्वरी का ही एक रूप मानते हैं। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है और उस मूर्ति को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है।

      विजयादशमी के दिन भीतर रैनी तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं। दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है।

    13. निशाजात्रा :
    14. निशाजात्रा रस्म में दर्जनों बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्य मौजुद होते है। इस रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले १६ कांवड़ ( कांवर ) भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है।

    15. अंतिम पड़ाव:
    16. इस पर्व के अंतिम पड़ाव में मुरिया दरबार लगता है। जहां मांझी-मुखिया और ग्रामीणों की समस्याओ का निराकरण किया जाता है। मुरिया दरबार में पहले समस्याओं का निराकरण राजपरिवार करता था अब यह जिम्मेदारी प्रशासनिक अधिकारी निभाते हैं।इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं की विदाई हो जाती है। दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी माई की डोली व छत्र को दूसरे दिन नजराने व सम्मान के साथ विदा किया जाता है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते हैं।