बदली नभ में अपने लिए क्या चाहती है? - badalee nabh mein apane lie kya chaahatee hai?

जो तुम आ जाते एक बार/ कितनी करूणा कितने संदेश/ पथ में बिछ जाते बन पराग / गाता प्राणों का तार तार/ अनुराग भरा उन्माद राग... महादेवी की कविताओं में जीवन के राग हैं. विरह की वेदना के साथ प्यार का उल्लास भी है. उन्होंने अपनी कविताओं में नारी जीवन के हर रंग उकेरे. आज उनकी जयंती पर साहित्य आजतक के पाठकों के लिए उनकी पांच चुनिंदा श्रेष्ठ कविताएं.

1.

पूछता क्यों शेष कितनी रात?

पूछता क्यों शेष कितनी रात?

छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू

स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू

परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!

झर गये ख्रद्योत सारे,

तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;

बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!

साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!

व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा

प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;

आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!

छीजता है इधर तू, उस ओर बढ़ता प्रात!

प्रणय लौ की आरती ले

धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले

मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल भारती ले

मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।

कौन भय की बात।

पूछता क्यों कितनी रात?

2.

मैं नीर भरी दुख की बदली!

मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा

क्रन्दन में आहत विश्व हँसा

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झरिणी मचली!

मेरा पग-पग संगीत भरा

श्वासों से स्वप्न-पराग झरा

नभ के नव रंग बुनते दुकूल

छाया में मलय-बयार पली।

मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल

चिन्ता का भार बनी अविरल

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन-अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना

पथ-चिह्न न दे जाता जाना;

सुधि मेरे आंगन की जग में

सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना, इतिहास यही-

उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

3.

स्वप्न से किसने जगाया?

स्वप्न से किसने जगाया?

मैं सुरभि हूं।

छोड़ कोमल फूल का घर,

ढूंढ़ती हूं निर्झर।

पूछती हूं नभ धरा से-

क्या नहीं ऋतुराज आया?

मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत,

मैं अग-जग का प्यारा वसंत।

मेरी पगध्वनी सुन जग जागा,

कण-कण ने छवि मधुरस मांगा।

नव जीवन का संगीत बहा,

पुलकों से भर आया दिगंत।

मेरी स्वप्नों की निधि अनंत,

मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत।

4.

कौन तुम मेरे हृदय में

कौन तुम मेरे हृदय में?

कौन मेरी कसक में नित

मधुरता भरता अलक्षित?

कौन प्यासे लोचनों में

घुमड़ घिर झरता अपरिचित?

स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा

नींद के सूने निलय में!

कौन तुम मेरे हृदय में?

अनुसरण नि:श्वास मेरे

कर रहे किसका निरन्तर?

चूमने पदचिन्ह किसके

लौटते यह श्वास फिर फिर

कौन बन्दी कर मुझे अब

बँध गया अपनी विजय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?

एक करूण अभाव में चिर-

तृप्ति का संसार संचित

एक लघु क्षण दे रहा

निर्वाण के वरदान शत शत,

पा लिया मैंने किसे इस

वेदना के मधुर क्रय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?

गूँजता उर में न जाने

दूर के संगीत सा क्या?

आज खो निज को मुझे

खोया मिला, विपरीत सा क्या

क्या नहा आई विरह-निशि

मिलन-मधु-दिन के उदय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?

तिमिर-पारावार में

आलोक-प्रतिमा है अकम्पित

आज ज्वाला से बरसता

क्यों मधुर घनसार सुरभित?

सुन रहीं हूँ एक ही

झंकार जीवन में, प्रलय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?

मूक सुख दुख कर रहे

मेरा नया श्रृंगार सा क्या?

झूम गर्वित स्वर्ग देता-

नत धरा को प्यार सा क्या?

आज पुलकित सृष्टि क्या

करने चली अभिसार लय में

कौन तुम मेरे हृदय में?

5.

मैं अनंत पथ में लिखती जो

मै अनंत पथ में लिखती जो

सस्मित सपनों की बाते

उनको कभी न धो पायेंगी

अपने आँसू से रातें!

उड़ उड़ कर जो धूल करेगी

मेघों का नभ में अभिषेक

अमिट रहेगी उसके अंचल-

में मेरी पीड़ा की रेख!

तारों में प्रतिबिम्बित हो

मुस्कायेंगी अनंत आँखें,

हो कर सीमाहीन, शून्य में

मँडरायेगी अभिलाषें!

वीणा होगी मूक बजाने-

वाला होगा अंतर्धान,

विस्मृति के चरणों पर आ कर

लौटेंगे सौ सौ निर्वाण!

जब असीम से हो जायेगा

मेरी लघु सीमा का मेल,

देखोगे तुम देव! अमरता

खेलेगी मिटने का खेल!