गाँवों से शहरों की ओर पलायन विषय पर सात-आठ वाक्य - gaanvon se shaharon kee or palaayan vishay par saat-aath vaaky

गाँवों से शहरों की ओर पलायन विषय पर सात-आठ वाक्य - gaanvon se shaharon kee or palaayan vishay par saat-aath vaaky

गाँवों से शहरों की ओर पलायन (Exodus from Villages to Cities) 

आधुनिक युग के साथ कदमताल करता हमारा राष्ट्र एक त्वरित विकासशील राष्ट्र है. औद्योगीकरण का बिछता जाल इसके लिए प्रगति के नवीन द्वार खोल रहा है. इस कारण नगरों में भौतिक सुख-सुविधाओं में अतिशय वृद्धि हुई है, जिससे नगरीय जीवन चकाचौंध भरा हो गया है. यह आरामदायक एवं चकाचौंध भरा नगरीय जीवन गाँवों के निवासियों का अपने प्रबल आकर्षण से खींचता है. इससे ग्रामीण जन नगरों की ओर भाग रहे हैं. इसका परिणाम यह हो रहा है कि गाँव खाली हो रहे हैं तथा नगरों की आबादी दिनोदिन बढ़ती जा रही है. इस कारण नगरों में स्थान की कमी होती जा रही है, साथ ही नगरों का विस्तार होता जा रहा है. नगर में दूरियाँ अतिशय रूप से बढ़ती जा रही हैं. 

1990 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल जनसंख्या की 26 प्रतिशत आबादी नगरों में निवास करती है, जबकि भारतमाता ग्रामवासिनी है और भारत की 80 प्रतिशत से अधिक भूमि गाँवों की सीमाओं में आती है. स्वतन्त्रता के पूर्व स्थिति-भिन्न थी. उस समय भारत की जनसंख्या के लगभग 12 प्रतिशत लोग ही नगरों में निवास करते थे. (सन् 1991) के बाद नगरों में रहने वाली जनसंख्या 26 प्रतिशत से बढ़कर कम से कम 32 प्रतिशत तो हो ही जानी चाहिए. 

कुछ लोग भारत के नगरों की जनसंख्या की तुलना विकसित देशों के नगरों में निवास करने वाली जनसंख्या से करते हुए कहते हैं कि प्रतिशत जनसंख्या की दृष्टि से हमारे नगरों की जनसंख्या बहुत कम है. वे लोग न तो विकसित देशों की कुल जनसंख्या पर विचार करते हैं और न यह सोचते हैं कि वहाँ देहाती जमीन कितनी कम है तथा वहाँ नगर और गाँव के जीवन में कितना कम अंतर है? दूसरी तरह विचार करने पर यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि हमारे नगरों में निवास करने वाली कुल जनसंख्या का योग कई विकसित देशों के नगरों में निवास करने वाली जनसंख्या के योग से कहीं अधिक है.

नगरीकरण के कारण 

नगरों के बसने अथवा नगरों के विस्तार के मूल में कारण होता है-जीवन सम्बन्धी सुविधाओं का उपलब्ध होना. हमारे देश में जैसे जैसे उद्योग-धन्धों, शिक्षा सुविधाओं आदि का विकास होता जा रहा है. वैसे-वैसे नगरों की भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है, क्योंकि जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा रोजगार के लिए लोगों को शहर की ओर भागना पड़ता है. हम किसी भी बड़े शहर को देख लें. वहाँ दिनोंदिन झुग्गी झोपड़ियों की संख्या बढ़ती जाती है, फुटपाथ आदि खुले स्थानों में सोने वालों की संख्या बढ़ती जाती है, नौकरी व मजदूरी के लिए नित्य आने-जाने वालों की संख्या बढ़ती जाती है तथा बड़े नगरों के चारों ओर बसने वाले उपनगरों की संख्या में वृद्धि होती जाती है, नगरों में पानी बिजली की दिक्कत बढ़ती जाती है, महँगाई बढ़ती जाती है. 

सभ्यता के विकास के समानान्तर ही नगरों एवं नगरीय सभ्यता का विकास होता गया है, क्योंकि नगरों में ही वस्तुओं का उत्पादन एवं आदान-प्रदान होता है. गाँवों में उत्पादित वस्तुओं का भी आदान-प्रदान नगरों के बाजारों में ही होता है. इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि भारत में प्राचीन महत्त्वपूर्ण समस्त नगरों का उदय एवं विकास नदियों के किनारे हुआ. कारण वही रहा जलमार्ग द्वारा व्यापार किया जाता था, तथा कृषि आदि की सुविधाएँ सहज उपलब्ध थीं. हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, हरिद्वार, दिल्ली, मथुरा, आगरा, कानपुर, कन्नौज, प्रयाग, वाराणसी, पाटलिपुत्र आदि इस प्रवृत्ति के ज्वलन्त उदाहरण हैं. ब्रिटिश काल में प्रारम्भ में अंग्रेजों की व्यापारिक कम्पनियों के केन्द्रों के रूप में बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता), मद्रास (चेन्नई), विशाखापट्टनम आदि का विकास नगरों के रूप में हुआ. भारत में आदिसभ्यता के प्रमाण भी प्रसिद्ध नदी सिंध की घाटी में मिले हैं, और हम उसको बड़े गर्व के साथ सिंधु घाटी सभ्यता कहते हैं. शहरीकरण की प्रवृत्ति के दो स्पष्ट परिणाम हुए—जीवन की सुख-सुविधाओं सम्बन्धी वस्तुओं की उपलब्धि तथा आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास. स्वतंत्रता के बाद उद्योगों आदि का विकास जिस तेजी के साथ हुआ है, उसी तेजी के साथ शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति अथवा शहरीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार, मनोरंजन से लेकर देश-यात्रा तक के लिए ग्रामीण जनता को नगरों की ओर देखना और भागना पड़ता है. 

भारत में शहरीकरण उद्योगीकरण से कम, आर्थिक विकास से अधिक जुड़ा हुआ है. हम देख सकते हैं कि आर्थिक विकास और नगरीकरण बहुत निकटता के साथ जुड़े हुए हैं. गाँवों से शहरों की ओर पलायन हमारे आर्थिक विकास का संकेतिक बन चुका है. गाँवों से नगरों/शहरों की ओर पलायन के पीछे सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के कारण हैं. चिकित्सा, शिक्षा रोजगार आदि की सुविधाएँ सकारात्मक कारण हैं. रोजगार न मिलना, आमदनी की समुचित व्यवस्था न होना, नकारात्मक कारण हैं. गाँवों में रोजगार का मुख्य साधन खेती है. प्रत्येक परिवार के पास खेती के लिए पर्याप्त जमीन नहीं होती है. खेती भी पूरे वर्ष व्यस्त नहीं रख पाती है. इस प्रकार खेती करने वाले लोगों को भी वर्ष में कई महीने खाली बैठना पड़ता है. इस समय में वे लोग नगरों की ओर आ जाते हैं और लोग मजदूरी करने, घरेलू काम करने, रिक्शा चलाने आदि जैसे काम करके रोजी-रोटी कमाते हैं. गाँवों में बड़े कार्यालयों एवं उद्योगों का अभाव रहता है. वहाँ जो छोटे-पूरे उद्योग धंधे होते हैं, उनमें तालाबंदी की स्थिति प्रायः हो जाती है और वे लोग बेकार हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में शहर की ओर पलायन करना सर्वथा स्वाभाविक हो जाता है. गाँवों में बिजली, पानी की व्यवस्था तो अपेक्षाकृत होती ही है, वहाँ सुरक्षा की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है. सुरक्षा की कमी के कारण न मालूम कितने गाँव खाली हो गए हैं ? जान-माल का खतरा गाँवों से पलायन का एक बहुत बड़ा कारण बन गया है. नगरों की जीवन-शैली ग्रामीणजन को अपनी ओर बराबर आकर्षित करती रहती है—विशेषकर शिक्षित युवा वर्ग को पढ़-लिखकर कोई भी लड़का-लड़की गाँव में नहीं रहना चाहता है. गाँव वाले स्वयं अपनी बेटियों को नगरों में ब्याहना चाहते हैं तथा लड़कों के लिए शहर की पढ़ी-लिखी बहुएँ चाहते हैं. इनके अलावा पारिवारिक कलह, जातीय तनाव, ऋण का भार, परम्परागत शत्रुता, युवक-युवतियों के मध्य चलने वाले प्रेमालाप आदि ऐसे कारण हैं जिनके कारण गाँवों से नगरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. 

नगरीकरण से उत्पन्न समस्याएँ 

नगरीकरण ने कई समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं. इनमें सर्वप्रथम समस्या है भूमि एवं आवास की कमी. इसी के साथ ज्यों-ज्यों नगरों का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों कृषि योग्य भूमि का संकुचन होता जाता है. बढ़ती हुई बस्तियों ने गंदे पानी को बाहर ले जाने की समस्या खड़ी कर दी है. आवास की समस्या के साथ आबादी का घनत्व बढ़ता है और उसके साथ सफाई की समस्या बढ़ती है, क्योंकि गंदगी बढ़ती है तथा पानी-बिजली की कमी होती जाती है. जितनी खपत होती है, उतना उत्पादन नहीं हो पाता है. 

शहरी जीवन की विलासिता एवं चमक-दमक व भाँति भाँति के शौक शृंगार की प्रवृत्ति को जन्म देते हैं. फलतः धनाभाव की स्थिति बनती है और यह तरह-तरह के अपराधों को जन्म देती है. राहजनी, लूटमार, चोरी, कालगर्ल, अपहरण आदि की बढ़ती हुई घटनाएँ इसी के परिणाम हैं. यह भी द्रष्टव्य है कि इन अपराधों को करने वाले युवक-युवतियाँ निम्न मध्यवर्ग से सम्बन्धित होते हैं. घनी आबादी एवं तज्जन्य गंदगी से अनेक रोग और महामारियाँ जन्म लेती हैं. 

नगरों में कूड़े कचरे तथा फैक्टरियों एवं वाहनों से निकलने वाले जहरीले धुएँ ने प्रदूषण की समस्या को जन्म दिया है. बिजली के अभाव में जनरेटर चलाए जाते हैं. इनके कारण ध्वनि एवं वायु प्रदूषण सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होती है. नगरों में मशीनों के बढ़ते प्रभाव के साथ मनुष्य भी स्वयं मशीन बनता जा रहा है. फलतः सामाजिक चेतना का अभाव होता जा रहा है और सामाजिक सम्बन्ध एवं मानवीय संवेदनाएँ गौण बनती जा रही हैं. इसने संयुक्त परिवार प्रणाली को समाप्त प्राय कर दिया है और परिवारों के बिखराव की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है. इसने नैतिक मूल्यों का भी ह्रास किया है. कहने का तात्पर्य यह है कि नगरीकरण और नागरिकता के मध्य तालमेल न रह सकने के कारण अनेक सामाजिक विसंगतियाँ उत्पन्न हो गई हैं. 

शहरों के अत्यधिक विस्तार के फलस्वरूप कतिपय शहरों और गाँवों की सीमाएँ एकदम निकट आ गई हैं. फल यह हुआ है कि नगरों की विसंगतियाँ गाँवों में भी पहुँच गई हैं. ग्रामीण जीवन में भी सामुदायिक भावना का क्षरण होता हुआ दिखाई देने लगा है. गाँवों में भी विलासिता के लक्षण प्रकट होने लगे हैं, गाँवों में नशीली दवाओं, ड्रग्स आदि का सेवन बढ़ता जा रहा है और वहाँ भी मानसिक रोग फैलने लगे हैं. 

विश्व स्तर पर अपने सर्वेक्षण में वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट ने कहा है कि, पर्यावरण छत्र टूटने के कगार पर है तथा निर्धनता रेखा निरन्तर लम्बी होती जा रही है. रिपोर्ट में गाँवों में बढ़ती हुई विलासप्रियता का उल्लेख करने के उपरान्त आगे कहा गया है कि “गाँवों की स्थिति में सुधार जरूरी है, जिससे पलायन रुक सके. कहा जाता है कि एशिया में जनसंख्या का शहरीकरण सबसे अधिक चीन में हुआ है, परन्तु भारत में शहरीकरण की गति को देखते हुए यह सरलता से कहा जा सकता है कि 21वीं शताब्दी के आरम्भ के कुछ वर्षों में भारत चीन को भी पीछे छोड़ देगा. एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि शहरों की ओर बढ़ती आबादी के कारण महानगरों में कूड़ा-कचरा समेटना तथा मल-व्ययन आदि की विकट समस्याएँ उत्पन्न होती जा रही हैं बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप पर्यावरण की स्थिति विशेष चिन्ता का विषय बन गया है. 

महानगरों की संख्या बहुत तेजी के साथ बढ़ी है. इसे सभ्यता के विकास का लक्षण माना जाता है. इस प्रकार हमारे सामने एक बहुत बड़ा विरोधाभास आता है. तीव्र गति से आर्थिक विकास हेतु हमें शहरीकरण को बढ़ावा देना चाहिए. दूसरी ओर हम शहरीकरण से उत्पन्न समस्याओं द्वारा संत्रस्त बने रहते हैं. इसके निराकरण हेतु दो उपाय हो सकते हैं नगरों का सुनियोजित विकास किया जाए अथवा गाँवों का शहरीकरण किया जाए-उनमें शहरी जीवन को स्थापित करने के लिए प्रयत्न किये जाएँ, दूसरे शब्दों में नगरों का ग्रामीणीकरण तथा गाँवों का नगरीकरण किया जाए. अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मत है कि नगरों की संख्या बढ़ाई जाए और साथ ही नगरों को एक सीमा विशेष के आगे न बढ़ने दिया जाए अर्थात् बड़े नगरों पर जनसंख्या के बढ़ते हुए दबाव को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँ.