Ghanananda's Biography, Compositions and Literary features Show जीवन परिचय - Biography वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै, लड़कीली बानि उर ते अरति है। वहै गति लैन, औ बजावनि ललित बैन, वहै छैलताई न छिनक बिसरति है। आनंदनिधान प्रान प्रीतम सुजान जू की, सुधि सब-भौतिन सो बेसुधि करती है।। घनानन्द के समय को लेकर भी विवाद है। शिव सिंह सरोज सेंगर के मत से घनानन्द का समय सम्वत् 1617 है। वे आनन्दघन नाम को मानकर यह समय निर्धारित करते हैं। जनश्रुति एवं विद्वानों के आधार पर यह कहा जाता है कि घनानंद जी का जन्म सम्वत् 1746 के आस पास हुआ था। कतिपय विद्वान इनका जन्म सम्वत् 1715, 1630, तथा 1683 मानते हैं। आज इनका जन्म सम्वत् 1746 सप्रमाण स्वीकार गया है, अन्य तीनों ही जन्म सम्वत् संदिग्ध हैं, आपका जन्म स्थान दिल्ली के आस पास हुआ था या दिल्ली में ही स्वीकारा जा सकता है। अधिकांश विद्वान इस मत के समर्थक हैं। कुछेक विद्वान इनके जन्म स्थान को वृन्दावन एवं बुलंद शहर के पास का मानते हैं। आपका जन्म भटनागर कायस्थ परिवार में हुआ, आपकी शिक्षा फारसी भाषा के द्वारा शुरू हुई थी, बचपन से ही आपकी रुचि विद्या अध्ययन की ओर विशेष थी। जनश्रुति के आधार पर आप अबुल फजल के शिष्य माने जाते हैं। इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा एवं बुद्धि से शीघ्र ही फारसी का अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया था। इसके बाद आप सम्राट मुहम्मदशाह ’रंगीले’के मीर मुंशी पद पर नियुक्त हो गए थे। आपने अपनी आकर्षक बुद्धि एवं प्रतिभा संपन्नता के निदान स्वरूप शीघ्र प्रोन्नति पा ली थी। और आप धीरे-धीरे सम्राट के ’खास कलम’ अर्थात् प्राइवेट सेक्रेटरी, हो गए। घनानंद की मृत्यु के बारे में विद्वानों के दो प्रकार के मत है। प्रथम मत के अनुसार नादिर शाह के आक्रमण के समय मथुरा में सैनिकों द्वारा घनानंद की मृत्यु हुई, किंतु इस मत का खंडन इस आधार पर हो जाता है कि नादिर शाह द्वारा किया गया क़त्ले आम दिल्ली में हुआ था न कि मथुरा में। दूसरे इस आक्रमण और घनानंद की मृत्यु के समय में ही अंतर है। द्वितीय मत ही अब मान्य है, वह यह की संवत् 1817 (सन् 1660 ई.) में अब्दुल शाह दुर्रानी ने जब दूसरी बार मथुरा में कत्लेआम किया था इसी में घनानंद की मृत्यु हुई। घनानंद का संयोग श्रृंगार वर्णन आनन्द के घन, लागें अचंभो पपीहा पुकार ते क्यों अर सेंये। प्रीति पगी अंखियानि दिखाय के हाय अनीत सु दीठ छिपैये।। क्यों हंसि हर्यो हियरा, अरुक्यौं हित के चित चाह बढ़ाई। काहे को बोलि सुधासने बँननि, चँननि मँन-निसन चढ़ाई।। सो सुध मोहिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूं कढ़ै न कढ़ाई। मीत सुजान अनीति की पाटी, इतै पै न जानियै कौने पढ़ाई।। घन आनन्द कौन अनोखी दसा कहा मो जिय की गति कौं परसै।। जिय नेकु बिचारि कै देहु बताय हहा पिय दूर ते याय गहौं। इन पंक्तियों से यह
प्रमाणित होता है कि घनानन्द का लौकिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम से श्रेष्ठ प्रतीत होता है। उनके प्रेम की स्थिति यह है कि व्यक्ति स्वच्छन्द प्रेम के रस में निमग्न रहते हैं जो अभीप्सित होता है वह गा उठते हैं। उनकी प्रेमानुभूति को निम्न प्रकार से विभक्त किया गया है। उनके प्रेम वर्णन की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं - क्यों हंसि हेरि हियरा अरू क्यों हित कै चित्त चाह बढ़ाई। वाहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन-निसैन चढ़ाई।। सो सुधि यो हिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूँ, कढै न कढाई। मीत सुजान अनीत की पाटी इतै पै न जानिये कौने पढाई।। निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति - लौकिक प्रेम विश्वास और निष्कपटता की मांग करता है। घनानंद ऐसे ही सच्चे प्रेमी थे। उनका प्रेम अपनी प्रेमिका के प्रति निश्चल और निष्कपट था। भले ही उनके प्रिय ने उनके साथ विश्वासघात किया, उन्हें दगा दी और उनका साथ नहीं दिया, किंतु वे एक निश्चल प्रेमी थे और प्रेम के पक्ष में निश्छलता एवं निष्कपटता को ही अत्यधिक महत्व देते थे। प्रेम की इसी निश्छलता को इस बहुत प्रसिद्ध पद में अभिव्यक्त करते हैं, इसमें प्रेम की सघन और मार्मिक परिभाषा प्रस्तुत की है। इस तरह की प्रेम की परिभाषा हिन्दी साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती है- अति सूधो सनेह कौ मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। तहाँ साँचे चलै तजि आपुनपो झिझके कपटी जे निसाँक नहीं।। घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ इत एक ते दूसरौ आक नहीं। तुम कौन धौ पाटी पढे़ हो लला मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।। घनानंद के प्रेम वर्णन में इस तरह आडम्बर हीनता एवं अकृत्रिमता इसलिए मिलती है क्योंकि वे स्वयं प्रेम के अनुभव में पके थे, विरह को उन्होंने झेला था। अन्य कवि सिर्फ कविता के लिए प्रेम का वर्णन करते हैं, जबकि घनानंद अपने जिये गए अनुभव को लिखते हैं। उनके प्रेम के बीच छल-कपट का तनिक भी स्थान नहीं था, क्योंकि घनानंद स्वाभाविक प्रेम के पुजारी थे, स्वच्छन्दता के भक्त थे और अपनी तरंग में आकर प्रेम का निरूपण करते थे। अपने इसी नैसर्गिक प्रेम की व्यंजना करते हुए तथा चन्द्रमा और चकोर के नैसर्गिक प्रेम को उदाहरण बताते हुए लिखते हैं- चहौ अनचाहौ जना प्यारे पै आनन्दघन, प्रीति-रीति विषम सु रोम-रोम रमी है। मोहिं तुम एक, तुम्हें मो सम अनेक आहिंकहा कछू चंदहिं चकोरन की कमी है।। घनानन्द का प्रेम कितना निश्छल था इसके लिए उनके काव्य में उदाहरणों की कमी नहीं है। वे प्रेम की गहराई को जितना अंदर महसूस करते थे, उतना ही काव्य में अभिव्यक्त करने में भी सक्षम थे। पीड़ा की अनुभूति - प्रेम के दीवानों के लिए विरह की पीड़ा सबसे महत्वपूर्ण होती है। घनानंद सच्चे प्रेम के दीवाने थे। उनका प्रिय अपने प्रेमी की चिंता न करके निष्ठुरता, कठोरता एवं निर्दयता का ही व्यापार कर रहा था, तो. घनानंद अपने निष्ठुर एवं निर्दय प्रिय के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए अपने को आशा की रस्सी से बांधकर भरोसे की शिला छाती पर रखकर अपने प्रेम रूपी सिन्धु में डूबने को तैयार थे, इसीलिए तो घनानंद लिखते हैं- आसा-गुन बांधि कै भरोसो-सिल धरि छाती, पूरे मन-सिन्धु में न बूढत सकाय हौं। दीह दुख-दव हिय जारि उर अंतर, निरंतर यों रोम-रोम त्रासनि नचाय हौं।। सौन्दर्य प्रियता - प्रेम के मूल में सौन्दर्य चेतना होती है, चाहे वह प्रकृति प्रेम हो या व्यक्ति प्रेम। किसी के प्रति आकर्षण का प्रथम कारण उसके सौंदर्य से प्रभावित होना होता है। घनानंद के प्रेम का मूल कारण भी सुजान का अनिन्द सौन्दर्य था, जो कवि घनानंद के रोम-रोम में बसा हुआ था, क्योंकि वे उसकी सहज सुकुमारता, स्वाभाविकता, मधुरता एवं प्राकृतिक सुंदरता को देखकर ही उसके सच्चे प्रेमी बने थे। इसलिए घनानंद के हृदय में प्रेयसी सुजान की 'तिरछी चितौनि' 'चंचल विशाल नैन', 'धूमरे कटाछि', 'रसीली हॅसी','बडी-बडी' अंखियां', 'चीकने चिहुर', 'जोबन-गरूर-गरूबाई', 'रस-रासि-निकाई', 'नवजोबन की सुथराई', 'नेह-ओपी-अरूनाई', आदि। इसी कारण उनके हृदय में प्रिय के सौन्दर्य का अथाह सागर हिलौरें लेता रहता था। उन्होंने अपने प्रिय सुजान के इसी अनिन्द सौन्दर्य का बखान अपने काव्य में किया है - स्याम घटा लिपही थिर बीज कि - सोहै अमाबस अंक उज्यारी। धूम के पुंज मैं ज्वाल की माल-सी पै दृग-सीतलता-सुखकारी।। के छाकि छायौ सिगांर निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी। कैसी फबी घन आनन्द चोपनि सों पहिरी चुनि साॅवरी सारी।। प्रिय के सौन्दर्य की उपासना संयोग पर ही आधारित है। घनानंद ने इसीलिए संयोग-सुख के आनंद से प्रफुल्लित रोम-रोम का तथा अंग-अंग से फूटते हुए हर्षोल्लास का सजीव चित्रण किया है- ललित उमंग बेली आलबाल अंतर ते, आनंद के घन सींचा रोम रोम हवे चढ़ी। आगम-उमाह-चाह छायी सु उछाइ रंग, अंग-अंग फूलनि दुकूलिन पैर कढी।। विरहाकुलता- घनानंद प्रेम की पीर के कवि कहे जाते हैं। उनके जीवन में प्रेमी के संयोग के क्षण बहुत कम हैं, विरह की आग में ही अधिक जले हैं। इसलिए उनके काव्य का मूल स्वर विरहानुभूति है। घनानंद के प्रेम में जहां संयोग का हर्षोल्लास परिलक्षित होता है, वहाँ विरह का अथाह सागर हिलोरें लेता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने प्रेम के संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग पक्ष का अधिक आतुरता, तल्लीनता एवं तीव्रता के साथ वर्णन किया है। सुजान का यह विरह घनानंद के लिए वरदान सिद्ध हुआ है और धनानंद ने भी अपनी विरहाकुलता का वर्णन करके सुजान एवं सुजान के प्रेम को अमर बना दिया है। इस प्रकार घनानंद का प्रेम स्थूल नहीं, अपितु सूक्ष्म है। उसमें अश्लीलता एवं कामवासना नहीं है, अपितु दिव्यता एवं पवित्रता है, क्योंकि घनानंद ने प्रेम के सभी पक्षों में शारीरिक सुख की अपेक्षा भावना द्वारा प्रिय का सानिध्य पाने की आकांक्षा प्रकट की है। इसी कारण घनानंद की प्रेमानुभूति अनिर्वचनीय है, वह प्रेमी की मूक पुकार है और पूर्णतया अनुभव गम्य है। घनानंद का वियोग वर्णन जगि सोवनि में लगिये रहे, चाह वहै गरराय उठै रतियां। भरि अंक निःसक हृै भेटन कौं, अभिलाख अनेक भरी छतियाँ। सलोनी स्याम-मुरति फिरै आगे। कटाछै बान से उर आन आन लागे।। मुकुट को लटक हिृय में आय हालै। चितवानी बंक जियरा बीच सालै।। घनानन्द के काव्य में विरह असीम हो गया है। इस दशा में विरहिणी कैसे अपने प्रियतम को पत्र लिख सकती है। ऐसी विरहिणी तो है नहीं जो आंसुअन की स्याही में डुबो-डुबो कर पत्र लिख डाले। वह अपनी विशेषता प्रगट करती है कि- लिखै कैसे पियारे प्रेम पाती, लगै अंसुअन भरी हृ हूंक छाती। विरहणी नायिका सोचती है कि इससे तो अच्छा होता कि नायक गुणवान न होता, कम से कम विरहाग्नि में वह उसे इस प्रकार याद आकर उसके हृदय को नोचता तो नहीं। पर क्या करे उसे याद आ ही जाती है अपने 'रावरे रूप की मोहिनी सूरत' उसके आकर्षण का कारण भी तो यही है। रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये। नायिका बेचारी रो रही है अपने प्रेमी के गुणों व रूप स्मृति में। उसकी मुश्किल यह है कि उसके प्रेमी का रूप उसकी आँखों से ओझल नहीं होता है- छवि को सदन, मोह मण्डित बदन चन्द तृषनि चखन लाल! कब धौं दिखाए हों। विरहिणी नायिका की निस्वार्थ प्रीति का उत्कर्ष यह है कि वह एक ओर तड़फ रही है, अपने प्रिय के लिए, परन्तु कोई बात नहीं, उसके मन से प्रिय के लिए दुआ ही निकलती है कि उसका प्रिय सुख व आनंद से रहे, उसे यही कामना है। प्रेम की इस त्याग की भावना कितनी उत्कृष्ट है, कि- धन आनन्द जीवन प्रान सुजान, तिहारि पै बातनि लोजियै जू। नित नीकै रहो चाटु कहाइ, असीम हमारियौ लीजिये जू।। वियोग श्रृंगार में इस तरह की त्याग की भावना को रीतिकाल के अन्य किसी कवि में इतने उत्कट रूप से नहीं देखा जा सकता है। उसे अपने प्रेमी के सम्मान का कितना ध्यान है, वह कृष्ण को ठगिया नहीं कहती और न उन्हें कुछ बुरा भला कहती है। विरह है तो घनानन्द की विरहिणी केवल आत्म-निवेदन करती है कि इतनी निष्ठुरता क्यों अपनाई है। पहलै अपनाय सुजान सनेह सैं, क्यों फिर तेह कै तोरिये।। घनानन्द के यहाँ विरहिणी की विचित्र दशा चित्रित की गई है- कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री, कूक कूकि अब ही करेजौ किन कोरिली। पैंडे परे पापी ये कलापी निस श्रोस ज्यों ही, चातक घातक त्योंहो तू ही कान फोरिलै। आनन्द के घन प्रान जीवन सुजान बिन, जानि कै अकेली सब घेरौ दल जोरि लै। जौलों कहै आवन विनोद वरसावन वे, तौलौं रे ठरारे वजमारे घन घोरिलै। श्री परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं-''घनानन्द ने विरह के महत्व को भली भांति समझा था इसलिए प्रेमी के विरहदग्धा हृदय तथा उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिर्वचनीय मानसिक व्यापारों का जैसा सुन्दर वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है वैसा बहुत कम कवि कर पाए हैं।'' वियोग वर्णन में कवि जिन तरीकों को अपनाया है, उनको जानना भी आवश्यक है और वह किस-किस तरह से अपने वियोग की भावना को अभिव्यक्त करता है। इसे भी देखा जाना चाहिए। रूपासक्ति की प्रधानता - प्रेम का मूलाधार रूपासक्ति ही होता है। यही बात वियोग में पीड़ा को घना कर देती है। घनानंद के उत्कट विरह का मूल कारण यह है कि उनकी 'अलबेली सुजान' अनिन्द सुन्दरी थी, उसमें उन्हें अलौकिक सौंदर्य के दर्शन हुए थे और वे उस सौंदर्य को नित्य देखते रहना चाहते थे। कारण यह था कि वह रूप नित्य नया-नया प्रतीत होता था और उस रूप पर उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, परन्तु दुर्भाग्य से वह रूप उनकी आंखों से ओझल हो गया, उन्हें फिर देखने को नहीं मिला और वे अपनी पागल रीझ (मोह.प्रेम) के हाथों बिककर रात-दिन वियोग की आग में जलते रहे- रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्याँ-ज्याँ निहारियै। त्यौं इन आंखिन बानि अनोखी अद्यानि कहूँ नहि आन तिहारियै।। एक ही जीव हुतो सु तौ वार्यौ सुजान सॅकोच और सोच सहारियै। रोकी रहे न, दहै घन आनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै।। घनानन्द के प्रेम में रूपलिप्सा का योग तो है परन्तु साहचर्य का उतना व्यापक-वर्णन जितना सूर के काव्य का है, उतना इनमें नहीं मिलता। कृष्ण की लीलाओं को उतना स्थान न दिया जितना कि सूर ने दिया है और न यौवन कालीन ऋीड़ाओं को ही महत्व दिया है। घनानन्द ने कृष्ण की रूप माधुरी का वर्णन किया है, उसी मार्मिकता तन्मयता व तल्लीनता के साथ जितना अन्य कृष्ण भक्त कवियों ने किया है, यथा- मोर चन्द्रिका सिर धरें, गरें, गुंज की माल। धातु चित्र कटि पीत पट, मोहन मदन गुपाल।। अति कामनीय किशोर बपु, गोपीनाथ उदार। कमल नैन ऋीड़ा निपुन, कान्हर गोप कुमार।। कमल केलि कीड़ा कुसल, कलानाथ रसवन्त। गोवरधन वासी सदा, गोप-कामिनी-कंत।। लहलहाति जीवन उदै, ब्रजमोहन अंग अंग। महारूप सागर उमगि, उठति अमोष तरंग। इसी प्रकार राधा के रूप सौंदर्य का वर्णन किया है। घनानन्द की गोपियां कृष्ण की एक रूपलिप्सा पर आकर्षित हैं तथा इनकी गोपियां भी मुरली की पावन-पंचम ध्वनि को सुनते ही फड़क उठती हैं। राधा का चारुतम रूप माधुरी भी कृष्ण अपनी ओर आकृष्ट करता है और राधा कृष्ण के प्रति 'सैन नैन' चलाती हैं। राधा का रूप वर्णन करते हुए कवि कहता है, यथा- लाजनि लपेटी चितवनि भेदभाव भरी, लसति ललित लोल चख तिरछीन में। छवि को सदन गोरो वदन, रूचिर माल, रस निरचुरत मीठी मृदु मुसक्यान में। दसन दमिक फैलि हियें मोती लाल होति, पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि में। आनग्द की निधि जगमगति छबीली बाल। अंग न श्रनंग-रंग ढुरि मुरजानि में । हृदय की मौन पुकार की अधिकता- घनानंद का विरह बौद्धिक नहीं है, वह उनके हृदय की सच्ची अनुभूति है और जहां विरह बौद्धिक होता है, वहां प्रदर्शन एवं आडम्बर का आधिक्य देखा जाता है, किंतु जहाँ हृदय की अनुभूति होती है वहां प्रदर्शन एवं आडम्बर कहाँ वहां तो हृदय की टीस, प्राणों की तडपन एवं आकुलता बाहर नहीं सुनाई पड़ती, क्योंकि हृदय बोल नहीं पाता, वह मौन रहकर हही धडकता रहता है। अंतर-आच उसास तचै अति, अंत उसीजै उदेग की आवस। ज्यौं कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हूँ कहूँ सुधरें नहीं थ्यावस।। प्रिय-जन्य निष्ठुरताः- घनानंद के विरह की तीव्रता एवं उत्कटता का मूल कारण यह है कि उनका प्रिय बड़ा कठोर है, निर्दय है, निष्ठुर है तथा विश्वासघाती है। उनको इसकी तनिक भी परवाह नहीं है, वह इनकी दुर्दशा देखकर तनिक भी नहीं पसीजता और अब उसने जान-पहचान भी मिटा डाली है। वह निष्ठुरता एवं कठोरता का व्यवहार करके अब रात-दिन जलाता रहता है। भए अति निठुर मिटाय पहिचानि डारी, याही दुख हमैं जक लागी हाय हाय है। तुम तो निपट निरदई गई भूमि सुधि, हमैं सूल-सेलनि सो क्यों हूँ न भुलाय है।। प्रेमगत
विषयताः- घनानंद के विरह में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एकांकी है, सम नहीं है, अपितु विषम है, क्योंकि जो तड़पन है, चीत्कार है, जलन है, धड़कन है वह एक ओर ही- केवल प्रेमिका ही हृदय अपने प्रिय (प्रेयसी सुजान) के विरह में रात-दिन तडपता रहता है। लेकिन उनके प्रिय के हृदय में विरह की तनिक भी आग नहीं है, तनिक भी चाह नहीं हैं परन्तु प्रेमी घनानंद को इसकी चिंता नहीं है कि उनका प्रिय उनके प्रति कैसे भाव रखता है, वे तो अपने प्रिय के अनन्य प्रेमी है और उनके रोम-रोम में प्रीति बसी हुई है। अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेक सयानप बाक नहीं। तहाॅ साॅचे चलै तजि आतुनपौ झॅझके कपटी जे निसाक नहीं।। अंग प्रत्यंग की आकुलताः-घनानंद के विरह में आँख,कान, हृदय, प्राण आदि अंग प्रत्यंगों की अत्यधिक आकुलता, बेचैनी एवं दयनीय स्थिति का चित्रण हुआ है। इसका कारण है, कि विरही घनानंद के सारे शरीर में विरह का विष फैला हुआ है, अंग प्रत्यंग में विरह की आग लगी हुई है, जिससे उनके प्राण नित्य दहकते रहते हैं, नेत्र मदमाते होकर आंसू बहाते रहते हैं। जिनकों नित नीकें निहारति ही आंखिया अब रोवति हैं। पल-पाॅवडे पायनि सौं अंसुबानि की धारनि धोवति हैं।। प्रकृति जन्य उद्दीपनः- घनानंद को विरह वेदना की तीव्र से तीव्रतम बनाने में प्रकृति का भी अत्यधिक हाथ रहा है। कारण यह कि प्रकृति के ये उपादान विरही के ऊपर कहर ढाने का काम करते हैं। कभी पुरवैया हवा चलकर, तो कभी बादल घिरकर, कभी बिजली चमकरक, तो कभी पुष्प अपनी सुगंध से, तो कभी कोकिला कूक कर, बिचारे विरही को रात-दिन सताते है- कारी कूर कोकिल! कहां कौ बैर काढति री, कूकि कूकि अबही करेजो किन कोरि ले। संदेश-प्रेषणीयताः-घनानंद के विरह में एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें विरही अपने विरह के संदेश को बडे अनूठे ढंग से अपने प्रिय के पास भेजती है। उसने इस दूत कार्य के लिए ऐसे धीर गंभीर विरही को चुना है, जो उसी की तरह विरह की आग को अपने हृदय में छिपाये हुए हैं, जो उसी की तरह प्रिय के वियोग में मदमत होकर धुमता रहता है, जो दूसरों के लिए ही अपना शरीर धारण किए हुए है और जो दूसरों के के लिए ही उत्पन्न होने के कारण परजन्य (बादल) कहलाता है। एसे धीर गंभीर सज्जन से दूत कार्य कराना सर्वथा उचित ही है, क्योंकि वह समुद्र के खाने पानी को भी अमृत तुल्य बना देता है और सबको जीवनदान देता है। पर काजहिं देह को धारि फिरों परजन्य जथारथ है दर सौ। नीधि-नीर सुधा के समान करौ सबही विधि सज्जनता सरसौ। घनआनन्द जीवन दायक है कुछ मेरीयों पीर हियै परसौ। कबहू वा विसासी सुजान के आगन मो असुवानि हुलै वरसौ।। सात्विकता एवं आध्यात्मिकता:-घनानंद के विरह में अंतिम और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें तनिक भी वासना की गंध नही है, कहीं भी अश्लीलता नही है, किसी भी स्थल पर कामुकता नहीं है और कोई भी उक्ति कामपरक नही है। यहां प्रत्येक पर में सात्विकता है, प्रत्येक पद प्रेम की पवित्रता है, प्रत्येक छंद में प्रेम की दिव्यता है और प्रत्येक उक्ति में काम-जन्य वासना से सर्वथा परे आध्यात्मिक वंदना की शुद्धता है। लहा छेह कहाधौं मचाय रहे ब्रजमोहन हौ उत नींद भरे हौ। मिली होति न भैंट दूरे उधरौ ठहरै ठहरानि क लाभ परे हौ।। घनाआंनद छाय रहौ नित हो हित प्यासनि चातक ज्ञात परे हौ।। घनानंद की विरहानुभूति में शुद्ध एवं सात्विक विरह की व्यंजना की हुई है, इसमें हृदय की गहराई अधिक है। अपनी यथार्थता, सात्विकता, पवित्रता एवं आध्यात्मिकता के कारण ही घनानंद की विरहानुभूति सर्वोत्कृष्ट है और अपनी इसी सात्विक विरह-भावना के कारण घनानंद हिन्दी के सर्वोत्कष्ट विरही कवि है। घनानंद का अनुभूति पक्ष या भावपक्ष जमुना तीर गांव राजनि। कहा कहौं गोकुल-छवि-छाजनि।। गोकुल -छवि आखिनि हीं भावै। रही न सकै रस न कछु गावै।। इसी तरह ब्रज के अन्य स्थानों का वर्णन करते हुए घनानंद ने सर्वाधिक वृन्दावन की मंजुल छवि का निरूपण किया है। वृन्दावन छवि कहत न आवै। सौ कैसे कहि कोऊ गावै।। तीर भूमि बनि रह्यौ सदावन। जै जमुना जै जै वृन्दावन।। इसी प्रकार घनानंद ने ब्रज के घर, गांव, गली, गलियारे, घाट, पनघट, गापे, गौप, ग्वाल - बाल, गाय, वृंदावन, बरसाना, गोवर्धन आदि का अत्यंत विस्तृत वर्णन किया है।प्रकृति चित्रण:- घनानंद ने प्रकृति के अत्यंत रमणीय चित्र अंकित किये हैं। वे सच्चे प्रकृति प्रेमी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था। इसलिए उन्होंने प्रकृति के अनेक सुन्दर एवं सजीव चित्र अंकित किये हैं। घुमड़ि पराग लता-तरु भोए। मधुरितु-सौंज-समोए।। वन बसंत वरनत मन फूल्यौ। लता-लता झूलनि संग झूल्यो।। प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा घनानंद ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण अधिक सरसता एवं मार्मिकता के साथ किया है, क्योंकि घनानंद का काव्य विरह प्रधान है और विरह में प्रकृति प्रायः विरही जानों के भावों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई जाती है। लहकि लहकि आवै ज्यौं पुरवाई पौन, दहकि दहकि त्यौं त्यौं तन तांवरे तवै। बहकि बहकि जात बदरा बिलोकें हियौ, गहकि गहकि गहबरनि गरै मचै। चहकि चहकि डारै चपला चखनि चाहैं, कैसे घन आनन्द सुजान बिन ज्यौं बचे। भाव निरूपण - घनानंद की कविता भावों का भंडार है, क्योंकि घनानंद ने ऐसे मार्मिक भावों का चित्रण किया है कि देखते ही बनता है और एक साधारण कवि जहां तक पहुँच नहीं सकता। धनानंद की इस भाव निरूपण पद्धति पर सर्वत्र उनके गहन प्रेम की छाप है इसी कारण उनके सभी भाव चित्र इतने मनोरंजक एवं आकर्षक बन पडे हैं कि पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय उन्हें पढ़कर एवं सुनकर आनंद के सागर में डुबकियां लगाने लगते हैं। नैन कहैं सुनि रे मन! कान दै क्यों इतनी गुन मोहि दयौ है। सुन्दर प्यारे सुजान कौ मंदिर बाबरे तू हम ही ते भयौ है।। लोभी तिन्हें तन कों न दिखावत ऐसो महामद छाकि गयौ है। कीजिए जू घन आनंद आय कै पायै परौ यह न्याय नयौ है।। इसी तरह घनानंद ने उपालम्भ के द्वारा 'स्मृति' का चित्र अंकित करते हुए आवेग, अमर्ष, उग्रता, ग्लानि आदि भावों का बड़ा ही मार्मिक निरूपण किया है- क्यों हंसि हेरि हर्यो हियरा अरू क्यों हित कै चित्त चाह बढाई। काहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन-निसैन चढाई।। सो सुधि मोहिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूॅ कढै न कढाई। मीत सुजान अनीत की पाटी इतै पै न जानियै कौने पढाई।। रस निरूपण -घनानंद ने मुख्यता संयोग श्रृंगार, वियोग श्रृंगार एवं भक्ति का निरूपण किया है। इसमें से भी घनानंद वियोग श्रृंगार के ही कवि है, वियोग के ही अद्वितीय चितेरे हैं। और इनके काव्य में वियोग श्रृंगार का ही पूर्ण परिपक्व अधिक मार्मिकता एवं सजीवता के साथ हुआ है। इसीलिए वे अपनी संजीवन-मूर्ति 'सुजान' के वियोग में रात-दिन व्यथित रहते हैं। सोने पर भी सो नहीं पाते, जागने पर भी जाग नहीं पाते, विचित्र सी पीड़ा नित्य आँखों में रह रहकर आती है, अमृत विष तुल्य प्रतित होता है। फूल शूल जैसे लगते हैं, चंद्रमा अंधकार उगलता जान पडता है, पानी संपूर्ण अंगों को जलाता है, राग-रागनियां अच्छी नहीं लगती गुण दोष में बदल गये हैं, औषधियां रोग पैदा करने वाली हो गयी हैं और रस विरस जान पड़ते हैं। इस तरह 'सुजान' के मान फेर लेने से दिन भी फिर गये है। और न जाने अब कैसे दिन बीतेंगें। घनानंद ने इस व्यथा एवं पीड़ा का मार्मिक निरूपण किया है। सुधा तें स्त्रवत विष, फूल में जगत सूल, तम उगिलत चंदा, भई नई रीति है। जल जारै अंग, और राग कर सुर भंग, संपति विपति पारै, बडी विपरीत है।। सहागुन गहै दोषैं, औषधि हूॅ रोग पोषै, ऐसे जान रस माहि बिरस अनीति है। दिनन को फेर मोहिं तुम मन फेरि डार्यो, एहो घनाआनंद! न जानौं कैसे बीति है।। सौंदर्य चित्रण - घनानंद ने रूप सौंदर्य के कितने ही अत्यंत मनोहारी चित्र अंकित किये है, जिनमें अपनी प्राणप्रिया सुजान' की विविध रूप छवियाॅ अत्यंत माधुर्य एवं गाम्भीर्य के साथ विद्यमान है। घनानंद ने इन रूप-चित्रों में आँख, नाक, कान, मुख, अंग-प्रत्यंग आदि को अलग-अलग दिखाने की उतनी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, जितनी कि उन्होंने संपूर्ण अंग की अतिशय रमणीयता एवं प्रभविष्णुता को दिखाने का प्रयास किया है। घनानंद के इन सौंदर्य-चित्रों में सुजान का रूप, उसका लावण्य, उसकी छवि, उसकी कान्ति, उसकी अंग-दीप्ति आदि मानों साकार हो उठी है- स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सोहै अमाावस-अंग उज्यारी। धूम के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग सीतलता-सुखकारी।। कै छवि छायौं सिंगार निहारि सुजान-तिया-तनं-दिपति प्यारी। कैसी फवी घन आनन्द चोपानि सौ पहिरी चुनि सांवरी सारी।। इसी प्रकार घनानंद ने अंग-अंग में द्युति की तरंग उठने वाले पार्थिव रूप-सौंदर्य को बड़ी तन्मयता एवं तत्परता के साथ शब्दों में डालकर अंकित किया है। घनानंद का अभिव्यक्ति पक्ष या कला पक्ष रैन दिना धुटिबौ करें प्रान झरैं अखियां झरना सो। प्रीतम की सुधि अन्तर मैं कसकै सखी ज्यौ पॅसरीन में गाॅसी।। छंद -काव्य का छंद से नित्य सम्बन्ध तो नहीं हैं क्योंकि बिना छंद-बंध के भी काव्य रचना होती है, किंतु छंद से काव्य में एक ऐसी प्रभविष्णुता आ जाती है, जिससे काव्य पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय में उतरता चला जाता है और उनका कंठ हार बन जाता है। घनानंद का सारा काव्य छंद की रस-माधुरी से ओत प्रोत है, उसमें प्राणों का संगीत भरा हुआ है। और वह कवि की हृदय-वीणा के तारों की मधुर झंकार से झंकृत है। घनानंद की छंद रचना पर विचार करने से ज्ञात होता है कि घनानंद ने विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। जैसे-सवैया, कवित्त, त्रिलोकी, ताटंक, निसाती, सुमेरू, शोभन, त्रिभंगी, दोहा, चौपाई तथा घनाक्षरी पद। इनमें से घनानंद ने मुख्यतया सवैया एवं कवित्त छन्दों का प्रयोग अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया है। घनानंद के सर्वथा तो हिन्दी जगत में सर्वाधिक प्रसिद्ध है और उन्हें सर्वथा छंद का सिरताज कहना सवैया समीचीन ज्ञात होता है। इस प्रकार घनानंद की कविता विविध प्रकार के कलात्मक सौंदर्य से ओत प्रोत है उसमें जितनी अनुभूति है, उतनी ही गहन अभिव्यक्ति भी है। रीतिमुक्त स्वच्छंद काव्यधारा में घनानंद का
स्थान घनानंद की
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घनानंद की प्रेम वर्णन की विशेषता क्या है?घनानंद का संयोग श्रृंगार वर्णन
इनकी प्रेम व्यंजना में इतनी आकुलता, इतनी व्यथा एवं इतनी पीड़ा है कि कठोर से कठोर श्रोता एवं पाठक भी द्रवित हो जाते हैं और उसमें संयोग-सुख की इतनी मादकता एवं उल्लास भावना भी भरी हुई है कि सहृद्यों को आनंद विभोर कर देती है। इनकी प्रेमानुभूति में आत्मानुभूति का सर्वाधिक योग है।
Q 5 घनानंद के प्रेम वर्णन की विशिष्टता क्या है?घनानंद प्रेम के मार्ग को अत्यंत सरल बताते हैं, इन में कहीं भी वक्रता नहीं है। अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बांक नहीं। कवि अपनी प्रिया को अत्यधिक चतुराई दिखाने के लिए उलाहना भी देता है। तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहूं पै देहूं छटांक नहीं।
प्रेम का कौन सा स्वरूप घनानंद के काव्य में मिलता है?घनानन्द की प्रेम-व्यंजना, विशुद्ध प्रेम के कवि हैं।, वियोग श्रृंगार के प्रधान कवि हैं।
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