सवाल यह है कि हम ईमानदारी से बेईमानी की तरफ कैसे खिंचे चले आते हैं? समाज बेईमानी को एक बड़ी बुराई के रूप में देखता है, इसके बावजूद समाज के एक बड़े हिस्से का झुकाव बेईमानी की तरफ रहता है।हमारे समाज में अक्सर ईमानदारी और बेईमानी को लेकर चर्चाएं होती रहती हैं। बेईमान व्यक्ति भी आखिरी दम तक स्वयं को ईमानदार साबित करने की कोशिश करता है। जब हम दूसरों का हक छीनने की कोशिश करते हैं तो हमारे अंदर बेईमानी के अंकुर अपने आप पैदा हो जाते हैं। पैसे के पीछे पागल होना ही ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार होता है। वास्तविकता यह है कि अभावग्रस्त लोग पैसे के पीछे नहीं भागते। वे अपनी न्यूनतम जरूरतों के लिए संघर्ष करते हुए सिर्फ इतना कमाना चाहते हैं कि जिससे समय-समय पर उनकी जिंदगी के सभी कार्य पूर्ण होते रहें। हो सकता है कि उनमें ज्यादा पैसा कमाने की थोड़ी-बहुत चाह होती हो लेकिन उनकी इस चाहत में एक सकारात्मकता होती है। सकारात्मकता यह कि वे ज्यादा पैसा इसलिए कमाना चाहते हैं कि उनकी जिंदगी में भी सुख-सुविधाओं को कुछ स्थान मिल जाए। हालांकि संघर्ष करते हुए आम आदमी की यह चाहत बहुत कम पूरी होती है। दरअसल जिन लोगों के पास सब कुछ है, वे ही पैसे के पीछे पागलों की तरह भागते हैं। वे बहुत ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं। उनकी इस चाहत में एक नकारात्मकता होती है। नकारात्मकता यह कि वे इतना पैसा कमाने चाहते हैं कि जितना और किसी के पास न हो। इतना पैसा कमाने के चक्कर में वे दूसरों का हक मारने या दूसरों की संपत्ति कब्जाने से भी परहेज नहीं करते हैं। सवाल यह है कि हम ईमानदारी से बेईमानी की तरफ कैसे खिंचे चले आते हैं? समाज बेईमानी को एक बड़ी बुराई के रूप में
देखता है, इसके बावजूद समाज के एक बड़े हिस्से का झुकाव बेईमानी की तरफ रहता है। बेईमानी का गरीबी और अमीरी से कोई लेना-देना नहीं है। हां, यह जरूर है कि हम गरीबों में बेईमानी ढूंढने लगते हैं लेकिन अमीरों की बेईमानी हमें दिखाई नहीं देती है। हम दूसरों की आर्थिक स्थिति पर ज्यादा ध्यान देते हैं। अपनी स्थिति से असंतुष्टि ही हमें बेईमानी की तरफ धकेलती है। गरीब लोग अमीर बनने के चक्कर में और अमीर लोग अधिक अमीर बनने के चक्कर में छोटा रास्ता पकड़ते हुए धड़ाधड़ सब कुछ पा लेना चाहते हैं। छोटे रास्ते का अंकुर ही भविष्य में बेईमानी का पौधा बन जाता है। चाहे गाँवों में जमीन-जायदाद के विवाद हों या फिर शहरों में लोगों का अपने पड़ोसियों से छोटी-छोटी बातों पर होने वाले झगड़े हों, सभी जगह हम दूसरों का हक छीनना चाहते हैं। इस सारे माहौल में अच्छी बात यह है कि समाज की मूल भावना ईमानदारी के साथ है। आज स्वयं गलत काम करने वाला कोई पिता अपने बच्चों को बेईमानी की शिक्षा नहीं देता है। इस सच्चाई के बावजूद हमारे मन में बेईमानी और ईमानदारी को लेकर अंतर्द्वंद्व चलता रहता है। हमें यह मानना होगा कि ईमानदारी की वजह से ही देश और दुनिया में बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है। ईमानदारी की वजह से ही यह दुनिया चल रही है। भविष्य में हम कैसी दुनिया चाहेंगे, यह हमें ही तय करना है। वह गद्यांश जिसका अध्ययन हिंदी की पाठ्यपुस्तक में नहीं किया गया है अपठित गद्यांश कहलाता है। परीक्षा में इन गद्यांशों से विद्यार्थी की भावग्रहण क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है। अपठित गद्यांश को हल करने संबंधी आवश्यक बिंदु ( गत वर्षों में पूछे गए प्रश्न ) निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए 1. संवाद में दोनों पक्ष बोलें यह आवश्यक नहीं। प्रायः एक व्यक्ति की संवाद में मौन भागीदारी अधिक लाभकर होती है। यह स्थिति संवादहीनता से भिन्न है। मन से हारे दुखी व्यक्ति के लिए दूसरा पक्ष अच्छे वक्ता के रूप में नहीं अच्छे श्रोता के रूप
में अधिक लाभकर होता है। बोलने वाले के हावभाव और उसका सलीका, उसकी प्रकृति और सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को पल भर में बता देते हैं। संवाद से संबंध बेहतर भी होते हैं और अशिष्ट संवाद संबंध बिगाड़ने का कारण भी बनता है। बात करने से बड़े-बड़े मसले, अंतर्राष्ट्रीय समस्याएँ तक हल हो जाती हैं। पर संवाद की सबसे बड़ी शर्त है एक-दूसरे की बातें पूरे मनोयोग से, संपूर्ण धैर्य से सुनी जाएँ। श्रोता उन्हें कान से सुनें और मन से अनुभव करें तभी उनका लाभ है, तभी समस्याएँ सुलझने की संभावना बढ़ती है और कम-से-कम
यह समझ में आता है कि अगले के मन की परतों के भीतर है क्या? सच तो यह है कि सुनना एक कौशल है जिसमें हम प्रायः अकुशल होते हैं। दूसरे की बात काटने के लिए, उसे समाधान सुझाने के लिए हम उतावले होते हैं और यह उतावलापन संवाद की आत्मा तक हमें पहुँचने नहीं देता। हम तो बस अपना झंडा गाड़ना चाहते हैं। तब दूसरे पक्ष को झुंझलाहट होती है। वह सोचता है व्यर्थ ही इसके सामने मुँह खोला। रहीम ने ठीक ही कहा था-“सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय।” ध्यान और धैर्य से सुनना पवित्र आध्यात्मिक कार्य है और संवाद की
सफलता का मूल मंत्र है। लोग तो पेड़-पौधों से, नदी-पर्वतों से, पशु-पक्षियों तक से संवाद करते हैं। राम ने इन सबसे पूछा था क्या आपने सीता को देखा?’ और उन्हें एक पक्षी ने ही पहली सूचना दी थी। इसलिए संवाद की अनंत संभावनाओं को समझा जाना चाहिए। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 2. जब समाचार-पत्रों में सर्वसाधारण के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है तो उसको विज्ञापन कहते हैं। यह सूचना
नौकरियों से संबंधित हो सकती है, खाली मकान को किराये पर उठाने के संबंध में हो सकती है या किसी औषधि के प्रचार से संबंधित हो सकती है। कुछ लोग विज्ञापन के आलोचक हैं। वे इसे निरर्थक मानते हैं। उनका मानना है कि यदि कोई वस्तु यथार्थ रूप में अच्छी है तो वह बिना किसी विज्ञापन के ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाएगी जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन की सहायता पाकर भी भंडाफोड़ होने पर बहुत दिनों तक टिक नहीं पाएँगी, परंतु लोगों कि यह सोच ग़लत है। आज के युग में मानव का प्रचार-प्रसार का दायरा व्यापक हो चुका है।
अत: विज्ञापनों का होना अनिवार्य हो जाता है। किसी अच्छी वस्तु की वास्तविकता से परिचय पाना आज के विशाल संसार में विज्ञापन के बिना नितांत असंभव है। विज्ञापन ही वह शक्तिशाली माध्यम है जो हमारी ज़रूरत की वस्तुएँ प्रस्तुत करता है, उनकी माँग बढ़ाता है और अंततः हम उन्हें जुटाने चल पड़ते हैं। यदि कोई व्यक्ति या कंपनी किसी वस्तु का निर्माण करती है, उसे उत्पादक कहा जाता है। उन वस्तुओं और सेवाओं को ख़रीदने वाला उपभोक्ता कहलाता है। इन दोनों को जोड़ने का कार्य विज्ञापन करता है। वह उत्पादक को उपभोक्ता के
संपर्क में लाता है तथा माँग और पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न करता है। पुराने ज़माने में किसी वस्तु की अच्छाई का विज्ञापन मौखिक तरीके से होता था। काबुल का मेवा, कश्मीर की ज़री का काम, दक्षिण भारत के मसाले आदि वस्तुओं की प्रसिद्धि मौखिक रूप से होती थी। उस समय आवश्यकता भी कम होती थी तथा लोग किसी वस्तु के अभाव की तीव्रता का अनुभव नहीं करते थे। आज समय तेज़ी का है। संचार-क्रांति ने जिंदगी को गति दे दी है। मनुष्य की. आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं। इसलिए विज्ञापन मानव-जीवन की अनिवार्यता बन गया
है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 3. राष्ट्र केवल ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत होती है जो हमें अपने पूर्वजों से परंपरा के रूप में प्राप्त होती है। जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी पराधीनता व्यक्ति की
परतंत्रता की पहली सीढ़ी होती है। ऐसे ही स्वतंत्र राष्ट्र की सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्ति का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता तथा विकास के लिए काम करने की भावना राष्ट्रीयता कहलाती है। जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म, जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश को प्राथमिकता, भले ही हमें ‘स्व’ को मिटाना पड़े। महात्मा गांधी,
तिलक, सुभाषचन्द्र बोस आदि के कार्यों से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े किंतु वे अपने निश्चय में अटल रहे। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए पारस्परिक सभी सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ राष्ट्रीय कही जा सकती हैं। जब-जब भारत में फूट पड़ी, तब-तब विदेशियों ने शासन किया। चाहे जातिगत भेदभाव हो या भाषागत-तीसरा व्यक्ति उससे लाभ उठाने का अवश्य यत्न करेगा। आज देश में अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। कहीं भाषा को
लेकर संघर्ष हो रहा है तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर लोगों को निकाला जा रहा है जिसका परिणाम हमारे सामने है। आदमी अपने अहं में सिमटता जा रहा है। फलस्वरूप राष्ट्रीय बोध का अभाव परिलक्षित हो रहा है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 4. भारत प्राचीनतम संस्कृति का देश है। यहाँ दान पुण्य को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। जब दान देने को धार्मिक कृत्य मान लिया गया तो निश्चित तौर पर दान लेने वाले भी होंगे। हमारे समाज में भिक्षावृत्ति की ज़िम्मेदारी समाज के धर्मात्मा, दयालु व सज्जन लोगों की है। भारतीय समाज में दान लेना व दान देना-दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। कुछ भिखारी खानदानी होते हैं
क्योंकि पुश्तों से उनके पूर्वज धर्म स्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं। कुछ भिखारी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं जो देश में छोटी-सी विपत्ति आ जाने पर भीख का कटोरा लेकर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं। इसके अलावा अनेक श्रेणी के और भी भिखारी होते हैं। कुछ भिखारी परिस्थिति से बनते हैं तो कुछ बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भी। इस व्यवसाय में आ गए हैं। जन्मजात भिखारी अपने स्थान निश्चित रखते हैं। कुछ भिखारी अपनी आमदनी वाली जगह दूसरे भिखारी को किराए पर देते हैं। आधुनिकता के कारण अनेक वृद्ध मज़बूरीवश भिखारी
बनते हैं। गरीबी के कारण बेसहारा लोग भीख माँगने लगते हैं। काम न मिलना भी भिक्षावृत्ति को जन्म देता है। कुछ अपराधी बच्चों को उठा ले जाते हैं तथा उनसे भीख मँगवाते हैं। वे इतने हैवान हैं कि भीख माँगने के लिए बच्चों का अंग-भंग भी कर देते हैं। भारत में भिक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में थे। इंद्र ने कर्ण से अर्जुन की रक्षा के लिए उनके कवच व कुंडल ही भीख में माँग लिए। विष्णु ने वामन अवतार लेकर भीख माँगी। धर्मशास्त्रों ने दान की महिमा का बढ़ा-चढ़ाकर
वर्णन किया जिसके कारण भिक्षावृत्ति को भी धार्मिक मान्यता मिल गई। पूजा-स्थल, तीर्थ, रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, गली-मुहल्ले आदि हर जगह भिखारी दिखाई देते हैं। इस कार्य में हर आयु का व्यक्ति शामिल है। साल-दो साल के दुध मुँहे बच्चे से लेकर अस्सी-नब्बे वर्ष के बूढ़े तक को भीख माँगते देखा जा सकता है। भीख माँगना भी एक कला है, जो अभ्यास या सूक्ष्म निरीक्षण से सीखी जा सकती है। अपराधी बाकायदा इस काम की ट्रेनिंग देते हैं। भीख रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर भी माँगी जाती है। भीख माँगने के लिए इतना
आवश्यक है कि दाता के मन में करुणा जगे। अपंगता, कुरूपता, अशक्तता, वृद्धावस्था आदि देखकर दाता करुणामय होकर परंपरानिर्वाह कर पुण्य प्राप्त करता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 5. सभी मनुष्य स्वभाव से ही साहित्य-स्रष्टा नहीं होते, पर साहित्य-प्रेमी होते हैं। मनुष्य का स्वभाव ही है सुंदर देखने का। घी का लड्डू टेढ़ा भी मीठा ही होता है, पर मनुष्य गोल बनाकर उसे सुंदर कर लेता है। मूर्ख-से-मूर्ख हलवाई के यहाँ भी गोल लड्डू ही प्राप्त होता है; लेकिन सुंदरता को सदा-सर्वदा तलाश करने की शक्ति साधना के द्वारा प्राप्त होती है। उच्छृखलता और सौंदर्य-बोध में अंतर है। बिगड़े दिमाग का युवक परायी बहू-बेटियों के घूरने को भी सौंदर्य-प्रेम कहा करता
है, हालाँकि यह संसार की सर्वाधिक असुंदर बात है। जैसा कि पहले ही बताया गया है, सुंदरता सामंजस्य में होती है और सामंजस्य का अर्थ होता है, किसी चीज़ का बहुत अधिक और किसी का बहुत कम न होना। इसमें संयम की बड़ी ज़रूरत है। इसलिए सौंदर्य-प्रेम में संयम होता है, उच्छृखलता नहीं। इस विषय में भी साहित्य ही हमारा मार्ग-दर्शक हो सकता है। जो आदमी दूसरों के भावों का आदर करना नहीं जानता उसे दूसरे से भी सद्भावना की आशा नहीं करनी चाहिए। मनुष्य कुछ ऐसी जटिलताओं में आ फँसा है कि उसके भावों को ठीक-ठीक पहचानना
हर समय सुकर नहीं होता। ऐसी अवस्था में हमें मनीषियों के चिंतन का सहारा लेना पड़ता है। इस दिशा में साहित्य के अलावा दूसरा उपाय नहीं है। मनुष्य की सर्वोत्तम कृति साहित्य है और उसे मनुष्य पद का अधिकारी बने रहने के लिए साहित्य ही एकमात्र सहारा है। यहाँ साहित्य से हमारा मतलब उसकी सब तरह ही सात्त्विक चिंतन-धारा से है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 6. बड़ी कठिन समस्या है। झूठी बातों को सुनकर चुप हो कर रहना ही भले आदमी की चाल है, परंतु इस स्वार्थ और लिप्सा के जगत में जिन लोगों ने करोड़ों के जीवन-मरण का भार कंधे पर लिया है वे उपेक्षा भी नहीं कर सकते। ज़रा सी गफलत हुई कि सारे संसार में आपके विरुद्ध ज़हरीला वातावरण तैयार हो जाएगा। आधुनिक युग का यह एक बड़ा भारी अभिशाप है कि गलत बातें बड़ी तेजी से फैल जाती हैं। समाचारों के शीघ्र आदान-प्रदान के साधन इस युग में बड़े प्रबल हैं, जबकि धैर्य और शांति से मनुष्य की भलाई के लिए सोचने के साधन अब भी बहुत दुर्बल हैं। सो, जहाँ हमें चुप होना चाहिए, वहाँ चुप रह जाना खतरनाक हो गया है। हमारा सारा साहित्य नीति और सच्चाई का साहित्य है। भारतवर्ष की आत्मा कभी दंगा-फसाद और टंटे को पसंद नहीं करती परंतु इतनी तेज़ी से कूटनीति और मिथ्या का चक्र चलाया जा रहा है कि हम चुप नहीं बैठ सकते। अगर लाखों-करोड़ों की हत्या से बचना है तो हमें टंटे में पड़ना ही होगा। हम किसी को मारना नहीं चाहते पर कोई हम पर अन्याय से टूट पड़े तो हमें ज़रूर कुछ करना पड़ेगा। हमारे अंदर हया है और अन्याय करके पछताने की जो आदत है उसे कोई हमारी दुर्बलता समझे और हमें सारी दुनिया के सामने बदनाम करे यह हमसे नहीं सहा जाएगा। सहा जाना भी नहीं चाहिए। सो, हालत यह है कि हम सच्चाई और भद्रता पर दृढ़ रहते हैं और ओछे वाद-विवाद और दंगे-फसादों में नहीं पड़ते। राजनीति कोई अजपा-जाप तो है नहीं। यह स्वार्थों का संघर्ष है। करोड़ों मनुष्यों की इज्जत और जीवन-मरण का भार जिन्होंने उठाया है वे समाधि नहीं लगा सकते। उन्हें स्वार्थों के संघर्ष में पड़ना ही पड़ेगा और फिर भी हमें स्वार्थी नहीं बनना है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 7. विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिसकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है चूँकि जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो तब पहला प्रश्न यह उठता है कि उपभोक ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या है? सामान्यतः उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह को उपभोक्ता कहा जाता है जो सीधे तौर पर किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में शोषण का शिकार अवश्य होते हैं। हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल अशक्त लोगों की भीड है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी भी अन्य तरह से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देशों की समाजोपायोगी उर्ध्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं, जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों, नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है। उपभोक्ता शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तुएँ एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, वकील सभी आते हैं। इन सबने शोषण के क्षेत्र में जो कीर्तिमान बनाए हैं वे वास्तव में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज कराने लायक हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 8. लोकतंत्र के तीनों पायों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का अपना-अपना महत्त्व है, किंतु जब प्रथम दो अपने मार्ग या उद्देश्य के प्रति शिथिल होती हैं या संविधान के दिशा-निर्देशों की अवहेलना होती है, तो न्यायपालिका का विशेष महत्त्व हो जाता है। न्यायपालिका ही है जो हमें आईना दिखाती है, किंतु आईना तभी उपयोगी होता है, जब उसमें दिखाई देने वाले चेहरे की विद्रूपता को सुधारने का प्रयास हो। सर्वोच्च न्यायालय के अनेक जनहितकारी निर्णयों को कुछ लोगों ने न्यायपालिका की अतिसक्रियता माना, पर जनता को लगा कि न्यायालय सही है। राजनीतिक चश्मे से देखने पर भ्रम की स्थिति हो सकती है। प्रश्न यह है कि जब संविधान की सत्ता सर्वोपरि है, तो उसके अनुपालन में शिथिलता क्यों होती है। राजनीतिक-दलगत स्वार्थ या निजी हित आड़े आ जाता है और यही भ्रष्टाचार को जन्म देता है। हम कसमें खाते हैं जनकल्याण की और कदम उठाते हैं आत्मकल्याण के। ऐसे तत्वों से देश को, समाज को सदा खतरा रहेगा। अतः जब कभी कोई न्यायालय ऐसे फैसले देता है, जो समाज कल्याण के हों और राजनीतिक ठेकेदारों को उनकी औकात बताते हों, तो जनता को उसमें आशा की किरण दिखाई देती है। अन्यथा तो वह अंधकार में जीने को विवश है ही। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 9 बड़ी चीजें संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने पिता के दुश्मन को परास्त कर दिया था, जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे, मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से पैदा होते हैं। जिंदगी की दो ही सूरतें हैं। एक तो आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली या जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाए-दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए, जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं, जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज़ सुनाई देती है। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी जिंदगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है? अगर रास्ता आगे ही निकल रहा हो, तो फिर असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है। साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 10. जो अनगढ़ है, जिसमें कोई आकृति नहीं, ऐसे पत्थरों से जीवन को आकृति प्रदान करना, उसमें कलात्मक संवेदना जगाना और प्राण-प्रतिष्ठा करना ही संस्कृति है। वस्तुतः संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से मनुष्य प्राप्त करता है। संस्कृति का संबंध मुख्यतः मनुष्य की बुद्धि एवं स्वभाव आदि मनोवृत्तियों से है। संक्षेप में सांस्कृतिक विशेषताएँ मनुष्य की मनोवृत्तियों से संबंधित हैं और इन विशेषताओं का अनिवार्य संबंध जीवन के मल्यों से होता है। ये विशेषताएँ या तो स्वयं में मूल्यवान होती हैं अथवा मूल्यों के उत्पादन का साधन। प्रायः व्यक्तित्व में विशेषताएँ साध्य एवं साधन दोनों ही रूपों में अर्थपूर्ण समझी जाती हैं। वस्तुतः संस्कृति सामूहिक उल्लास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। संस्कृति व्यक्ति की नहीं, समष्टि की अभिव्यक्ति है। डॉ० संपूर्णानंद ने कहा है-“संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं, जिसमें कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं पर दृष्टि निक्षेप करता है” संक्षेप में वह समुदाय की चेतना बनकर प्रकाशमान होती है। यही चेतना प्राणों की प्रेरणा है और यही भावना प्रेम में प्रदीप्त हो उठती है। यह प्रेम संस्कृति का तेजस तत्व है, जो चारों ओर परिलक्षित होता है। प्रेम वह तत्व है, जो संस्कृति के केंद्र में स्थित है। इसी प्रेम से श्रद्धा उत्पन्न होती है, समर्पण जन्म लेता है और जीवन भी सार्थक लगता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 11 मृत्युंजय और संघमित्र की मित्रता पाटलिपुत्र के जन-जन की जानी बात थी। मृत्युंजय जन-जन दवारा ‘धन्वंतरि’ की उपाधि से विभूषित वैद्य थे और संघमित्र समस्त उपाधियों से विमुक्त ‘भिक्षु’। मृत्युंजय चरक और सुश्रुत को समर्पित थे, तो संघमित्र बुद्ध के संघ और धर्म को। प्रथम का जीवन की संपन्नता और दीर्घायुष्य में विश्वास था तो द्वितीय का जीवन के निराकरण और निर्वाण में। दोनों ही दो विपरीत तटों के समान थे, फिर भी उनके मध्य बहने वाली स्नेह-सरिता उन्हें अभिन्न बनाए रखती थी। यह आश्चर्य है, जीवन के उपासक वैद्यराज को उस निर्वाण के लोभी के बिना चैन ही नहीं था, पर यह परम आश्चर्य था कि समस्त रोगों को मलों की तरह त्यागने में विश्वास रखने वाला भिक्षु भी वैद्यराज के मोह में फँस अपने निर्वाण को कठिन से कठिनतर बना रहा था। वैद्यराज अपनी वार्ता में संघमित्र से कहते–निर्वाण (मोक्ष) का अर्थ है-आत्मा की मृत्यु पर विजय। संघमित्र हँसकर कहते-देह द्वारा मृत्यु पर विजय मोक्ष नहीं है। देह तो अपने आप में व्याधि है। तुम देह की व्याधियों को दूर करके कष्टों से छुटकारा नहीं दिलाते, बल्कि कष्टों के लिए अधिक सुयोग जुटाते हो। देह व्याधि से मुक्ति तो भगवान की शरण में है। वैद्यराज ने कहा-मैं तो देह को भगवान के समीप जीते ही बने रहने का माध्यम मानता हूँ। पर दृष्टियों का यह विरोध उनकी मित्रता के मार्ग में कभी बाधक नहीं हुआ। दोनों अपने कोमल हास और मोहक स्वर से अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करते रहते। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 12. वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं औद्योगिक प्रगति के पूर्व के मनोरंजन एवं आज के युग में उपलब्ध मनोरंजन में तथा इससे संबंधित हमारी आवश्यकताओं एवं अभिरुचि में बहुत अधिक अंतर आ गया है। पहले मनोरंजन का उद्देश्य मात्र मनोरंजन होता था और यह प्रक्रिया धार्मिक एवं सामाजिक भावों से संलग्न थी। ऐसा मनोरंजन व्यक्तित्व के गठन एवं स्वस्थ दृष्टिकोण के उन्नयन में सहायक होता था किंतु आज इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ‘अर्थप्राप्ति’ हो गया है। संभवतः इसी कारण मनोरंजन का स्वरूप पूर्णतः बदल गया है। आधुनिक परिवेश में मनोरंजन का जो भी रूप उपलब्ध है, वह हमारे व्यक्तित्व के गठन पर कुठाराघात करता है, आदर्शों को झुठलाता है, अस्वस्थ अभिरुचि एवं दृष्टिकोण को प्रोत्साहन देता है या जीवन के सब्जबाग दिखाता है जो जीने योग्य नहीं है। यह रूप व्यक्ति, समाज और विशेषकर हमारी भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है। मनोरंजन से संबद्ध विभिन्न संस्थाएँ–अभद्र सिनेमा नृत्यशालाएँ, फ़ैशन परेड आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति एवं समाज के जीवन को विकृत कर रहे हैं। बड़े-बड़े नगरों की नृत्यशालाओं एवं नाइट क्लबों में मनोरंजन के नाम पर जो गतिविधियाँ संपन्न होती हैं वे तथाकथित आधुनिक एवं प्रगतिशील विचारधारा से भले ही समर्थित हों, किंतु स्वस्थ भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार तो वे पश्चिमी देशों की अंधी नकल ही हैं। इनके समर्थक यह भूल जाते हैं कि उनका मानसिक गठन, संस्कार, रीति-रिवाज तथा जीवन-पद्धति पश्चिमी देशों से एकदम भिन्न है। इस प्रकार देश में मनोरंजन के नाम पर जो भी भौंडापन उपलब्ध है-वह विघटन का स्रोत है, विकारों का जनक है एवं क्षयग्रस्त जीवन का पर्याय है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 13. भविष्य की दुनिया पर ज्ञान और ज्ञानवानों का अधिकार होगा। इसलिए शैक्षिक नीतियों को उन मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तनों का अभिन्न अंग होना चाहिए जिनके बिना नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था सपना मात्र रह जाएगी। इसका लक्ष्य उन भाग्यवादी विचारों का सफाया होना चाहिए जो यह प्रचारित करते हैं कि निर्धनता प्रकृति की देन है और यह कि अभावग्रस्त लोगों को उसी तरह निर्धनता को सहना चाहिए जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं को। उन लोगों की बदधि ठीक करनी चाहिए जो निर्धनता की खोखली आध्यात्मिकता में आत्मतोष ढूँढ़ते हैं और उनको भी जो समृद्धि को उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन का अर्थ और उद्देश्य देखते हैं। नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के निर्माण में शिक्षा को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। जब तक इन भविष्यवादी प्रतिमानों की इस भयंकर सीमा को दूर नहीं किया जाता, दुनिया दो नहीं, तीन भागों में बँटकर रह जाएगी जिसकी ओर यूनेस्को के एक अध्ययन ने ध्यान दिलाया है : “सबसे नीचे प्राथमिक (बेसिक) शिक्षा और वंशगत कार्य तथा निर्वाहमूलक श्रमवाले देश होंगे; बीच में व्यावसायिक शिक्षा सहित माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक के, कुछ साधारण छंटाई-सफ़ाई (प्रोसेसिंग) करने वाले देश होंगे तथा सबसे ऊपर वे देश होंगे जहाँ हर व्यक्ति किसी विश्वविद्यालय का स्नातक होगा और विशालकाय वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी आधारवाले अत्यंत शोधमूलक उदयोगों में कार्य कर रहा होगा।” आधुनिक युग की त्रासदी यह है कि तीसरी दुनिया इस समय भी तीसरी और चौथी दुनियाओं में बँटती चली जा रही है और विकासशील देश अल्पविकसित और अल्पतमविकसित देशों में बँट रहे हैं। असमानता को फैलाने की इस प्रक्रिया में दुर्भाग्य से शिक्षाप्रणाली महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। प्रश्नः 1. प्रश्नः
2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 14. जर्मनी के सुप्रसिद्ध विचारक नीत्शे ने, जो विवेकानंद का समकालीन था, घोषणा की कि ‘ईश्वर मर चुका है।’ नीत्शे के प्रभाव में यह बात चल पड़ी कि अब लोगों को ईश्वर में दिलचस्पी नहीं रही। मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं-यह स्वामी विवेकानंद को स्वीकार नहीं था। उन्होंने धर्म को बिलकुल नया अर्थ दिया। स्वामी जी ने माना कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है। उन्होंने साधुओं-पंडितों, मंदिर-मस्जिद, गिरजाघरों-गोंपाओं की इस परंपरागत सोच को नकार दिया कि धार्मिक जीवन का उद्देश्य संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष-प्राप्ति की कामना है। उनका कहना है कि ईश्वर का निवास निर्धन-दरिद्र-असहाय लोगों में होता है, क्योंकि वे ‘दरिद्र-नारायण’ हैं। ‘दरिद्र नारायण’ शब्द ने सभी आस्थावान स्त्री-पुरुषों में कर्तव्य-भावना जगाई कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा है। अन्य किसी भी संत-महात्मा की तुलना में स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर ज़्यादा बल दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे। ऐसा करने में स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय से भेदभाव न करें। परस्पर वैमनस्य या शत्रुता का भाव मिटाने के लिए हमें घृणा का परित्याग करना होगा और सबके प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव जगाना होगा। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 15. आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है। स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज़ और स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे। वे कहा करते थे, “यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें, तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।” प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 6. साहित्य का जीवन के साथ गहरा संबंध है। साहित्यकार अपनी पैनी दृष्टि से देखता है और संवेदनशील मन से उसको अभिव्यक्त करता है। चारों ओर देखे गए सत्य और भोगे हुए यथार्थ को कभी कल्पना के रंग में रंगकर, तो कभी ज्यों-कात्यों पाठक के सामने प्रस्तुत कर देता है। साहित्यकार में सौंदर्य को देखने और परखने की अदभुत शक्ति होती है। मनोरम दृश्यों के सौंदर्य और मुग्ध कर देने वाले स्वरों की मधुरता से वह अकेले ही आनंदमग्न नहीं होना चाहता। वह दूसरों को भी आनंदमग्न करने के लिए सदा आतुर रहता है। साहित्यकार जब समाज को अपने मन की बात सुनाता है, तो साहित्यकार और समाज का संबंध स्पष्ट दिखाई पड़ता है। समाज की रूढ़ियों और विद्रूपताओं को उजागर कर वह जनमानस को जाग्रत करता है। उन्हें बताता है कि जो कुछ पुराना है, वह सोना ही हो-यह आवश्यक नहीं। हमें जकड़ने वाली, पीछे धकेलने वाली रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा। इस प्रकार साहित्यकार समाज का पथ-प्रदर्शक भी है और पथ-निर्माता भी। वह समाज को परिवर्तन और क्रांति के लिए भी तैयार करता है। यह सत्य है कि अनेक साहित्यिक रचनाएँ क्रांति की आधारशिला रखने में समर्थ हुई हैं। इसलिए साहित्य को केवल मनोरंजन की वस्तु मानना अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर सूर्य को नकारना है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 17. कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मनःस्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों को उजागर करना मीडिया का दायित्व है, पर उसे सनसनीखेज़ बनाकर 24 x 7 चैनलों में बार-बार प्रसारित कर उनकी चाहे दर्शक-संख्या (TRP) बढ़ती हो, आम आदमी इससे अधिक शंकालु हो जाता है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं। आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। ऐसे अधिकारी हैं, जो अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं। ऐसे नेता भी हैं, जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं। वे मीडिया-प्रचार के आकांक्षी नहीं हैं। उन्हें कोई इनाम या प्रशंसा के सर्टीफ़िकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे, बस कर्तव्यपालन कर रहे हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों से समाज बहुत-कुछ सीखता है। आज विश्व में भारतीय बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए कम, अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों-जैसे क्यों नहीं बन सकते। और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं! यदि यह सच है कि नागरिकों के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी सोच को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग बनाए रखने की आदत डालें। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 18. यह संतोष और गर्व की बात है कि देश वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षेत्र में आशातीत प्रगति कर रहा है। विश्व के समृद्ध अर्थव्यवस्था वाले देशों से टक्कर ले रहा है और उनसे आगे निकल जाना चाहता है, किंतु इस प्रगति के उजले पहलू के साथ एक धुंधला पहलू भी है, जिससे हम छुटकारा चाहते हैं। वह है नैतिकता का पहलू। यदि हमारे हृदय में सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय भावनाएँ नहीं हैं; देश के मान-सम्मान का ध्यान नहीं है; तो सारी प्रगति निरर्थक होगी। आज यह आम धारणा है कि बिना हथेली गर्म किए साधारण-सा काम भी नहीं हो सकता। भ्रष्ट अधिकारियों और भ्रष्ट जनसेवकों में अपना घर भरने की होड़ लगी है। उन्हें न समाज की चिंता है, न देश की। समाचार-पत्रों में अब ये रोज़मर्रा की घटनाएँ हो गई हैं। लोग मान बैठे हैं कि यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है, जब कि यह सच नहीं है। नैतिकता मरी नहीं है, पर प्रचार अनैतिकता का हो रहा है। लोगों में यह धारणा घर करती जा रही है कि जब बड़े लोग ही ऐसा कर रहे हैं, तो हम क्यों न करें? सबसे पहले तो इस सोच से मुक्ति पाना ज़रूरी है और उसके बाद यह संकल्प कि भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाएँगे। उन्हें बेनकाब करेंगे, जो देश के नैतिक चरित्र को बिगाड़ रहे हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 19. जो समाज को जीवन दे, उसे निर्जीव कैसे माना जा सकता है? जलस्रोत में जीवन माना गया और समाज ने उसके चारों ओर अपने जीवन को रचा। जिसके साथ जितना निकट का संबंध, जितना स्नेह, मन उसके उतने ही नाम रख लेता है। देश के अलग-अलग राज्यों में, भाषाओं में, बोलियों में तालाब के कई नाम हैं। बोलियों के कोश में, अनेक व्याकरण के ग्रंथों में, पर्यायवाची शब्दों की सूची में तालाब के नामों का एक भरा-पूरा परिवार देखने को मिलता है। डिंगल भाषा के व्याकरण का एक ग्रंथ हमीर नाम-माला तालाबों के पर्यायवाची नाम तो गिनाता ही है, साथ ही उनके स्वभाव का भी वर्णन करते हुए, तालाबों को धरम सुभाव कहता है। गड़ा हुआ धन सबको नहीं मिलता, लेकिन सबको तालाब से जोड़कर देखने के लिए भी समाज में कुछ मान्यताएँ रही हैं। अमावस और पूनों, इन दो दिनों को कारज यानी अच्छे और वह भी सार्वजनिक कामों का दिन माना गया है। इन दोनों दिनों में निजी काम से हटने और सार्वजनिक कामों से जुड़ने का विधान रहा है। किसान अमावस और पूनों को अपने खेत में काम नहीं करते थे। उस समय का उपयोग वे अपने क्षेत्र के तालाब आदि की देखरेख व मरम्मत में लगाते थे। समाज में श्रम भी पूँजी है और उस पूँजी को निजी हित के साथ सार्वजनिक हित में भी लगाते थे। श्रम के साथ-साथ पूँजी का अलग से प्रबंध किया जाता रहा है। इस पूँजी की ज़रूरत प्रायः ठंड के बाद, तालाब में पानी उतर जाने पर पड़ती है। जब गरमी का मौसम सामने खड़ा होता है और यही सबसे अच्छा समय है, तालाब की किसी बड़ी टूट-फूट पर ध्यान देने का। वर्ष की बारह पूर्णिमाओं में से ग्यारह पूर्णिमाओं को श्रमदान के लिए रखा जाता रहा है पर पूस मास की पूनों पर तालाब के लिए धान या पैसा एकत्र किए जाने की परंपरा रही है। सार्वजनिक तालाबों में तो सबका श्रम और पूँजी लगती ही थी, निहायत निजी किस्म के तालाबों में भी सार्वजनिक स्पर्श आवश्यक माना जाता रहा है। तालाब बनने के बाद उसे इलाके के सभी सार्वजनिक स्थलों से थोड़ी-थोड़ी मिट्टी लाकर तालाब में डालने का चलन आज भी मिलता है। तालाबों में प्राण है। प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव बड़ी धूमधाम से होता था। कहीं-कहीं तालाबों का पूरी विधि के साथ विवाह भी होता था। छत्तीसगढ़ में यह प्रथा आज भी जारी है। विवाह से पहले तालाब का उपयोग नहीं हो सकता। न तो उससे पानी निकालेंगे और न उसे पार करेंगे। विवाह में क्षेत्र के सभी लोग, सारा गाँव पाल पर उमड़ आता है। आसपास के मंदिरों में मिट्टी लाई जाती है, गंगाजल आता है और इसी के साथ अन्य पाँच या सात कुओं या तालाबों का जल मिलाकर विवाह पूरा होता है। इन तालाबों के दीर्घ जीवन का एक ही रहस्य था-ममत्व। यह मेरा है, हमारा है। ऐसी मान्यता के बाद रख-रखाव जैसे शब्द छोटे लगने लगेंगे। घरमेल यानी सब घरों के मेल से तालाब का काम होता था। सबका मेल तीर्थ है। जो तीर्थ न जा सके, वे अपने यहाँ तालाब बनाकर ही पुण्य ले सकते हैं। तालाब बनाने वाला पुण्यात्मा है, महात्मा है। जो तालाब बचाए, उसकी भी उतनी ही मान्यता मानी गई है। इस तरह तालाब एक तीर्थ है। यहाँ मेले लगते हैं और इन मेलों में जुटने वाला समाज तालाब को अपनी आँखों में, मन में बसा लेता है। तालाब समाज के मन में रहा है और कहीं-कहीं तो उसके तन में भी। बहुत से वनवासी-समाज गुदने में तालाब, बावड़ी भी गुदवाते हैं। गुदनों के चिहनों में पशु-पक्षी, फल आदि के साथ-साथ सहरिया समाज में सीता बावड़ी और साधारण बावड़ी के चिह्नों भी प्रचलित हैं। सहरिया शबरी को अपना पूर्वज मानते हैं। सीता जी से विशेष संबंध है। इसलिए सहरिया अपनी पिडंलियों पर सीता बावड़ी बहुत चाव से गुदवाते हैं। जिसके मन में, तन में तालाब रहा हो, वह तालाब को केवल पानी के एक गड्ढे की तरह नहीं देख सकेगा। उसके लिए तालाब एक जीवंत परंपरा है, परिवार है और उसके कई संबंध, संबंधी हैं। तालाब का लबालब भर जाना भी एक बड़ा उत्सव बन जाता है। समाज के लिए इससे बड़ा और कौन-सा प्रसंग होगा कि तालाब की अपरा चल निकलती है। भुज (कच्छ) के सबसे बड़े तालाब हमीरसर के घाट में बनी हाथी की एक मूर्ति अपना चलने की सूचक है। जब-जब इस मूर्ति को छू लेता तो पूरे शहर में खबर फैल जाती थी। शहर तालाब के घाटों पर आ जाता। कम पानी का इलाका इस घटना को एक त्यौहार में बदल देता। भुज के राजा घाट पर आते, पूरे शहर की उपस्थिति में तालाब की पूजा करते और पूरे भरे तालाब का आशीर्वाद लेकर लौटते। तालाब का पूरा भर जाना, सिर्फ एक घटना नहीं, आनंद है, मंगल सूचक है, उत्सव है, महोत्सव है। वह प्रजा और राजा को घाट तक ले आता था। कोई भी तालाब अकेला नहीं है। वह भरे-पूरे जल परिवार का एक सदस्य है। उसमें सबका पानी है और उसका पानी सबमें है-ऐसी मान्यता रखने वालों ने एक तालाब सचमुच ऐसे ही बना दिया था। जगन्नाथपुरी के मंदिर के पास बिंदुसागर में देश भर के हर जल स्रोत का नदियों और समुद्रों तक का पानी मिला है। दूर-दूर से, अलग-अलग दिशाओं से पुरी आने वाले भक्त अपने साथ अपने क्षेत्र का थोड़ा सा पानी ले आते हैं और उसे बिंदुसागर में अर्पित कर देते हैं। देश की एकता की परीक्षा की इस घड़ी में बिंदुसागर राष्ट्रीय एकता का सागर कहला सकता है। बिंदुसागर जुड़े भारत का प्रतीक है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 20. विधाता-रचित इस सृष्टि का सिरमौर है मनुष्य। उसकी कारीगरी का सर्वोत्तम नमूना ! इस मानव को ब्रह्मांड का लघु रूप मानकर भारतीय दार्शनिकों ने ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्मांडे’ की कल्पना की थी। उनकी यह कल्पना मात्र कल्पना नहीं थी, प्रत्युत यथार्थ भी थी क्योंकि मानव-मन में जो विचारणा के रूप में घटित होता है, उसी का कृति रूप ही तो सृष्टि है। मन तो मन, मानव का शरीर भी अप्रतिम है। देखने में इससे भव्य, आकर्षक एवं लावण्यमय रूप सृष्टि में अन्यत्र कहाँ है? अद्भुत एवं अदवितीय है मानव-सौंदर्य! साहित्यकारों ने इसके रूप-सौंदर्य के वर्णन के लिए कितने ही अप्रस्तुतों का विधान किया है और इस सौंदर्य-राशि से सभी को आप्यायित करने के लिए अनेक काव्य सृष्टियाँ रच डाली हैं, साहित्यशास्त्रियों ने भी इसी मानव की भावनाओं का विवेचन करते हुए अनेक रसों का निरूपण किया है। परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाए तो मानव-शरीर को एक जटिल यंत्र से उपमित किया जा सकता है। जिस प्रकार यंत्र के एक पुर्जे में दोष आ जाने पर सारा यंत्र गड़बड़ा जाता है, बेकार हो जाता है उसी प्रकार मानव-शरीर के विभिन्न अवयवों में से यदि कोई एक अवयव भी बिगड़ जाता है तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं, गुर्दे जैसे कोमल एवं नाजुक हिस्से के खराब हो जाने से यह गतिशील यंत्र एकाएक अवरुद्ध हो सकता है, व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। एक अंग के विकृत होने पर सारा शरीर दंडित हो, वह कालकवलित हो जाए-यह विचारणीय है। यदि किसी यंत्र के पुर्जे को बदलकर उसके स्थान पर नया पुर्जा लगाकर यंत्र को पूर्ववत सुचारु एवं व्यवस्थित रूप से क्रियाशील बनाया जा सकता है तो शरीर के विकृत अंग के स्थान पर नव्य निरामय अंग लगाकर शरीर को स्वस्थ एवं सामान्य क्यों नहीं बनाया जा सकता? शल्य-चिकित्सकों ने इस दायित्वपूर्ण चुनौती को स्वीकार किया तथा निरंतर अध्यवसाय पूर्णसाधना के अनंतर अंग-प्रत्यारोपण के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सके। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मानव-शरीर हर किसी के अंग को उसी प्रकार स्वीकार नहीं करता, जिस प्रकार हर किसी का रक्त उसे स्वीकार्य नहीं होता। रोगी को रक्त देने से पूर्व रक्त-वर्ग का परीक्षण अत्यावश्यक है, तो अंग-प्रत्यारोपण से पूर्व ऊतकपरीक्षण अनिवार्य है। आज का शल्य-चिकित्सक गुर्दे, यकृत, आँत, फेफड़े और हृदय का प्रत्यारोपण सफलता पूर्वक कर रहा है। साधन-संपन्न चिकित्सालयों में मस्तिष्क के अतिरिक्त शरीर के प्रायः सभी अंगों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः
3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 21. शिक्षा के क्षेत्र में पुनर्विचार की आवश्यकता इतनी गहन है कि अब तक बजट, कक्षा, आकार, शिक्षक-वेतन और पाठ्यक्र आदि के परंपरागत मतभेद आदि प्रश्नों से इतनी दूर निकल गई है कि इसको यहाँ पर विवेचित नहीं किया जा सकता। द्वितीय तरंग दूरदर्शन तंत्र की तरह (अथवा उदाहरण के लिए धूम्र भंडार उद्योग) हमारी जनशिक्षा प्रणालियाँ बड़े पैमाने पर प्रायः लुप्त हैं। बिलकुल मीडिया की तरह शिक्षा में भी कार्यक्रम विविधता के व्यापक विस्तार और नये मार्गों की बहुतायत की आवश्यकता है। केवल आर्थिक रूप से उत्पादक भूमिकाओं के लिए ही निम्न विकल्प पद्धति की जगह उच्च विकल्प पद्धति को अपनाना होगा यदि नई थर्ड वेव सोसायटी में शिष्ट जीवन के लिए विद्यालयों में लोग तैयार किए जाते हैं। शिक्षा और नई संचार प्रणाली के छह सिद्धांतों-पारस्परिक क्रियाशीलता, गतिशीलता, परिवर्तनीयता, संयोजकता, सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकरण के बीच बहुत ही कम संबंध खोजे गए हैं। अब भी भविष्य की शिक्षा पद्धति और भविष्य की संचार प्रणाली के बीच संबंध की उपेक्षा करना उन शिक्षार्थियों को धोखा देना है जिनका निर्माण दोनों से होना है।। सार्थक रूप से शिक्षा की प्राथमिकता अब मात्र माता-पिता, शिक्षकों एवं मुट्ठी भर शिक्षा सुधारकों के लिए ही नहीं है, बल्कि व्यापार के उस आधुनिक क्षेत्र के लिए भी प्राथमिकता में है जब से वहाँ सार्वभौम प्रतियोगिता और शिक्षा के बीच संबंध को स्वीकारने वाले नेताओं की संख्या बढ़ रही है। दूसरी प्राथमिकता कंप्यूटर वृद्धि, सूचना तकनीक और विकसित मीडिया के त्वरित सार्वभौमिकरण की है। कोई भी राष्ट्र 21वीं सदी के इलेक्ट्रॉनिक आधारिक संरचना, एंब्रेसिंग कंप्यूटर्स, डाटा संचार और अन्य नवीन मीडिया के बिना 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था का संचालन नहीं कर सकता। इसके लिए ऐसी जनसंख्या की आवश्यकता है जो इस सूचनात्मक आधारिक संरचना से परिचित हो, ठीक उसी प्रकार जैसे कि समय के परिवहन तंत्र और कारों, सड़कों, राजमार्गों, रेलों से सुपरिचित है। वस्तुतः सभी के टेलीकॉम इंजीनियर अथवा कंप्यूटर विशेषज्ञ बनने की ज़रूरत नहीं है, जैसा कि सभी के कार मैकेनिक होने की आवश्यकता नहीं है, परंतु संचार प्रणाली का ज्ञान कंप्यूटर, फैक्स और विकसित दूर संचार को सम्मिलित करते हुए उसी प्रकार आसान और मुफ्त होना चाहिए जैसा कि आज परिवहन प्रणाली के साथ है। अतः विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वाले लोगों का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए कि सर्वव्यापकता के नियम की क्रियाशीलता को बढ़ाया जाए-वह है, यह निश्चित करना कि गरीब अथवा अमीर सभी नागरिकों को मीडिया की व्यापक संभावित पहुँच से अवश्य परिचित कराया जाए। अंततः यदि नई अर्थव्यवस्था का मूल ज्ञान है तब सतही बातों की अपेक्षा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लोकतांत्रिक आदर्श सर्वोपरि राजनीतिक प्राथमिकता बन जाता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 22. भारत एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। इस राष्ट्र के दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में कश्मीर तक विस्तृत-भू-भाग है। यह भू-भाग अनेक राज्यों के मध्य बँटा हुआ है। यहाँ अनेक धर्मानुयायी तथा भाषा-भाषी लोग रहते हैं। संपूर्ण राष्ट्र का एक ध्वज, एक लोकसभा, एक राष्ट्रचिह्न तथा एक ही संविधान है। इन सभी से मिलकर राष्ट्र का रूप बनता है। देश जब अंग्रेजों के अधीन था तब देश के प्रत्येक भाषा-भाषी तथा धर्म का अवलंबन करने वाले ने देश को स्वतंत्र कराने का प्रयत्न किया था। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले स्वाधीनता आंदोलन में भी भाग लिया था। इसी के परिणामस्वरूप हमारा देश 15 अगस्त, 1947 में स्वतंत्र हुआ। इस स्वतंत्र देश का संविधान बना और वह 26 जनवरी, 1950 में लागू हुआ। इस संविधान के लागू होने के पश्चात् हमारा देश गणतंत्र कहलाया। 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस तथा 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस हमें क्रमश: इसी दिन की याद दिलाते हैं। भारत की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता अनेकता में एकता है। यहाँ विभिन्न धर्म, जाति तथा संप्रदाय के लोग रहते हैं। इन सभी लोगों की बोली और भाषा भी भिन्न है। भौगोलिक दृष्टि से देखें, तो यहाँ पर कहीं ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं, तो कहीं समतल मैदान। कहीं उपजाऊ भूमि है, तो कहीं रेगिस्तान। दक्षिण में हिंद महासागर लहलहा रहा है। प्राचीन काल में जब यातायात के साधन विकसित हुए थे, तब यह विविधता स्पष्ट रूप से झलकती थी। आधुनिक काल में एक-से-एक द्रुतगामी यातायात के साधन बन चुके हैं, जिससे देश की यह भौगोलिक सीमा सिकुड़ गई है। अब एक भाग से दूसरे भाग में हम शीघ्र ही पहुँच सकते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें, तो संपूर्ण देश में एक अद्भुत समानता दिखाई पड़ती है। सारे देश में विभिन् देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इन सब में प्रायः एक-सी पूजा पद्धति चलती है। सभी धार्मिक लोगों में व्रत-त्योहारों को मानने की एक-सी प्रवृत्ति है। वेद, रामायण और महाभारत आदि ग्रंथों पर सारे देश में विपुल साहित्य की रचना की गई। जब इस्लाम धर्म आया, तो उसके भी अनुयायी सारे देश में फैल गए। इसी प्रकार ईसाई धर्मावलंबी संपूर्ण देश में पाए जाते हैं। इससे सारा देश वस्तुतः एक ही सूत्र में बँधा हुआ है। भारतीय संस्कृति में ढले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पहचान है। इस पहचान के कारण इस देश के लोग एक-दूसरे से अपना भिन्न अस्तित्व रखते हैं। विभिन्न प्रकार के रहन-सहन तथा पहनावे के होने पर भी सारा देश वस्तुतः एक ही है। यह सांस्कृतिक एकता ही वस्तुतः इस देश की यह शक्ति है, जिससे इतना बड़ा देश एक सूत्र में बँधा हुआ है। विविधता में एकता की इस विशेषता पर सभी भारतीय गर्व करते हैं तथा इस पर संसार दंग है। राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए हैं। अनेक महापुरुषों तथा नेताओं ने इस प्रकार के अवसरों पर जनता से आग्रह किया और जनता में एक प्रकार की जागृति भी आई, किंतु स्थायी न रह सकी। महात्मा गांधी का जीवन राष्ट्रीय एकता से ओत-प्रोत था। उनका समूचा जीवन राष्ट्रीय एकता का ज्वलंत उदाहरण था। महात्मा गांधी तो कभी-कभी एक मास का उपवास भी करते थे। “हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई” के नारे लगाए जाते थे। अंत में महात्मा जी के बलिदान का एकमात्र आधार ‘राष्ट्रीय एकता’ ही था। इस दिशा में श्री नेहरू के प्रयत्नों को भी भुलाया नहीं जा सकता। यह बात दूसरी है कि स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। शनैः शनैः भावात्मक एकता का विकास हुआ। इस समय पृथकतावादी विचारधारा पनप रही है। हमें ऐसी विचारधारा को समाप्त करना चाहिए। समस्त राज्य, संघ, गणराज्य भारत के अभिन्न अंग हैं। समस्त महामानवों, नेताओं, राजनीति के पंडितों तथा महान साहित्यकारों को जनता में भारतीयता कूट-कूटकर भरनी चाहिए। यह प्रयत्न निस्संदेह राष्ट्रीय एकता में सहायक होगा। प्रत्येक भारतीय को संकीर्ण विचारधारा का परित्याग कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तभी हमारी राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण बनी रह सकती है, जो आज की एक महत्त्वपूर्ण अपेक्षा है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 23. सिने जगत के अनेक नायक-नायिकाओं, गीतकारों, कहानीकारों और निर्देशकों को हिंदी के माध्यम से पहचान मिली है। यही कारण है कि गैर-हिंदी भाषी कलाकार भी हिंदी की ओर आए हैं। समय और समाज के उभरते सच को परदे पर पूरी अर्थवत्ता में धारण करने वाले ये लोग दिखावे के लिए भले ही अंग्रेजी के आग्रही हों, लेकिन बुनियादी और ज़मीनी हक़ीकत यही है कि इनकी पूँजी, इनकी प्रतिष्ठा का एकमात्र निमित्त हिंदी ही है। लाखों करोड़ों दिलों की धड़कनों पर राज करने वाले ये सितारे हिंदी फ़िल्म और भाषा के सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं। ‘छोटा परदा’ ने आम जनता के घरों में अपना मुकाम बनाया तो लगा हिंदी आम भारतीय की जीवन-शैली बन गई। हमारे आद्यग्रंथों-रामायण और महाभारत को जब हिंदी में प्रस्तुत किया गया तो सड़कों का कोलाहल सन्नाटे में बदल गया। ‘बुनियाद’ और ‘हम लोग’ से शुरू हुआ सोप ऑपेरा का दौर हो या सास-बहू धारावाहिकों का, ये सभी हिंदी की रचनात्मकता और उर्वरता के प्रमाण हैं। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से करोड़पति चाहे जो बने हों, पर सदी के महानायक की हिंदी हर दिल की धड़कन और हर धड़कन की भाषा बन गई। सुर और संगीत की प्रतियोगिताओं में कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, असम, सिक्किम जैसे गैर-हिंदी क्षेत्रों के कालाकारों ने हिंदी गीतों के माध्यम से पहचान बनाई। ज्ञान गंभीर ‘डिस्कवरी’ चैनल हो या बच्चों को रिझाने-लुभाने वाला ‘टॉम ऐंड जेरी’-इनकी हिंदी उच्चारण की मिठास और गुणवत्ता अद्भुत, प्रभावी और ग्राह्य है। धर्म-संस्कृति, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान-सभी कार्यक्रम हिंदी की संप्रेषणीयता के प्रमाण हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः
4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 24. राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक सम्पर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं। मानव-समुदाय को एक जीवित-जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यकि तत्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त मानसिक वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं, विचारधाराएँ हैं, संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदर्शों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है? वस्तुतः ज्ञानराशि एवं भावराशि का अपार संचित कोश जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अतः इस संबंध में वैमत्य की किंचित् गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अतः राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. 25. आप एक ऐसे मुल्क में हैं, जहाँ करोड़ों युवा बसते हैं। इनमें से कई बेरोज़गार हैं, तो कई कोई छोटा-मोटा काम-धंधा कर रहे हैं। ये सब पैसा कमाने की ख्वाहिश रखते हैं, ताकि ये सभी अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी को चला सकें और भविष्य को बेहतर बना सकें। ऐसे लोगों से आप यह उम्मीद कैसे रख सकती है कि वे समाजसेवा के कार्यों में रुचि लेंगे? यह उन कई मुश्किल सवालों में से एक है, जिनका सामना शिक्षाविद सूसन स्ट्रॉड को भारत में करना पड़ा। उन्होंने अमेरिका में ‘राष्ट्रीय युवा सेवा संगठन, अमेरिका’ की स्थापना की है। सूसन का मकसद युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत राष्ट्रीय विकास, लोकतंत्र को बढ़ावा देने और बेरोज़गारी की समस्या से निपटने के लिए करना है, लेकिन क्या विकासशील देशों के युवा मुफ्त में वह काम करना चाहेंगे? क्या ये लोग अपनी पढ़ाई या कैरियर को दरकिनार कर न्यूनतम वेतन पर ऐसी किसी मुहिम से जुड़ेंगे? प्रोत्साहन कहाँ है? इसके जवाब में सुश्री स्ट्रॉड कहती हैं, “मैं सोचती हूँ कि ऐसे कुछ तरीके हैं, जिनसे भारत जैसे बेरोज़गारी से जूझ रहे देशों में भी युवाओं की सेवाएँ ली जा सकती है। ” यह पिछले साल नवंबर में दिल्ली में हुए स्वयंसेवी प्रयासों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के सम्मेलन में मानद अतिथि थीं। वह कहती हैं, “युवाओं के लिए रोजगार प्राप्ति में उनके पास नौकरी का कोई पूर्व अनुभव न होना एक सबसे बड़ी बाधा होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमने कई साल पहले दक्षिण अफ्रीका में ऐसे बेरोज़गार युवाओं के लिए कुछ कार्यक्रम शुरू किए, जो राजनीतिक संघर्षों में सक्रिय रहे। ये युवा स्कूलों से बाहर हो चुके थे और रोज़गार के मौके भी गँवा चुके थे। हमने इनके लिए कुछ कार्यक्रम तैयार किए। मिसाल के तौर पर हमने उन्हें अश्वेतों के इलाकों में कम कीमत के मकान बनाने के काम से जोड़ा। वहाँ इन्होंने भवन निर्माण के गुर सीखे और जाना कि एक टीम के रूप में कैसे काम किया जाता है। इस तरह ये लोग एक हुनर में माहिर हुए और रोज़गार पाने के दावेदार बने।” नौकरियों से जुड़े बहुत से प्रशिक्षण कार्यक्रम अमूमन किसी खास कौशल के विकास पर केंद्रित होते हैं, लेकिन सेवा संबंधी कार्यक्रम इनसे कुछ बढ़कर होते हैं। इनमें शामिल लोग, ज़्यादा उपयोगी और पहल करने वाले नागरिक होते हैं। स्ट्रॉड के मुताबिक, इनकी यह खासियत इनमें समाज के प्रति एक ज़िम्मेदारी और प्रतिबद्धता का अहसास भरती है। युवाओं के लिए चलाए जाने वाले सेवा संबंधी कार्यक्रमों के जरिए, उन्हें उपयोगी परियोजनाओं से जोड़ा जा सकता है और इसके एवज में कुछ पैसा भी दिया जा सकता है। वे कहती हैं, “ज़रा 1930 के दशक के मंदी के दौर के अपने देश को याद कीजिए। राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी० रूजवेल्ट ने संरक्षण कार्यक्रम चलाए। उन्होंने देश के युवाओं को, खासकर बेरोजगारों को कई तरह के कामों से जोड़ दिया। इसका इन युवाओं और पूरे देश को जबर्दस्त फायदा हुआ।” स्ट्रॉड बताती हैं, “इन युवाओं को उनके काम के बदले में पैसा दिया जाता था, जिसका एक हिस्सा उन्हें अपने परिवारों को देना होता था। अगर आप अमेरिका के किसी राष्ट्रीय उद्यान में जाएंगे, तो आपको पता चलेगा कि इन लोगों ने कितनी समृद्ध विरासत का निर्माण किया था। इन युवाओं ने अमेरिका के ज़्यादातर राष्ट्रीय उद्यानों का सृजन किया और वहाँ लाखों पेड़ लगाए। ” ऐसे ही प्रयासों की सबसे ताजा मिसाल है ‘अमेरिका’, इसके जरिए हर साल 75 हजार युवाओं को रोजगार दिया जाता है और इनमें से ज़्यादातर बीस से तीस आयु-वर्ग के होते हैं। कई तो बस अभी हाईस्कूल से निकले ही होते हैं, तो कई स्कूल छोड़ चुके होते हैं और कई पी०एच०डी० भी होते हैं। सूसन बताती हैं कि आइडिया यह होता है कि “लोग छात्रवृत्ति पाते हैं, जो न्यूनतम वेतन से कम होती है। इसके बदले ये युवा देश के सबसे विपन्न इलाकों में एक या दो साल तक कई तरह के काम करते हैं। ” स्ट्रॉड स्पष्ट करती हैं, “इसमें दो राय नहीं कि इस पैसे से ये अमीर नहीं हो सकते, पर इतना ज़रूर है कि इससे इनका खर्चा आराम से चल जाता है। साल के आखिर में इन युवाओं को 4,725 डॉलर का एक वाउचर दिया जाता है, जिसे ये सिर्फ़ शिक्षा या प्रशिक्षण की फीस चुकाने या कॉलेज का ऋण अदा करने के लिए ही इस्तेमाल कर सकते हैं।” इन युवाओं में बहुत-से मिसिसिपी और लुइसियाना में राहत का काम कर चुके हैं, जहाँ तूफ़ान कैटरीना ने भारी तबाही मचाई थी। स्ट्रॉड का मानना है कि स्वयंसेवी संगठन और व्यक्ति विशेष अपनी ऊर्जा और विचारों से विभिन्न योजनाओं को साकार कर सकते हैं, उन्हें कम करने और उसे फैलाने दीजिए। “यदि आप वाकई ऐसा कुछ करना चाहते हैं, जिससे ज़्यादा-से-ज्यादा युवाओं की जिंदगी प्रभावित हो, तो इसके लिए आपको ज़्यादा-से-ज्यादा जन संसाधनों की व्यवस्था करनी होगी।” वे कहती हैं, “भारत में भी युवाओं के लिए कई कार्यक्रम हैं। यहाँ एन०सी०सी० है और राष्ट्रीय सेवा योजना भी है, जिससे पूरे देश में पाँच हजार स्वयं सेवक जुड़े हुए हैं, लेकिन वे सवाल करती हैं कि इस योजना से सिर्फ पाँच हजार युवा ही क्यों जुड़े हुए हैं, दस लाख क्यों नहीं? क्या इसे समाज की ज़रूरतों और रोजगार से जोड़ा गया? युवाओं को इससे जोड़ने की मुहिम क्यों नहीं छेड़ी जाती? इस देश में गांधीवादी परंपराएँ हैं, दान और उदारता की भावना है, जिनके दम पर बड़े पैमाने पर सेवा संबंधी कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।” प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. प्रश्नः 6. प्रश्नः 7. |