ईश्वर ने हमें क्या चीजें दान में दी है? - eeshvar ne hamen kya cheejen daan mein dee hai?

हम अपनी मेहनत और दिमाग से काबिल तो बन जाते हैं लेकिन कभी-कभी कुछ मौकों पर हमारी काबिलियत भी हमारे काम नहीं आ पाती. ये ऐसे मौके होते हैं जब कुछ घटनाओँ पर हमारा ज़ोर नहीं चलता. इसी को हम अपनी जबान में बुरा दौर कहते हैं और इंसान की फितरत ही ऐसी है कि बुरे दौर में ही उसे ईश्वर की याद आती है. तब वह उनकी शरण जाकर उनसे अपनी कामनापूर्ति की प्रार्थना करने लगता है.

लेकिन एक बात आपने ज़रूर मानेंगे कि ईश्वर सभी की प्रार्थना भी नहीं सुनता. अगर आप चाहते हैं कि आपकी पुकार भगवान तक पहुंचे तो आपको प्रार्थना करने के सही तरीके के बारे में पता होना चाहिए.

प्रार्थना का अर्थ
ईश्वर से अपने दिल की बात कहना ही प्रार्थना है. इससे व्यक्ति अपने या दूसरों की इच्छापूर्ति का प्रयास करता है. वैसे, तंत्र, मंत्र, ध्यान और जाप भी प्रार्थना का ही एक रूप है. प्रार्थना छोटे स्तर पर काम करती है और इसकी वजह से प्रकृति में आपके अनुरूप बदलाव आते हैं .
कोई प्रार्थना एक साथ कई लोग करें तो वह ज्यादा प्रभावशाली होती है. एक साथ प्रार्थना करने पर प्रकृति में तेजी से बदलाव होता है.


प्रार्थना अनसुनी क्यों हो जाती है
इंसान को कभी-कभी लगता है कि वह ईश्वर से प्रार्थना तो खूब कर रहा है लेकिन ये सुनी नहीं जा रही हैं. अगर आप इस स्थिति में हैं तो हम आपको बताते हैं कि आखिर क्यों कभी कभी प्रार्थनाएं नाकाम हो जाती हैं. पहले आप यह समझ लीजिए कि व्यवसाय और लेन-देन की तरह की प्रार्थना भी असफल होती है.
प्रार्थना के नाकाम होने की कुछ वजहें हैं, जैसे :
- आहार और व्यवहार पर नियंत्रण न रखने से प्रार्थना नाकाम होती ह
- माता-पिता का सम्मान न करने से प्रार्थना असफल होती है
- प्रार्थना से आपका ही नुकसान हो रहा हो तो भी प्रार्थना नाकाम हो जाती है
- अतार्किक प्रार्थना भी असफल हो जाती है

प्रार्थना के नियम
सही तरीके से की गई प्रार्थना जीवन में चमत्कारी बदलाव लाती है.
- प्रार्थना सरल और साफ तरीके से की जानी चाहिए और आसानी से बोली जाने वाली प्रार्थना करनी चाहिए.
- शांत वातावरण में प्रार्थना करना सबसे बढ़िया होता है.
- खासतौर पर मध्य रात्रि में प्रार्थना जल्दी स्वीकार हो जाती है.
- प्रार्थना को रोज़ एक ही समय पर करना अच्छा होता है.
- वहीं दूसरे के नुकसान के उद्देश्य से या फिर अतार्किक प्रार्थना मत करें.
- दूसरे के लिए प्रार्थना करने से पहले उसके बारे में सोचें और फिर प्रार्थना शुरू करें.
अगर आपने ये नियम अपनाए तो यकीन मानिए कि आपकी प्रार्थना चाहे धन की हो या संतान या फिर नौकरी की, यह पूरी जरूर होगी.

प्रार्थना करने का तरीका
आपकी प्रार्थना आपके ईष्ट स्वीकार करें, इसके लिए कुछ नियमों के साथ प्रार्थना करनी चाहिए. जानें इन नियमों के बारे में :
- सबसे पहले एक एकांत स्थान में बैठें
- उसके बाद अपनी रीढ़ की हड्डी को बिलकुल सीधा रखें
- फिर सबसे पहले अपने ईष्ट, गुरु या ईश्वर का ध्यान करें
- उसके बाद जो प्रार्थना करनी है, उसे करें
- अपनी प्रार्थना को गोपनीय ही रखें
- जब भी मौका मिले, अपनी प्रार्थना दोहराते रहें
अगर आपने इन तरीकों से सच्चे मन से प्रार्थना की तो यकीनन आपकी मनोकामना पूरी होगी.

अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान, ये सारे दान इंसान को पुण्य का भागी बनाते हैं. किसी भी वस्तु का दान करने से मन को सांसारिक आसक्ति यानी मोह से छुटकारा मिलता है. हर तरह के लगाव और भाव को छोड़ने की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है.

श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है.

दान का महत्व
दान एक ऐसा कार्य है, जिसके जरिए हम न केवल धर्म का ठीक-ठीक पालन कर पाते हैं बल्कि अपने जीवन की तमाम समस्याओं से भी निकल सकते हैं. आयु, रक्षा और सेहत के लिए तो दान को अचूक माना जाता है. जीवन की तमाम समस्याओं से निजात पाने के लिए भी दान का विशेष महत्व है. दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है.

ज्योतिष के जानकारों की मानें तो जिस इंसान को दान करने में आनंद मिलता है, उसे ईश्वर की असीम कृपा प्राप्त होती है क्योंकि देना इंसान को श्रेष्ठ और सत्कर्मी बनाता है. अगर आप भी अपने भीतर की सच्ची खुशी को महसूस करना चाहते हैं तो जरूरतमंदों को दान करिए. इससे आपको अद्भुत आत्मसुख मिलेगा.

परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।[1]

ईश्वर ने हमें क्या चीजें दान में दी है? - eeshvar ne hamen kya cheejen daan mein dee hai?

धर्म और दर्शन में परमेश्वर की महिमा[संपादित करें]

ईसा मसीह के अनुयायी ईसाई के रूप में जाने जाते हैं। यीशु का जन्म लगभग 6 ई.पू. बेथलेहम में हुआ। ईसाई धर्म की मुख्य पुस्तक बाइबल तीन पवित्र पुस्तकों- तोराह, इंजिल और ज़बूर का संग्रह है। ईसाई और इस्लाम दोनों धर्मों में यह माना जाता है कि ईश्वर द्वारा बनाया गया पहला मानव आदम था और हम सभी उसके पुत्र और पुत्रियाँ हैं। उनके वंश में, कई पैगंबर जन्में थे। उनमें से कुछ हज़रत दाऊद, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा हैं। ईसाई मानते हैं कि ईश्वर निराकार है जबकि पवित्र बाइबल - उत्पत्ति ग्रंथ 1: 26 और 1: 27 में उत्पति विषय में लिखा है कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया। इससे सिद्ध है कि प्रभु भी मनुष्य जैसे शरीर युक्त है तथा छः दिन में सृष्टी रचना करके सातवें दिन तख्त पर जा विराजा। ईसाई धर्म में सबसे बड़ा मिथक है कि यीशु को भगवान के रूप में देखा जाता है। जबकि IYOV 36:5 - ऑर्थोडॉक्स जेविश बाइबिल (ओजेबी) में स्पष्ट रूप से लिखा है कि देखें कबीर भगवान है, और किसी से भी नफरत नहीं करना ; वह को'आच लेव (समझने की शक्ति) में कबीर है। अर्थात परमात्मा कबीर है, लेकिन किसी से भी नफरत नहीं करता है। वह कबीर है, और अपने उद्देश्य में दृढ़ है। सभी बाइबल अनुवादों में, कबीर शब्द का अनुवाद "शक्तिशाली" या "महान" के रूप में किया गया है, जबकि कबीर परमात्मा का वास्तविक नाम है। ईसाईयों का मानना है कि भगवान ने ईसाईयों को जानवरों को मारने और खाने का आदेश दिया

जबकि भगवान ने जानवरों के लिए घास और पत्तेदार सब्जियां और मनुष्यों के भोजन के रूप में अनाज, फल और पत्तेदार पौधे बनाये हैं। जिसका प्रमाण पवित्र बाइबिल - उत्पत्ति ग्रंथ में भी है । उत्पत्ति ग्रंथ  1:29 - मैंने आपके खाने के लिए सभी प्रकार के अनाज और सभी प्रकार के फल प्रदान किए हैं और उत्पत्ति ग्रंथ 1:30 - लेकिन सभी जंगली जानवरों और सभी पक्षियों के लिए मैंने भोजन के लिए घास और पत्तेदार पौधे प्रदान किए हैं-इसलिए मैंने उन्हें शाकाहारी होने का आदेश दिया। ईसाई धर्म में परमात्मा को निराकार मना जाता है, परंतु सच्चाई यह है कि परमात्मा साकार है सह शरीर है और उसका नाम कबीर है। प्रमाण के लिए देखें: बाइबल (उत्पत्ति 1:1), (इब्रियों 11:6), (रोमन 1:20), (रोमन 1:19, 20), साल्म/स्तोत्र 53:1-3)।[2][3]

  • (उत्पत्ति 1:1) : आरंभ में, परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी को बनाया (उत्पत्ति 1:1)
  • (इब्रियों 11:6) : विश्वास के बिना, भगवान को प्रसन्न करना असंभव है, क्योंकि जो कोई भी उनके पास आता है उसे विश्वास करना चाहिए कि वह अस्तित्व में है और वह उन लोगों को पुरस्कृत करता है जो दृढ़ता से उसकी तलाश करते हैं
  • (रोमन 1:20) : सृष्टि रचना के बाद से उनकी (परमात्मा की) अदृश्य विशेषताओं, उनकी शाश्वत शक्ति और दिव्य प्रकृति को स्पष्ट रूप से देखा गया है।

ईश्वर ने हमें क्या चीजें दान में दी है? - eeshvar ne hamen kya cheejen daan mein dee hai?

वो ईश्वर को अल्लाह कहते हैं। इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक कुरान है और प्रत्येक मुसलमान ईश्वर शक्ति में विश्वास रखता है।

इस्लाम का मूल मंत्र "लॉ इलाह इल्ल , अल्लाह , मुहम्मद उर रसूल अल्लाह" है, अर्थात अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही है और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके आखरी रसूल (पैगम्बर)हैं।

इस्लाम मे मुसलमानो को खड़े खुले में पेशाब(इस्तीनज़ा) करने की इजाज़त नही क्योंकि इससे इंसान नापाक होता है और नमाज़ पढ़ने के लायक नही रहता इसलिए इस्लाम मे बैठके पेशाब करने को कहा गया है और उसके बाद पानी से शर्मगाह को धोने की हुक्म दिया गया है।

इस्लाम मे 5 वक़्त की नामाज़ मुक़र्रर की गई है और हर नम्र फ़र्ज़ है।इस्लाम मे रमज़ान एक पाक महीना है जो कि 30 दिनों का होता है और 30 दिनों तक रोज़ रखना फ़र्ज़ है जिसकी उम्र 12 या 12 से ज़्यादा हो।12 से कम उम्र पे रोज़ फ़र्ज़ नही।सेहत खराब की हालत में भी रोज़ फ़र्ज़ नही लेकिन रोज़े के बदले ज़कात देना फ़र्ज़ है।वैसा शख्स जो रोज़ा न रख सके किसी भी वजह से तो उसको उसके बदले ग़रीबो को खाना खिलाने और उसे पैसे देने या उस गरीब की जायज़ ख्वाइश पूरा करना लाज़मी है।

वेद के अनुसार व्यक्ति के भीतर पुरुष ईश्वर ही है। परमेश्वर एक ही है। वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है कि वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे दोनों है जबकि पाश्चात्य धर्मों के अनुसार ईश्वर केवल परे है। हिन्दू धर्म में सबसे बड़े परमात्मा कबीर साहेब जी हैं, जो आज से लगभग 600 वर्ष पहले आए थे तथा सह शरीर इस मृत्यु लोक से अपने निज़ धाम सतलोक चले गए। हिन्दू धर्म के प्रवित्र सद्द ग्रंथ भी इसका प्रमाण देते हैं। [4]

प्रमाण के लिए देखें: ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 में है:

“शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वहिन मरूतः गणेन। कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्रम् अत्येति रेभन्।।17।।

अनुवाद: सर्व सृष्टी रचनहार (हर्य शिशुम्) सर्व कष्ट हरण पूर्ण परमात्मा मनुष्य के विलक्षण बच्चे के रूप में (जज्ञानम्) जान बूझ कर प्रकट होता है तथा अपने तत्वज्ञान को (तम्) उस समय (मृजन्ति) निर्मलता के साथ (शुम्भन्ति) उच्चारण करता है। (वुिः) प्रभु प्राप्ति की लगी विरह अग्नि वाले (मरुतः) भक्त (गणेन) समूह के लिए (काव्येना) कविताओं द्वारा कवित्व से (पवित्रम् अत्येति) अत्यधिक निर्मलता के साथ (कविर् गीर्भि) कविर् वाणी अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (रेभन्) ऊंचे स्वर से सम्बोधन करके बोलता है, हुआ वर्णन करता (कविर् सन्त् सोमः) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही संत अर्थात् ऋषि रूप में स्वयं कविर्देव ही होता है। परन्तु उस परमात्मा को न पहचान कर कवि कहने लग जाते हैं। परन्तु वह पूर्ण परमात्मा ही होता है। उसका वास्तविक नाम कविर्देव है।

जैन धर्म में तीर्थंकर एक धार्मिक मार्ग का आध्यात्मिक शिक्षक होता है जिसे जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र पर विजय प्राप्त किया हुआ माना जाता है; जिनकी धार्मिक विचारधारा को जैन धर्म के सभी भक्त निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करने के लिए पालन करते हैं। जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड के समय का चक्र दो हिस्सों में बांटा गया है। आरोही समय चक्र को उत्सर्पिनी कहा जाता है और अवरोही समय चक्र को अवसरपिनी कहा जाता है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हैं जिन्हें उनके आध्यात्मिक शिक्षक और सफल उद्धारक माना जाता है।  ऋषभ देव जैन धर्म के संस्थापक और पहले तीर्थंकर हैं। पुस्तक 'आओ जैन धर्म को जाने', इस बात का प्रमाण हैं कि ऋषभ देव जी की आत्मा का जन्म बाद में आदिनाथ / बाबा आदम के रूप में हुआ, जिन्हें आदि पुरुष/पहले व्यक्ति और मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों के पैगंबर माना जाता है। हालांकि जैन धर्म के अनुयायी जन्म और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते हैं। परंतु पुस्तक 'आओ जैन धर्म को जाने' प्रमाणित करती है पुनर्जन्म होता है । महावीर जैन जैन धर्म के अंतिम यानी चौबीसवें तीर्थंकर थे। भगवान श्री महावीर के अन्य नाम वीर, अतिवीर, सनमती, महावीर और वर्धमान हैं। महावीर जैन का जीव मारिची वाला जीव ही था जो ऋषभ देव के पोते थे जिसे उन्होंने सर्वप्रथम दीक्षा दी थी। पवित्र पुस्तकें इस बात का प्रमाण देती हैं कि महावीर जैन के भी कई जन्म हुए हैं। पवित्र पुस्तकें यह भी प्रमाणित करती हैं कि महावीर जैन जी ने कोई गुरु नहीं बनाया। उन्होंने किसी से दीक्षा नहीं ली और मनमानी पूजा की, जो पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 16 के श्लोक 23-24 में वर्जित है और इस कारण से महावीर जी को मोक्ष नहीं मिला।[5]

दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म यानी बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के आधार पर कई परंपराओं और प्रथाओं का पालन किया जाता है। बौद्ध धर्म की स्थापना 2600 साल पहले, एक भारतीय तत्ववेत्ता और धार्मिक शिक्षक सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के द्वारा की गई थी। गौतम बुद्ध ने देवताओं को संसार के समान चक्र में फंसे हुए प्राणियों के रूप में देखा है। उन्होंने केवल भगवान की अवधारणा को भगवान के अस्तित्व के बारे में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए बिना एक तरफ रख दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए देवताओं पर विश्वास करना जरूरी नहीं है। गौतम बुद्ध का मानना था कि "भगवान अन्य सभी प्राणियों की तरह पुनर्जन्म के चक्र में शामिल हैं और आखिरकार, वे गायब हो जाएंगे। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए 'ईश्वर में विश्वास' आवश्यक नहीं है।" जबकि गीता अध्याय 15, श्लोक 16 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि इस संसारमें दो प्रकार के भगवान हैं नाशवान और अविनाशी परंतु गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि वास्तव में अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से दूसरा ही है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है। वही वास्तव में परमात्मा कहा जाता है। अर्थात गौतम बुद्ध ने उचित मार्गदर्शन की कमी और सतगुरु (जिन्हें सभी धार्मिक ग्रंथों का सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान हो), की अनुपस्थिति के कारण  पूर्ण परमात्मा को नहीं पहचान सके और जापान, चीन और रूस जैसे देश जो बौद्ध धर्म को मानते है वे नास्तिक बन गए। बौद्ध धर्म के लोग ओम मणि पद्मे हम" का उच्चारण करते हैं। जिसका अर्थ है "मैं खुद को कमल सूत्र के रहस्यवादी कानून को समर्पित करता हूं"। बौद्धों का मानना है कि कुछ भी निश्चित या स्थायी नहीं है और परिवर्तन होना हमेशा संभव है। जबकि गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञानदाता कहता है कि उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम सतलोक चला जाएगा। जहाँ जाने के पश्चात् साधक का जन्म-मृत्यु का चक्र सदा के लिए छूट जाता है। जिसका तात्पर्य है कि इन तीन लोकों से ऊपर एक स्थान है जो स्थायी और शाश्वत है जिसकी जानकारी गौतम बुद्ध को भी नही थी  और अल्पज्ञान के कारण उन्होंने भक्त समाज को भ्रमित कर दिया।[6]

15 वीं शताब्दी में स्थापित सिक्ख धर्म दुनिया के चार प्रमुख धर्मों में से एक है। सिक्ख धर्म की स्थापना गुरु नानक (ई.स. 1469-1539) जी द्वारा की गई थी। सिक्ख धर्म का मुख्य उद्देश्य लोगों को भगवान के सच्चे नाम (सतनाम) से जोड़ना है। सिक्खों का पवित्र ग्रंथ "गुरु ग्रंथ साहिब" है। सिक्ख मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मानव जीवन में एक गुरु होना चाहिए और बाकी सभी से ऊपर एक परमात्मा है। गुरु नानक देव, सिख धर्म के संस्थापक ने हमें गुरु ग्रंथ साहेब में कई संकेत दिए हैं कि हम केवल  सद्गुरु / तत्त्वदर्शी गुरु की शरण में जाने से ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सद्गुरु मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।  विभिन्न मूल भाषाओं में भगवान का वास्तविक नाम कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषा में), हक्का कबीर (पृष्ठ संख्या 721 पर गुरु ग्रंथ साहिब में पंजाबी भाषा में) है। सिक्ख धर्म के लोग वाहेगुरु को सच्चा मंत्र जान कर उसका जाप करते हैं जबकि वास्तविकता में 'वाहेगुरु' एक शब्द है जिसे ईश्वर, परम पुरुष या सभी के निर्माता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। कबीर साहेब को सतलोक में भगवान के रूप में देखने के बाद, श्री नानक जी के मुख से "वाहेगुरु" शब्द निकला था। गुरु नानक जी ने एकेश्वरवाद के विचार पर जोर देने के लिए ओंकार शब्द के पहले "इक"(ੴ) का उपसर्ग दिया।[7]

इक ओंकार सत-नाम करत पुरख निरभउ,

निरवैर अकाल मूरत अंजुनि सिभन गुर प्रसाद।

अर्थात यहां केवल एक ही परम पुरुष है, शास्वत सच, हमारा रचनहार, भय और दोष से रहित, अविनाशी, अजन्मा, स्वयंभू परमात्मा। जिसकी जानकारी कृपापात्र भगत को पूर्ण गुरु से प्राप्त होती है।

नास्तिक लोग और नास्तिक दर्शन ईश्वर को झूठ मानते हैं। परन्तु ईश्वर है या नहीं इस पर कोई ठोस तर्क नहीं दे सकता।

विभिन्न हिन्दू दर्शनों में ईश्वर का अस्तित्व/नास्तित्व[संपादित करें]

भारतीय दर्शनों में "ईश्वर" के विषय में क्या कहा गया है, वह निम्नवत् है-

इस दर्शन के कुछ टीकाकारों ने ईश्वर की सत्ता का निषेध किया है। उनका तर्क है- ईश्वर चेतन है, अतः इस जड़ जगत् का कारण नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती. या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान् नहीं है, या फिर वह उदार और दयालु नहीं है, अन्यथा दुःख, शोक, वैषम्यादि से युक्त इस जगत् को क्यों उत्पन्न करता? यदि ईश्वर कर्म-सिद्धान्त से नियन्त्रित है, तो स्वतन्त्र नहीं है और कर्मसिद्धान्त को न मानने पर सृष्टिवैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।

हालाँकि सांख्य और योग दोनों पूरक दर्शन हैं किन्तु योगदर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। पतंजलि ने ईश्वर का लक्षण बताया है- "क्लेशकर्मविपाकाराशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः" अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) और आशय (कर्म-संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष-विशेष ईश्वर है। यह योग-प्रतिपादित ईश्वर एक विशेष पुरुष है; वह जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, नियन्ता नहीं है। असंख्य नित्य पुरुष तथा नित्य अचेतन प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्वों के रूप में ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान हैं। साक्षात् रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष के बन्धन और मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।

कणाद कृत वैशेषिकसूत्रों में ईश्वर का स्पष्टोल्लेख नहीं हुआ है। "तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" अर्थात् तद्वचन होने से वेद का प्रामाण्य है। इस वैशेषिकसूत्र में "तद्वचन" का अर्थ कुछ विद्वानों ने "ईश्वरवचन" किया है। किन्तु तद्वचन का अर्थ ऋषिवचन भी हो सकता है। तथापि प्रशस्तपाद से लेकर बाद के ग्रन्थकारों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकारी है एवं कुछ ने उसकी सिद्धि के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ और पूर्ण हैं। ईश्वर अचेतन, अदृष्ट के संचालक हैं। ईश्वर इस जगत् के निमित्तकारण और परमाणु उपादानकारण हैं। अनेक परमाणु और अनेक आत्मद्रव्य नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में ईश्वर के साथ विराजमान हैं; ईश्वर इनको उत्पन्न नहीं करते क्योंकि नित्य होने से ये उत्पत्ति-विनाश-रहित हैं तथा ईश्वर के साथ आत्मद्रव्यों का भी कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय, अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में संचरित कर देना; और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।

नैयायिक उदयनाचार्य ने अपनी न्यायकुसुमांजलि में ईश्वर-सिद्धि हेतु निम्न युक्तियाँ दी हैं-

कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥ (- न्यायकुसुमांजलि. ५.१)

(क) कार्यात्- यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।

(ख) आयोजनात्- जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते. जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता. अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।

(ग) धृत्यादेः - जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है। और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है।

(घ) पदात्- पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। "इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है", यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है।

(ङ) संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं। अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है।

(च) अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं। किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।

वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर की सत्ता तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती. ईश्वर के पक्ष में जितने प्रबल तर्क दिये जा सकते हैं उतने ही प्रबल तर्क उनके विपक्ष में भी दिये जा सकते हैं। तथा, बुद्धि पक्ष-विपक्ष के तुल्य-बल तर्कों से ईश्वर की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकती. वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर केवल श्रुति-प्रमाण से सिद्ध होता है; अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।

ईश्वर ने हमें क्या चीज दान में दी है?

परमात्मा की ऐसी-ऐसी अनेकानेक देने हैं जो हमें परमात्मा से प्राप्त हुई हैं। हमारे माता, पिता, आचार्य, सगे-संबंधी, इष्ट-मित्र, पत्नी, बच्चे, पुत्र-वधुवें वा जामाता सहित अन्न व ओषधि आदि सभी पदार्थ भी ईश्वर ने ही हमें प्रदान किये हैं।

ईश्वर के नाम पर दी गई वस्तु को क्या कहते हैं?

वह वस्तु जो ईश्वर के नाम पर दी जाय।

ईश्वर ने हमें वरदान के रूप में क्या दी है?

उत्तर: ईश्वर ने हमें वरदान के रूप में सोचने के लिए बुद्धि दी

ईश्वर ने मनुष्य को क्यों बनाया?

ईश्वर ने हमे इस धरती पे मनुष्य रूप में जनम इसलिए दिया ताकि हम अपने मोक्ष प्राप्ति के साधन बनाये। अपने कर्म से खुद का सुन्दर भविष्य बनाये। जीव-जंतु ,पशु-पक्षी सबकी मदद और भला करे।