जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग में कौन सा अलंकार है? - jo raheem uttam prakrti ka kari sakat kusang mein kaun sa alankaar hai?

आज के इस लेख में रहीम का एक दोहा जो रहीम उत्तम प्रकृति …… का व्याख्या सहित विश्लेषण करेंगे तथा यह भी समझेंगे कि इस दोहे में विशेष क्या है।

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग॥

शब्दार्थ

  • कुसंग का अर्थ है कुसंगति ( गलत संगति )
  • भुजंग का अर्थ है सांप

जो रहीम उत्तम प्रकृति में अलंकार एवं व्याख्या

व्याख्या:- इस दोहे के माध्यम से रहीम कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार चंदन के वृक्ष में सांप लिपटे हुए होते हैं और तब भी चंदन में विष नहीं पाया जाता उसी प्रकार जिस व्यक्ति का चरित्र अच्छा होता है एवं जो व्यक्ति अंदर से मजबूत है उसे गलत संगति भी नहीं बिगाड़ सकती।

चंदन सांप जैसे विषैले सांपों से लिपटे होने के बावजूद भी अच्छी खुशबू प्रदान करता है तथा चंदन का प्रयोग बहुत से शुभ कामों में किया जाता है। उसी प्रकार से एक अच्छे प्रकृति का व्यक्ति भी बुरे लोगों से घिरे रहने के बावजूद भी पवित्र रहता है एवं समाज के कल्याण के लिए कार्य करता है। उस व्यक्ति का उसी प्रकार से सम्मान किया जाता है जिस प्रकार से चंदन का किया जाता है।

हम जो रहीम उत्तम प्रकृति दोहे के माध्यम से एक सीख ले सकते हैं कि

१. कई बार ऐसा होता है कि हम अपने आसपास के लोगों को चुन नहीं सकते क्योंकि परिस्थितियां हमारे विपरीत होती है लेकिन तब भी अगर हम चाहे तो अंदर से मजबूत बने रह सकते हैं और अपने आप को कुसंगति के प्रभाव से बचा सकते हैं।

२. अगर आप इस दोहे को ध्यान से पढ़ेंगे तथा अंदर तक सोचने का प्रयास करेंगे तो आपको समझ में आएगा कि हर बार हमें बाहर के लोगों को बदलने की जरूरत नहीं होती बल्कि खुद को बदलने की होती है। अगर हम अपने आप को अंदर से ठीक तरीके से बदल ले तो हम पर बाहर के लोगों का प्रभाव नहीं होगा एवं हम समाज के लिए कुछ अच्छा कर पाएंगे।

माली आवत देखकर व्याख्या सहित

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून कि व्याख्या

निष्कर्ष

आज के समय में इस दोहे की आवश्यकता बहुत ज्यादा है।

आज का समाज इस प्रकार से दूषित हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति समाज में व्याप्त विष से बच नहीं पाता। छोटे-छोटे बच्चे गलत संगति में आकर अपना भविष्य बिगाड़ लेते हैं और जो सफलता के वह हकदार होते हैं वह उन्हें कभी प्राप्त नहीं होती। कई बार ऐसा भी होता है कि वह बच्चा आगे जाकर अन्य बच्चों को भी बिगड़ता है जैसे कि आपने सुना होगा कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है।

इस दोहे के माध्यम से हम इस समाज में सुधार कर सकते हैं तथा लोगों को जागरूक कर सकते हैं कि हमें अंदर से मजबूत बनना पड़ेगा और हमारे आसपास के उन लोगों को भी सुधारना पड़ेगा जो गलत रास्ते पर है। हमें छोटे-छोटे बच्चों को इस दोहे का महत्व बताना चाहिए तथा उन्हें यह समझाना चाहिए कि अपने आसपास के लोगों को वह बहुत ध्यान पूर्वक चुने अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो अपने आप को अंदर से इतना दृढ़ संकल्प भी रखें कि उन पर किसी बुरे व्यक्ति के बातों का कोई असर ना हो।

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दोहा – 01

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं, उनको बुरी संगति भी नहीं बिगाड़ पाती। जिस प्रकार ज़हरीले सांप सुगंधित चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।

दोहा – 02

वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।
अर्थ: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी कभी अपने लिए जल संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन पुरुष परोपकार के लिए देह धारण करते हैं।

दोहा – 03

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।।
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए। क्योंकि यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए। क्योकि मोतियों की माला हमेशा सभी के मन को भाती है।

दोहा – 04

खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।

अर्थ: खीरे का कड़ुवापन को दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता है। रहीम दास जी कहते हैं कि कड़ुवे मुंह वाले के लिए – कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा उपयुक्त है।दोहा – 05

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।।
अर्थ: कौआ और कोयल रंग में एक जैसा होता हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो सकती। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है, तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है।

दोहा – 06

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता नाज़ुक होता है, इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता। यदि प्रेम का धागा एक बार टूट जाय तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और यदि यह मिल भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।

दोहा – 07

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है कि धन्य है वे लोग ,जिनका जीवन सदा परोपकार के लिए बीतता है, जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है।

दोहा – 08

रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते है कि जब ख़राब समय चल रहा हो तो मौन रहना ही उचित है। क्योंकि जब अच्छा समय आता हैं, तब काम बनते देर नहीं लगतीं। अतः हमेशा सही समय का इंतजार करना चाहिए।

दोहा – 09

निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है। सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है। जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव में क्या आएगा, यह अपने हाथ में नहीं होता।

दोहा – 10

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

अर्थ: जिस प्रकार पेड़ अपने फल को कभी नहीं खाते हैं, तालाब अपने अन्दर जमा किये हुए पानी को कभी नहीं पीता। उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी अपना इकट्ठा किये हुए धन से दूसरों का ही भला करते हैं।दोहा – 11

रहिमन मनहि लगाईं कै, देख लेहूँ किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय।।   
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि यदि आप अपने मन को एकाग्रचित होकर काम करोगे, तो आपको सफलता अवश्य मिलेगी। उसी प्रकार अगर मनुष्य मन से ईश्वर को चाहे तो वह ईश्वर को भी अपने वश में कर सकता है।

दोहा – 12

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।     
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय के लिए हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति के समय में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं है।

 दोहा – 13

बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।    रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि मनुष्य को बुद्धिमानी से व्यवहार करना चाहिए । क्योंकि अगर किसी कारण से कुछ गलत हो जाता है, तो इसे सही करना मुश्किल होता है, क्योंकि एक बार दूध खराब हो जाये, तो कितना भी कोशिश कर ले उसमे से न तो मक्खन बनता है और न ही दूध।

दोहा – 14

रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते है जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता, उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।दोहा – 15

राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ।।
अर्थ: जो होना है अगर उस पर हमारा बस होता तो ऐसा क्यों हुआ कि राम हिरण के पीछे गए और सीता का हरण हो गया। क्योंकि होनी को जो होना था – उस पर किसी का बस नहीं होता है इसलिए तो राम सोने के हिरण के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया।

दोहा – 16

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

अर्थ: एक बार में कोई एक कार्य ही करना चाहिए। यदि एक ही साथ आप कई लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करेंगे तो कुछ भी हाथ नहीं आता। यह वैसे ही है जैसे जड़ में पानी डालने से ही किसी पौधे में फूल और फल आते हैं।दोहा – 17

समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि उपयुक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगता है। झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है। किसी की भी अवस्था सदा एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना व्यर्थ है।

दोहा – 18

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं जिस प्रकार फटे हुए दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता है। उसी प्रकार अगर कोई बात बिगड़ जाती है तो वह दोबारा नहीं बनती।दोहा – 19

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥

अर्थ: रहीमदास जी ने इस दोहा में बहुत ही सुन्दर बात कही है, जिस जगह सुई से काम हो जाये वहां तलवार का कोई काम नहीं होता है। हमें समझना चाहिए कि हर बड़ी और छोटी वस्तुओं का अपना महत्व अपने जगहों पर होता है। बड़ों की तुलना में छोटो की उपेक्षा करना उचित नहीं है!

दोहा – 20

रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥

अर्थ: हमें अपने मन के दुख को अपने मन में ही रखना चाहिए। क्योंकि दुनिया में कोई भी आपके दुख को बांटने वाला नहीं है। इस संसार में बस लोग दूसरों के दुख को जान कर उसका मजाक ही उड़ाना जानते हैं।

दोहा – 21

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।    
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥

अर्थ: बड़े को क्षमाशील होना चाहिए, क्योंकि क्षमा करना ही बड़प्पन है, जबकि उत्पात व उदंडता करना छोटे को ही शोभा देता है। छोटों के उत्पात से बड़ों को कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिए। छोटों को क्षमा करने से उनका कुछ नहीं घटता। जब भृगु ने विष्णु को लात मारी तो उनका क्या घट गया? कुछ नहीं। इससे विष्णु चुपचाप मुस्कराते रहदोहा – 22

जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जैसे इस धरती पर सर्दी, गर्मी और बारिश होती है और इन सबको पृथ्वी सहन करती है। उसी तरह मनुष्य के शरीर को भी सुख और दुख उठाना और सहना सीखना चाहिए।

दोहा – 23

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।
अर्थ: वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन हो गये है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात अब सुनने वाला नहीं है। अर्थात कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है। उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।

दोहा – 24

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
अर्थ: मनुष्य को सोच समझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी वजह से अगर बात बिगड़ जाय तो फिर उसे बनाना कठिन होता है। जैसे अगर एक बार दूध फट जाय तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता।

दोहा – 25

रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है कि आँसू आँख से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा, वह घर का भेद दूसरों से बता ही देता है।

दोहा – 26

मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय।।          
अर्थ: मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और सामान्य रहते हैं तो अच्छे लगते हैं परन्तु यदि एक बार वे फट जाएं तो करोड़ों उपाय कर लो वे फिर वापस अपने स्वाभाविक और सामान्य रूप में नहीं आते।

दोहा – 27

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥
 

अर्थ: इस दोहा में रहीम दास जी ने मछली के जल के प्रति घनिष्ट प्रेम को बताया है। मछली पकड़ने के लिए जब जाल पानी में डाला जाता है तो जाल पानी से बाहर खींचते ही जल उसी समय जाल से निकल जाता है। परन्तु मछली जल को छोड़ नहीं पाती । उससे बिछुड़कर तड़प-तड़पकर अपने प्राण दे देती है

दोहा – 28

विपति भये धन ना रहै रहै जो लाख करोर।
नभ तारे छिपि जात हैं ज्यों रहीम ये भोर।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं, जिस प्रकार रात्रि में लाखों-करोड़ों तारे आसमान पर जगमगाते रहते हैं, वही सवेरा होते ही सभी लुप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार जब विपत्ति आती है तो धन भी नहीं रहता। भले ही आपके पास लाखों करोड़ों क्यों न हों, सब विपत्ति की भेंट चढ़ जाते हैं

दोहा – 29

ओछे को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै।।

अर्थ: ओछे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए। हर अवस्था में उससे हानि ही होती है – जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब ठंडा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है।

दोहा – 30

रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत।।
अर्थ: गिरे हुए लोगों से न तो दोस्ती अच्छी होती हैं और न ही दुश्मनी। जैसे कुत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों ही अच्छा नहीं होता।

दोहा – 31

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार।।  
अर्थ: रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर वार करके उसके प्राणों का अंत कर देता है।

दोहा – 32

तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।।
अर्थ: जिससे कुछ पाने की उम्मीद हो उसी से ही कुछ प्राप्त भी हो सकता है। जो देने में सक्षम न हों उनसे नहीं मांगना चाहिए क्योंकि सूखे तालाब के पास जाने से प्यास नहीं बुझती।

दोहा – 33

माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल और
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर।।

अर्थ: माघ मास आने पर टेसू (पलाश ) का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है। इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है। मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है।

दोहा – 34

थोथे बादर क्वार के, ज्यों ‘रहीम’ घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करैं पाछिली बात॥

अर्थ: जिस प्रकार क्वार/आश्विन के महीने में आकाश में घने बादल दीखते हैं पर बिना बारिश किये केवल गडगडाहट की आवाज़ करते हैं। उस प्रकार जब कोई अमीर व्यक्ति गरीब हो जाता है ,तो उसके मुख से बस बड़ी-बड़ी बातें ही सुनने को मिलती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता है।

दोहा – 35

संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है जिस प्रकार चाँद दिन में होते हुए भी ना होने के समान रहता है यानी आभाहीन हो जाता हैं। उसी प्रकार व्यक्ति झूठे सुख के चक्कर में गलत मार्ग यानी बुरी लत में पड़कर अपना सब कुछ खो देता है और दुनिया से ओझल हो जाता हैं।

दोहा – 36

साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि साधु, सज्जन व्यक्ति की प्रशंसा करता है, उसके गुणों को उद्घाटित करता है। एक योगी, योग की बड़ाई करता है। किंतु जो सच्चे वीर होते हैं उनकी प्रशंसा तो उनके शत्रु भी करते हैं।

दोहा – 37

वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं है इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं जाकर रहें और फलों का सेवन करें।

दोहा – 38

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
अर्थ: इस दोहे में पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में है जब इसका मतलब विनम्रता से है। रहीम कह रहे हैं कि मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नम्र नहीं हो सकता और मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपने व्यवहार में हमेशा पानी (विनम्रता) रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है।

दोहा – 39

रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं घड़े और रस्सी की रीति सचमुच सराहनीय है। यदि इनके गुण को अपनाया जाए तो मानव समाज का कल्याण ही हो जाए। कौन नहीं जानता कि घड़ा कुएं की दीवार से टकराकर फूट सकता है और रस्सी घिस घिसकर किसी भी समय टूट सकती है। किंतु अपने टूटने व फूटने की परवाह किए बिना दोनों खतरा मोल लेते हुए, कुएं में जाते हैं और पानी खींचकर सबको पिलाते हैंदोहा – 40

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन कम नहीं होता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती।

दोहा – 41

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥     
अर्थ: कीचड़ का भी पानी धन्य है, जिसे पीकर छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी तृप्त हो जाते हैं। परन्तु समुद्र में इतना जल का विशाल भंडार होने के पर भी क्या लाभ ? जिसके पानी से प्यास नहीं बुझ सकती है। यहाँ रहीम दास जी कुछ ऐसी तुलना कर रहे हैं, जहाँ ऐसा व्यक्ति जो गरीब होने पर भी लोगों की मदद करता है । परन्तु एक ऐसा भी व्यक्ति, जिसके पास सब कुछ होने पर भी वह किसी की भी मदद नहीं करता है।

दोहा – 42

अब रहीम मुसकिल परी गाढे दोउ काम।
सांचे से तो जग नहीं झूठे मिलै न राम।।
अर्थ: इस दोहे में रहीम दास वर्तमान समय की व्यवस्था पर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। रहीम कठिनाई में है। सच्चाई पर दुनिया में काम चलाना अति कठिन है और झूठा बन कर रहने से प्रभु की प्राप्ति असंभव है। भैातिकता और अध्यात्म दोनो साथ साथ निर्वाह नहीं हो सकता।

दोहा – 43

मांगे मुकरि न को गयो केहि न त्यागियो साथ।
मांगत आगे सुख लहयो ते रहीम रघुनाथ।।
अर्थ: वर्तमान समय में अगर आप कुछ भी किसी दूसरे से मांगते हैं तो वह सदैव मुकर जाता है। कोई भी आपको आपके आवश्यकता की वस्तु उपलब्ध नहीं कराता, किंतु केवल ईश्वर ही है जो मांगने पर प्रसन्न होते हैं और आपसे निकटता भी स्थापित कर लेते हैं।

दोहा – 44

जेहि अंचल दीपक दुरयो हन्यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे मित्र शत्रु ह्वै जात।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं जो महिला अपने आँचल से ढककर हवा के तेज झोंके से दीपक के लौ को बुझने से रक्षा करती है। वही रात्रि में सोते समय उसी आंचल से लौ को बुझा देती है। ठीक उसी प्रकार बुरे समय में मित्र भी शत्रु हो जाते है।

दोहा – 45

समय लाभ सम लाभ नहि समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी समय चूक की हूक।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि समय जैसा लाभप्रद और कुछ नहीं। इसी प्रकार समय को चूकने से बड़ी और कोई चूक नहीं। यदि समझदार व्यक्ति समय चूक जाए तो उसे यों प्रतीत होता है, मानों चित्त में चूक की हूक शूल की भांति चुभ गई है। अर्थात अवसरों की कमी नहीं, अवसर चारों ओर बिखरे पड़े हैं, जो इनका सदुपयोग करता है, वह सफलताएं अर्जित करता है!

दोहा – 46

विरह रूप धन तम भये अवधि आस ईधोत।
ज्यों रहीम भादों निसा चमकि जात खद्योत।। 
अर्थ: रात का घना अंधकार वियोग को और अधिक तीव्र कर देता है , अर्थात मन की पीड़ा को और बढ़ा देता है। किंतु भादो मास के अंधकार में ऐसा नहीं होता क्योंकि भादो मास में जुगनू अंधकार में भी आशा का संचार भर देते हैं। 

दोहा – 47

आदर घटे नरेस ढिग बसे रहे कछु नाॅहि।
जो रहीम कोरिन मिले धिक जीवन जग माॅहि।।
अर्थ: जहां व्यक्ति को मान-सम्मान और आदर ना मिले, वैसे स्थान पर कभी नहीं रहना चाहिए। अगर राजा भी आपका आदर सम्मान ना करें तो उसके पास अधिक समय तक नहीं रहना चाहिए। अगर आपको करोड़ों रुपए भी मिले किंतु वहां आदर ना मिले, ऐसे करोड़ों रुपए धिक्कार के समान है।

दोहा – 48

पुरूस पूजै देबरा तिय पूजै रघुनाथ।

कहि रहीम दोउन बने पड़ो बैल के साथ।अर्थ: पति जादू मंतर आदि अनेक देवी देवताओं की पूजा करता है। वही पत्नी राम अर्थात रघुनाथ की पूजा करती है। जब तक इन दोनों में मेल नहीं होगा, तब तक गृहस्थ की गाड़ी ठीक से नहीं चल सकती है। अतः दोनों के संतुलित विचार और व्यवहार के कारण ही गृहस्थ रूपी गाड़ी साथ चल सकती है।

दोहा – 49

धन दारा अरू सुतन सों लग्यों है नित चित्त।
नहि रहीम कोउ लरवयो गाढे दिन को मित्त।।
अर्थ: अपना चित को सदैव धन, संतान और पौरुष पर ही नहीं लगा कर रखना चाहिए, क्योंकि यह सब विपत्ति के समय या आवश्यकता के समय काम नहीं आते। इसलिए अपने चित को सदा ईश्वर मे लगाना चाहिए, जो विपत्ति के समय भी काम आते हैं।

दोहा – 50

रहिमन कुटिल कुठार ज्यों करि डारत द्वै टूक।
चतुरन को कसकत रहे समय चूक की हूक।।
अर्थ: कटु वचन कुल्हाड़ी की भांति होते हैं। जिस तरह कुल्हाड़ी लकड़ी को दो भाग में बांट देता है, ठीक उसी प्रकार कड़वे वचन व्यक्ति को आपसे दूर कर देता है। समझदार व्यक्ति संकट में भी कड़वे वचन नहीं बोलता, वह चुप रह जाता है और सभी जवाब समय पर छोड़ देता है।

जो रहीम उत्तम प्रकृति में कौन सा अलंकार है?

दृष्टान्त अलंकार व अनुप्रास अलंकार है।

उत्तम प्रकृति वालों पर कुसंगति का क्या प्रभाव पड़ता है?

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।। अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं, उनको बुरी संगति भी नहीं बिगाड़ पाती। जिस प्रकार ज़हरीले सांप सुगंधित चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।