जॉन लॉक द्वारा प्रचारित मुख्य विचार क्या था *? - jon lok dvaara prachaarit mukhy vichaar kya tha *?

जॉन लॉक का मानना है कि अपनी नैतिक प्रवृत्ति के कारण ही मानव पशुओं से अलग है। मानव विश्व व्यवस्था का एक अंग है और यह सारा संसार एक नैतिक व्यवस्था है। मानवीय विवेक इस विश्व नैतिक व्यवस्था और मानव में सम्बन्ध स्थापित करता है। 


जॉन लॉक का कहना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते इस विश्व व्यवस्था में आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करने को तैयार हो जाता है, लेकिन कभी-कभी उसमें शत्रुता, द्वेष, हिंसा तथा परस्पर भत्र्सना भी हावी हो जाती है। किन्तु अपनी नैतिक प्रवृत्ति, विवेक एवं भौतिक आवश्यकताओं के कारण वह समाज से बाहर जाना नहीं चाहता। वह समाज में रहकर अपने को सामाजिक मानदण्डों के अनुरूप् ढालने का प्रयत्न करता है।

जॉन लॉक का मानना है कि विवेकशील प्राणी होने के नाते अपने अस्थायी स्वार्थपन को त्यागकर समाज का अभिन्न अंग बना रहता है। जॉन लॉक का कहना है कि सभी मानव जन्म से एक-दूसरे के समान हैं - शारीरिक दृष्टिकोण से नहीं अपितु नैतिक दृष्टिकोण से। प्रत्येक व्यक्ति एक ही गिनाजाता है। अत: वह नैतिक दृष्टि से एक-दूसरे के बराबर है। कोई भी किसी दूसरे की इच्छा पर आश्रित नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी इच्छाएँ हैं। ये समस्त इच्छाएँ मानवीय क्रियाओं का स्रोत हैं। इच्छा पूर्ण होने पर व्यक्ति सुख तथा पूरान होने पर दु:ख का अनुभव करता है। इसलिए मनुष्य हमेशा सुख प्राप्ति के प्रयास ही करता है। मानव सदैव उन्हीं कार्यों को करता है जिनसे उेस आनन्द मिले और दु:ख दूर हो। 


जॉन लॉक का कहना है कि मनुष्य को वही कार्य करना चाहिए जिससे सामूहिक प्रसन्नता प्राप्त हो क्योंकि सामूहिक प्रसन्नता ही कार्यों की अच्छाई-बुराई का मापदण्ड है। जॉन लॉक के अनुसार सभी मनुष्य सदा बौद्धिक रूप से विचार कर सुख की प्राप्ति नहीं करते। मनुष्य वर्तमान के सुख को भविष्य के सुख से एवं समीप के सुख को दूर के सुख से अधिक महत्त्च देते हैं। इससे व्यक्तिगत हित सार्वजनिक से मिल जाते हैं। अतएव जॉन लॉक ने कहा है कि जहाँ तक सम्भव हो मनुष्यों को दूरस्थ हितों से प्रेरित होकर कार्य करना चाहिए जिससे व्यक्तिगत हित एवं सार्वजनिक हित में समन्वय स्थापित हो सके। मनुष्य को दूरदश्री, सतर्क और चतुर होना चाहिए। 


जॉन लॉक को मनुष्य की स्वशासन की योग्यता पर पूरा भरोसा है। उसका मानना है कि अपनी बुद्धि और विवेकशीलता द्वारा मनुष्य अपने कर्त्तव्यों और प्राकृतिक कानूनों का पालन कर सकता है। वह अपनी इच्छानुसार कार्यों को करने से ही अपना जीवन शान्तिमय बना सकता है।

मानव स्वभाव की अवधारणा के निहितार्थ

जॉन लॉक की मानव प्रकृति अवधारणा की प्रमुख बातें हैं :-
  1. मनुष्य एक सामाजिक तथा विवेकशील प्राणी है 
  2. मनुष्य शांति एवं भाई-चारे की भावनवा से रहना चाहता है 
  3. 3ण् मनुष्य के स्वाथ्र्ाी होते हुए भी उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा परोपकार की भावना है।
  4. 4ण् सभी व्यक्ति नैतिक रूप से समान होते हैं। 
  5. जॉन लॉक तथा हॉब्स की मानव स्वभाव की तुलना
हॉब्स तथा जॉन लॉक के मानव स्वभाव की अवधारणा के अध्ययन के बाद अन्तर देखने को मिलते हैं :-
  1. हॉब्स ने मनुष्य को स्वाथ्र्ाी तथा आत्मकेन्द्रित बताया है, लेकिन जॉन लॉक ने उसे परोपकारी तथा सदाचारी बताया है।
  2. हॉब्स मनुष्य को असामाजिक तथा बुद्धिहीन प्राणी कहता है, लेकिन जॉन लॉक उसे सामाजिक तथा विवेकशील प्राणी बताता है।
  3. हॉब्स मनुष्य को पशु के समान मानता है, लेकिन जॉन लॉक उसे नैतिक गुण सम्पन्न मानता है।
  4. हॉब्स मनष्यों की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के आधार पर सभी मनुष्यों को समान मानता है, लेकिन जॉन लॉक इसका विरोध करते हुए केवल नैतिक रूप से सभी को समान मानता है।

जॉन लॉक के मानव स्वभाव की अवधारणा की आलोचना

जॉन लॉक के मानव स्वभाव सम्बन्धी विचारों की आलोचनाएँ की गई है :-

1. जॉन लॉक का नैतिकता का सिद्धान्त सन्देहेहेहपूर्ण एवं अस्पष्ट है : जॉन लॉक नैतिक रूप से सभी मनुष्यों को समान मानता है लेकिन वह यह स्पष्ट नहीं करता कि अच्छाई की कसौटी क्या है। इसलिए यह सिद्धान्त सन्देहपूर्ण एवं अस्पष्ट है। इसमें वैचारिक स्पष्टता का पूर्णत: अभाव है।

2. जॉन लॉक के मानव-प्रकृ्रति सम्बन्धी विचारों में विरोधाभास व असंगति है : जॉन लॉक मनुष्य को एक तरफ तो परोपकारी, शान्त एवं सद्भावी प्रकृति का मानता है और दूसरी ओर उसका मानना है कि व्यक्ति स्वाथ्र्ाी है। इससे वैचारिक असंगति एवं विरोधाभास का जन्म होता है।

3. जॉन लॉक की मानव प्रकृ्रति की अवधारणा एक पक्षीय है : जॉन लॉक ने भी हॉब्स की तरह ही मानव स्वभाव के एक पक्ष पर ही विचार किया है। जॉन लॉक मानव स्वभाव को अच्छा बताता है। परन्तु मानव में सहयोगी, स्नेही, विवेकपूर्ण एवं सामाजिक प्राणी होने के अलावा दैत्य प्रवृत्तियाँ भी हैं। 

हॉब्स की तरह जॉन लॉक भी अपने राजनीति दर्शन का प्रारम्भ प्राकृतिक अवस्था से करता है। जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था की अवधारणा हॉब्स की प्राकृतिक दशा की धारणा से बिल्कुल विपरीत है। जॉन लॉक का विश्वास है कि मनुष्य एक बुद्धियुक्त प्राणी है और वह नैतिक अवस्था को मानकर उसके अनुसार रह सकता है। जॉन लॉक अपने विचारों में हॉब्स से अलग मौलिकता के आधार पर है। 


जॉन लॉक के अनुसार- “जब मनुष्य पृथ्वी पर अपनी बुद्धि के अनुसार बिना किसी बड़े तथा अपना निर्णय स्वयं करने के अधिकार के साथ रहते हैं, वही वास्तव में प्रारम्भिक अवस्था है।” यह कोई असम्भव तथा जंगली लोगों का वर्णन नहीं है बल्कि नैतिकता तथा विवेकपूर्ण ढंग से रहने वाली जाति का वर्णन है। उनका पथ-प्रदर्शन करने वाला प्रकृति का कानून है। “यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ प्रत्येक पूर्ण स्वाधीनता के साथ अपने कार्यों पर नियन्त्रण कर सकता है तथा अपनी इच्छानुसार अपनी वस्तुओं का प्रकृति के कानून के अन्तर्गत बिना किसी अन्य हस्तक्षेप के तथा दूसरों पर निर्भर रहते हुए विक्रय कर सकता है या दूसरों को दे सकता है।” यही समानता की अवस्था है। यह सभी के साथ युद्ध की अवस्था नहीं है।

जॉन लॉक के अनुसार “मानव प्रकृति सहनशील, सहयोगी, शांतिपूर्ण होने से प्राकृतिक दशा, शान्ति, सद्भावना, परस्पर सहायता तथा प्रतिरक्षण की अवस्था थी। जहाँ हॉब्स के लिए मनुष्य का जीवन एकाकी, दीन-मलीन तथा अल्प था, वहाँ जॉन लॉक के लिए प्रत्येक का जीवन सन्तुष्ट तथा सुखी था। प्राकृतिक अवस्था के मूलभूत गुण ‘शक्ति और धोखा’ नहीं थे, बल्कि पूर्णरूप से न्याय तथा भ्रातृत्व की भावना का साम्राज्य था। यह सामाजिक तथा नैतिक दशा थी, जहाँ मनुष्य स्वतन्त्र, समान व निष्कपट था। यह ‘सद्भावना’, ‘सहायता और आत्मसुरक्षा की दशा थी, जहाँ मनुष्य सुखी एवं निष्पाप जीवन व्यतीत करते थे। 


जॉन लॉक के लिए प्रारम्भिक अवस्था सौहार्द तथा सह-अस्तित्व की है अर्थात् युद्ध की स्थिति न होकर शान्ति की अवस्था है। जॉन लॉक की प्रारम्भिक अवस्था पूर्व सामाजिक न होकर पूर्व राजनीतिक अवस्था है। इसमें मनुष्य निरन्तर युद्ध नहीं करता बल्कि इसमें शान्ति और बुद्धि ज्ञान का साम्राज्य है। प्रकृति का कानून राज्य के कानून के विपरीत वही है। प्रकृति के कानून का आधारभूत सिद्धान्त मनुष्यों की समानता है। 


जॉन लॉक ने ‘शासन पर दो निबन्ध’ नामक ग्रन्थ में लिखा है- “जैसा कि सिद्ध हो चुका है मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्रता के अधिकार के साथ जन्म लेता है तथा प्रकृति के कानून के उपयोग और प्रयोग पर उसका बिना प्रतिबन्ध के विश्व में अन्य किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के समान अधिकार है। अन्य मनुष्यों के समान ही उसे सम्पत्ति को सुरक्षित रखने अर्थात् जीवन, स्वाधीनता और सम्पत्ति की अन्य लोगों के आक्रमण से केवल सुरक्षा का ही अधिकार प्रकृति से नहीं मिला बल्कि उसका उल्लंघन करने वालों को दण्ड का अधिकार भी मिला है।” 


प्रारम्भिक अवस्था में केवल वैचारिक, शारीरिक शक्ति तथा सम्पत्ति की ही समानता नहीं थी बल्कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता भी थी। सम्पत्ति, जीवन तथा स्वतन्त्रता का अधिकार मनुष्य का जन्मजात अपरिवर्तनीय अधिकार था। इन अधिकारों के साथ-साथ इस अवस्था में कर्त्तव्य एवं नैतिक भावनाओं की प्रचुरता भी मनुष्यों में थी। हॉब्स केवल अधिकार की बात करता है। जॉन लॉक ने अधिकार के साथ-साथ कर्त्तव्य को भी बाँध दिया है। 


इस प्रकार जॉन लॉक ने हॉब्स के नरक की बजाय अपनी प्राकृतिक अवस्था में स्वर्ग का चित्रण किया है। एक की प्राकृतिक अवस्था कलयुग की प्रतीक है तो दूसरे की सतयुग की; यदि एक अंधकार का वर्णन करता है तो दूसरा प्रकाश है एवं यदि एक निराशावाद का चित्र उपस्थित करता है तो दूसरा आशावाद का। हरमन के अनुसार- “जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था वह पूर्ण स्वतन्त्रता की अवस्था है जिसमें मनुष्य प्राकृतिक विधियों को मानते हुए कुछ भी करने को स्वतन्त्र है।”

प्राकृतिक अवस्था को परिभाषित करते हुए जॉन लॉक लिखता है कि- “जब व्यक्ति विवेक के आधार पर इकट्ठे रहते हों, पृथ्वी पर कोई सामान्य उच्च सत्ताधारी व्यक्ति न हो और उनमें से एक दूसरे को परखने की शक्ति हो तो वह उचित रूप से प्राकृतिक अवस्था है।” यह प्राकृतिक अवस्था इस विवेकजनित प्राकृतिक नियम पर आधारित है कि ‘तुम दूसरों के प्रति वही बर्ताव करो, जिसकी तुम दूसरों से अपने प्रति आशा करते हो।’ यह प्राकृतिक अवस्था स्वर्णयुग की अवस्था है क्योंकि इसमें शान्ति व विवेक का बाहुल्य है।

जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था की विशेषताएँ

जॉन लॉक की प्राकृतिक दशा की विशेषताएँ हैं :
  1. प्राकृतिक अवस्था एक सामाजिक अवस्था है जिसमें मनुष्य नैतिक अवस्था को मानने वाला और उसके अनुसार आचरण करने वाला प्राणी था। राज्य एवं शासन का अभाव होने के बावजूद अव्यवस्था एवं अराजकता की स्थिति नहीं होती थी। जॉन लॉक के प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य शांत, सहयोगी, सद्भावपूर्ण और सामाजिक था।
  2. प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों का पालन भी करता था। मनुष्य के मूल अधिकारों का स्रोत प्राकृतिक कानून है। जॉन लॉक के अनुसार मानव के जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकारों का आधारभूत कारण प्राकृतिक कानून ही था।
  3. जॉन लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था, प्राकृतिक अधिकारों वाली अवस्था थी। इसमें न्याय, मैत्री, सद्भावना और शान्ति की भावना का मूल आधार प्राकृतिक कानून है। जॉन लॉक का मत है कि ईश्वर ने इन प्राकृतिक कानूनों को मानव आत्मा में स्थापित किया है; जिसके कारण मनुष्य कानून के अनुसार आचरण करता है।
  4. जॉन लॉक का मानना है कि मनुष्यों को दूसरों के जीवन, स्वास्थ्य, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने से रोकने के लिए लिए, अन्य मानवों को दण्ड देने का अधिकार था जो प्राकृतिक कानूनों की अवज्ञा करते थे। प्रत्येक को कानून भंग करने वाले को उतना दण्ड देने का अधिकार है जितना कानून भंग को रोकने के लिए प्राप्त है। प्राकृतिक अवस्था को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए, मनुष्य को प्राकृतिक कानून का पालन करने के साथ-साथ उसके उल्लंघन करने वालों को भी दण्डित करना अनिवार्य था।
  5. जॉन लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य समान थे क्योंकि “सभी सृष्टि के एक ही स्तर पर और एक ही सर्वशक्तिमान ईश्वर की सन्तान है।” समान होने के कारण सभी प्राकृतिक अधिकारों का उपभोग और परस्पर कर्त्तव्यों का पालन मैत्री, सद्भावना तथा परस्पर सहयोग की भावना के आधार पर करते थे। अत: मानवों में निष्कपट व्यवहार पाया जाता है।
  6. जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था पूर्ण सामाजिक न होकर पूर्व राजनीतिक है। जॉन लॉक का मानना है कि हॉब्स की तरह यह पूर्व सामाजिक नहीं है। यह सभी मनुष्यों को सामाजिक प्राणी मानकर व्यक्ति के सभी अधिकार उसके सामाजिक जीवन में ही सम्भव मानता है।
  7. जॉन लॉक प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक कानून तथा नागरिक कानून को एक-दूसरे के पूरक मानता है। उनका मानना है कि प्राकृतिक कानून नागरिक कानून का पूर्वगामी ;।दजमबमकमदजद्ध है। यही प्राकृतिक कानून व्यक्तियों के आचरण को नियमित व अनुशासित करता है। 8ण् जॉन लॉक नैतिकता को कानून की जननी मानता है। उसका कहना है कि कानून उन्हीं नियमों को क्रियान्वित करता है जो पहले से प्रकृतित: उचित है।
  8. हॉब्स के विपरीत जॉन लॉक जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार मानता है। जॉन लॉक का कहना है कि सभी अधिकार पूर्व राजनीतिक अवस्था में भी विद्यमान थे। इस प्रकार जॉन लॉक का प्राकृतिक अवस्था का वर्णन हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था से अलग तरह का है। हॉब्स ने मनुष्य को असामजिक प्राणी बताकर बड़ी भूल की है। जॉन लॉक मानव को परोपकार, सदाचारी व कर्त्तव्यनिष्ठ प्राणी मानकर चलता है। जॉन लॉक प्राकृतिक कानून को नागरिक कानून का पूरक ही मानता है। जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था भी हॉब्स की तरह कुछ कमियों से ग्रसित है।

जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था की कमियाँ

जॉन लॉक की प्रारम्भिक अवस्था में यद्यपि काफी भोलापन, सच्चाई और सौजन्यता विद्यमान है किन्तु इस पर भी यह पूर्णरूपेण दोषयुक्त नहीं है। जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में कमियाँ हैं :-

1. लिखित कानूनों का अभाव : जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में एक स्थापित, निर्धारित एवं सुनिश्चित कानून की कमी थी। कानून का रूप अस्पष्ट था। प्रत्येक व्यक्ति को कानून की व्याख्या अपने ढंग से करने की छूट थी। ऐसा लिखित कानून के अभाव में था। कानून का लिखित रूप न होने की वजह से लोग उसकी मनचाही व्याख्या करने में स्वतन्त्र थे। मनुष्य अपने स्वार्थ एवं पक्षपात की भावना से कानून का प्रयोग करता था। वह अपने ही हित को सार्वजनिक हित माने की गलती करता था। व्यक्ति को अपने कार्यों के बारे में सत्यता या असत्यता का ज्ञान नहीं था। जॉन लॉक का कहना है कि “एक स्थायी तथा सुनिश्चित कानून की आवश्यकता है जो सही और गलत का निर्धारण कर सके।” इससे प्राकृतिक अवस्था में कानून का लिखित रूप में न होने का दोष स्पष्ट दिखाई देता है। अत: इस अवस्था में प्राकृतिक कानून के अन्तर्विषय के बारे में अनेक भ्रान्तियाँ तथा अनिश्चितताएँ थीं। कानून की मनचाही व्याख्या अराजकता को जन्म देती है।

2. निष्पक्ष और स्वतन्त्र न्यायधीशों का अभाव : प्राकृतिक अवस्था में निष्पक्ष न्यायधीश नहीं होते थे। वे पक्षपातपूर्ण ढंग से न्याय करते थे। प्राकृतिक कानून के अनुसार प्रत्येक अपराधी को उतना ही दण्ड दिया जाना चाहिए जितना विवेक और अंतरात्मा आदेश दे। 


जॉन लॉक के अनुसार- “एक प्रसिद्ध तथा निष्पक्ष न्यायधीश की आवश्यकता है जो तत्कालीन कानून के अनुसार अधिकार के साथ सारे झगड़े निपटा सके।” जॉन लॉक का यह कथन स्पष्ट करता है कि उस समय प्राकृतिक अवस्था में निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायधीशों का अभाव था। जॉन लॉक की इस अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं न्यायधीश है। कोई तीसरा निष्पक्ष व्यक्ति न्यायधीश नहीं था। 

इस अवस्था में प्राकृतिक कानून की व्याख्या करने तथा उसका निष्पादन करने वाली कोई शक्ति नहीं थी।

3. कार्यपालिका का अभाव : जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में न्याययुक्त निर्णय को लागू करने के लिए किसी कार्यपालिका का अभाव था। जॉन लॉक के अनुसार- “आवश्यकता पड़ने पर उचित निर्धारित दण्ड देने और उसे क्रियान्वित करने की भी जरूरत है।” इससे स्पष्ट होता है कि जॉन लॉक की प्राकृतिक दशा में कोई कार्यकारिणी शक्ति नहीं थी। प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति स्वयं ही कानूनों को लागू करते थे। इस अवस्था में शक्तिशाली व्यक्ति ही अपनी स्वार्थ-सिद्धि करते थे। जिस मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह अन्याय के समक्ष अपने प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा कर सके, वह सदा न्याय से वंचित रह जाता था। प्रतिभा में अन्तर होने के कारण हितों में टकराव उत्पन्न होते थे। इनका कार्यपालिका के अभावमें निपटाना नहीं होता था। अत: इस अवस्था में कोई कार्यपालिका नहीं थी।

हॉब्स तथा जॉन लॉक की प्राकृतिक दशा की तुलना 

यदि हॉब्स व जॉन लॉक की प्राकृतिक दशा की तुलना की जाए तो अन्तर आते हैं :-
  1. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य का जीवन एकाकी, निर्धन, घृणित, पाशविक और अल्प था, परन्तु जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य समान, स्वतन्त्र, विवेकपूर्ण और कर्त्तव्यपरायण है।
  2. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था संघर्ष और युद्ध की अवस्था थी, जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था शांति, सद्भावना, पारस्परिक सहयोग और सुरक्षा की अवस्था है।
  3. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था पूर्व सामाजिक थी, जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था पूर्व राजनीतिक है।
  4. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में केवल एक ही अधिकार (आत्मरक्षा का अधिकार) था। इसमें कर्त्तव्यों का कोई स्थान नहीं था। इसके विपरीत जॉन लॉक ने जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के तीन अधिकारों का वर्णन किया है। इस अवस्था में अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का भी स्थान है।
  5. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में केवल प्राकृतिक अधिकार थे, प्राकृतिक कानून नहीं। जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक अधिकार व प्राकृतिक कानून दोनों के लिए स्थान है।
  6. हॉब्स प्राकृतिक कानून तथा नागरिक कानून में अन्तर करते हुए उन्हें परस्पर विरोधी मानता है, जबकि जॉन लॉक इन दोनों को एक-दूसरे के पूरक मानता है। जॉन लॉक के अनुसार प्राकृतिक कानून नागरिक कानून का पूर्वगामी है।

जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था की आलोचना

प्राकृतिक अवस्था के स्वर्णिम चित्रण के बावजूद भी जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था की आलोचनाएँ की गई हैं। इसकी कुछ आलोचनाएँ हैं:-
  1. जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था सम्पूर्ण अधिकारयुक्त पूंजीपतियों के वर्ग का दर्शन है जिसका जॉन लॉक स्वयं भी एक सदस्य था। जॉन लॉक का व्यक्ति केवल अपने अधिकारों की मांग करता हुआ प्रतीत होता है। जॉन लॉक का मनुष्य अपने स्वार्थ-सिद्धि के लए दूसरे के अधिकारों का हनन करने में स्वतन्त्र है। जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में कानून का लिखित रूप न होने की स्थिति में पूंजीपति वर्ग अपने आर्थिक प्रभुत्व के बल पर कानून का मनमाने ढंग से प्रयोग व व्याख्या करता था।
  2. जॉन लॉक प्राकृतिक कानून का स्पष्ट चित्रण नहीं करता।
  3. जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था न तो ऐतिहासिक है और न ही प्राकृतिक है। जोन्स के अनुसार-”जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था न तो ऐतिहासिक है और न ही प्राकृतिक। वास्तव में जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य की वही स्थिति है जो संगठित समाज में मनुष्य की होती है।”
  4. राज्य के अभाव में अधिकार अर्थहीन होते हैं। जॉन लॉक राज्यविहीन अवस्था में प्राकृतिक अधिकारों की बात करता है, जो अविश्वसनीय है।
  5. जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था मानव स्वभाव के एक पक्ष का चित्रण करती है। मानव की दैत्य प्रकृति की इसमें उपेक्षा की गई है। मानव अच्छी तथा बुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का मिश्रण है।
  6. जॉन लॉक प्राकृतिक अवस्था में जिस शांति का वर्णन करता है, अभूतपूर्व प्रगति होने पर आज भी वह नहीं आई है। अत: उसका प्राकृतिक अवस्था का वर्णन अविश्वसनीय है। 
  7. जॉन लॉक ने प्राकृतिक दशा में उस अवस्था को छोड़नेका कारण नहीं बताया है। अत: जॉन लॉक की प्राकृतिक दशा का चित्रण अवैज्ञानिक है।
उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है कि जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था शांति, परोपकार, सदाचारी, बुद्धियुक्त गुणों से भरपूर होते हुए भी कुछ दोषों से ग्रस्त थी। इस अवस्था में कानून का अलिखित होना समाज में अराजकता की स्थिति कायम करने के लिए काफी था। न्याय की परिभाषा करने वाली संस्था का अभाव था। फिर भी जॉन लॉक ने अपनी प्राकृतिक दशा के बारे में लिखते हुए मानव-स्वभाव के अच्छे गुणों पर प्रकाश डाला है। 


आलोचकों ने जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था को अव्यावहारिक माना है परन्तु व्यक्तियों के परस्पर सहयोग और विवेकशीलता की प्रधानता से उसके विचार जीवित हो उठते हैं। नैतिक दर्शन में जॉन लॉक की यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है।

जॉन लॉक के अनुसार प्राकृति अवस्था में मनुष्य की क्या स्थिति थी?

जॉन लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य समान थे क्योंकि “सभी सृष्टि के एक ही स्तर पर और एक ही सर्वशक्तिमान ईश्वर की सन्तान है।” समान होने के कारण सभी प्राकृतिक अधिकारों का उपभोग और परस्पर कर्त्तव्यों का पालन मैत्री, सद्भावना तथा परस्पर सहयोग की भावना के आधार पर करते थे।

जॉन लॉक के सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत की महत्वपूर्ण विशेषताएं क्या हैं?

लॉक के सामाजिक समझौते में व्यक्ति अपने केवल कुछ ही अधिकारों का परित्याग करते हैं, अपने सभी अधिकारों का नहीं। ये अधिकार हैं-प्राकृतिक कानून की व्याख्या करने, उसे कार्य रूप देने तथा उल्लंघनकारी को दण्ड देने के अधिकार। वह अपना अधिकार किसी एक व्यक्ति को नहीं, समस्त जनसमुदाय को सौंपता है।

लॉक का सिद्धांत क्या है?

लॉक की दृष्टि में व्यवस्थापिका राज्य का सर्वोच्च अंग है और कार्यपालिका उसके अधीन है पर यदि व्यवस्थापिका स्वेच्छाचारी आचरण करने लगे तो जनता को अधिकार है कि वह उसे नष्ट कर दे या बदल दे । लॉक के सिद्धांत की यह विशेषता है कि सरकार के भंग होने पर समाज ज्यों का त्यों बना रहता है, क्योंकि समाज का स्थान सरकार के ऊपर है ।

जॉन लॉक द्वारा प्रचलित मुख्य विचार क्या था?

जॉन लॉक वह प्रथम विचारक हैं, जिसने आधुनिक युग में अधिकारों की संकल्पना को प्रस्तुत कीया थाजॉन के अनुसार व्यक्ति को प्राप्त प्राकृतिक अधिकार, प्राकृति द्वारा या जन्मजात हैं और यह व्यक्ति से अलग नहीं किए जा सकते । जॉन लॉक का यह मानना है कि इन प्राकृतिक अधिकारों की प्राप्ति राज्य, समाज से नहीं हुई ।