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उसे पढ़ें। • अपठित गद्यांश के कुछ उदाहरण हल सहित दिए जा रहे हैं। उनके बाद अभ्यासार्थ कुछ अपठित गद्यांश दिए गए हैं।
भारतेंदु के जीवन का उद्देश्य अपने देश की उन्नति के मार्ग को साफ-सुथरा और लंबा-चौड़ा बनाना था| उन्होंने इसके काँटों और कंकड़ों को दूर किया| उसके दोनों और सुंदर-सुंदर क्यारियां बनाकर उनमें मनोरम फल-फूलों के वृक्ष लगाए| इस प्रकार उसे सुरमय बना दिया कि भारतवासी उस पर आनंदपूर्वक चलकर अपनी उन्नति के इष्ट स्थान तक पहुंच सके| यद्यपि भारतेंदु जी अपने लगाए हुए वृक्षों को फल-फूलों से लदा न देख सके, फिर भी हमको यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होगा कि वे जीवन के उद्देश्य में पूर्णतया सफल हुए| हिंदी भाषा और साहित्य में जो उन्नति आज दिखाई पड़ रही है उसके मूल कारण भारतेंदु जी है और उन्हें ही इस उन्नति के बीज को रोपित करने का श्रेय प्राप्त है| उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) भारतेंदु के जीवन
का उद्देश्य क्या था ? (ख) भारतेंदु ने अपने जीवन में क्या किया ? (ग) भारतेंदु जी को किसका श्रेय प्राप्त है ? (घ) मनोरम का अर्थ बताइए ? (ड़) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए|
गांधीवाद में राजनीतिक और आध्यात्मिक तत्वों का समन्वय मिलता है| यही इस वाद की विशेषता है| आज संसार में जितने भी वाद प्रचलित है वह प्राय: राजनीति क्षेत्र में सीमित हो चुके हैं| आत्मा से उनका संबंध-विच्छेद होकर केवल बाह्य संसार तक उनका प्रसार रह गया है| मन की निर्मलता और ईश्वर-निष्ठा से आत्मा को शुद्ध करना गांधीवाद की प्रथम आवश्यकता है| ऐसा करने से नि:स्वार्थ बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य सच्चे अर्थों में जन-सेवा के लिए तत्पर हो जाता है| गांधीवाद में सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं है| इसी समस्या को हल करने के लिए गांधीजी ने अपने जीवन का बलिदान दिया था|
(क) गांधीवाद और अन्य प्रचलित वाद किस प्रकार अलग हैं ? (ख) गांधीवाद की आवश्यकता किसे बताया गया
है ? (ग) गांधी जी को अपने जीवन का बलिदान क्यों देना पड़ा ? (घ)
‘आध्यात्मिक’ शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए| (ड़) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए|
संसार के विकसित देश; जैसे- जापान, अमेरिका, रूस तथा जर्मनी आदि समृद्धशाली कैसे बने हैं ? निश्चय ही, कठोर परिश्रम द्वारा| जिस राष्ट्र के लोग दृढ़ संकल्प तथा परिश्रमपूर्वक कर्म से लीन है, उनकी उन्नति तथा प्रगति अवश्यंभावी है| परिश्रमी व्यक्ति विश्वासपूर्वक मार्ग की बाधाओं को हटाता हुआ निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है| जो परिश्रम से जी चुराता है वह सदा दिन- हीन ही बना रहता है| संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी महानता के पीछे कठिन परिश्रम ही रहा है| चाहे न्यूटन और रमन जैसे वैज्ञानिक हो या शेक्सपीयर और टैगोर जैसे कवि; रॉकफेलर और बिरला जैसे व्यापारी हो या लिंकन और गांधी जैसे नेता; सभी ने अपने-अपने क्षेत्र में कठोर संघर्ष तथा अथक परिश्रम किया है| उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) कौन-सा राष्ट्र अवश्य प्रगति करता है| (ख) परिश्रमी और आलसी व्यक्ति के बीच क्या अंतर होता है ? (ग) संघर्ष एवं परिश्रम द्वारा किन लोगों ने सफलता प्राप्त की ? (घ) ‘महापुरुष’ शब्द का समास-विग्रह कीजिए और भेद बताइए ? (ड़) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए| 04 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें : काशी के सेठ गंगादास एक दिन गंगा में स्नान कर रहे थे कि तभी एक व्यक्ति नदी में कूदा और डुबकियाँ खाने लगा। सेठजी तेजी से तैरते हुए उसके पास पहुँचे और किसी तरह खींच कर उसे किनारे ले आए। वह उनका मुनीम नंदलाल था। उन्होंने पूछा, ‘आप को किसने गंगा में फेंका?’ नंदलाल बोला, ‘किसी ने नहीं, मैं तो आत्महत्या करना चाहता था। ‘सेठजी ने इसका कारण पूछा तो उसने कहा, ‘मैंने आप के पाँच हजार रुपये चुरा कर सट्टे में लगाए और हार गया। मैंने सोचा कि आप मुझे जेल भिजवा देंगे इसलिए बदनामी के डर से मैंने मर जाना ही ठीक समझा।‘ कुछ देर तक सोचने के बाद सेठजी ने कहा, ‘तुम्हारा अपराध माफ किया जा सकता है लेकिन एक शर्त है कि आज से कभी किसी प्रकार का सट्टा नहीं लगाओगे।’ नंदलाल ने वचन दिया कि वह अब ऐसे काम नहीं करेगा। सेठ ने कहा, ‘जाओ माफ किया। पाँच हजार रुपये मेरे नाम घरेलू खर्च में डाल देना।’ मुनीम भौंचक्का रह गया। सेठजी ने कहा, ‘तुमने चोरी तो की है लेकिन स्वभाव से तुम चोर नहीं हो। तुमने एक भूल की है, चोरी नहीं। जो आदमी अपनी एक भूल के लिए मरने तक की बात सोच ले, वह कभी चोर हो नहीं सकता। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) सच्चे भक्त से तात्पर्य है- उत्तर- (1) बिना स्वार्थ के पूजा करना (ख) मुनीम आत्महत्या क्यों करना चाहता था- उत्तर-(4) अपराध बोध होने के कारण (ग) हमें समाज में किस चीज का डर सबसे ज्यादा होता है- उत्तर- (4) बदनामी का (घ) सेठजी को
मालूम था कि मुनीम चोर है लेकिन फिर उन्होंने उसे छोड़ दिया क्योंकि- उत्तर- (2) भूल सुधारने का मौका देना चाहते थे (ङ) गद्यांश का उचित शीर्षक हो सकता है- उत्तर- (3) ‘सेठजी की दयालुता’
जिस प्रकार बीज के उगने और बढ़ने के लिए मौसम विशेष नहीं, अपेक्षित परिस्थितियों का निर्माण जरूरी है। उसी प्रकार किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिए बाहरी परिस्थितियाँ नहीं, मन की सकारात्मक वृत्ति अनिवार्य है और वह सकारात्मक वृत्ति है हमारा संकल्प। संकल्पाः कल्पतरवः, तेजः कल्पकोद्यानम्’ अर्थात संकल्प ही कल्पतरु हैं और तेज अथवा मन उन कल्पतरुओं का उद्यान है। जैसी कल्पना वैसा उद्यान अर्थात जीवन की दिशा और दशा। गहन संकल्प से ही संभव है पूर्ण सफलता। कुछ कर गुजरने के लिए वास्तव में मौसम अथवा बाहरी परिस्थितियाँ ही सब कुछ नहीं हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण है मन। इस संपूर्ण सृष्टि के सृजन के मूल में मन ही तो है। मन हीवह अदृश्य सूक्ष्म बीज अथवा सत्ता है जिससे यह पृथ्वी रूपी विशाल वट वृक्ष अस्तित्व में आया और निंरतर पल्लवित-पुष्पित हो रहा है। तभी तो कहा गया है। कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं मन चाहिए। साधन सभी जुट जाएँगे संकल्प का धन चाहिए। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) जीवन में कुछ कर गुज़रने के लिए आवश्यक है- उत्तर- (2) मन (ख) कार्य में सफलता के लिए अनिवार्य है- उत्तर- (3) सकारात्मक वृत्ति (ग) बीज के उगने और बढ़ने के लिए ज़रूरी
है- उत्तर- (1) अपेक्षित परिस्थितियाँ (घ) हमारी सकारात्मक वृत्ति है- उत्तर- (4) संकल्प (घ) गद्यांश का उचित शीर्षक हो सकता है- उत्तर- (1) संकल्प का धन
देना ही देवता की वास्तविक विशेषता है। असहाय व्यक्ति का शोषण करने वाला किसी को केवल दुःख दे सकता है। देने का काम वही कर सकता है जो स्वयं भी परिपूर्ण होता है। देवता स्वयं को भी देता है और दूसरों को भी। जिसने स्वयं को न दिया, वह दूसरों को क्या देगा? हम लोग अक्सर कहते हैं कंजूस किसी को कुछ नहीं देता। यह बात ठीक नहीं है कि कृपण दूसरे को नहीं देता, पर देता है? वह दीन-हीन की तरह रहता है और उसी तरह मर भी जाता है। देने से किसी व्यक्ति की सम्पन्नता सार्थक होती है। धन की तीन गतियाँ होती हैं-उपभोग, दान और नाश। जिसने धन का उपभोग नहीं किया, दान नहीं किया, उसके धन के लिए एक ही गति बचती है-नाश। घूस और अनैतिक ढंग से हड़पकर दूसरों के धन से घर भरने वालों का यही अन्त होता है। सत्ता, व्यापार, राजनीति में इस प्रकार के सफेदपोश लुटेरे छुपे हुए हैं। जो हम अर्जित करते हैं, वह हमारा जीवन है। धन हमारे जीवन का केन्द्र नहीं है। धन एक संसाधन है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हैं। धन एक सहायक-सामग्री है, जिससे हम जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। धन का काम है कि वह हमें सुख दे। यह सुख हमें तीन क्रियाओं से मिलता है-धन के अर्जन से, धन के उपभोग से और धन के दान से। इन तीन क्रियाओं से धन हमारी सेवा करता है। बाकी क्रियाओं से हम धन की सेवा करते हैं। कंजूस धन को बचा लेते हैं। अपव्ययी उसे उड़ा देते हैं, लाला उसे उधार देते हैं। चोर उसे चुरा लेते हैं, धनी उसे बढ़ा देते हैं, जुआरी उसे आँवा देते हैं और मरने वाले उसे पीछे छोड़ जाते हैं। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) देवता की वास्तविक विशेषता क्या है? (ख) कंजूस का जीवन कैसा होता है? (ग) धन की कितनी गतियाँ होती हैं? (घ) किस धन का नाश होता
है? (ड़) हमें सुख कैसे मिलता है?
परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है-खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना। यदि आपको कहा जाए कि दशहरा पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा। लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि अखबारों में प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के कौशल का विकास होता है। इससे आपमें एकाग्रता का विकास होता है। लेखन संबंधी नई-नई शैलियों का विकास होता है। आपमें चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है। परियोजना कई प्रकार से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का, रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तोर पर दो भागों में बाँट सकते हैं-एक तो वे परियोजनाएँ, जो समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी , जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती है। समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के निदान के लिए भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ प्रायः सरकार अथवा संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य – योजना तैयार करते समय बनाई जाती हैं। इससे उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करने में आसानी हो जाती है। किंतु दूसरे प्रकार की परियोजना को आप आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसे ‘शैक्षिक परियोजना’ भी कहा जाता है। इस तरह की परियोजनाएँ तैयार करते समय आप संबंधित विषय पर तो को जुटाते हुए बहुत सारी नई-नई बातों से अपने-आप परिचित भी होते हैं। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए। (ख) परियोजना क्या है? इसका क्या महत्व है? (ग) शैक्षिक परियोजना क्या है? (घ) परियोजना हमें क्या-क्या प्रदान करती है? (ड) परियोजना किस प्रकार तैयार की जा सकती है? यह कितने प्रकार की होती है? (च) समस्या का निदान करने वाली परियोजना केसी होनी चाहिए?
डॉ. कलाम दृढ़ इच्छाशक्ति वाले वैज्ञानिक थे। वे भारत को विकसित देश बनाने का सपना संजोए हुए थे। उनका मानना था कि भारतवासियों को व्यापक दृष्टि से सोचना चाहिए। हमें सपने देखने चाहिए। सपनों को विचारों में बदलना चाहिए। विचारों को कार्यवाही के माध्यम से हकीकत में बदलना चाहिए। डॉ. कलाम तीसरे ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्हें भारत का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया गया। उन्हें ‘पद्मभूषम’ तथा ‘पद्मविभूष्ण’ से भी सम्मानित किया गया। भारत को उन पर गर्व है। इतनी उपलब्धियाँ प्राप्त करने के बावजूद अहंकार कलाम जी को छू तक नहीं पाया। वे सहज स्वभाव के एक भावुक व्यक्ति थे। उन्हें कविताएँ लिखना, वीणा बजाना तथा बच्चों के साथ रहना पसंद था। वे सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास रखते थे। कलाम साहब का जीवन हम सभी के लिए प्रेरणादायक है। कलाम जी तपस्या और कर्म ठता की प्रतिमूर्ति हैं। राष्ट्रपति पड़ की शपथ लेते समय दिए गए भाषण में उन्होंने कबीरदास जी के इस दोहे का उल्लेख किया था – ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब’। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) डॉ. कलाम ने भारत को क्या बनाने का सपना देखा है? (ख) डॉ. कलाम किस प्रवृत्ति के व्यक्ति थे? (ग) डॉ. कलाम एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले _______ थे? (घ) डॉ. कलाम को क्या – क्या बेहद पसंद था? (ड़) डॉ. कलाम को किन-किन सम्मानों से सम्मानित किया गया? (च) डॉ. कलाम की तरह आप भारत को आगे बढ़ाने के लिए क्या प्रयास करेंगे।
वैदिक युग भारत का प्राय: सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है। वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते किंतु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखाई देता है। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ, वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंभ हो गई। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिक आदोलन के समान था। ब्राहमणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, बुद्ध जाति प्रथा के विरोधी थे और वे मनुष्य को जन्मना नहीं कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे। नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं. जो जाति- प्रधा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) वैदिक युग स्वर्णकाल के समान क्यों प्रतीत होता है? (ख) जाति-प्रथा एवं
नारियों के विषय में बुद्ध के विचारों को स्पष्ट कीजिए। (ग) बुद्ध पर क्या आरोप लगता है और उनकी कौन-सी बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती? (घ) संन्यास का अर्थ स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि इससे समाज को क्या हानि पहुँचती है। (ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक समाज के शीर्ष
पर बैठे लोगों के लिए किस प्रकार हानिकारक था?
परोपकार-कैसा महत्त्वपूर्ण धर्म है। प्राणिपात्र के जीवन का तो यह लक्ष्य होना चाहिए। यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो ज्ञात होगा कि प्रकृति के सारे कार्य परोपकार के लिए ही हैं नदियाँ स्वयं अपना पानी नहीं पीतीं। पेड़ स्वयं अपने फल नहीं खाते। गुलाब का फूल अपने लिए सुगन्ध नहीं रखता। वे सब दूसरों के हितार्थ हैं। महात्मा गांधी और अन्य महात्माओं का मत है कि परोपकार ही करना चाहिए, किंतु परोपकार निष्काम हो। यदि परोपकार किसी प्रत्युपकार की आशा से किया जाता है, तो उसका महत्त्व क्षीण हो जाता है। भारत का प्राचीन इतिहास दया और परोपकार के उदाहरणों से भरा है। राजा शिवि ने कपोल की रक्षा के लिए अपने प्राण देने तक का संकल्प कर लिया था। परोपकार का इससे ज्वलंत उदाहरण और कौन-सा मिल सकता है? चाहे जो हो, परोपकार आदर्श गुण है। हमें परोपकारी बनना चाहिए। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) इस
गद्यांश का मूल भाव बताइए। (ख) इस गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए। (ग) प्राणिमात्र के जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? (घ) महात्मा गांधी जैसे महात्माओं ने परोपकार के सम्बन्ध में क्या मत व्यक्त किया है? (ङ) हमें कैसा बनना चाहिए?
राष्ट्रीय एकता प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए नितान्त आवश्यक है। जब भी धार्मिक या जातीय आधार पर राष्ट्र से अलग होने की कोशिश होती है, हमारी राष्ट्रीय एकता के खण्डित होने का खतरा बढ़ जाता है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि राष्ट्र का स्वरूप निर्धारित करने में वहाँ निवास करने वाले जन एक अनिवार्य तत्व होते हैं। भावात्मक स्तर पर स्नेह सम्बन्ध सहिष्णुता, पारस्परिक सहयोग एवं उदार मनोवृत्ति के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति होती है। राष्ट्र को केवल भूखण्ड मानकर उसके प्रति अपने कर्तव्यों से उदासीन होने वाले जन राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में कदापि सहायक नहीं हो सकते। वस्तुतः राष्ट्रीय एकता को व्यवहार में अवतरित करके ही राष्ट्र के निवासी अपने राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त (सटीक) शीर्षक लिखिए। (ख) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। (ग)
राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा कब उत्पन्न होता है? (घ) विलोम शब्द बताइए-एकता, उदार। (ङ) ‘उन्नति’ शब्द का वाक्य में प्रयोग कीजिए।
समाजवाद एक सुन्दर शब्द है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, समाजवाद में समाज के सारे सदस्य बराबर होते हैं, न कोई नीचा और न कोई ऊँचा। किसी आदमी के शरीर में सिर इसलिए ऊँचा नहीं है कि वह सबसे ऊपर है और पाँव के तलवे इसलिए नीचे नहीं हैं कि वे जमीन को छूते हैं। जिस तरह मनुष्य के शरीर के सारे अंग बराबर हैं उसी प्रकार समाज में सभी मनुष्य समान हैं; यही समाजवाद है। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित (सटीक) शीर्षक दीजिए। (ख) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए। (ग) समाजवाद में महत्त्व की बात क्या है? (घ) विलोम शब्द बताइए-छूते हैं, नीचा। (ङ) ‘सदस्य’ शब्द का वाक्य में प्रयोग कीजिए।
हर राष्ट्र को अपने सामान्य काम-काज एवं राष्ट्रव्यापी व्यवहार के लिए किसी एक भाषा को अपनाना होता है। राष्ट्र की कोई एक भाषा स्वाभाविक विकास और विस्तार करती हुई अधिकांश जन-समूह के विचार-विनिमय और व्यवहार का माध्यम बन जाती है। इसी भाषा को वह राष्ट्र, राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर, उस पर शासन की स्वीकृति की मुहर लगा देता है। हर राष्ट्र की प्रशासकीय-सुविधा तथा राष्ट्रीय एकता और गौरव के निमित्त एक राष्ट्रभाषा का होना परम आवश्यक होता है। सरकारी काम-काज की केन्द्रीय भाषा के रूप में यदि एक भाषा स्वीकृत न होगी तो प्रशासन में नित्य ही व्यावहारिक कठिनाइयाँ आयेंगी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी राष्ट्र की निजी भाषा का होना गौरव की बात होती है। एक राष्ट्रभाषा के लिए सर्वप्रथम गुण है- उसकी व्यापकता’। राष्ट्र के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा वह बोली तथा समझी जाती हो। दूसरा गुण है- ‘उसकी समृद्धता’। वह संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य एवं विज्ञान आदि विषयों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखती हो। उसका शब्दकोष व्यापक और विशाल हो और उसमें समयानुकूल विकास की सामर्थ्य हो। यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाए तो हिन्दी को ये सभी योग्यताएँ प्राप्त हैं। अत: हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होने की सभी योग्यताएँ रखती है। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। (ख) राष्ट्रभाषा की आवश्यकता क्यों होती है ? (ग) राष्ट्रभाषा का आविर्भाव कैसे होता है ? (घ) एक राष्ट्रभाषा न होने से क्या कठिनाई होती है ? (ङ) ‘विज्ञान’ शब्द किस शब्द और उपसर्ग से बना है ?
प्राचीन काल में जब धर्म – मजहबे समस्त जीवन को प्रभावित करता था, तब संस्कृति के बनाने में उसका भी हाथ था; किन्तु धर्म के अतिरिक्त अन्य कारण भी सांस्कृतिक-निर्माण में सहायक होते. थे। आज मजहब का प्रभाव बहुत कम हो गया है। अन्य विचार जैसे राष्ट्रीयता आदि उसका स्थान ले रहे हैं। राष्ट्रीयता की भावना तो मजहबों से ऊपर है। हमारे देश में दुर्भाग्य से लोग संस्कृति को धर्म से अलग नहीं करते हैं.। इसका कारण अज्ञान और हमारी संकीर्णता है। हम पर्याप्त मात्रा में जागरूक नहीं हैं। हमको नहीं मालूम है कि कौन-कौन-सी शक्तियाँ काम कर रही हैं और इसका विवेचन भी ठीक से नहीं कर पाते कि कौन-सी मार्ग सही है? इतिहास बताता है कि वही देश पतनोन्मुख हैं जो युग-धर्म की उपेक्षा करते हैं और परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हैं। परन्तु हम आज भी अपनी आँखें नहीं खोल पा रहे हैं। परिवर्तन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अतीत की सर्वथा उपेक्षा की जाए। ऐसा हो भी नहीं सकता। अतीत के वे अंश जो उत्कृष्ट और जीवन-प्रद हैं उनकी तो रक्षा करनी ही है; किन्तु नये मूल्यों को हमको स्वागत करना होगा तथा वह आचार-विचार जो युग के लिए अनुपयुक्त और हानिकारक हैं, उनका परित्याग भी करना होगा। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) मजहब का स्थान अब कौन ले रहा है ? (ख) हमारे देश में संस्कृति और धर्म को लेकर क्या भ्रम (ग) इतिहास के अनुसार कौन-से देश पतन की ओर जाते (घ) गद्यांश को उपयुक्त शीर्षक लिखिए। (ङ) उपेक्षा’ का विलोम शब्द लिखिए।
कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी, क्योंकि एक तो कर्मकाल में उसका जीवन बीता, वह संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल पहले से कोई बना-बनाया पदार्थ नहीं होता। अनुकूलन प्रयत्न-कर्म के अनुसार, उसके एक-एक अंग की योजना होती है। बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है। किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है। वह वैद्यों के यहाँ से जब तक औषधि ला ला कर रोगी को देता जाता है और इधर-उधर दौड धप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो संतोष रहता है- प्रत्येक नये उपचार के साथ जो आनन्द का उन्मेष होता रहता है यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दुःख में कटता। इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दुःख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच-सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न नहीं किया। कर्म में आनंद अनुभव करने वालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्ता को वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और पुष्टि होती है वही लोकोपकारी कर्म-वीर का सच्चा सुख है। उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाये, बल्कि उसी समय से थोड़ा-थोड़ा करके मिलने लगता है जब से वह कर्म की ओर हाथ बढ़ाता है। कभी-कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है। जो बहुत से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर रहती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे अपना काम बड़े उत्साह से किए जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्प और तत्परता को भी लोग उत्साह ही कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सख-प्राप्ति को आशा या निश्चय से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की । आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्रायः अपना उत्साह दिखा देते हैं। यह बात उत्साह में नहीं अन्य मनोविकारों में भी बराबर पाई जाती है। यदि हम किसी बात पर क्रुद्ध बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है, तो भी हम उस पर झुझला उठते हैं। इस झुंझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति के _व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झुंझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में है और क्रोध में ही रहना चाहते हैं। क्रोध को बनाये रखने के लिए हम उन बातों में भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम अन्य विषय में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं। उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए- (क) अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए। (ख) फल क्या है? (ग) कर्मण्य किसे कहते
हैं? (घ) मनुष्य को कौन कर्म की ओर अग्रसर कराती है? (ङ) हम प्रायः उत्साह कब प्रकट करते हैं? (च) उत्साह में
झुंझलाहट क्या है? (छ)उत्साही मनष्य किस मार्ग पर चलता है? Students can find different types of unseen passages class 9 CBSE board exam preparation. At the end of every passage, we have also provided you with answers to every question of all passages. So, first, solve the above-unseen passage class 9 and compare your answer with their original answer in this way you can boost your performance. In this way, You can easily obtain higher marks in the unseen passage class 9. If you take too much time in solving the unseen passage class 9 take a clock to focus on how much time you are spending. By doing this, you can easily manage your time to solve the unseen passage Class 9. You can also visit the unseen passage for class 9 in English. We hope this unseen passage for class 9 in hindi shared with you will help you to get good marks in your exam. We have also other study material like NCERT Solutions, NCERT Book, Exam Question, and simpler paper of Class 9. If You want to score higher in your exam, So practice all this study material and if you have any problem then, write it in the comment box and we will guide you as much as possible. Frequently Asked Questions-Unseen Passage for class 9(FAQ) Q.1: How will I prepare myself to solve the unseen passage for class 9?
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