सप्त वैदिक स्वर को विश्तार से समझाए। Show प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत की परम्परा समृध्दि रही है। केवल कुछ देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्धि परम्परा पाए जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की संभ्यता के काल में हुआ , हालांकि इस बात का एकमात्र साक्ष्य है उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य ,नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के एक पतन के पश्चात वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ , जिसमे संगीत की शैली में भजनों और मन्त्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों – रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का प्रमुख प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते – आते संगीत की शैली और पद्धति में व्यापक परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है , वेद के काल के विषय में विद्वानो में बहुत मतभेद है , किन्तु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पर्व था। इस पर प्रायः सभी विद्वान सहमत है , इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम 8000 वर्ष प्राचीन है। वेदो में बीन , वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्य वाद्यों में दुंदुभि , गर्गर इत्यादि का घन वाद्यों में आघात या आघाटी और सुषिर वाद्यों में बाकुर , नाड़ी , तूठाव , शंख इत्यादि का उल्लेख है। यजुर्वेद में 30 वें काण्ड के 22 वें और 20 वें मन्त्र में कई वाद्य बजाने वालों का उल्लेख है। इसमें यह सिद्ध होता है कि उस समय तक कई प्रकार के वाद्यवादन का व्यवासय हो चला था। विश्वभर में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में संगीत से इतना घनिष्ट सम्बन्ध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे। ‘ का साम्नो गतिरिति ?स्वर इति होवाच ‘ अर्थात ‘साम की गति क्या है ?’ उत्तर ‘स्वर !’ साम का ‘ स्वर ‘ अपनापन ‘ स्वर ‘ ही। तस्य हितस्य साम्नों च:स्व वेद , भक्ति हास्य स्व , तस्य स्वर एवं स्वम। ‘अर्थात जो साम के स्वर को जानता है , उसे ‘स्व’ प्राप्त होता है। साम का ‘स्व’ ही स्वर है। वैदिक काल में तीन स्वरों का गान ‘ सामिक ‘ कहलाता था। ‘ सामिक ‘ शब्द से ही ज्ञान होता है कि पहले ‘ साम ‘ तीन स्वरों से ही गाया जाता था। ये स्वर ‘ ग रे सा ‘ थे। धीरे – धीरे गान चार , पांच , छः और सात स्वरों के होने लगे। छः और सात स्वरों के तो बहुत ही कम साम मिलते हैं। अधिक ‘ साम ‘ तीन से पांच स्वरों तक के मिलते हैं। साम के स्वरों की , जो संज्ञाएँ हैं उनसे उनकी प्राप्ति के क्रम का पता चलता है। सांगायकों को सर्वप्रथम ‘ग ,रे , सा ‘ स्वरों की प्राप्ति हुई। इनका नाम प्रथम , द्वातिय , तृतीय हुआ। इनके अंतर , ‘नि’ की प्राप्ति हुई , जिसका नाम चतिर्थ हुआ। अधिकतर साम इन्ही चार स्वरों के मिलते हैं। इन चारों स्वरों के नाम सख्यात्मक शब्दों में हैं। इनके अनन्तर जो स्वर मिले , उनके नाम वर्णनात्मक़ शब्दों द्वारा व्यक्त किये गए हैं। इसमें इस कल्पना की पुष्टि होती है कि इनकी प्राप्ति बाद में हुई। ‘गांधार’ से एक ऊँचे स्वर ‘मध्यम’ की भी प्राप्ति हुई , जिसका नाम ‘क्रष्ट’ हुआ , तो उसका नाम ‘मंद'(गंभीर) पड़ा। जब भी इसमें निचे के एक और स्वर की प्राप्ति हुई , तो उसका नाम ‘अतिस्वार’अथवा ‘अतिस्वार्य’ पड़ा। इसका अर्थ है स्वरण ( ध्वनन ) करने की अंतिम सीमा। साम का ग्राम अवरोही क्रम साम आधुनिक क्रुष्ट मध्यम ( म ) प्रथम गांधार ( ग ) द्वातिय ऋषभ ( रे ) तृतीय षडज ( स ) चतुर्थ निषाद ( नि ) मंद धैवत ( ध ) अतिस्वार्य पंचम ( प ) सप्त स्वर भारतीय संगीत आधारित है स्वरों और ताल के अनुशासित प्रयोग पर। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के सात स्वर हैं- सा(षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद) अर्थात सा, रे, ग, म, प ध, नि सा और प को अचल स्वर माना जाता है। जबकि अन्य स्वरों के और भी रूप हो सकते हैं। जैसे ‘रे’ को ‘कोमल रे’ के रूप में गाया जा सकता है जो कि शुद्ध रे से अलग है। इसी तरह ‘ग’, ‘ध’ और ‘नि’ के भी कोमल रूप होते हैं। इसी तरह ‘शुद्ध म’ को ‘तीव्र म’ के रूप में अलग तरीके से गाया जाता है। गायक या वादक गाते या बजाते समय मूलत: जिस स्वर सप्तक का प्रयोग करता है उसे मध्य सप्तक कहते हैं। ठीक वही स्वर सप्तक, जब नीचे से गाया जाये तो उसे मंद्र, और ऊपर से गाया जाये तो तार सप्तक कह्ते हैं। मन्द्र स्वरों के नीचे एक बिन्दी लगा कर उन्हें मन्द्र बताया जाता है। और तार सप्तक के स्वरों को, ऊपर एक बिंदी लगा कर उन्हें तार सप्तक के रूप में दिखाया जाता है। इसी तरह अति मंद्र और अतितार सप्तक में भी स्वरों को गाया-बजाया जा सकता है। अर्थात- ध़ ऩि सा रे ग म प ध नि सां रें गं… संगीत के नये विद्यार्थी को सबसे पहले शुद्ध स्वर सप्तक के सातों स्वरों के विभिन्न प्रयोग के द्वारा आवाज़ साधने को कहा जाता है। इन को स्वर अलंकार कहते हैं। आइये कुछ अलंकार देखें 1) सा रे ग म प ध नि सां (आरोह) सां नि ध प म ग रे सा (अवरोह) (यहाँ आखिरी का सा तार सप्तक का है अत: इस सा के ऊपर बिंदी लगाई गयी है) इस तरह जब स्वरों को नीचे से ऊपर सप्तक में गाया जाता है उसे आरोह कहते हैं। और ऊपर से नीचे गाते वक्त स्वरों को अवरोह कहते हैं। और कुछ अलंकार देखिये- 2) सासा रेरे गग मम पप धध निनि सांसां । सांसां निनि धध पप मम गग रेरे सासा। 3) सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनि, धनिसां। सांनिध, निधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा। 4) सारे, रेग, गम, मप, पध, धनि, निसां। सांनि, निध, धप, पम, मग, गरे, रेसा। 5) सारेगमप, रेगमपध, गमपधनि, मपधनिसां। सांनिधपम, निधपमग, धपमगरे पमगरेसा। 6) सारेसारेग, रेगरेगम, गमगमप, मपमपध, पधपधनि, धनिधनिसां। सांनिसांनिध, निधनिधप, धपधपम, पमपमग, मगमगरे, गरेगरेसा। 7) सारेगसारेगसारेसागरेसा, रेगमरेगमरेगरेमगरे, गमपगमपगमगपमग, मपधमपधमपमधपम, पधनिपधनिपधपनिधप, धनिसांधनिसांधनिधसांनिध, निसांरेनिसांरेनिसांनिरेंसांनि, सांरेंगंसांरेंगंसांरेंसांगंरेंसां। सांरेंगंसांरेंगंसांरेंसांगंरेंसां, निसांरेनिसांरेनिसांनिरेंसांनि,धनिसांधनिसांधनिधसांनिध, पधनिपधनिपधपनिधप, मपधमपधमपमधपम, गमपगमपगमगपमग, रेगमरेगमरेगरेमगरे, सारेगसारेगसारेसागरेसा। जीन स्वरों के नीचे बिंदू होता है वाह कौन से सप्तक के स्वर है?स्वर के ऊपर बिन्दु तार सप्तक, स्वर के नीचे बिन्दु मन्द्र सप्तक और बिन्दु रहित स्वर मध्य सप्तक दर्शाते हैं।
जिन स्वरों के ऊपर और नीचे कोई चिन्ह नहीं होता वह कौनसे स्वर होते है?गायकों को साधारण बोलचाल में कोमल स्वरों को 'उतरे स्वर' और तीव्र स्वरों को 'चढ़े स्वर' भी कहते हैं। रे, ग, म, ध, नि (शुद्ध स्वर)- इन पर कोई चिह्न नहीं होता। रे, ग, ध, म, नि (विकृत स्वर)- इनमें रे, ग, ध, नि कोमल हैं और 'म' तीव्र है।
एक सप्तक में कुल कितने स्वर माने जाते हैं?सप्तक – संगीत में प्रयुक्त सात स्वर,( सा, रे, ग, म, प, ध, नि ) को हम सप्तक कहते हैं। 7 स्वरों के नाम कुछ इस प्रकार हैं – इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं ।
जिस सप्तक के स्वरों में कोई चिन्ह नहीं लगता है उस स्वर को क्या कहा जाता है?गायन-वादन में प्रयुक्त किए जाने वाले स्वर, सप्तक व ताल को लिखित रूप में दर्शाने के लिए जिन चिन्हों, रेखाओं व अंकों का प्रयोग किया जाता है उसे स्वरलिपि कहते हैं। स्वरलिपि में शुद्ध, कोमल, तीव्र स्वर, मन्द्र व तार सप्तक के स्वर तथा तालों को विभिन्न चिन्हों द्वारा दर्शाया जा सकता है।
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