Free PDF download of NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 9 (Hindi Medium), revise these answers can prove to be extremely beneficial not only from the examination point of view but can also help Class 12 students to outperform in the upcoming competitive examinations. अभ्यास-प्रश्न उत्तर दीजिए ( लगभग 100-150 शब्दों में)। प्रश्न 1. प्रश्न 2. शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की
हैसियत का पता चलता था। जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज्यादा ऊँची मानी जाती थी। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत् लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए। सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, शब-ए-बरात तथा होली जैसे कुछ विशिष्ट अवसरों पर दरबार का माहौल जीवंत हो उठता था। सजे हुए सुगंधित मोमबत्तियाँ और महलों की दीवारों पर लटक रहे रंग-बिरंगे बंदनवार आने | वालों पर आश्चर्यजनक प्रभाव
छोड़ते थे। ये सभी बादशाह की शक्ति, सत्ता और प्रतिष्ठा को दर्शाते थे। प्रश्न 3. जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। इनमें से आँगन व बाग के
साथ एक दोमंजिली भव्य कारवाँसराय थी। शाहजहाँनाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी। गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गई एक रोचक पुस्तक हुमायूँनामा से हमें मुगलों की घरेलू दुनिया की एक झलक मिलती है। गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हुमायूँ की बहन तथा अकबर की चाची थी। गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फ़ारसी में धाराप्रवाह लिख सकती थी। जब अकबर ने अबुल फज्ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया तो उसने अपनी चाची से बाबर और हुमायूँ के समय के अपने पहले संस्मरणों को लिपिबद्ध करने
का आग्रह किया ताकि अबुल फज्ल उनका लाभ उठाकर अपनी कृति को पूरा कर सके। गुलबदन ने जो लिखा वह मुगल बादशाहों की प्रशस्ति नहीं थी बल्कि उसने राजाओं और राजकुमारों के बीच चलने वाले संघर्षों और तनावों के साथ ही इनमें से कुछ संघर्षों को सुलझाने में परिवार की उम्रदराज स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा। प्रश्न 4. 1. मध्यकाल में अफ़गानिस्तान को ईरान और मध्य एशिया के क्षेत्रों से अलग करने वाले हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्मित सीमा का विशेष महत्त्व था। मुगल शासकों के ईरान एवं तूरान के पड़ोसी देशों के साथ राजनैतिक एवं राजनयिक संबंध इसी सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। उल्लेखनीय है कि भारतीय उपमहाद्वीप में आने का इच्छुक कोई भी विजेता हिंदूकुश पर्वत को पार किए बिना उत्तर भारत तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकता था। अत: मुग़ल शासक उत्तरी-पश्चिमी सीमांत में सामरिक महत्त्व की चौकियों विशेष रूप से काबुल और कंधार पर अपना कुशल नियंत्रण स्थापित करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। 2. मुगलों के लिए काबुल की सुरक्षा के लिए कंधार पर अधिकार करना नितांत आवश्यक था, क्योंकि कंधार के आस-पास का प्रदेश खुला होने के कारण कंधार की ओर से काबुल पर भी आक्रमण हो सकता था। अत: मुग़ल सम्राट कंधार, जो मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा की प्रथम पंक्ति का निर्माण करता था, पर अधिकार बनाए रखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। 3. भारत और पश्चिमी एशिया तथा यूरोप तक के व्यापार के स्थल मार्ग पर स्थित होने के कारण कंधार व्यापारिक दृष्टि से भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। समुद्र पर पुर्तगाली शक्ति का आधिपत्य स्थापित हो जाने के कारण मध्य एशिया का समस्त व्यापार इसी मार्ग से होता था। अत: कंधार जैसे सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र पर अपनी प्रभुत्व स्थापित करना मुग़ल सम्राटों की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। कंधार मुग़ल तथा ईरानी साम्राज्य की सीमा पर स्थित था, अत: दोनों ही साम्राज्यों के लिए इसका विशेष महत्त्व था। परिणामस्वरूप दोनों शक्तियाँ कंधार पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहीं। 1545 ई० में मुग़ल सम्राट हुमायूँ ने कंधार पर अधिकार कर लिया, किन्तु दो वर्ष बाद ही इस पर ईरान ने भी अधिकार कर लिया। 1595 ई० में अकबर के शासनकाल में कंधार पर मुग़लों का प्रभुत्व स्थापित हो गया किन्तु 1622 ई० में यह उनके हाथों से निकल गया। 1638 ई० में मुग़लों ने कंधार पर अधिकार कर लिया, किन्तु 1649 ई० में कंधार पर पुनः ईरान का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् बार-बार प्रयास करने पर भी कंधार को मुगल साम्राज्य का अंग नहीं बनाया जा सका। मुगल तथा ऑटोमन साम्राज्य ऑटोमन साम्राज्य के साथ संबंधों के निर्धारण में मुगलों का प्रमुख उद्देश्य ऑटोमन नियंत्रण वाले क्षेत्रों, विशेष रूप से हिजाज अर्थात् ऑटोमन अरब के उस भाग जहाँ मक्का एवं मदीना के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल स्थित थे, में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के स्वतंत्र आवागमन को बनाए रखना था। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों के निर्धारण में मुगल शासक सामान्य रूप से धर्म और वाणिज्य के विषयों को मिलाकर देखते थे। साम्राज्य लाल सागर के बंदरगाहों-अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात हेतु प्रोत्साहित करता था। इनकी बिक्री से जो आय होती थी, उसे उस क्षेत्र के धर्मस्थलों एवं फ़कीरों को दान कर दिया जाता था। प्रश्न 5.
इन प्रमुख अधिकारियों के अतिरिक्त कुछ प्रांतों में दरोग़ा-ए-तोपखाना तथा मीर-ए-बहर नामक महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति भी की जाती थी। केंद्र का प्रांतों पर नियंत्रण अथवा प्रांतीय प्रशासन की कुशलता के कारण नि:संदेह मुग़ल सम्राटों द्वारा कुशल प्रांतीय प्रशासन की स्थापना की गई थी। मुग़ल सम्राटों ने प्रांतों पर केंद्र का नियंत्रण बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए थे :
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में) प्रश्न 6. 1. मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक दरबारी इतिहासकार थे। उन्होंने मुग़ल शासकों के संरक्षण में इतिवृत्तों की रचना की। अतः स्वाभाविक रूप से शासक पर केंद्रित घटनाएँ, शासक का परिवार, दरबार और अभिजात वर्ग के लोग, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ उनके द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास के केन्द्रीय विषय थे। अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब की जीवन कथाओं पर आधारित इतिवृत्तों के क्रमशः ‘अकबरनामा’, ‘शाहजहाँनामा’ और ‘आलमगीरनामा’ जैसे शीर्षक इस तथ्य के प्रतीक हैं कि इनके लेखकों की दृष्टि में बादशाह का इतिहास ही साम्राज्य व दरबार का इतिहास था। 2. इतिवृत्त हमें मुग़ल राज्य-संस्थाओं के विषय में तथ्यात्मक सूचनाएँ प्रदान करते हैं तथा उन आशयों का भी परिचय देते हैं, जिन्हें मुग़ल शासक अपने साम्राज्य में लागू करना चाहते थे। 3. मुग़ल इतिवृत्तों का एक महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि को प्रस्तुत करना था। 4. इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण मुग़ल शासन का विरोध करने वाले लोगों को यह स्पष्ट रूप से बता देना था कि साम्राज्य की शक्ति के सामने उनके सभी विरोधों का असफल हो जाना सुनिश्चित था। 5. मुग़ल इतिवृत्तों का एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण भावी पीढ़ियों को शासन का विवरण उपलब्ध करवाना था। 6. मुग़ल इतिवृत्तों का एक प्रमुख अभिलक्षण उनकी रचना फ़ारसी भाषा में किया जाना था। मुग़लकाल में सभी दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। उल्लेखनीय है कि मुग़ल चगताई मूल के थे। अतः उनकी मातृभाषा तुर्की थी, किन्तु अकबर ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए फ़ारसी को राजदरबार की भाषा बनाया। प्रारंभ में फ़ारसी राजा, शाही परिवार और दरबार के विशिष्ट सदस्यों की ही भाषा थी। किंतु शीघ्र ही यह सभी स्तरों पर प्रशासन की भाषा बन गई। अतः लेखाकार, लिपिक तथा अन्य अधिकारी भी इस भाषा का ज्ञान प्राप्त करने लगे। फ़ारसी भाषा में अनेक स्थानीय मुहावरों का प्रवेश हो जाने से इसका भारतीयकरण होने लगा। फ़ारसी और हिन्दवी के पारस्परिक सम्पर्क से एक नयी भाषा का जन्म हुआ, जिसे हम ‘उर्दू’ के नाम से जानते हैं। 7. मुग़ल इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण उनके रंगीन चित्र हैं। मुग़ल पांडुलिपियों की रचना में अनेक चित्रकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। एक मुग़ल शासक के शासनकाल में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण देने वाले ऐतिहासिक ग्रंथों में लिखित पाठ के साथ-साथ उन घटनाओं को चित्रों के माध्यम से दृश्ये रूप में भी व्यक्त किया जाता था। हमें याद रखना चाहिए कि चित्रों का अंकन केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य में वृद्धि करने वाली सामग्री के रूप में ही नहीं किया जाता था। वास्तव में, चित्रांकन ऐसे विचारों के संप्रेषण का भी एक शक्तिशाली माध्यम माना जाता था, जिन्हें लिखित माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। उदाहरण के लिए, राजा और राजा की शक्ति के विषय में जिन बातों को लेखबद्ध नहीं किया जा सकता था, उन्हें चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया जाता था। प्रश्न
7. उल्लेखनीय है कि जिस काल में मुग़ल साम्राज्य निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था, उस समय कई एशियाई क्षेत्रों के शासकों द्वारा कलाकारों को उनके चित्र एवं उनके राज्य के जीवन के दृश्य चित्रित करने के लिए नियमित रूप से नियुक्त किया गया था। उदाहरण के लिए, ईरान के सफ़ावी शासकों को चित्रकला से विशेष प्रेम था। उन्होंने दरबार में स्थापित कार्यशालाओं में प्रशिक्षित उत्कृष्ट कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। बिहज़ाद जैसे चित्रकारों के नाम ने सफ़ावी दरबार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि का चारों ओर प्रसार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। फ़ारस के कई चित्रकार हुमायूँ के साथ भारत आ गए। इनमें प्रसिद्ध थे-मीर सैय्यद अली, अब्दुस्समद, मीर मुसव्बिर और दोस्त मुहम्मद। हुमायूँ और अकबर ने इन्हीं से चित्रकारी की शिक्षा प्राप्त की। सम्राट के आदेश से मीर सैय्यद अली और ख्वाजा अब्दुस्समद ने सुप्रसिद्ध फ़ारसी ग्रंथ ‘दास्ताने अमीर-हमज़ा’ को चित्रित करना प्रारंभ किया। मुग़लकालीन चित्रकला का वास्तविक आरंभ सम्राट अकबर के शासनकाल से हुआ। चित्रकला को प्रोत्साहन देने के लिए अकबर ने ख्वाजा अब्दुस्समद की अध्यक्षता में एक पृथक् चित्रकला विभाग स्थापित किया। ख्वाजा अब्दुस्समद् एक योग्य चित्रकार था। सम्राट ने उसे ‘शीरीकलम’ की उपाधि से अलंकृत किया था। अकबर ने एक चित्रशाला का भी निर्माण करवाया था। उसके दरबार में लगभग सौ चित्रकार थे। अकबर के शासनकाल में हम्ज़नामा’, ‘रज्मनामी’, ‘तारीख-ए-अल्फी’, ‘तैमूरनामा’ और ‘अकबरनामा’ जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को चित्रित किया गया। उसके शासनकाल में फ़ारसी और हिन्दू चित्र-शैलियों का अद्भुत सम्मिश्रण हुआ। जहाँगीर के शासनकाल में चित्रकला विकास की चरम सीमा को प्राप्त हुई। शाहजहाँ के शासनकाल में ‘बादशाहनामा’ का चित्रांकन किया गया। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में चित्रकला का सराहनीय विकास हुआ। यद्यपि उलमा अथवा उलेमा वर्ग के विचारानुसार इस्लाम में प्राकृतिक तरीके से जीवित रूपों के चित्रण की मनाही थी किन्तु अकबर उलमा की इस विचारधारा से सहमत नहीं था। अबुल फ़ज़ल (अकबर का दरबारी इतिहासकार) बादशाह को यह कहते हुए उधृत करता है, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार के पास खुदा को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। चूंकि, कहीं-न-कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।” परिणामस्वरूप, अकबर के शासनकाल में उच्चकोटि के चित्रों की रचना की गई। इसीलिए अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने चित्रकारी का उल्लेख एक ‘जादुई कला’ के रूप में किया है। उनके विचारानुसार अकबरकालीन चित्रकला में किसी निर्जीव वस्तु को भी सजीव रूप में प्रस्तुत करने की शक्ति थी। अबुल फ़ज़ल के विवरण ‘तसवीर की प्रशंसा में से पता चलता है कि सम्राट अकबर की इस कला में विशेष अभिरुचि थी। सम्राट इसे अध्ययन और मनोरंजन दोनों का साधन मानते थे। अतः उन्होंने इस कला को प्रत्येक संभव प्रोत्साहन दिया। प्रत्येक सप्ताह शाही कार्यशाला के अनेक निरीक्षक और लिपिक बादशाह के सामने प्रत्येक कलाकार का कार्य प्रस्तुत करते थे और बादशाह प्रदर्शित उत्कृष्टता के आधार पर इनाम देते थे तथा कलाकारों के मासिक वेतन में वृद्धि करते थे। इस प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप विश्व में व्यापक ख्याति प्राप्त अनेक उत्कृष्ट चित्रकार राजदरबार में एकत्रित होने लगे थे, जिनकी संख्या सौ से भी अधिक थी। इन चित्रकारों द्वारा बनाए गए चित्र इतने उत्कृष्ट थे कि उनमें निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव जैसी प्रतीत होती थीं, इस प्रकार, जैसा कि अबुल फ़ज्ल ने ‘तसवीर की प्रशंसा में लिखा है, “ब्योरे की सूक्ष्मता, परिपूर्णता और प्रस्तुतीकरण की निर्भीकता जो अब चित्रों में दिखाई पड़ती है, वह अतुलनीय है। यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव प्रतीत होती हैं।” नि:संदेह, प्रस्तुत अध्याय में ये सभी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इनमें गोवर्धन द्वारा लगभग 1630 ई० में चित्रित चित्र जिसमें तैमूर, बाबर को राजवंशीय मुकुट सौंप रहा है, अबुल हसन द्वारा चित्रित चित्र जिसमें जहाँगीर को देदीप्यमान कपड़ों और आभूषणों में अपने पिता के चित्र को हाथ में लिए हुए दिखाया गया है, कलाकार पयाग द्वारा लगभग 1640 ई० में चित्रित, चित्र जिसमें जहाँगीर शहज़ादे खुर्रम को पगड़ी में लगाई जाने वाली मणि दे रहा है, अबुलहसन द्वारा बनाया गया चित्र, जिसमें मुग़ल सम्राट जहाँगीर को दरिद्रता की आकृति को मारते हुए तथा न्याय की जंजीर को स्वर्ग से उतरते हुए दिखाया गया है, दाराशिकोह के विवाह से संबंधित चित्र, कंधार की घेराबंदी को दिखाने वाला चित्र और दरबार में धार्मिक वाद-विवाद को दिखाने वाला चित्र विशेष रूप से सराहनीय हैं। इन सभी चित्रों में निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव प्रतीत होती हैं तथा सभी में ब्योरे की सूक्ष्मता, परिपूर्णता तथा प्रस्तुतीकरण की निर्भीकता जैसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। प्रश्न 8. 1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों-राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखज़ादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया आंबेर का राजा भारमल कछवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था। जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645) ईरानी थी। औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी-खासी संख्या में थे। अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक ज़रिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था; जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था। प्रश्न 9. विद्वानों के विचारानुसार इस पर राजतंत्र के तैमूरी ढाँचे और सुप्रसिद्ध ईरानी सूफ़ी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 ई० में मृत्यु) के विचारों का प्रभाव था। शिहाबुद्दीन के विचारानुसार प्रत्येक व्यक्ति में एक दिव्य चमक (फ़र-ए-इज़ादी) है, किंतु केवल उच्चतम व्यक्ति ही अपने युग के नेता हो सकते हैं। अबुल फ़ज़ल द्वारा प्रतिपादित राजत्व सिद्धांत के मूल में भी यही विचारधारा निहित थी। राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्व
इस प्रकार थेः राजत्व के दिव्य सिद्धांत की व्याख्या करते हुए अबुल फ़ज़ल ने लिखा था, “राजा एक सामान्य मानव से कहीं अधिक है; वह पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, ईश्वर का रूप है, और उसे एक सामान्य मनुष्य की अपेक्षा बुद्धि-विवेक का ईश्वरीय वरदान अधिक मात्रा में प्राप्त होता है। उसके अनुसार, “राज्य-शक्ति ईश्वर से फूटने वाला प्रकाश और सूर्य से निकलने वाली किरण है।” राजपद के इसी सिद्धांत के कारण मुग़ल सम्राट स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि समझते थे। अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सभी ने ‘जिल्ल-ए-इलाही’ अर्थात् ‘ईश्वर की छाया’ की उपाधि धारण की थी। राजपद के इस दैवी सिद्धांत ने मुग़ल सम्राटों की शक्ति में वृद्धि की तथा जन-सामान्य में सम्राट पद के प्रति आदर-सम्मान तथा श्रद्धा की भावनाएँ उत्पन्न कीं। 2. चित्रों द्वारा दिव्य सिद्धान्त के विचार का संप्रेषण- 3. धर्म और राजनीति में पृथक्कीकरण- 4. सुलह-ए-कुल की नीति का अनुसरण- औरंगजेब के अतिरिक्त प्रायः सभी मुग़ल सम्राट धार्मिक दृष्टि से उदार एवं सहनशील थे, अतः उन्होंने राजपद के संकीर्ण इस्लामी सिद्धांत का उल्लंघन करते हुए अपनी हिन्दू और मुस्लिम प्रजा को समान अधिकार प्रदान किए। अकबर वह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने धर्म एवं जाति के भेद-भावों का त्याग करके अपनी समस्त प्रजा के साथ समान एवं निष्पक्ष व्यवहार किया। उसका विचार था कि शासक को प्रत्येक धर्म और जाति के प्रति समान रूप से सहनशीलता | होना चाहिए। 5. राज्य-नीतियों के माध्यम से सुलह-ए-कुल के आदर्श को लागू करना- साम्राज्य के अधिकारियों को भी स्पष्ट निर्देश दे दिए गए थे कि वे प्रशासन में ‘सुलह-ए-कुल’ के नियमों का अनुपालन करें। उपासना-स्थलों के रख-रखाव व निर्माण के लिए सभी मुग़ल बादशाहों द्वारा अनुदान प्रदान किए गए। यद्यपि औरंगजेब के शासनकाल में गैर-मुस्लिम प्रजा पर पुनः जज़िया लगा दिया गया था, किंतु, समकालीन स्रोतों से यह पता लगता है कि शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में यदि युद्धकाल में मंदिरों को नष्ट कर दिया जाता था, तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी कर दिए जाते थे। 6. न्यायपूर्ण संप्रभुता सामाजिक अनुबंध के रूप में- अकबर का विचार था कि एक राजा या शासक अपनी प्रजा का सबसे बड़ा शुभचिंतक एवं संरक्षक होता है। उसे न्यायप्रिय, निष्पक्ष एवं उदार होना चाहिए; अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान समझना चाहिए और प्रतिक्षण प्रजा की भलाई के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अकबर के उत्तराधिकारियों ने भी प्रजा-हित के इस सिद्धांत को अपने राजत्व संबंधी विचारों का प्रमुख आधार बनाए रखा। 7. प्रतीकों द्वारा न्याय-विचार का दृश्य रूप में निरूपण करना- Hope given NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 9 are helpful to complete your homework. If you have any doubts, please comment below. NCERT-Solutions.com try to provide online tutoring for you. |