कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

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Rajasthan Board RBSE Class 10 Hindi अपठित गद्यांश

अपठित का अर्थ – ‘अ’ का अर्थ है ‘नहीं’ और ‘पठित’ का अर्थ है-‘पढ़ा हुआ’ अर्थात् जो पढ़ा नहीं गया हो । प्रायः शब्द का अर्थ उल्टा करने के लिए उसके आगे ‘अ’ उपसर्ग लगा देते हैं। यहाँ ‘पठित’ शब्द से ‘अपठित’ शब्द का निर्माण ‘अ’ लगने के कारण हुआ है।

‘अपठित’ की परिभाषा – गद्य एवं पद्य का वह अंश जो पहले कभी नहीं पढ़ा गया हो, ‘अपठित’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में ऐसा उदाहरण जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से न लेकर किसी अन्य पुस्तक या भाषा-खण्ड से लिया गया हो, अपठित अंश माना जाता है।

‘अपठित’ का महत्त्व-प्रायः विद्यार्थी पाठ्यक्रम में निर्धारित गद्य व पद्य अंशों को तो हृदयंगम कर लेते हैं, किन्तु जब उन्हें पाठ्यक्रम के अलावा अन्य अंश पढ़ने को मिलते हैं या पढ़ने पड़ते हैं, तो उन्हें उन अंशों को समझने में परेशानी आती है। अतएव अपठित अंश के अध्ययन द्वारा विद्यार्थी सम्पूर्ण भाषा-अंशों के प्रति तो समझ विकसित करता ही है, साथ ही उसे नये-नये शब्दों को सीखने का भी अच्छा अवसर मिलता है। ‘अपठित’ अंश विद्यार्थियों में मौलिक लेखन की भी क्षमता उत्पन्न करता है।

निर्देश – अपठित अंशों पर तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाएँगे

(क) विषय-वस्तु का बोध – इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते समय निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए

  1. प्रश्नों के उत्तर मूल-अवतरण में ही विद्यमान होते हैं, अतएव, उत्तर मूल-अवतरण में ही ढूँढ़ें, बाहर नहीं। प्रायः प्रश्नों के क्रम में ही मूल-अवतरण में उत्तर विद्यमान रहते हैं, अतएव प्रश्नों के क्रम में उत्तर खोजना सुविधाजनक होता है।
  2. प्रश्नों के उत्तर में मूल-अवतरण के शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन भाषा-शैली अपनी ही होनी चाहिए।
  3. प्रश्नों के उत्तर प्रसंग और प्रकरण के अनुकूल ही संक्षिप्त, स्पष्ट और सरल भाषा में देने चाहिए। प्रश्नों के उत्तर में अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ना चाहिए और न कोई उदाहरण आदि ही देना चाहिए।

(ख) शीर्षक का चुनाव-शीर्षक को चयन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें

  1. शीर्षक अत्यन्त लघु एवं आकर्षक होना चाहिए।
  2. शीर्षक अपठित अंश के मूल तथ्य पर आधारित होना चाहिए।
  3. शीर्षक प्रायः अवतरण के प्रारम्भ या अंत में दिया रहता है, अतः इन अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
  4. शीर्षक खोज लेने के बाद जॉच लें कि क्या शीर्षक अपठित में कही गयी बातों की ओर संकेत कर रहा है।

(ग) भाषिक संरचना-इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है।
विशेष-पहले आप पूरे अवतरण को 2-3 बार पढ़कर उसके मर्म को समझने का प्रयास करें। तभी आप उक्त तीनों प्रकार के प्रश्नों के उत्तर सरलतापूर्वक दे पाएँगे। आपके अभ्यास के लिए कुछ अपठित अंश यहाँ दिए जा रहे हैं।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

प्रश्न
नीचे दिए गए गद्यांश को सावधानीपूर्वक पढ़िए तथा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए

(1) भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरू हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म, कानून से बड़ी चीज है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और अध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) कानून को धर्म के रूप में देखने का क्या आशय है?
(ग) भारतवर्ष के लोग धर्म की किन बातों को आज भी मानते हैं?
(घ) ‘सम्मान’ शब्द से पूर्व जुड़े ‘सम्’ उपसर्ग के स्थान पर एक अन्य ऐसा उपसर्ग जोड़िए कि विलोम शब्द बन जाय।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘ धर्म और कानून।
(ख) धार्मिक निषेधों का उल्लंघन नहीं होता था। ऐसा करने से लोग डरते थे। कानून को भी धर्म के समान ही।
मानकर उसका पालन करना जरूरी समझा जाता था। धर्मभीरू लोग कानून की कमी का लाभ नहीं उठाते थे।
(ग) मनुष्यों से प्रेम करना, महिलाओं का आदर करना, झूठ बोलने से बचना, चोरी न करना तथा दूसरों को न सताना आदि धार्मिक सदुपदेशों को लोग आज भी मानते हैं।
(घ) “सम्मान शब्द से पूर्व ‘सम्’ उपसर्ग लगा है। इसको हटाकर उसके स्थान पर ‘अप’ उपसर्ग जोड़ने से ‘अपमान’ शब्द बनता है, जो सम्मान का विलोम शब्द है।

(2) यदि मनुष्य और पशु के बीच कोई अंतर है तो केवल इतना कि मनुष्य के भीतर विवेक है और पशु विवेकहीन है। इसी विवेक के कारण मनुष्य को यह बोध रहता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसी विवेक के कारण मनुष्य यह समझ पाता है कि केवल खाने-पीने और सोने में ही जीवन का अर्थ और इति नहीं। केवल अपना पेट भरने से ही जगत के सभी कार्य संपन्न नहीं हो जाते और यदि मनुष्य का जन्म मिला है तो केवल इसी चीज का हिसाब रखने के लिए नहीं कि इस जगत ने उसे क्या दिया है और न ही यह सोचने के लिए कि यदि इस जगत ने उसे कुछ नहीं दिया तो वह इस संसार के भले के लिए कार्य क्यों करे। मानवता का बोध कराने वाले इस गुण ‘विवेक’ की जननी का नाम ‘शिक्षा’ है। शिक्षा जिससे अनेक रूप समय के परिवर्तन के साथ इस जगत में बदलते रहते हैं, वह जहाँ कहीं भी विद्यमान रही है सदैव अपना कार्य करती रही है। यह शिक्षा ही है जिसकी धुरी पर यह संसार चलायमान है। विवेक से लेकर विज्ञान और ज्ञान की जन्मदात्री शिक्षा ही तो है। शिक्षा हमारे भीतर विद्यमान वह तत्त्व है जिसके बल पर हम बात करते हैं, कार्य करते हैं, अपने मित्रों और शत्रुओं की सूची तैयार करते हैं, उलझनों को सुलझनों में बदलते हैं। असल में सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को ही ‘शिक्षा’ कहते हैं। शिक्षा उन तथ्यों का तथा उन तरीकों का ज्ञान कराती है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने खोजा था-सभ्य तथा सुखी जीवन बिताने लिए।
आज यदि हम सुखी जीवन बिताना चाहते हैं तो हमें उन तरीकों को सीखना होगा, उन तथ्यों को जानना होगा जिन्हें जानने के लिए हमारे पूर्वजों ने निरंतर सदियों तक शोध किया है। यह केवल शिक्षा के द्वारा ही संभव है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है?
(ग) विवेक से किसका बोध होता है तथा उसका जन्म कैसे होता है?
(घ) ‘विज्ञान’ शब्द में उपसर्ग और मूल शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश की उचित शीर्षक है-‘शिक्षा और विवेक’।
(ख) मनुष्य विवेकशील प्राणी है। विवेक के कारण वह उचित और अनुचित में अन्तर करके उचित को अपनाने तथा अनुचित को त्यागने में समर्थ होता है। पशु में विवेक नहीं होता और वह उचित-अनुचित का विचार नहीं कर सकता।
(ग) विवेक से मानवता का बोध होता है। जिसमें विवेक है वही मनुष्य कहलाता है। मनुष्य अपने जीवन में जो
शिक्षा ग्रहण करता है, उसी के कारण उसमें विवेक का गुण उत्पन्न होता है।
(घ) वि = उपसर्ग, ज्ञान = मूल शब्द ।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(3) भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। जीवन का भोग त्याग के साथ करो।’ यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन में जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिलता है। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्म्न को परास्त कर दिया था जिसका कारण था अकबर का जन्म रेगिस्तान में होना और उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत के अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे, मगर जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह जैसी मुसीबत झेली थी। उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) भोजन का असली स्वाद किसको मिलता है?
(ग) ‘जीवन का भोग त्याग के साथ करो’-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(घ) “परमार्थ’ शब्द का संधि-विच्छेद कर संधि का नाम लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘साहस और संघर्षपूर्ण जीवन।’
(ख) भोजन का असली स्वाद उस व्यक्ति को मिलता है जो कुछ दिन भूखा रह सकता है। जिसका पेट भरा है वह भोजन का आनन्द ले ही नहीं सकता ने उसका लाभ ही उठा सकता है।
(ग) जीवन में भोग से सुख तभी मिल सकता है जब मनुष्य त्याग के मार्ग पर चले। संसार जो कुछ है वह सब केवल एक ही मनुष्य के लिए नहीं है, दूसरों को भी उसकी आवश्यकता है तथा उस पर उनका भी अधिकार है, यह सोचकर उनके लिए त्याग करने से ही उपभोग का आनन्द प्राप्त होता है।
(घ) परम + अर्थ = परमार्थ = दीर्घ स्वर संधि ।

(4) शहादत और मौन-मूक! जिस शहादत को शोहरत मिली जिस बलिदान को प्रसिद्धि प्राप्त हुई, वह इमारत का कंगूरा हैमंदिर का कलश है। हाँ, शहादत और मौन मूक! समाज की आधारशिला यही होती है। ईसा की शहादत ने ईसाई धर्म को अमर बना दिया, आप कह लीजिए। किंतु मेरी समझ से ईसाई धर्म को अमर बनायो उन लोगों ने, जिन्होंने उस धर्म के प्रचार में अपने को अनाम उत्सर्ग कर दिया। उनमें से कितने जिंदा जलाए गए, कितने सूली पर चढ़ाए गए, कितने वन-वन की खाक छानते जंगली जानवरों के शिकार हुए, कितने उससे भी भयानक भूख-प्यास के शिकार हुए। उनके नाम शायद ही कहीं लिखे गए हों-उनकी चर्चा शायद ही कहीं होती हो किंतु ईसाई धर्म उन्हीं के पुण्य-प्रताप से फल-फूल रहा है, वे नींव । की ईंट थे, गिरजाघर के कलश उन्हीं की शहादत से चमकते हैं। आज हमारा देश आजाद हुआ सिर्फ उनके बलिदानों के कारण नहीं, जिन्होंने इतिहास में स्थान पा लिया है। हम जिसे देख नहीं सकें, वह सत्य नहीं है, यह है मूक धारणा : ढूँढने से ही सत्य मिलता है। हमारा काम है, धर्म है, ऐसी नींव की ईंटों की ओर ध्यान देना। सदियों के बाद नए समाज की सृष्टि की ओर हमने पहला कदम बढ़ाया है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) समाज की आधारशिला किसको कहा गया है?
(ग) अपने को अनाम उत्सर्ग कर देने का क्या तात्पर्य है?
(घ) ‘भूख-प्यास’ पद का सामासिक विग्रह कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-नव की इट।
(ख) शान्तभाव से प्रचार की भावना से मुक्त रहकर देश तथा समाज के लिए किए गए आत्मबलिदान को समाज की आधारशिला कहा गया है।
(ग) सच्चा त्यागी प्रचार नहीं चाहता। जो स्वदेश, स्वधर्म और अपने समाज के हितार्थ चुपचाप त्याग करता है, लोग
उसका नाम भी नहीं जानते, ऐसे व्यक्ति का त्याग ‘अनाम उत्सर्ग’ कहा जाता है।
(घ) भूख और प्यास = द्वंद्व समास।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(5) अहिंसा और कायरता कभी साथ नहीं चलती। मैं पूरी तरह शस्त्र-सज्जित मनुष्य के हृदय से कायर होने की कल्पना कर सकता हूँ। हथियार रखना कायरता नहीं तो डर का होना तो प्रकट करता ही है, परन्तु सच्ची अहिंसी शुद्ध निर्भयता के बिना असम्भव है।
क्या मुझमें बहादुरों की वह अहिंसा है? केवल मेरी मृत्यु ही इसे बताएगी। अगर कोई मेरी हत्या करे और मैं मुँह से हत्यारे के लिए प्रार्थना करते हुए तथा ईश्वर का नाम जपते हुए और हृदये मन्दिर में उसकी जीती-जागती उपस्थिति का भान रखते हुए मरूं तो ही कहा जाएगा कि मुझमें बहादुरों की अहिंसा थी। मेरी सारी शक्तियों के क्षीण हो जाने से अपंग बनकर मैं एक हारे हुए आदमी के रूप में नहीं मरना चाहता। किसी हत्यारे की गोली भले मेरे जीवन का अन्त कर दे, मैं उसका स्वागत करूंगा। लेकिन सबसे ज्यादा तो मैं अन्तिम श्वास तक अपना कर्तव्य पालन करते हुए ही मरना पसन्द करूंगा।
मुझे शहीद होने की तमन्ना नहीं है। लेकिन अगर धर्म की रक्षा का उच्चतम कर्तव्य पालन करते हुए मुझे शहादत मिल जाए तो मैं उसका पात्र माना जाऊँगा। भूतकाल में मेरे प्राण लेने के लिए मुझ पर अनेक बार आक्रमण किए गए हैं; परन्तु आज तक भगवान ने मेरी रक्षा की है और प्राण लेने का प्रयत्न करने वाले अपने किए पर पछताए हैं। लेकिन अगर कोई आदमी यह मानकर मुझ पर गोली चलाए कि वह एक दुष्ट का खात्मा कर रहा है, तो वह एक सच्चे गाँधी की हत्या नहीं करेगा, बल्कि उस गाँधी की करेगा जो उसे दुष्ट दिखाई दिया था।

प्रश्न:
(क) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) महात्मा गाँधी सच्ची अहिंसा के लिए मनुष्य में किस गुण का होना आवश्यक मानते हैं? इस प्रकार की अहिंसा को उन्होंने क्या नाम दिया है?
(ग) गाँधीजी को किस प्रकार मरना पसन्द था?
(घ) शस्त्र-सज्जित का विग्रह करके समास का नाम लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘सच्चे अहिंसावादी गाँधी जी।’
(ख) महात्मा गाँधी मानते हैं कि सच्ची अहिंसा के लिए मनुष्य में निर्भीकता का होना आवश्यक है। इस प्रकार की
अहिंसा को उन्होंने बहादुरों की अहिंसा का नाम दिया है। शस्त्रधारी मनुष्य के मन में कायरता या भीरुता हो सकती है, किन्तु सच्चा अहिंसक व्यक्ति सदा निर्भय होता है।
(ग) गाँधीजी को अपना कर्तव्य-पालन करते हुए मरना पसन्द था। वह अपनी शक्ति क्षीण होने से अपंग बनकर एक हारे हुए आदमी की तरह मरना नहीं चाहते थे। वह अपने हत्यारे को क्षमा करके, ईश्वर की मूर्ति अपने मन में धारण कर तथा ईश्वर का नाम लेते हुए मरना चाहते थे। गाँधीजी को मृत्यु का भय नहीं था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह मृत्यु का स्वागत करने को तत्पर थे। गाँधीजी का मानना था कि कोई भी व्यक्ति सच्चे गाँधी की हत्या नहीं कर सकता था अतः वह मृत्यु से डरकर सत्य का मार्ग नहीं छोड़ सकते थे।
(घ) शस्त्र-सज्जित-विग्रह-शस्त्र से सज्जित। समास का नाम – तत्पुरुष।

(6) निर्लिप्त रहकरं दूसरों का गला काटने वालों से लिप्त रहकर दूसरों की भलाई करने वाले कहीं अच्छे हैं- क्षात्रधर्म एकान्तिक नहीं है, उसका सम्बन्ध लोकरक्षा से है। अत: वह जनता के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला है। कोई राजा होगा तो अपने घर को होगा’……. इससे बढ़कर झूठ बात शायद ही कोई और मिले। झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की जा सकती। क्षात्र जीवन के व्यापकत्व के कारण ही हमारे मुख्य अवतार-राम और कृष्ण- क्षत्रिय हैं। कर्म-सौन्दर्य की योजना जितने रूपों में क्षात्र जीवन में सम्भव है, उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ रूप-माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ परदुःख कातरता, प्रताप के साथ कठिन धर्म-पथ का अवलम्बन इत्यादि कर्म-सौन्दर्य के इतने अधिक प्रकार के उत्कर्ष-योग और कहाँ घट सकते हैं? इस व्यापार युग में, इस वणिग्धर्म-प्रधान युग में, क्षात्रधर्म की चर्चा करना शायद गई बात का रोना समझा जाय पर आधुनिक व्यापार की अन्यान्य रक्षा भी शास्त्रों द्वारा ही की जाती है। क्षात्रधर्म का उपयोग कहीं नहीं गया है- केवल धर्म के साथ उसका असहयोग हो गया है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) क्षात्रधर्म क्या है? उसमें कर्म सौन्दर्य कितने रूपों में दिखाई देता है?
(ग) वणिग्धर्म’ किसको कहा गया है तथा क्यों?
(घ) ‘व्यापकता’ शब्द में कौन-सा प्रत्यय है? इस प्रत्यय से बना एक अन्य शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘क्षत्रिय धर्म और लोकरक्षा’ ।
(ख) क्षत्रिय का कर्तव्य ही क्षात्रधर्म है। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ सुन्दर रूप, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ दु:खियों से सहानुभूति, प्रताप के साथ धर्म पथ का अवलम्बन आदि कर्म सौन्दर्य के रूप क्षात्रधर्म में दिखाई देते हैं।
(ग) व्यापारी के काम को वणिग्धर्म कहा गया है। इसमें धनोपार्जन मुख्य है। आज लोगों का ध्यान मानवीयता के स्थान पर धन कमाने में लगा हुआ है।
(घ) “व्यापकत्व’ में ‘त्व’ प्रत्यय है। ‘त्व’ प्रत्यय से निर्मित अन्य शब्द-पुरुषत्व है।

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(7) हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपने जीवन की अंतिम यात्रा उन्होंने मात्र 56 वर्ष की आयु में ही पूर्ण कर ली थी, यथापि उनकी एक-एक रचना उन्हें युगों-युगों तक जीवंत रखने में सक्षम है। ‘गोदान’ के संदर्भ में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि प्रेमचन्द के सारे ग्रंथों को जला दिया जाए और मात्र गोदान को बचाकर रख लिया जाए वहीं उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए जीवित रखने को पर्याप्त है। प्रेमचन्द का जीवन भले ही अभावों में बीता हो, किंतु वे धन का गलत ढंग से उपार्जन करने से निर्धन रहना श्रेयस्कर समझते थे। एक बार धन कमाने की इच्छा से वे मुम्बई भी गए किंतु वहाँ का रंग-ढंग उन्हें श्रेष्ठ साहित्यकार के प्रतिकूल ही लगा। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास एवं कहानियों में किसान की दयनीय हालत, उपेक्षित वर्ग की समस्याएँ, बेमेल विवाह की समस्या को उजागर करके समाधान भी प्रस्तुत किए हैं। अंग्रेजी शासन काल में उनकी रचनाओं ने अस्त्रे का कार्य किया, जिससे अंग्रेजों की नींद तक उड़ गई थी। आदर्श एवं यथार्थ का इतना सुंदर समन्वय शायद ही कहीं मिलेगा जितना कि प्रेमचन्द के उपन्यासों में मिलता है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) प्रेमचन्द कौन थे? उनकी प्रसिद्धि को क्या कारण है?
(ग) प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में किन समस्याओं को उठाया है?
(घ) “प्रतिकूल’ का विलोम शब्द लिखिए तथा इसको अपने वाक्य में प्रयोग भी कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द’।
(ख) प्रेमचन्द हिन्दी के एक श्रेष्ठ कहानीकार-उपन्यासकार थे। उनका साहित्य उनकी प्रसिद्धि का कारण है।
(ग) प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में भारत के लोगों की समस्याओं को उठाया है। इनमें किसानों की बुरी दशा, पिछड़े तथा उपेक्षित लोगों की समस्याएँ, बेमेल विवाह आदि मुख्य हैं।
(घ) “प्रतिकूल का विलोम शब्द ‘अनुकूल’ है। वाक्य प्रयोग-मनुष्य अपने परिश्रम से प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है।

(8) मनुष्य के जीवन पर शब्द का नहीं सद्-आचरण का प्रभाव पड़ता है। साधारण उपदेश तो हर गिरजे, हर मठ और हर मस्जिद में होते हैं, परन्तु उनका प्रभाव हम पर तभी पड़ता है जब गिरजे का पादरी स्वयं ईसा होता है, मंदिर का पुजारी स्वयं ब्रह्मर्षि होता है, मस्जिद का मुल्ला पैगम्बर और रसूल होता है।
यदि एक ब्राह्मण किसी डूबती कन्या की रक्षा के लिए-चाहे वह कन्या किसी जाति की हो, किसी मनुष्य की हो, किसी देश की हो-अपने आपको गंगा में फेंक दे-चाहे फिर उसके प्राण यह काम करने में रहें या जायें, तो इस कार्य के प्रेरक आचरण की मौनमयी भाषा किस देश में, किस जाति में और किस काल में कौन नहीं समझ सकता? प्रेम का आचरण, उदारता का आचरण, दया का आचरण-क्या पशु और क्या मनुष्य, जगत भर के सभी चराचर आप ही आप समझ लेते हैं। जगत भर के बच्चों की भाषा इस भाष्यहीन भाषा का चिह्न है। बालकों के शुद्ध मौन का नाद और हास्य भी सबै देशों में एक-सा ही पाया जाता है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) मनुष्य पर किसका प्रभाव पड़ता है तथा कब?
(ग) भाष्यहीन भाषा का क्या अर्थ है? इसका स्वरूप कहाँ देखने को मिलता है?
(घ) ब्रह्मर्षि’ शब्द का सन्धि-विच्छेद करके सन्धि का नाम लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘सदाचरण का मौन प्रभाव।
(ख) मनुष्य पर मौन सदाचरण का प्रभाव पड़ता है, उपदेशक के शब्दों का नहीं। जब उपदेश देने वाले का आचरण
‘पवित्र होता है, उसमें अन्दर-बाहर की निर्मलता होती है तभी उसका प्रभाव श्रोता मनुष्यों पर पड़ता है।
(ग) भाष्यहीन भाषा का आशय है श्रेष्ठ एवं पवित्र आचरण। इसका स्वरूप हमें बच्चों में देखने को मिलता है।
बच्चे जो कुछ कहते करते हैं उसमें बनावट और दिखावा तथा अपने पराये का भेदभाव नहीं होता।
(घ) ब्रह्मर्षि-सन्धि विच्छेद- ब्रह्म+ऋषि । सन्धि का नाम-गुण सन्धि।

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(9) सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है। एक जिज्ञासा का सम्बन्ध है, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध है और तीसरा आनन्द का। जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनन्द का सम्बन्ध है। सत्य जहाँ आनन्द स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। जिज्ञासा का सम्बन्ध विचार से है, प्रयोजन का सम्बन्ध स्वार्थ-बुद्धि से तथा आनन्द का सम्बन्ध मनोभावों से है। साहित्य का विकास मनोभावों द्वारा ही होता है। एक ही दृश्य, घटना या कांड को हम तीनों ही भिन्न-भिन्न नजरों से देख सकते हैं। हिम से ढके हुए पर्वत पर उषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसन्धान की और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का आत्म-समर्पण है। यहाँ हम पृथकता का अनुभव नहीं करते। यहाँ ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाता। श्री रामचन्द्र शबरी के जूठे बेर क्यों प्रेम से खाते हैं, कृष्ण भगवान विदुर के शाक को क्यों नाना व्यंजनों से रुचिकर समझते हैं? इसीलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को मिटा दिया है। उनकी आत्मा विशाल है। उसमें समस्त जगत् के लिए स्थान है। आत्म, आत्मा से मिल गयी है। जिसकी आत्मा जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महान् पुरुष है। यहाँ तक कि ऐसे महान् पुरुष भी हो गये हैं, जो जड़ जगत् से भी अपनी आत्मा का मेल कर सके हैं।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) सत्य से आत्मा का सम्बन्ध कितने प्रकार का है?
(ग) कौन-सा गुण किसी को महान् बनाता है? इस गद्यांश से उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
(घ) “जिज्ञासा’ से जातिवाचक संज्ञा शब्द बनाकर लिखिए तथा उसका विशेषण की भाँति प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘सत्य से आत्मा का सम्बन्ध’ ।
(ख) सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का होता है-पहली जिज्ञासा का सम्बन्ध, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध तथा तीसरा आनन्द का सम्बन्ध। ‘जिज्ञासा’ का सम्बन्ध ‘दर्शन’ से, प्रयोजन का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से तथा आनन्द’ का सम्बन्ध साहित्य से होता है।
(ग) आत्मा की विशालता और उदारता ही वह गुण है, जो मनुष्य को महान् बनाते हैं। विशाल हृदय में पृथकता का भाव नहीं रह पाता, सभी प्राणियों से अपनत्व हो जाता है। शबरी भील जाति की थी किन्तु रामचन्द्र जी के हृदय में उसके प्रति जो उदारता थी उसके कारण उसके झूठे बेर भी उन्होंने प्रेम से खाये थे।
(घ) इससे जातिवाचक संज्ञा बनती है-जिज्ञासु’। ‘जिज्ञासु’ का प्रयोग विशेषण की तरह भी हो सकता है, जैसे-जिज्ञासु विद्यार्थी किसी बात को शीघ्र समझ लेता है।

(10) राष्ट्रभाषा होने के लिए किसी भाषा में कुछ विशेषताएँ होना अनिवार्य होता है। सर्वप्रथम गुण उस भाषा की व्यापकता है। जो भाषा देश के सर्वाधिक जनों और सर्वाधिक क्षेत्र में बोली और समझी जाती हो वही राष्ट्रभाषा पद की अधिकारिणी होती है। भाषा की समृद्धता उसकी दूसरी विशेषता है। उस भाषा का शब्द-समुदाय ज्ञान-विज्ञान की सभी उपलब्धियों को व्यक्त करने की क्षमता रखता हो। धर्म, दर्शन, विज्ञान, सामाजिक परिवर्तन, अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य आदि सभी कुछ उस भाषा द्वारा जनसाधारण तक पहुँचाया जा सके। तीसरी विशेषता उसकी सरलता है। अन्य भाषा-भाषी उसे बिना कठिनाई के सीख सकें। उसे भाषा की लिपि भी सरल और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित हो तथा उस भाषा में निरन्तर विकसित होने की सामर्थ्य हो।

उपर्युक्त विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर समस्त भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा की अधिकतम योग्यता रखती है। देश की अधिसंख्यक जनता द्वारा वह बोली एवं समझी जाती है। ज्ञान-विज्ञान के विविध विषयों पर उसमें साहित्य-निर्माण हुआ है और हो रहा है। तकनीकी और पारिभाषिक शब्दावली के लिए जहाँ उसे संस्कृत को समृद्ध शब्द-भण्डार प्राप्त है वहीं उसकी पाचन-शक्ति भी उदार है। उसकी लिपि पूर्ण वैज्ञानिक है। इस प्रकार हिन्दी ने स्वयं को राष्ट्रभाषा का उत्तरदायित्व सँभालने के लिए गम्भीरता से तैयार किया है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) किसी भाषा के राष्ट्रभाषा होने के लिए उसमें सबसे अधिक किस गुण का होना आवश्यक है?
(ग) भारतीय भाषाओं में कौन-सी भाषा राष्ट्रभाषा होने की अधिकतम योग्यता रखती है तथा क्यों?
(घ) उपर्युक्त’ को सन्धि-विच्छेद कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’।
(ख) किसी भाषा के राष्ट्रभाषा बनने के लिए उसमें अनेक गुण होने चाहिए। उसमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गुण है उसका राष्ट्र में व्यापक होना।
(ग) भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें राष्ट्रभाषा होने की अधिकतम योग्यता है।
(घ) उपर्युक्त-सन्धि विच्छेद-उपरि+उक्त।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(11) उपासना की दृष्टि से कई लोग काफी बढ़-चढ़े होते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि जहाँ दूसरे लोग भगवान को बिल्कुल ही भूल बैठे हैं, वहाँ वह व्यक्ति ईश्वर का स्मरण तो करता है, औरों से तो अच्छा है। इसी प्रकार जो बुराइयों से बचा है, अनीति और अव्यवस्था नहीं फैलाता, संयम और मर्यादा में रहता है, वह भी भला है। उसे बुद्धिमान कहा जाएगा, क्योंकि दुर्बुद्धि को अपनाने से जो अगणित विपत्तियाँ उस पर टूटने वाली र्थी, उनसे बच गया। स्वयं भी उद्विग्न नहीं हुआ और दूसरों को भी विक्षुब्ध न करने की भलमनसाहत बरतता रहा। यह दोनों ही बातें अच्छी हैं। ईश्वर का नाम लेना और भलमनसाहत से रहना, एक अच्छे मनुष्य के लिये योग्य कार्य है। उतना तो हर समझदार आदमी को करना ही चाहिये था। जो उतना ही करता है, उसकी उतनी तो प्रशंसा की ही जाएगी कि उसने अनिवार्य कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं की और दुष्ट दुरात्माओं की होने वाली दुर्गति से अपने को बचा लिया।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) एक अच्छे मनुष्य के लिये योग्य कार्य कौन-से हैं?
(ग) दुर्बुद्धि को अपनाने का क्या परिणाम होता है?
(घ) रेखांकित शब्द को सन्धि-विच्छेद कर सन्धि का नाम लिखें।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘अच्छा मनुष्य’ ।
(ख) लेखक ने ईश्वर में आस्था रखने वाले लोगों को अच्छा मनुष्य माना है। जो व्यक्ति अनीति-अव्यवस्था नहीं फैलाता, संयम और मर्यादा में रहता है वही अच्छा मनुष्य है। वह स्वयं तो चिंताओं और संकटों से बचता ही है दूसरों को भी बचाता है।
(ग) जो मनुष्य दुर्बद्ध अपनाता है वह नाना प्रकार की विपत्तियाँ झेलता है। दुर्बुद्धि आदमी को समाज-विरोधी कार्यों के लिए उकसाती है। दुर्बुद्धि अपनाने वाले लोग समाज में अनीति और अव्यवस्था फैलाते हैं। ईश्वर में श्रद्धा रखने वाले और संयमी लोग ही दुर्बुद्धि से बच सकते हैं।
(घ) दुर्बुद्धि -सन्धि विच्छेद-दुः + बुद्धि – विसर्ग संधि।

(12) हर किसी मनुष्य को अपने राष्ट्र के प्रति गौरव, स्वाभिमान होना आवश्यक है। राष्ट्र से जुड़े समस्त राष्ट्र प्रतीकों के प्रति भी हमें स्वाभिमान होना चाहिए। राष्ट्र प्रतीकों का यदि कोई अपमान करता है, तो उसका पुरजोर विरोध करना चाहिए। प्रत्येक राष्ट्राभिमानी व्यक्ति के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा अपने देश की भाषा के प्रति प्रेम होना स्वाभाविक भावना ही है। राष्ट्र के प्रति हर राष्ट्रवासी को राष्ट्र हित में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को तैयार रहना चाहिए। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती है, वह राष्ट्र शीघ्र ही पराधीन होकर अपनी सुख, शांति और समृद्धि को सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति एवं सार्वजनिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। जिसके हृदय में राष्ट्रभक्ति है उसके हृदय में मातृभक्ति, पितृभक्ति, गुरुभक्ति, परिवार, समाज व सार्वजनिक हित की बात स्वतः ही आ जाती है।
इन उपर्युक्त भावनाओं से वह आत्मबली होकर अन्याय, अत्याचार व अमानवीयता से लड़ने को तत्पर हो जाता है। वह एक सच्चे मानव धर्म का अनुयायी होकर धर्म एवं न्याय के पक्ष में खड़ा होता है। अतः राष्ट्र-धर्म एवं राष्ट्र-भक्ति ही सर्वोपरि है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो स्वयं के प्रति, ईश्वर के प्रति एवं राष्ट्र के प्रति अनुत्तरदायी ही होंगे। किसी को हानि पहुँचाकर स्वयं के लिए अनुचित लाभ उठाना अन्याय है। अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्य से विमुख न होना ही सच्ची राष्ट्रभक्ति
है।
प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) राष्ट्राभिमानी व्यक्ति के हृदय में क्या स्वाभाविक भावना होती है?
(ग) देश के निवासियों में उत्सर्ग भावना नहीं होगी तो क्या हानि होगी?
(घ) आत्मबली व्यक्ति किनसे लड़ता है व किनके पक्ष में खड़ा होता है?
उत्तर:
(क) गद्यांश को उचित शीर्षक-‘राष्ट्र के प्रति दायित्व’।
(ख) राष्ट्राभिमानी व्यक्ति के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति और अपने देश की भाषा के प्रति प्रेम की स्वाभाविक भावना होती है।
(ग) यदि देशवासियों के हृदय में राष्ट्र के लिए उत्सर्ग की भावना नहीं होगी तो वह राष्ट्र शीघ्र ही पराधीन हो जाएगा और उसकी सुख, शांति और समृद्धि सदा के लिए नष्ट हो जाएगी।
(घ) आत्मबली व्यक्ति अन्याय, अत्याचार और अमानवीयता से लड़ता है और धर्म एवं न्याय के पक्ष में खड़ा होता है।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(13) भारतवर्ष पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। यहाँ सभी ऋतुएँ अपने समय पर आती हैं और पर्याप्त काल तक ठहरती हैं। ऋतुएँ अपने अनुकूल फल-फूलों का सृजन करती हैं। धूप और वर्षा के समान अधिकार के कारण यह भूमि शस्यश्यामला हो जाती है। यहाँ का नगाधिराज हिमालय कवियों को सदा से प्रेरणा देता आ रहा है और यहाँ की नदियाँ मोक्षदायिनी समझी जाती रही हैं। यहाँ कृत्रिम धूप और रोशनी की आवश्यकता नहीं पड़ती। भारतीय मनीषी जंगलं में रहना । पसन्द करते थे। प्रकृति-प्रेम के ही कारण यहाँ के लोग पत्तों में खाना पसन्द करते हैं। वृक्षों में पानी देना एक धार्मिक कार्य । समझते हैं। सूर्य और चन्द्र दर्शन नित्य और नैमित्तिक कार्यों में शुभ माना जाता है।
पारिवारिकता पर हमारी संस्कृति में विशेष बल दिया गया है। भारतीय संस्कृति में शोक की अपेक्षा आनन्द को अधिक महत्व दिया गया है। इसलिए हमारे यहाँ शोकान्त नाटकों का निषेध है। अतिथि को भी देवता माना गया है-‘अतिथि देवो भवः।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) भारतवर्ष की भूमि शस्यश्यामला कैसे है?
(ग) भारतीय प्रकृति-प्रेम किस प्रकार प्रकट करते हैं?
(घ) नैमित्तिक’ शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय को पृथक् कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘भारत पर प्रकृति की कृपा’।
(ख) भारत में धूप तथा वर्षा उचित समय पर तथा आवश्यकता के अनुसार प्राप्त होती है। इस कारण भारत की भूमि पर फसलें तथा पेड़-पौधे सदा उगते हैं और यह भूमि शस्यश्यामला रहती है।
(ग) भारत के लोगों का प्रकृति के प्रति गहरा प्रेम रहा है। इसी कारण खाना खाने के लिए वे बर्तनों के स्थान पर पेड़ों के पत्तों का प्रयोग करते हैं। वे वृक्षों में पानी देना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं। अनेक अवसरों पर सूर्य तथा चन्द्रमा का दर्शन करना शुभ समझा जाता है।
(घ) निमित्त-मूलशब्द। इक-प्रत्यय।3

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(14) जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण डाल दो जिंदगी में, डाल दो जीवन रस के उपकरणों में। ठीक है। लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती-सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं-आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रिय भवति । विचित्र नहीं है यह तर्क ? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है सब मतलब के लिए। सुना है, पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही है। सुन के हैरानी होती है। दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है केवल प्रचण्ड स्वार्थ । भीतर की जिजीविषा-जीते रहने की प्रचण्ड इच्छा ही अगर बड़ी बात हो, तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाये जाते हैं, शत्रु मर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ है। इसके द्वारा कोई न कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अन्तरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ढंग से सोचना है। स्वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्य है, जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है। क्या है?

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी को क्या समझाने की कोशिश की?
(ग) लेखक को किस बात पर हैरानी होती है?
(घ) परार्थ, स्वार्थ, परमार्थ शब्दों का संधि-विच्छेद कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘जीने की कला’।
(ख) याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की कि यह समस्त संसार केवल अपने मतलब के लिए जी रहा है। संसार का सत्य ही प्रबल स्वार्थ की भावना है।
(ग) यदि संसार में जीवन का लक्ष्य ही प्रचण्ड स्वार्थ है, किसी भी तरह जीवित रहना ही मुख्य बात है, जिजीविषा ही सबसे महत्त्वपूर्ण है तो परोपकार, देशोद्धार, साहित्य और कला आदि की बातें करने का उद्देश्य लेखक को समझ नहीं आता और उससे उसको हैरानी होती है।
(घ) पर + अर्थ = परार्थ। स्व + अर्थ = स्वार्थ । परम + अर्थ = परमार्थ।

(15) महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते । भीड़ उसे कहते हैं जहाँ लोगों का जमघट होता है। लोग तो होते हैं लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता; सिर होते हैं, लेकिन उनमें बुद्धि या विचार नहीं होता। हाथ होते हैं, लेकिन उन हाथों में पत्थर होते हैं, विध्वंस के लिए, वे हाथ निर्माण के लिए नहीं होते। यह भीड़ एक अंधी गली से दूसरी गली की ओर जाती है, क्योंकि भीड़ में होने वाले लोगों का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। वे एक-दूसरे के कुछ भी नहीं लगते। सारे अनजान लोग इकट्ठा होकर विध्वंस करने में एक-दूसरे का साथ देते हैं, क्योंकि जिन इमारतों, बसों या रेलों में ये तोड़-फोड़ के काम करते हैं, वे उनकी नहीं होतीं और न ही उनमें सफर करने वाले उनके अपने होते हैं। महानगरों में लोग एक ही. बिल्डिंग में पड़ोसी के तौर पर रहते हैं, लेकिन यह पड़ोस भी संबंधरहित होता है। पुराने जमाने में दही जमाने के लिए जामन माँगने पड़ोस में लोग जाते थे, अब हरे फ्लैट में फ्रिज है, इसलिए जामन माँगने जाने की भी जरूरत नहीं रही। सारा पड़ोस, सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज’ रहते हैं।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) ‘महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते’-इस वाक्य का आशय क्या है?
(ग) विध्वंस’ का विलोम लिखिए।
(घ) सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज’ रहते हैं-ऐसा क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘महानगरों की असामाजिक संस्कृति।’
(ख) महानगरों में विशाल संख्या में लोग निवास करते हैं उनमें पारस्परिक सामाजिक संबंध नहीं होते हैं। वे एक-दूसरे को जानते नहीं, आपस में मिलते-जुलते भी नहीं हैं। पास रहने पर भी वे एक दूसरे के पड़ोसी नहीं होते।
(ग) विध्वंस का विलोम निर्माण है।
(घ) फ्रिज खाद्य पदार्थों को ठंडा रखने के लिए प्रयोग होने वाला एक यंत्र है। आधुनिक समाज में परस्पर संबंधों में गर्माहट नहीं रही है। लोग एक ही बिल्डिंग में रहते हैं परन्तु पड़ोसी से उनके सम्बन्ध ही नहीं होते वे एक-दूसरे को जानते तक नहीं हैं।

(16) प्राचीन काल में जब धर्म-मजहब समस्त जीवन को प्रभावित करता था, तब संस्कृति के बनाने में उसका भी हाथ था; किन्तु धर्म के अतिरिक्त अन्य कारण भी सांस्कृतिक-निर्माण में सहायक होते थे। आज मजहब का प्रभाव बहुत कम हो गया है। अन्य विचार जैसे राष्ट्रीयता आदि उसका स्थान ले रहे हैं।
राष्ट्रीयता की भावना तो मजहबों से ऊपर है। हमारे देश में दुर्भाग्य से लोग संस्कृति को धर्म से अलग नहीं करते हैं। इसका कारण अज्ञान और हमारी संकीर्णता है। हम पर्याप्त मात्रा में जागरूक नहीं हैं। हमको नहीं मालूम है कि कौन-कौन-सी शक्तियाँ काम कर रही हैं और इसका विवेचन भी ठीक से नहीं कर पाते कि कौन-सा मार्ग सही है? इतिहास बताता है कि वही देश पतनोन्मुख हैं जो युग-धर्म की उपेक्षा करते हैं और परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हैं। परन्तु हम आज भी अपनी आँखें नहीं खोल पा रहे हैं।
परिवर्तन का यह अर्थ कदापि नहीं है अतीत की सर्वथा उपेक्षा की जाए। ऐसा हो भी नहीं सकता। अतीत के वे अंश जो उत्कृष्ट और जीवन-प्रद हैं उनकी तो रक्षा करनी ही है; किन्तु नये मूल्यों का हमको स्वागत करना होगा तथा वह आचार-विचार जो युग के लिए अनुपयुक्त और हानिकारक हैं, उनका परित्याग भी करना होगा।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) हमारे देश में संस्कृति और धर्म को लेकर क्या भ्रम है?
(ग) मजहब का स्थान अब कौन ले रहा है?
(घ) “उपेक्षा’ का विलोम लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक- धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता ।
(ख) हमारे देश में धर्म और संस्कृति को एक ही समझा जाता है, जो भ्रम है।
(ग) मजहब का स्थान अब राष्ट्रीयता के विचार ले रहे हैं।
(घ) विलोम = उपेक्षा-अपेक्षा।

(17) आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रखा है। यह भ्रम है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेखन, बात या भाषण का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई पंक्तियों का नाम पद्य है। हाँ, एक बात जरूर है कि वह वजन और काफिये से अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है, पर कविता के लिये ये बातें ऐसी हैं जैसे कि शरीर के लिये वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजन और प्रभावोत्पादकता न हो तो उसका होना निष्फल ही समझना चाहिये। पद्य के लिए काफिये वगैरह की जरूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक प्रकार से उल्टी हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातन्त्र्य में बड़ी बाधा आती है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) कविता और पद्य में क्या अन्तर है?
(ग) वजन और काफिए से कविता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(घ) ‘मनोरंजक’ शब्द का सन्धि-विच्छेद कर उसका नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-कविता और पद्य।।
(ख) कविता प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेखन, बात या भाषण है किन्तु पद्य नियमानुसार तुली हुई पंक्तियों को कहते हैं। मनोरंजन तथा प्रभावोत्पादकता के बिना कोई रचना कविता नहीं हो सकती।
(ग) वजन और काफिए के प्रयोग से कविता का आकर्षण बढ़ जाता है, किन्तु इनके कारण वह मूल उद्देश्य से भटक जाती है। इनके कारण कवि के विचार-स्वातन्त्र्य में भी बाधा आती है।
(घ) मनः + रंजक = मनोरंजक। विसर्ग सन्धि।

(18) हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्तिबोध और दूसरा सौन्दर्यबोध। शक्तिबोध का अर्थ है-देश की शक्ति या सामर्थ्य का ज्ञान। दूसरे देशों की तुलना में अपने देश को हीन नहीं मानना चाहिए। इससे देश के शक्तिबोध को आघात पहुँचता है। सौन्दर्य बोध का अर्थ है किसी भी रूप में कुरुचि की भावना को पनपने न देना। इधर-उधर कूड़ा फेंकने, गंदे शब्दों का प्रयोग, इधर की उधर लगाने, समय देकर न मिलना आदि से देश के सौन्दर्य-बोध को आघात पहुँचता है। देशं के शक्तिबोध को जगाने के लिए हमें चाहिए कि हम सदा दूसरे देशों की अपेक्षा अपने देश को श्रेष्ठ समझें। ऐसा न करने से देश के शक्तिबोध को आघात पहुँचता है। यह उदाहरण इस तथ्य की पुष्टि करता है-शल्य महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुँकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हल्का-सा उल्लेख कर देता। बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसके भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई।

प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) शक्तिबोध का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) सौन्दर्यबोध को किन बातों से आघात पहुँचता है?
(घ) उल्लेख’ शब्द में उपसर्ग और मूल शब्द छाँटिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-शक्तिबोध की आवश्यकता।
(ख) शक्तिबोध का अर्थ है-अपने देश की शक्ति तथा सामर्थ्य का ज्ञान होना। अपने देश को दूसरे देशों के समक्ष शक्तिहीन नहीं मानना चाहिए।
(ग) सौन्दर्यबोध को असंतुलित तथा अनुचित व्यवहार से चोट पहुँचती है। इधर-उधर कूड़ा फेंकना, इधर की बात उधर करना, समय देकर न मिलना, बोल-चाल में गन्दे शब्दों का प्रयोग करना आदि देश के सौन्दर्यबोध को हानि पहुँचाने वाली बातें हैं।
(घ) उल्लेख में मूल शब्द ‘लेख’ तथा उपसर्ग ‘उत्’ है। उत् + लेख = उल्लेख।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(19) कर्म के मार्ग पर आनन्दपूर्वक चलता हुआ लोकोपकारी उत्साही मनुष्य यदि अन्तिम फल तुक न भी पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी; क्योंकि एक तो कर्म-काल में उसका जो जीवन बीता, वह सन्तोष या आनन्द में बीता। उसके उपरान्त फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। बुद्धि-द्वारा पूर्णरूप से निश्चित की हुई व्यापार-परम्परा का नाम ही प्रयत्न है। कभी-कभी आनन्द का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनन्द के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है,
जो बहुत से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर करती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देखकर लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किये जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष व तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को ही उत्साह कहते हैं।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) प्रयत्न किसे कहते हैं?
(ग) उत्साही व्यक्ति को किस बात का पछतावा नहीं होता?
(घ) “लोकोपकारी’ शब्द का सन्धि-विच्छेद कीजिए वे सन्धि का नाम बताइये।
उत्तर:
(क) शीर्षक-‘कर्मवीर’
(ख) बुद्धि द्वारा निश्चित कार्य-प्रणाली को प्रयत्न केहते हैं।
(ग) उत्साही व्यक्ति को असफलता पर यह सोचकर पछतावा नहीं होता कि मैंने प्रयत्न नहीं किया।
(घ) लोक + उपकारी = लोकोपकारी। गुणसन्धि।

(20) मितव्ययता का अर्थ है-आय की अपेक्षा कम व्यय करना, आमदनी से कम खर्च करना। सभी लोगों की आदत एक-सी नहीं होती न ही निश्चित होती है। आज कोई सौ कमाती है तो कल दस की भी उपलब्धि नहीं होती। आय निश्चित भी हो तब भी उसमें से कुछ-न-कुछ अवश्य बचाना चाहिए। जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आ जाते हैं, आकस्मिक दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। बहुत बार रोग और अन्य शारीरिक आपत्तियाँ आ घेरती हैं। यूँ भी संकट कभी कहकर नहीं आता। यदि पहले से मितव्ययता का आश्रय न लिया जाए तो मान-अपमान का कुछ ध्यान न रखकर इधर-उधर हाथ फैलाने पड़ते हैं। विपत्ति-काल में प्रायः अपने भी साथ छोड़ देते हैं। उस समय सहायता मिलनी कठिन हो जाती है। मिल भी जाए तो मनुष्य ऋण के बन्धन में ऐसा जकड़ जाता है कि आयुपर्यंत अथवा पर्याप्त काल के लिए उससे मुक्त होना दुष्कर होता है। जो मितव्ययी नहीं होते, वे प्रायः दूसरों के कर्जदार रहते हैं। ऋण से बढ़कर कोई दुख और संकट नहीं है।

प्रश्न:
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) अनिश्चित आय किसे कहते हैं? उदाहरण दीजिए।
(ग) बचत करना क्यों आवश्यक है?
(घ) ‘मितव्यय’ का विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-‘मितव्ययता का महत्व’ ।
(ख) जब एक निश्चित समय-सीमा में एक समान आय नहीं होती तो उसको अनिश्चित आय कहते हैं। उदाहरण के लिए आज कोई आदमी सौ रुपये कमाता है किन्तु कल दस रुपये भी नहीं मिलते।
(ग) जीवन में कुछ आकस्मिक खर्चे आ जाते हैं। कभी आदमी बीमार हो जाता है तो कभी दुर्घटना हो जाती है। इनमें जो व्यय होता है, उसकी पूर्ति के लिए बचत करना जरूरी होता है।
(घ) विलोम शब्द = मितव्यय-अपव्यय ।

(21) प्रत्येक व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास, दूसरे की उन्नति और विकासे में बाधक हो, तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा तत्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है। अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है। श्रुति कहती है- ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्व से ओत-प्रोत है। इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं, धर्मों और सम्प्रदायों को स्वतन्त्रतापूर्वक पनपने और भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया, भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया। देश और विदेश में एकसूत्रता, तलवार के जोर से नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द्र से स्थापित की।

प्रश्न
(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) संघर्ष कब पैदा होता है?
(ग) हम विभिन्न वर्गों के बीच उत्पन्न होने वाले विरोधों को किसके द्वारा मिटाना चाहते हैं?
(घ) नैतिक’ शब्द का सन्धि-विच्छेद करिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक ‘ भारतीय संस्कृति’।
(ख) जब एक के विकास और उन्नति में दूसरे का विकास और उन्नति बाधक बनते हैं तो संघर्ष उत्पन्न होता है।
(ग) हम विभिन्न वर्गों के विरोधों को अहिंसा या त्याग-भावना से मिटाना चाहते हैं।
(घ) नैतिक = नीति + इक।

(22) हर राष्ट्र को अपने सामान्य काम-काज एवं राष्ट्रव्यापी व्यवहार के लिए किसी एक भाषा को अपनाना होता है। राष्ट्र की कोई एक भाषा स्वाभाविक विकास और विस्तार करती हुई अधिकांश जन-समूह के विचार-विनिमय और व्यवहार का माध्यम बन जाती है। इसी भाषा को वह राष्ट्र, राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर, उस पर शासन की स्वीकृति की मुहर लगा देता है। हर राष्ट्र की प्रशासकीय-सुविधा तथा राष्ट्रीय-एकता और गौरव के निमित्त एक राष्ट्रभाषा का होना परम आवश्यक होता है। सरकारी काम-काज की केन्द्रीय भाषा के रूप में यदि एक भाषा स्वीकृत न होगी तो प्रशासन में नित्य ही व्यावहारिक कठिनाइयाँ आयेंगी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी राष्ट्र की निजी भाषा का होना गौरव की बात होती है। एक राष्ट्रभाषा के लिए सर्वप्रथम गुण है-उसकी व्यापकता’। राष्ट्र के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा वह बोली तथा समझी जाती हो। दूसरा गुण है-‘उसकी समृद्धता’। वह संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य एवं विज्ञान आदि विषयों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखती हो। उसका शब्दकोष व्यापक और विशाल हो और उसमें समयानुकूल विकास की सामर्थ्य हो।

प्रश्न
(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) राष्ट्रभाषा की आवश्यकता क्यों होती है?
(ग) राष्ट्रभाषा का आविर्भाव कैसे होता है?
(घ) “विज्ञान’ शब्द किस शब्द और उपसर्ग से बना है?
उत्तर:
(क) गद्यांश का शीर्षक है-‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’।
(ख) राष्ट्र की प्रशासकीय सुविधा, राष्ट्रीय एकता एवं गौरव के लिए राष्ट्रभाषा आवश्यक होती है।
(ग) जब कोई भाषा अधिकांश जन-समूह के विचार-विनिमय और व्यवहार का माध्यम बन जाती है तब इस भाषा को शासन द्वारा राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है। इस प्रकार राष्ट्रभाषा का आविर्भाव होता है।
(घ) ‘विज्ञान’ शब्द ‘ज्ञान’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग लगाकर बना है।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(23) कर्तव्य-पालन और सत्यता में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो मनुष्य अपना कर्तव्य-पालन करता है वह अपने कामों और वचनों में सत्यता का बर्ताव भी रखता है। वह ठीक समय पर उचित रीति से अच्छे कामों को करता है। सत्यता ही एक ऐसी वस्तु है जिससे इस संसार में मनुष्य अपने कार्यों में सफलता पा सकता है, इसीलिए हम लोगों को अपने कार्यों में सत्यता को सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है। झूठ की उत्पत्ति पाप, कुटिलता और कायरता के कारण होती है।
बहुत से लोग नीति और आवश्यकता के बहाने झूठ की बात करते हैं। वे कहते हैं कि समय पर बात को प्रकाशित न करना और दूसरी बात को बनाकर कहना, नीति के अनुसार, समयानुकूल और परम आवश्यक है।
झूठ बोलना और कई रूपों में दिखाई पड़ता है। जैसे चुप रहना, किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहना, किसी बात को छिपाना, भेद बतलाना, झूठ-मूठ दूसरों के साथ हाँ में हाँ मिलाना, प्रतिज्ञा करके उसे पूरा न करना और सत्य को न बोलना इत्यादि। जबकि ऐसा करना धर्म के विरुद्ध है, तब ये सब बातें झूठ बोलने से किसी प्रकार कम नहीं हैं।

प्रश्न
(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) संसार में मनुष्य को सफलता दिलाने वाली वस्तु क्या है?
(ग) झूठ की उत्पत्ति किन दुर्गुणों से होती है? ।
(घ) सत्य, कायरता तथा पाप शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक-कर्त्तव्य और सत्यता’।
(ख) संसार में मनुष्य को सफलता दिलाने वाली वस्तु ‘सत्यता’ है।
(ग) झूठ की उत्पत्ति पाप, कुटिलता और कायरता से होती है।
(घ) विलोम शब्द-सत्य-झूठ, कायरता-वीरता, पाप-पुण्य।

(24) कहा जाता है कि हमारा लोकतंत्र यदि कहीं कमजोर है तो उसकी एक बड़ी वजह हमारे राजनीतिक दल हैं। वे प्रायः अव्यवस्थित हैं, अमर्यादित हैं और अधिकांशतः निष्ठा और कर्मठता से सम्पन्न नहीं हैं। हमारी राजनीति का स्तर प्रत्येक दृष्टि से गिरता जा रहा है। लगता है उसमें सुयोग्य और सच्चरित्र लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। लोकतंत्र के मूल में लोकनिष्ठा होनी चाहिए, लोकमंगल की भावना और लोकानुभूति होनी चाहिए और लोकसम्पर्क होना चाहिए। हमारे लोकतंत्र में इन आधारभूत तत्वों की कमी होने लगी है, इसलिए लोकतंत्र कमजोर दिखाई पड़ता है। हम प्रायः सोचते हैं कि हमारा देश-प्रेम । कहाँ चला गया, देश के लिए कुछ करने, मर-मिटने की भावना कहाँ चली गई? त्याग और बलिदान के आदर्श कैसे, कहाँ लुप्त हो गए? आज हमारे लोकतंत्र को स्वार्थान्धता का घुन लग गया है। क्या राजनीतिज्ञ, क्या अफसर, अधिकांश यही सोचते हैं कि वे किस तरह से स्थिति का लाभ उठाएँ, किस तरह एक-दूसरे का इस्तेमाल करें। आम आदमी अपने आपको लाचार पाता है और ऐसी स्थिति में उसकी लोकतांत्रिक आस्थाएँ डगमगाने लगती हैं।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश को उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) लोकतंत्र के मूल में किस बात का होना आवश्यक है? इसके अभाव में हमारे लोकतंत्र की क्या क्षति हो रही है?
(ग) भारत के राजनैतिक दलों में क्या दोष हैं?
(घ) ‘अ’ उपसर्गयुक्त दो शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘ भारतीय लोकतन्त्र’।
(ख) लोकतन्त्र के मूल में लोक निष्ठा, लोकानुभूति, लोक मंगल की भावना तथा लोक-सम्पर्क का होना आवश्यक है। इनके अभाव के कारण हमारा लोकतन्त्र कमजोर होने लगता है।
(ग) भारत के राजनैतिक दलों में अनेक दोष हैं। वे अव्यवस्थित और अमर्यादित हैं। उनमें निष्ठा और कर्मठता का अभाव है। उनका राजनैतिक स्तर गिर रहा है तथा उनमें सुयोग्य और चरित्रवान लोगों के लिए स्थान नहीं है।
(घ) अव्यवस्थित, अमर्यादित ।

(25) इधर मैं सोचने लगा हूँ कि अछूतों के साथ या उनके हाथ का खाना-पीना अथवा उनके लिए मन्दिरों का द्वार खोलना केवल रूमानी औपचारिकताएँ अथवा प्रदर्शन हैं। समाज में उनको अपना यथोचित स्थान तभी मिलेगा, जब उनमें शिक्षा का व्यापक प्रचार हो और उनका आर्थिक स्तर ऊपर उठे। साथ ही जाति की श्रृंखला को ऊपर से नीचे तक टूटना नहीं तो ढीली अवश्य होना होगा। जाति की जड़, अर्थहीन और हानिकारक रूढ़ियों से निम्न वर्ग के लोग उतने ही जकड़े हैं जितने कि उच्च वर्ग के लोग। एक छोटा-सा कदम इस दिशा में यह उठाया जा सकता है कि लोग अपने नाम के साथ अपनी जाति का संकेत करना बन्द कर दें। जिन दिनों मैं यूनीवर्सिटी में अध्यापक था, मैं अपने बहुत-से विद्यार्थियों को प्रेरित करता था कि वे अपने नाम के साथ अपनी जाति न जोड़े-अपने को रामप्रसाद त्रिपाठी नहीं, केवल रामप्रसाद कहें। भारत की आजाद सरकार चाहती तो एक विधेयक से नाम के साथ जाति लगाना बन्द करा सकती थी-कम से कम सरकारी कागजों से जाति का कॉलम हटा सकती थी, इसके परिणाम दूरगामी और हितकर होते। पर अभी इसमें कुछ भी क्रान्तिकारी करने का साहस नहीं है। वह जैसा चला आया है वैसा ही, या उसमें थोड़ा-बहुत हेर-फेर करके चलाए जाने में ही अपनी चातुरी और सुरक्षा समझती है।

प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) “रूमानी औपचारिकताएँ अथवा प्रदर्शन” इस वाक्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) समाज से जाति-प्रथा को दूर करने के लिए स्वाधीन भारत की सरकार का रवैया कैसा है?
(घ) “प्रदर्शन’ शब्द में प्रयुक्त उपसर्ग तथा प्रत्यय को अलग करके लिखिए।
उत्तर:
(क) उपयुक्त शीर्षक-‘अहितकर जाति प्रथा’।
(ख) इसका आशय है कि अछूतों के साथ खाने-पीने या मन्दिरों में उनका प्रवेश कराने से उनका कुछ भला नहीं। होगा। ये बातें आकर्षक दिखावा हैं, वास्तविक उपाय नहीं।
(ग) समाज से जाति प्रथा को दूर करने के लिए स्वाधीन भारत की सरकार का रवैया उपेक्षा तथा गैर-जिम्मेदारी का है। वह जैसा चला आया है, उसे वैसा ही या थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ चलने देने में अपनी चतुराई तथा सुरक्षा समझती है।
(घ) प्रदर्शन शब्द में ‘प्र’ उपसर्ग तथा ‘ल्युट्’ प्रत्यय जुड़ा है। (प्र + दश् + ल्युट् + (अन्)।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(26) आज भारतीय समाज में दहेज के नग्न नृत्य को देखकर किसी भी समाज और देश के हितैषी का हृदय लज्जा और दुःख से भर उठेगा। इस प्रथा से केवल व्यक्तिगत हानि हो, ऐसी बात नहीं। इससे समाज और राष्ट्र को महान हानि पहुँचती है। तड़क-भड़क, शान-शौकत के प्रति आकर्षण से धन का अपव्यय होता है। समाज की क्रियाशील और उत्पादक पूँजी व्यर्थ नष्ट होती है। जीवन में भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है। नारी के सम्मान पर चोट होती है। आत्महत्या और आत्महीनता की भावनाएँ जन्म लेती हैं, परन्त इस अभिशाप से मुक्ति का उपाय क्या है? इसके दो पक्ष हैं-जनता और शासन। शासन कानून बनाकर इसे समाप्त कर सकता है और कर भी रहा है, किन्तु बिना जन-सहयोग के ये कानून प्रभावी नहीं हो सकते। इसके लिए महिला वर्ग को और कन्याओं को स्वयं संघर्षशील बनना होगा, स्वावलम्बिनी और स्वाभिमानिनी बनना होगा। ऐसे वरों का तिरस्कार करना होगा, जो उन्हें धन-प्राप्ति का साधन मात्र समझते हैं। इसके साथ ही धर्माचार्यों का भी दायित्व है कि वे अपने लोभ के कारण समाज को संकट में न डालें। अविवाहित कन्या के घर में रहने से मिलने वाला नरक, जीते-जी प्राप्त नरक से अच्छा रहेगा। हमारी कन्याएँ हमसे विद्रोह करें और हम मजबूरन सही रास्ते पर आएँ, इससे तो यही अच्छा होगा कि हमें पहले ही सँभल जाएँ।

प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) दहेज प्रथा के व्यक्ति और समाज पर क्या कुप्रभाव होते हैं?
(ग) दहेज प्रथा की समाप्ति के लिए महिलाओं और कन्याओं को क्या करना होगा?
(घ) ‘अविवाहित’ शब्द में मूल शब्द, उपसर्ग और प्रत्यय अलग करके लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का शीर्षक-‘दहेज-प्रथा का दोष’।
(ख) दहेज प्रथा से व्यक्ति का जीवन दुश्चिंता, अपमान और तनाव से भर जाता है। सामाजिक जीवन में धन के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और असमानता की समस्यायें पनपती हैं।
(ग) दहेज-प्रथा की समाप्ति के लिए महिलाओं और कन्याओं को संघर्षशील, स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनना होगा। उन्हें दहेज लोभियों का तिरस्कार और बहिष्कार करना होगा।
(घ) मूलशब्द-विवाह, उपसर्ग-अ, प्रत्यय, इत।

(27) जिने प्रवृत्तियों में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता है, वह वांछनीय होती हैं, जिनसे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित हैं। अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हैं। यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दें, तो नि:संदेह वह हमें नाश और पतन की ओर ले जायेंगी, इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिससे वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकें। हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता है।
साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। सत्य को रसों द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार-पुचकारकर बच्चों को जितनी सफलता से वश में किया जा सकता है, डाँट-फटकार से सम्भव नहीं। साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है। जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है।

प्रश्न
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) मनुष्य की वे कौन-सी प्रवृत्तियाँ हैं, जिन पर संयम रखना आवश्यक है और क्यों?
(ग) साहित्य सद्वृत्तियों को किस तरह जगाता है?
(घ) ‘सद्वृत्ति’ का विलोम शब्द लिखकर उसका वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-साहित्य का महत्व।
(ख) मनुष्य में कुछ दुष्प्रवृत्तियाँ होती हैं। अहंकार, क्रोध तथा द्वेष इत्यादि कुछ मानवीय दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। इन पर नियन्त्रण या संयम रखना आवश्यक है। ये प्रकृति के साथ मनुष्य के सामंजस्य में बाधा डालती हैं। इनको बिना नियन्त्रण के चलने देने से मनुष्य का जीवन पतन और विनाश के गर्त में गिर जाता है।
(ग) साहित्य मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। सत्य को रस द्वारा प्राप्त करना जितना सरल है उतना ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं। प्रेम से कठोर प्रकृति का व्यक्ति भी नरम हो जाता है। जब सद्वृत्तियाँ जाग उठती हैं तो दुष्प्रवृत्तियाँ स्वतः ही प्रभावहीन हो जाती हैं।
(घ) “सवृत्ति’ का विलोम शब्द-‘असवृत्ति’। वाक्य प्रयोग-असद्वृत्तियाँ हमारे भावी विकास में बाधक होती हैं।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

(28) भिखारी की भाँति गिड़गिड़ाना प्रेम की भाषा नहीं है। यहाँ तक कि मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना भी अधम उपासना में गिना जाता है। प्रेम कोई पुरस्कार नहीं चाहता। प्रेम में आतुरता नहीं होती। प्रेम सर्वथा प्रेम के लिए ही होता है। भक्त इसलिए प्रेम करता है कि बिना प्रेम किए वह रह ही नहीं सकता। जब हम किसी प्राकृतिक दृश्य को देखकर उस पर मुग्ध हो जाते हैं तो उस दृश्य से हम किसी फल की याचना नहीं करते और न वह दृश्य ही हमसे कुछ चाहता है; तो भी वह दृश्य हमें बड़ा आनन्द देता है। वह हमारे मन को पुलकित और शान्त कर देता है और हमें साधारण सांसारिकता से ऊपर उठाकर एक स्वर्गीय आनन्द से सराबोर कर देता है। इसलिए प्रेम के बदले कुछ माँगना प्रेम का अपमान करना है। प्रेम करना नंगी तलवार की धार पर चलने जैसा है क्योंकि स्वार्थ के लिए, दिखाने के लिए तो सभी प्रेम करते हैं, उसे निभाते नहीं। वे पाना चाहते हैं, देना नहीं। वे वस्तुतः प्रेम शब्द को कलंकित करते हैं।

प्रश्न
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना कैसी उपासना है तथा क्यों?
(ग) प्रेम करना नंगी तलवार की धार पर चलने के समान क्यों है?
(घ) “वे वस्तुतः प्रेम शब्द को कलंकित करते हैं’-रेखांकित शब्द को संज्ञा में बदलकर अपने वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-सच्चा प्रेम।
(ख) मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना अधम उपासना है क्योंकि इस उपासना में उपासक का स्वार्थ निहित है, वह बदले में पुरस्कार चाहता है। सच्चा प्रेम नि:स्वार्थ होता है तथा बदले में कुछ नहीं चाहता।
(ग) प्रेम में त्याग भाव का होना आवश्यक है। उसमें प्रेम करने वाले को अपना सब कुछ दूसरे के हित में समर्पित करना होता है। सच्चा प्रेम अपनी नहीं दूसरे की भलाई चाहता है। अपना सुख छोड़कर दूसरे का सुख चाहना अत्यन्त कठिन काम है। अतः प्रेम करना नंगी तलवार की धारे पर चलने के समान है।
(घ) ‘कलंकित’ शब्द से बनने वाली संज्ञा है-कलंक। वाक्य प्रयोग-स्वार्थ की भावना से सच्चे प्रेम को कलंक लग जाता है।

अभ्यास प्रश्न

(1) नीचे अभ्यास हेतु कुछ अपठित गद्यांश दिए गए हैं। विद्यार्थी उनके नीचे दिए गए प्रश्नों का उत्तर स्वयं लिखें।
अनुशासन किसी वर्ग या आयु-विशेष के लिए ही नहीं, अपितु सभी के लिए ही परमावश्यक होता है। जिस जाति, देश और राष्ट्र में अनुशासन का अभाव होता है, वह अधिक समय तक अपना अस्तित्व नहीं बनाए रख सकता है। जो विद्यार्थी अपनी दिनचर्या निश्चित अवस्था में नहीं ढाल पाता, वह निरर्थक है क्योंकि विद्या ग्रहण करने में व्यवस्था ही सर्वोपरि है। अनुशासन का पालन करते हुए जो विद्यार्थी योगी की तरह विद्याध्ययन में जुट जाता है, वही सफलता पाता है। अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी का जीवन शून्य बन जाता है। कुछ व्यवधानों के कारण विद्यार्थी अनुशासित नहीं रह पाता और अपना जीवन नष्ट कर लेता है। सर्वप्रथम बाधा है-उसके मन की चंचलता। उसे अनुभव नहीं होता है, इसलिए गुरुजनों की आज्ञाएँ तथा विद्यालयों के नियम, अभिभावकों की सलाह उसे कारागार के समान प्रतीत होते हैं। वह उनसे मुक्ति का मार्ग तलाशता रहता है। कर्तव्यों को तिलांजलि देकर केवल अधिकारों की माँग करता है। हर प्रकार से केवल अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए संघर्ष पर उतारू हो जाता है और यहीं से उच्छृखलता और अनुशासनहीनता का जन्म होता है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश को एक उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) अनुशासन किनके लिए आवश्यक होता है? ।
(ग) विद्यार्थी जीवन में अनुशासित रहने में क्या बातें बाधक होती हैं?
(घ) अनुशासन ‘शब्द’ से उपसर्ग अलग करके लिखिए।

(2) सभ्यता और तथाकथित संस्कृति लोक-साहित्य की महान् शत्रु है। प्रोफेसर किटरीज ने कहा है-शिक्षा इस मौखिक साहित्य की मित्र नहीं होती। वह उसे इस वेग से नष्ट करती है कि देखकर आश्चर्य होता है। ज्यों ही कोई जाति लिखना-पढ़ना सीख जाती है त्यों ही वह अपनी परम्परागत कथाओं की अवहेलना करने लग जाती है, यहाँ तक कि उनसे थोड़ी-बहुतै लज्जा का अनुभव करने लगती है और अंत में उनकी याद रखने तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने की इच्छा एवं शक्ति से भी हाथ धो बैठती है। जो चीज कभी समस्त जनता की थी, वह केवल निरक्षरों की सम्पत्ति रह जाती है और यदि पुरातत्व प्रेमियों द्वारा संगृहीत न की जाय तो सदा के लिए विलुप्त हो जाती है।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) लोक-साहित्य को मौखिक साहित्य क्यों कहा गया है?
(ग) किसी जाति के पढ़ना-लिखना सीखने पर लोक-साहित्य के प्रति उसमें क्या भावना उत्पन्न हो जाती है? इसका क्या परिणाम होता है?
(घ) “हाथ धो बैठना’-मुहावरे का अर्थ लिखकर अपने वाक्य में प्रयोग कीजिए।

(3) गाँधीजी के अनुसार शिक्षा, शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का विकास करने का माध्यम है। वे ‘बुनियादी शिक्षा’ के पक्षधर थे। उनके अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा की नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा मिलनी चाहिए, जो उसके आस-पास की जिन्दगी पर आधारित हो; हस्तकला एवं कार्म के जरिए दी जाए; रोजगार दिलाने के लिए बच्चे को आत्मनिर्भर बनाए तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने वाली हो। गाँधीजी के उक्त विचारों से स्पष्ट है कि वे व्यक्ति और समाज के सम्पूर्ण जीवन पर अपनी मौलिक दृष्टि रखते थे तथा उन्होंने अपने जीवन में सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेकर भारतीय समाज एवं राजनीति में इन मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश की। गाँधीजी की सारी सोच भारतीय परम्परा की सोच है तथा उनके दिखाए मार्ग को अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण राष्ट्र वास्तविक स्वतन्त्रता, सामाजिक सद्भाव एवं सामुदायिक विकास को प्राप्त कर सकता है। भारतीय समाज जब-जब भटकेगा तब-तब गाँधीजी उसका मार्गदर्शन करने में सक्षम रहेंगे।

कौन धर्म को कानून से बड़ी चीज़ मानता है? - kaun dharm ko kaanoon se badee cheez maanata hai?

प्रश्न
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) गाँधीजी ने शिक्षा का क्या उद्देश्य बताया?
(ग) गाँधीजी की सोच भारतीय परम्परानुसार है, कैसे?
(घ) सामाजिक’ शब्द का मूल शब्द व प्रत्यय बताइए।

(4) ततः किम् ! मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों का नाखून न काटने के लिये डाँटता है। किसी दिन, कुछ थोड़े लाख पूर्व वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि यह अब भी नाखून को जिलाये जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कम्बख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अन्धे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे कहूँ, नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है? वह तो उसका नवीनतम रूप है। मैं मनुष्य के नाखूनों की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशविक वृत्ति के जीवन प्रतीक हैं। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) नाखूनों को देखकर लेखक निराश क्यों हो जाता है?
(ग) लेखक के अनुसार मनुष्य अब नाखूनों को काटना नहीं चाहता, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
(घ) “मनुष्य’ शब्द में प्रत्यय लगाकर भाववाचक संज्ञा बनाइये।

(5) आत्मा अजर और अमर है। उसमें अनन्त ज्ञान, शक्ति और आनन्द का भण्डार है। अकेले ज्ञान कहना भी पर्याप्त हो सकता है, क्योंकि जहाँ ज्ञान होता है वहाँ शक्ति होती है और जहाँ ज्ञान और शक्ति होते हैं वहाँ आनन्द भी होता है परन्तु । अविद्यावशात् वह अपने स्वरूप को भूला हुआ है। इसी से अपने को अल्पज्ञ पाता है। अल्पज्ञता के साथ-साथ अल्प शक्तिमत्ता आती है और इसका परिणाम दु:ख होता है। भीतर से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कुछ खोया हुआ है, परन्तु यह नहीं समझ में आता कि क्या खो गया है? उसे खोयी हुई वस्तु की, अपने स्वरूप की, निरन्तर खोज रहती है। आत्मा अनजान में भटका करती है, कभी इस विषय की ओर दौड़ती है, कभी उसकी ओर, परन्तु किसी की प्राप्ति से तृप्ति नहीं होती, क्योंकि अपना स्वरूप इन विषयों में नहीं है। जब तक आत्मसाक्षात्कार न होगा, तब तक अपूर्णता की अनुभूति बनी रहेगी और आनन्द की खोज जारी रहेगी।

प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) आत्मा के गुण कौन-कौन से हैं?
(ग) अपूर्णता की अनुभूति कब तक बनी रहेगी?
(घ) “अल्पज्ञता’ का विलोम शब्द लिखिए।

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 RBSE Solutions for Class 10 Hindi

धर्म कानून से बड़ी चीज क्यों माना जाता है?

धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरु हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी हाता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज है।

धर्म भीरू लोग कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच क्यों नहीं करते?

धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, पर कानून को धोखा देने मे किसी को भी संकोच नहीं होता। यही कारण है कि धर्म-भीरु लोग कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते

कहाँ कानून को सदा धर्म के रूप में देखा जाता रहा है?

भारत वर्ष में कानून को धर्म के रूप में देखा गया है। धर्मकानून में अंतर है। कानून को धोखा दिया जा सकता है परन्तु धर्म को नहीं। भारत में अधिकांश लोग धर्म भीरू है।

भारतवर्ष में आज भी कौन से मूल्य बने हुए हैं?

भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए हैंआज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है।