RBSE Class 10 Hindi अपठित गद्यांश is part of RBSE Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given Rajasthan Board RBSE Class 10 Hindi अपठित गद्यांश. Show Rajasthan Board RBSE Class 10 Hindi अपठित गद्यांशअपठित का अर्थ – ‘अ’ का अर्थ है ‘नहीं’ और ‘पठित’ का अर्थ है-‘पढ़ा हुआ’ अर्थात् जो पढ़ा नहीं गया हो । प्रायः शब्द का अर्थ उल्टा करने के लिए उसके आगे ‘अ’ उपसर्ग लगा देते हैं। यहाँ ‘पठित’ शब्द से ‘अपठित’ शब्द का निर्माण ‘अ’ लगने के कारण हुआ है। ‘अपठित’ की परिभाषा – गद्य एवं पद्य का वह अंश जो पहले कभी नहीं पढ़ा गया हो, ‘अपठित’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में ऐसा उदाहरण जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से न लेकर किसी अन्य पुस्तक या भाषा-खण्ड से लिया गया हो, अपठित अंश माना जाता है। ‘अपठित’ का महत्त्व-प्रायः विद्यार्थी पाठ्यक्रम में निर्धारित गद्य व पद्य अंशों को तो हृदयंगम कर लेते हैं, किन्तु जब उन्हें पाठ्यक्रम के अलावा अन्य अंश पढ़ने को मिलते हैं या पढ़ने पड़ते हैं, तो उन्हें उन अंशों को समझने में परेशानी आती है। अतएव अपठित अंश के अध्ययन द्वारा विद्यार्थी सम्पूर्ण भाषा-अंशों के प्रति तो समझ विकसित करता ही है, साथ ही उसे नये-नये शब्दों को सीखने का भी अच्छा अवसर मिलता है। ‘अपठित’ अंश विद्यार्थियों में मौलिक लेखन की भी क्षमता उत्पन्न करता है। निर्देश – अपठित अंशों पर तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाएँगे (क) विषय-वस्तु का बोध – इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते समय निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए
(ख) शीर्षक का चुनाव-शीर्षक को चयन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें
(ग) भाषिक संरचना-इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। प्रश्न (1) भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरू हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म, कानून से बड़ी चीज है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और अध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है। प्रश्न (2) यदि मनुष्य और पशु के बीच कोई अंतर है तो केवल इतना कि मनुष्य के भीतर विवेक है और पशु विवेकहीन है। इसी विवेक के कारण मनुष्य को यह बोध रहता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसी विवेक के कारण मनुष्य यह समझ पाता है कि केवल खाने-पीने और सोने में ही जीवन का अर्थ और इति नहीं। केवल अपना पेट भरने से ही जगत के सभी कार्य संपन्न नहीं हो जाते और यदि मनुष्य का जन्म मिला है तो केवल इसी चीज का हिसाब रखने के लिए नहीं कि इस जगत ने उसे क्या दिया है और न ही यह सोचने के लिए कि यदि
इस जगत ने उसे कुछ नहीं दिया तो वह इस संसार के भले के लिए कार्य क्यों करे। मानवता का बोध कराने वाले इस गुण ‘विवेक’ की जननी का नाम ‘शिक्षा’ है। शिक्षा जिससे अनेक रूप समय के परिवर्तन के साथ इस जगत में बदलते रहते हैं, वह जहाँ कहीं भी विद्यमान रही है सदैव अपना कार्य करती रही है। यह शिक्षा ही है जिसकी धुरी पर यह संसार चलायमान है। विवेक से लेकर विज्ञान और ज्ञान की जन्मदात्री शिक्षा ही तो है। शिक्षा हमारे भीतर विद्यमान वह तत्त्व है जिसके बल पर हम बात करते हैं, कार्य करते हैं, अपने मित्रों और शत्रुओं की
सूची तैयार करते हैं, उलझनों को सुलझनों में बदलते हैं। असल में सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को ही ‘शिक्षा’ कहते हैं। शिक्षा उन तथ्यों का तथा उन तरीकों का ज्ञान कराती है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने खोजा था-सभ्य तथा सुखी जीवन बिताने लिए। प्रश्न (3) भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। जीवन का भोग त्याग के साथ करो।’ यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन में जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिलता है। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्म्न को परास्त कर दिया था जिसका कारण था अकबर का जन्म रेगिस्तान में होना और उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत के अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे, मगर जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह जैसी मुसीबत झेली थी। उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं। प्रश्न (4) शहादत और मौन-मूक! जिस शहादत को शोहरत मिली जिस बलिदान को प्रसिद्धि प्राप्त हुई, वह इमारत का कंगूरा हैमंदिर का कलश है। हाँ, शहादत और मौन मूक! समाज की आधारशिला यही होती है। ईसा की शहादत ने ईसाई धर्म को अमर बना दिया, आप कह लीजिए। किंतु मेरी समझ से ईसाई धर्म को अमर बनायो उन लोगों ने, जिन्होंने उस धर्म के प्रचार में अपने को अनाम उत्सर्ग कर दिया। उनमें से कितने जिंदा जलाए गए, कितने सूली पर चढ़ाए गए, कितने वन-वन की खाक छानते जंगली जानवरों के शिकार हुए, कितने उससे भी भयानक भूख-प्यास के शिकार हुए। उनके नाम शायद ही कहीं लिखे गए हों-उनकी चर्चा शायद ही कहीं होती हो किंतु ईसाई धर्म उन्हीं के पुण्य-प्रताप से फल-फूल रहा है, वे नींव । की ईंट थे, गिरजाघर के कलश उन्हीं की शहादत से चमकते हैं। आज हमारा देश आजाद हुआ सिर्फ उनके बलिदानों के कारण नहीं, जिन्होंने इतिहास में स्थान पा लिया है। हम जिसे देख नहीं सकें, वह सत्य नहीं है, यह है मूक धारणा : ढूँढने से ही सत्य मिलता है। हमारा काम है, धर्म है, ऐसी नींव की ईंटों की ओर ध्यान देना। सदियों के बाद नए समाज की सृष्टि की ओर हमने पहला कदम बढ़ाया है। प्रश्न (5) अहिंसा और कायरता कभी साथ नहीं चलती। मैं पूरी तरह शस्त्र-सज्जित मनुष्य के हृदय से कायर होने की कल्पना कर सकता हूँ। हथियार रखना
कायरता नहीं तो डर का होना तो प्रकट करता ही है, परन्तु सच्ची अहिंसी शुद्ध निर्भयता के बिना असम्भव है। प्रश्न: (6) निर्लिप्त रहकरं दूसरों का गला काटने वालों से लिप्त रहकर दूसरों की भलाई करने वाले कहीं अच्छे हैं- क्षात्रधर्म एकान्तिक नहीं है, उसका सम्बन्ध लोकरक्षा से है। अत: वह जनता के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला है। कोई राजा होगा तो अपने घर को होगा’……. इससे बढ़कर झूठ बात शायद ही कोई और मिले। झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की जा सकती। क्षात्र जीवन के व्यापकत्व के कारण ही हमारे मुख्य अवतार-राम और कृष्ण- क्षत्रिय हैं। कर्म-सौन्दर्य की योजना जितने रूपों में क्षात्र जीवन में सम्भव है, उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ रूप-माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ परदुःख कातरता, प्रताप के साथ कठिन धर्म-पथ का अवलम्बन इत्यादि कर्म-सौन्दर्य के इतने अधिक प्रकार के उत्कर्ष-योग और कहाँ घट सकते हैं? इस व्यापार युग में, इस वणिग्धर्म-प्रधान युग में, क्षात्रधर्म की चर्चा करना शायद गई बात का रोना समझा जाय पर आधुनिक व्यापार की अन्यान्य रक्षा भी शास्त्रों द्वारा ही की जाती है। क्षात्रधर्म का उपयोग कहीं नहीं गया है- केवल धर्म के साथ उसका असहयोग हो गया है। प्रश्न (7) हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपने जीवन की अंतिम यात्रा उन्होंने मात्र 56 वर्ष की आयु में ही पूर्ण कर ली थी, यथापि उनकी एक-एक रचना उन्हें युगों-युगों तक जीवंत रखने में सक्षम है। ‘गोदान’ के संदर्भ में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि प्रेमचन्द के सारे ग्रंथों को जला दिया जाए और मात्र गोदान को बचाकर रख लिया जाए वहीं उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए जीवित रखने को पर्याप्त है। प्रेमचन्द का जीवन भले ही अभावों में बीता हो, किंतु वे धन का गलत ढंग से उपार्जन करने से निर्धन रहना श्रेयस्कर समझते थे। एक बार धन कमाने की इच्छा से वे मुम्बई भी गए किंतु वहाँ का रंग-ढंग उन्हें श्रेष्ठ साहित्यकार के प्रतिकूल ही लगा। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास एवं कहानियों में किसान की दयनीय हालत, उपेक्षित वर्ग की समस्याएँ, बेमेल विवाह की समस्या को उजागर करके समाधान भी प्रस्तुत किए हैं। अंग्रेजी शासन काल में उनकी रचनाओं ने अस्त्रे का कार्य किया, जिससे अंग्रेजों की नींद तक उड़ गई थी। आदर्श एवं यथार्थ का इतना सुंदर समन्वय शायद ही कहीं मिलेगा जितना कि प्रेमचन्द के उपन्यासों में मिलता है। प्रश्न (8) मनुष्य के जीवन पर शब्द का नहीं सद्-आचरण का प्रभाव पड़ता है। साधारण उपदेश तो हर गिरजे, हर मठ और हर मस्जिद में होते हैं, परन्तु उनका प्रभाव हम पर तभी पड़ता है जब गिरजे का पादरी स्वयं ईसा होता है, मंदिर का पुजारी स्वयं ब्रह्मर्षि होता है, मस्जिद का मुल्ला पैगम्बर और रसूल होता है। प्रश्न (9) सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है। एक जिज्ञासा का सम्बन्ध है, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध है और तीसरा आनन्द का। जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनन्द का सम्बन्ध है। सत्य जहाँ आनन्द स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। जिज्ञासा का सम्बन्ध विचार से है, प्रयोजन का सम्बन्ध स्वार्थ-बुद्धि से तथा आनन्द का सम्बन्ध मनोभावों से है। साहित्य का विकास मनोभावों द्वारा ही होता है। एक ही दृश्य, घटना या कांड को हम तीनों ही भिन्न-भिन्न नजरों से देख सकते हैं। हिम से ढके हुए पर्वत पर उषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसन्धान की और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का आत्म-समर्पण है। यहाँ हम पृथकता का अनुभव नहीं करते। यहाँ ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाता। श्री रामचन्द्र शबरी के जूठे बेर क्यों प्रेम से खाते हैं, कृष्ण भगवान विदुर के शाक को क्यों नाना व्यंजनों से रुचिकर समझते हैं? इसीलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को मिटा दिया है। उनकी आत्मा विशाल है। उसमें समस्त जगत् के लिए स्थान है। आत्म, आत्मा से मिल गयी है। जिसकी आत्मा जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महान् पुरुष है। यहाँ तक कि ऐसे महान् पुरुष भी हो गये हैं, जो जड़ जगत् से भी अपनी आत्मा का मेल कर सके हैं। प्रश्न (10) राष्ट्रभाषा होने के लिए किसी भाषा में कुछ विशेषताएँ होना अनिवार्य होता है। सर्वप्रथम गुण उस भाषा की व्यापकता है। जो भाषा देश के सर्वाधिक जनों और सर्वाधिक क्षेत्र में बोली और समझी जाती हो वही राष्ट्रभाषा पद की अधिकारिणी होती है। भाषा की समृद्धता उसकी दूसरी विशेषता है। उस भाषा का शब्द-समुदाय ज्ञान-विज्ञान की सभी उपलब्धियों को व्यक्त करने की क्षमता रखता हो। धर्म, दर्शन, विज्ञान, सामाजिक परिवर्तन, अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य आदि सभी कुछ उस भाषा द्वारा जनसाधारण तक पहुँचाया जा सके। तीसरी विशेषता उसकी सरलता है। अन्य भाषा-भाषी उसे बिना कठिनाई के सीख सकें। उसे भाषा की लिपि भी सरल और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित हो तथा उस भाषा में निरन्तर विकसित होने की सामर्थ्य हो। उपर्युक्त विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर समस्त भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा की अधिकतम योग्यता रखती है। देश की अधिसंख्यक जनता द्वारा वह बोली एवं समझी जाती है। ज्ञान-विज्ञान के विविध विषयों पर उसमें साहित्य-निर्माण हुआ है और हो रहा है। तकनीकी और पारिभाषिक शब्दावली के लिए जहाँ उसे संस्कृत को समृद्ध शब्द-भण्डार प्राप्त है वहीं उसकी पाचन-शक्ति भी उदार है। उसकी लिपि पूर्ण वैज्ञानिक है। इस प्रकार हिन्दी ने स्वयं को राष्ट्रभाषा का उत्तरदायित्व सँभालने के लिए गम्भीरता से तैयार किया है। प्रश्न (11) उपासना की दृष्टि से कई लोग काफी बढ़-चढ़े होते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि जहाँ दूसरे लोग भगवान को बिल्कुल ही भूल बैठे हैं, वहाँ वह व्यक्ति ईश्वर का स्मरण तो करता है, औरों से तो अच्छा है। इसी प्रकार जो बुराइयों से बचा है, अनीति और अव्यवस्था नहीं फैलाता, संयम और मर्यादा में रहता है, वह भी भला है। उसे बुद्धिमान कहा जाएगा, क्योंकि दुर्बुद्धि को अपनाने से जो अगणित विपत्तियाँ उस पर टूटने वाली र्थी, उनसे बच गया। स्वयं भी उद्विग्न नहीं हुआ और दूसरों को भी विक्षुब्ध न करने की भलमनसाहत बरतता रहा। यह दोनों ही बातें अच्छी हैं। ईश्वर का नाम लेना और भलमनसाहत से रहना, एक अच्छे मनुष्य के लिये योग्य कार्य है। उतना तो हर समझदार आदमी को करना ही चाहिये था। जो उतना ही करता है, उसकी उतनी तो प्रशंसा की ही जाएगी कि उसने अनिवार्य कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं की और दुष्ट दुरात्माओं की होने वाली दुर्गति से अपने को बचा लिया। प्रश्न (12) हर किसी मनुष्य को अपने राष्ट्र के प्रति गौरव, स्वाभिमान होना आवश्यक है। राष्ट्र से जुड़े समस्त राष्ट्र प्रतीकों के प्रति भी हमें स्वाभिमान होना चाहिए। राष्ट्र प्रतीकों का यदि कोई अपमान करता है, तो उसका पुरजोर विरोध करना चाहिए। प्रत्येक राष्ट्राभिमानी व्यक्ति के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा अपने देश की भाषा के प्रति प्रेम होना स्वाभाविक भावना ही है। राष्ट्र के प्रति हर राष्ट्रवासी को राष्ट्र हित में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को
तैयार रहना चाहिए। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती है, वह राष्ट्र शीघ्र ही पराधीन होकर अपनी सुख, शांति और समृद्धि को सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति एवं सार्वजनिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। जिसके हृदय में राष्ट्रभक्ति है उसके हृदय में मातृभक्ति, पितृभक्ति, गुरुभक्ति, परिवार, समाज व सार्वजनिक हित की बात स्वतः ही आ जाती है। (13)
भारतवर्ष पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। यहाँ सभी ऋतुएँ अपने समय पर आती हैं और पर्याप्त काल तक ठहरती हैं। ऋतुएँ अपने अनुकूल फल-फूलों का सृजन करती हैं। धूप और वर्षा के समान अधिकार के कारण यह भूमि शस्यश्यामला हो जाती है। यहाँ का नगाधिराज हिमालय कवियों को सदा से प्रेरणा देता आ रहा है और यहाँ की नदियाँ मोक्षदायिनी समझी जाती रही हैं। यहाँ कृत्रिम धूप और रोशनी की आवश्यकता नहीं पड़ती। भारतीय मनीषी जंगलं में रहना । पसन्द करते थे। प्रकृति-प्रेम के ही कारण यहाँ के लोग पत्तों में खाना पसन्द करते हैं।
वृक्षों में पानी देना एक धार्मिक कार्य । समझते हैं। सूर्य और चन्द्र दर्शन नित्य और नैमित्तिक कार्यों में शुभ माना जाता है। प्रश्न (14) जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण डाल दो जिंदगी में, डाल दो जीवन रस के उपकरणों में। ठीक है। लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती-सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं-आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रिय भवति । विचित्र नहीं है यह तर्क ? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है सब मतलब के लिए। सुना है, पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही है। सुन के हैरानी होती है। दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है केवल प्रचण्ड स्वार्थ । भीतर की जिजीविषा-जीते रहने की प्रचण्ड इच्छा ही अगर बड़ी बात हो, तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाये जाते हैं, शत्रु मर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ है। इसके द्वारा कोई न कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अन्तरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ढंग से सोचना है। स्वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्य है, जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है। क्या है? प्रश्न (15) महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते । भीड़ उसे कहते हैं जहाँ लोगों का जमघट होता है। लोग तो होते हैं लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता; सिर होते हैं, लेकिन उनमें बुद्धि या विचार नहीं होता। हाथ होते हैं, लेकिन उन हाथों में पत्थर होते हैं, विध्वंस के लिए, वे हाथ निर्माण के लिए नहीं होते। यह भीड़ एक अंधी गली से दूसरी गली की ओर जाती है, क्योंकि भीड़ में होने वाले लोगों का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। वे एक-दूसरे के कुछ भी नहीं लगते। सारे अनजान लोग इकट्ठा होकर विध्वंस करने में एक-दूसरे का साथ देते हैं, क्योंकि जिन इमारतों, बसों या रेलों में ये तोड़-फोड़ के काम करते हैं, वे उनकी नहीं होतीं और न ही उनमें सफर करने वाले उनके अपने होते हैं। महानगरों में लोग एक ही. बिल्डिंग में पड़ोसी के तौर पर रहते हैं, लेकिन यह पड़ोस भी संबंधरहित होता है। पुराने जमाने में दही जमाने के लिए जामन माँगने पड़ोस में लोग जाते थे, अब हरे फ्लैट में फ्रिज है, इसलिए जामन माँगने जाने की भी जरूरत नहीं रही। सारा पड़ोस, सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज’ रहते हैं। प्रश्न (16) प्राचीन काल में जब धर्म-मजहब समस्त जीवन को प्रभावित करता था, तब संस्कृति के बनाने में उसका भी हाथ था; किन्तु धर्म के अतिरिक्त अन्य कारण भी सांस्कृतिक-निर्माण में सहायक होते थे। आज मजहब का प्रभाव बहुत कम हो गया है।
अन्य विचार जैसे राष्ट्रीयता आदि उसका स्थान ले रहे हैं। प्रश्न (17) आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रखा है। यह भ्रम है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेखन, बात या भाषण का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई पंक्तियों का नाम पद्य है। हाँ, एक बात जरूर है कि वह वजन और काफिये से अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है, पर कविता के लिये ये बातें ऐसी हैं जैसे कि शरीर के लिये वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजन और प्रभावोत्पादकता न हो तो उसका होना निष्फल ही समझना चाहिये। पद्य के लिए काफिये वगैरह की जरूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक प्रकार से उल्टी हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातन्त्र्य में बड़ी बाधा आती है। प्रश्न (18) हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्तिबोध और दूसरा सौन्दर्यबोध। शक्तिबोध का अर्थ है-देश की शक्ति या सामर्थ्य का ज्ञान। दूसरे देशों की तुलना में अपने देश को हीन नहीं मानना चाहिए। इससे देश के शक्तिबोध को आघात पहुँचता है। सौन्दर्य बोध का अर्थ है किसी भी रूप में कुरुचि की भावना को पनपने न देना। इधर-उधर कूड़ा फेंकने, गंदे शब्दों का प्रयोग, इधर की उधर लगाने, समय देकर न मिलना आदि से देश के सौन्दर्य-बोध को आघात पहुँचता है। देशं के शक्तिबोध को जगाने के लिए हमें चाहिए कि हम सदा दूसरे देशों की अपेक्षा अपने देश को श्रेष्ठ समझें। ऐसा न करने से देश के शक्तिबोध को आघात पहुँचता है। यह उदाहरण इस तथ्य की पुष्टि करता है-शल्य महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुँकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हल्का-सा उल्लेख कर देता। बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसके भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई। प्रश्न (19) कर्म के मार्ग पर आनन्दपूर्वक चलता हुआ लोकोपकारी उत्साही मनुष्य यदि अन्तिम फल तुक न भी पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की
अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी; क्योंकि एक तो कर्म-काल में उसका जो जीवन बीता, वह सन्तोष या आनन्द में बीता। उसके उपरान्त फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। बुद्धि-द्वारा पूर्णरूप से निश्चित की हुई व्यापार-परम्परा का नाम ही प्रयत्न है। कभी-कभी आनन्द का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनन्द के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है, प्रश्न (20) मितव्ययता का अर्थ है-आय की अपेक्षा कम व्यय करना, आमदनी से कम खर्च करना। सभी लोगों की आदत एक-सी नहीं होती न ही निश्चित होती है। आज कोई सौ कमाती है तो कल दस की भी उपलब्धि नहीं होती। आय निश्चित भी हो तब भी उसमें से कुछ-न-कुछ अवश्य बचाना चाहिए। जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आ जाते हैं, आकस्मिक दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। बहुत बार रोग और अन्य शारीरिक आपत्तियाँ आ घेरती हैं। यूँ भी संकट कभी कहकर नहीं आता। यदि पहले से मितव्ययता का आश्रय न लिया जाए तो मान-अपमान का कुछ ध्यान न रखकर इधर-उधर हाथ फैलाने पड़ते हैं। विपत्ति-काल में प्रायः अपने भी साथ छोड़ देते हैं। उस समय सहायता मिलनी कठिन हो जाती है। मिल भी जाए तो मनुष्य ऋण के बन्धन में ऐसा जकड़ जाता है कि आयुपर्यंत अथवा पर्याप्त काल के लिए उससे मुक्त होना दुष्कर होता है। जो मितव्ययी नहीं होते, वे प्रायः दूसरों के कर्जदार रहते हैं। ऋण से बढ़कर कोई दुख और संकट नहीं है। प्रश्न: (21) प्रत्येक व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास, दूसरे की उन्नति और विकासे में बाधक हो, तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा तत्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है। अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है। श्रुति कहती है- ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्व से ओत-प्रोत है। इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं, धर्मों और सम्प्रदायों को स्वतन्त्रतापूर्वक पनपने और भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया, भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया। देश और विदेश में एकसूत्रता, तलवार के जोर से नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द्र से स्थापित की। प्रश्न (22) हर राष्ट्र को अपने सामान्य काम-काज एवं राष्ट्रव्यापी व्यवहार के लिए किसी एक भाषा को अपनाना होता है। राष्ट्र की कोई एक भाषा स्वाभाविक विकास और विस्तार करती हुई अधिकांश जन-समूह के विचार-विनिमय और व्यवहार का माध्यम बन जाती है। इसी भाषा को वह राष्ट्र, राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर, उस पर शासन की स्वीकृति की मुहर लगा देता है। हर राष्ट्र की प्रशासकीय-सुविधा तथा राष्ट्रीय-एकता और गौरव के निमित्त एक राष्ट्रभाषा का होना परम आवश्यक होता है। सरकारी काम-काज की केन्द्रीय भाषा के रूप में यदि एक भाषा स्वीकृत न होगी तो प्रशासन में नित्य ही व्यावहारिक कठिनाइयाँ आयेंगी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी राष्ट्र की निजी भाषा का होना गौरव की बात होती है। एक राष्ट्रभाषा के लिए सर्वप्रथम गुण है-उसकी व्यापकता’। राष्ट्र के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा वह बोली तथा समझी जाती हो। दूसरा गुण है-‘उसकी समृद्धता’। वह संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य एवं विज्ञान आदि विषयों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखती हो। उसका शब्दकोष व्यापक और विशाल हो और उसमें समयानुकूल विकास की सामर्थ्य हो। प्रश्न (23) कर्तव्य-पालन और सत्यता में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो मनुष्य अपना कर्तव्य-पालन करता है वह अपने कामों और वचनों में सत्यता का
बर्ताव भी रखता है। वह ठीक समय पर उचित रीति से अच्छे कामों को करता है। सत्यता ही एक ऐसी वस्तु है जिससे इस संसार में मनुष्य अपने कार्यों में सफलता पा सकता है, इसीलिए हम लोगों को अपने कार्यों में सत्यता को सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है। झूठ की उत्पत्ति पाप, कुटिलता और कायरता के कारण होती है। प्रश्न (24) कहा जाता है कि हमारा लोकतंत्र यदि कहीं कमजोर है तो उसकी एक बड़ी वजह हमारे राजनीतिक दल हैं। वे प्रायः अव्यवस्थित हैं, अमर्यादित हैं और अधिकांशतः निष्ठा और कर्मठता से सम्पन्न नहीं हैं। हमारी राजनीति का स्तर प्रत्येक दृष्टि से गिरता जा रहा है। लगता है उसमें सुयोग्य और सच्चरित्र लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। लोकतंत्र के मूल में लोकनिष्ठा होनी चाहिए, लोकमंगल की भावना और लोकानुभूति होनी चाहिए और लोकसम्पर्क होना चाहिए। हमारे लोकतंत्र में इन आधारभूत तत्वों की कमी होने लगी है, इसलिए लोकतंत्र कमजोर दिखाई पड़ता है। हम प्रायः सोचते हैं कि हमारा देश-प्रेम । कहाँ चला गया, देश के लिए कुछ करने, मर-मिटने की भावना कहाँ चली गई? त्याग और बलिदान के आदर्श कैसे, कहाँ लुप्त हो गए? आज हमारे लोकतंत्र को स्वार्थान्धता का घुन लग गया है। क्या राजनीतिज्ञ, क्या अफसर, अधिकांश यही सोचते हैं कि वे किस तरह से स्थिति का लाभ उठाएँ, किस तरह एक-दूसरे का इस्तेमाल करें। आम आदमी अपने आपको लाचार पाता है और ऐसी स्थिति में उसकी लोकतांत्रिक आस्थाएँ डगमगाने लगती हैं। प्रश्न (25) इधर मैं सोचने लगा हूँ कि अछूतों के साथ या उनके हाथ का खाना-पीना अथवा उनके लिए मन्दिरों का द्वार खोलना केवल रूमानी औपचारिकताएँ अथवा प्रदर्शन हैं। समाज में उनको अपना यथोचित स्थान तभी मिलेगा, जब उनमें शिक्षा का व्यापक प्रचार हो और उनका आर्थिक स्तर ऊपर उठे। साथ ही जाति की श्रृंखला को ऊपर से नीचे तक टूटना नहीं तो ढीली अवश्य होना होगा। जाति की जड़, अर्थहीन और हानिकारक रूढ़ियों से निम्न वर्ग के लोग उतने ही जकड़े हैं जितने कि उच्च वर्ग के लोग। एक छोटा-सा कदम इस दिशा में यह उठाया जा सकता है कि लोग अपने नाम के साथ अपनी जाति का संकेत करना बन्द कर दें। जिन दिनों मैं यूनीवर्सिटी में अध्यापक था, मैं अपने बहुत-से विद्यार्थियों को प्रेरित करता था कि वे अपने नाम के साथ अपनी जाति न जोड़े-अपने को रामप्रसाद त्रिपाठी नहीं, केवल रामप्रसाद कहें। भारत की आजाद सरकार चाहती तो एक विधेयक से नाम के साथ जाति लगाना बन्द करा सकती थी-कम से कम सरकारी कागजों से जाति का कॉलम हटा सकती थी, इसके परिणाम दूरगामी और हितकर होते। पर अभी इसमें कुछ भी क्रान्तिकारी करने का साहस नहीं है। वह जैसा चला आया है वैसा ही, या उसमें थोड़ा-बहुत हेर-फेर करके चलाए जाने में ही अपनी चातुरी और सुरक्षा समझती है। प्रश्न (26) आज भारतीय समाज में दहेज के नग्न नृत्य को देखकर किसी भी समाज और देश के हितैषी का हृदय लज्जा और दुःख से भर उठेगा। इस प्रथा से केवल व्यक्तिगत हानि हो, ऐसी बात नहीं। इससे समाज और राष्ट्र को महान हानि पहुँचती है। तड़क-भड़क, शान-शौकत के प्रति आकर्षण से धन का अपव्यय होता है। समाज की क्रियाशील और उत्पादक पूँजी व्यर्थ नष्ट होती है। जीवन में भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है। नारी के सम्मान पर चोट होती है। आत्महत्या और आत्महीनता की भावनाएँ जन्म लेती हैं, परन्त इस अभिशाप से मुक्ति का उपाय क्या है? इसके दो पक्ष हैं-जनता और शासन। शासन कानून बनाकर इसे समाप्त कर सकता है और कर भी रहा है, किन्तु बिना जन-सहयोग के ये कानून प्रभावी नहीं हो सकते। इसके लिए महिला वर्ग को और कन्याओं को स्वयं संघर्षशील बनना होगा, स्वावलम्बिनी और स्वाभिमानिनी बनना होगा। ऐसे वरों का तिरस्कार करना होगा, जो उन्हें धन-प्राप्ति का साधन मात्र समझते हैं। इसके साथ ही धर्माचार्यों का भी दायित्व है कि वे अपने लोभ के कारण समाज को संकट में न डालें। अविवाहित कन्या के घर में रहने से मिलने वाला नरक, जीते-जी प्राप्त नरक से अच्छा रहेगा। हमारी कन्याएँ हमसे विद्रोह करें और हम मजबूरन सही रास्ते पर आएँ, इससे तो यही अच्छा होगा कि हमें पहले ही सँभल जाएँ। प्रश्न (27) जिने प्रवृत्तियों में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता है, वह वांछनीय होती हैं, जिनसे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित हैं। अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हैं। यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दें, तो नि:संदेह वह हमें नाश और पतन की ओर ले जायेंगी, इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है,
उन पर संयम रखना पड़ता है, जिससे वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकें। हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता है। प्रश्न (28) भिखारी की भाँति गिड़गिड़ाना प्रेम की भाषा नहीं है। यहाँ तक कि मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना भी अधम उपासना में गिना जाता है। प्रेम कोई पुरस्कार नहीं चाहता। प्रेम में आतुरता नहीं होती। प्रेम सर्वथा प्रेम के लिए ही होता है। भक्त इसलिए प्रेम करता है कि बिना प्रेम किए वह रह ही नहीं सकता। जब हम किसी प्राकृतिक दृश्य को देखकर उस पर मुग्ध हो जाते हैं तो उस दृश्य से हम किसी फल की याचना नहीं करते और न वह दृश्य ही हमसे कुछ चाहता है; तो भी वह दृश्य हमें बड़ा आनन्द देता है। वह हमारे मन को पुलकित और शान्त कर देता है और हमें साधारण सांसारिकता से ऊपर उठाकर एक स्वर्गीय आनन्द से सराबोर कर देता है। इसलिए प्रेम के बदले कुछ माँगना प्रेम का अपमान करना है। प्रेम करना नंगी तलवार की धार पर चलने जैसा है क्योंकि स्वार्थ के लिए, दिखाने के लिए तो सभी प्रेम करते हैं, उसे निभाते नहीं। वे पाना चाहते हैं, देना नहीं। वे वस्तुतः प्रेम शब्द को कलंकित करते हैं। प्रश्न अभ्यास प्रश्न (1) नीचे अभ्यास हेतु कुछ अपठित गद्यांश दिए गए हैं। विद्यार्थी उनके नीचे दिए गए प्रश्नों का उत्तर स्वयं लिखें। प्रश्न (2) सभ्यता और तथाकथित संस्कृति लोक-साहित्य की महान् शत्रु है। प्रोफेसर किटरीज ने कहा है-शिक्षा इस मौखिक साहित्य की मित्र नहीं होती। वह उसे इस वेग से नष्ट करती है कि देखकर आश्चर्य होता है। ज्यों ही कोई जाति लिखना-पढ़ना सीख जाती है त्यों ही वह अपनी परम्परागत कथाओं की अवहेलना करने लग जाती है, यहाँ तक कि उनसे थोड़ी-बहुतै लज्जा का अनुभव करने लगती है और अंत में उनकी याद रखने तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने की इच्छा एवं शक्ति से भी हाथ धो बैठती है। जो चीज कभी समस्त जनता की थी, वह केवल निरक्षरों की सम्पत्ति रह जाती है और यदि पुरातत्व प्रेमियों द्वारा संगृहीत न की जाय तो सदा के लिए विलुप्त हो जाती है। प्रश्न (3) गाँधीजी के अनुसार शिक्षा, शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का विकास करने का माध्यम है। वे ‘बुनियादी शिक्षा’ के पक्षधर थे। उनके अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा की नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा मिलनी चाहिए, जो उसके आस-पास की जिन्दगी पर आधारित हो; हस्तकला एवं कार्म के जरिए दी जाए; रोजगार दिलाने के लिए बच्चे को आत्मनिर्भर बनाए तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने वाली हो। गाँधीजी के उक्त विचारों से स्पष्ट है कि वे व्यक्ति और समाज के सम्पूर्ण जीवन पर अपनी मौलिक दृष्टि रखते थे तथा उन्होंने अपने जीवन में सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेकर भारतीय समाज एवं राजनीति में इन मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश की। गाँधीजी की सारी सोच भारतीय परम्परा की सोच है तथा उनके दिखाए मार्ग को अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण राष्ट्र वास्तविक स्वतन्त्रता, सामाजिक सद्भाव एवं सामुदायिक विकास को प्राप्त कर सकता है। भारतीय समाज जब-जब भटकेगा तब-तब गाँधीजी उसका मार्गदर्शन करने में सक्षम रहेंगे। प्रश्न (4) ततः किम् ! मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों का नाखून न काटने के लिये डाँटता है। किसी दिन, कुछ थोड़े लाख पूर्व वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि यह अब भी नाखून को जिलाये जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कम्बख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अन्धे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे कहूँ, नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है? वह तो उसका नवीनतम रूप है। मैं मनुष्य के नाखूनों की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशविक वृत्ति के जीवन प्रतीक हैं। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती। प्रश्न (5) आत्मा अजर और अमर है। उसमें अनन्त ज्ञान, शक्ति और आनन्द का भण्डार है। अकेले ज्ञान कहना भी पर्याप्त हो सकता है, क्योंकि जहाँ ज्ञान होता है वहाँ शक्ति होती है और जहाँ ज्ञान और शक्ति होते हैं वहाँ आनन्द भी होता है परन्तु । अविद्यावशात् वह अपने स्वरूप को भूला हुआ है। इसी से अपने को अल्पज्ञ पाता है। अल्पज्ञता के साथ-साथ अल्प शक्तिमत्ता आती है और इसका परिणाम दु:ख होता है। भीतर से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कुछ खोया हुआ है, परन्तु यह नहीं समझ में आता कि क्या खो गया है? उसे खोयी हुई वस्तु की, अपने स्वरूप की, निरन्तर खोज रहती है। आत्मा अनजान में भटका करती है, कभी इस विषय की ओर दौड़ती है, कभी उसकी ओर, परन्तु किसी की प्राप्ति से तृप्ति नहीं होती, क्योंकि अपना स्वरूप इन विषयों में नहीं है। जब तक आत्मसाक्षात्कार न होगा, तब तक अपूर्णता की अनुभूति बनी रहेगी और आनन्द की खोज जारी रहेगी। प्रश्न We hope the RBSE Class 10 Hindi अपठित गद्यांश will help you. If you have any query regarding Rajasthan Board RBSE Class 10 Hindi अपठित गद्यांश, drop a comment below and we will get back to you at the earliest. RBSE Solutions for Class 10 Hindiधर्म कानून से बड़ी चीज क्यों माना जाता है?धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरु हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी हाता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज है।
धर्म भीरू लोग कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच क्यों नहीं करते?धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, पर कानून को धोखा देने मे किसी को भी संकोच नहीं होता। यही कारण है कि धर्म-भीरु लोग कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।
कहाँ कानून को सदा धर्म के रूप में देखा जाता रहा है?भारत वर्ष में कानून को धर्म के रूप में देखा गया है। धर्म व कानून में अंतर है। कानून को धोखा दिया जा सकता है परन्तु धर्म को नहीं। भारत में अधिकांश लोग धर्म भीरू है।
भारतवर्ष में आज भी कौन से मूल्य बने हुए हैं?भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए हैं। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है।
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