यह ग्रंथ मूल रामायण का शब्दानुवाद नहीं है बल्कि इसमें मध्यकालीन बंगाली समाज और संस्कृति का विविध चित्रण भी है। बंग-भाषा के इस महाकाव्य में छः काण्ड (आदि काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड और लंका काण्ड) हैं। Show श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग बंगला कृत्तिवास रामायण और उसके अल्पज्ञात प्रसंग नास्ति गंगासमं तीर्थं नास्ति मातृसमो गुरु:। नास्ति विष... श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग गंगा के समान तीर्थ, माता के तुल्य गुरु, भगवान् विष्णु के सदृश देवता तथा रामायण से बढ़ कर कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं है। वाल्मीकीय रामायण से प्रभावित होकर भारत की अनेक भाषाओं में श्रीरामकथा किसी न किसी रूप में लिखी गई है। वाल्मीकीय रामायण को आधार बनाकर बंगला भाषा में 'कृत्तिवास रामायण’ गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित श्रीरामचरितमानस से लगभग १०० वर्ष पूर्व लिखी गई। जिस समय कृत्तिवास रामायण की रचना की गई उस समय संस्कृत भाषा के अनेक आचार्यों-विद्वानों द्वारा उनके इस रचना के कार्य की आलोचना तथा निंदा की। कालान्तर में उसी कृत्तिवास रामायण के महाकाव्य ने बंगाली जनता का हृदय जीत लिया जिसके परिणामस्वरूप आज अमीर-गरीब-साधु-सन्त बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ सर्वत्र पारायण करते हैं। बंगला भाषा सरल मधुर और संस्कृतनिष्ठ है। बंगला भाषा की रचना को एक या दो बार पढ़ने से मूल काव्य को समझने में आसानी हो जाती है। उनका जन्म १४३३ ई. ११ फरवरी, रविवार माघ संक्रांति रात्रिकाल में माना गया है। कृत्तिवास का जन्म वर्तमान पश्चिम बंगाल के नदिया जिला स्थित फुलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम वनमाली ओझा एवं दादाजी का नाम मुरारी ओझा था। कृत्तिवास भगवान शिव का एक नाम भी होता है। ऐसा कहा और सुना गया कि जब बालक कृत्तिवास का जन्म हुआ तो उनके दादाजी मुरारीलाल ओझा चंदनेश्वर (उड़ीसा) में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर की यात्रा पर जाने वाले थे। इस पवित्र स्मृति को चिरस्थायी स्मरणीय बनाने हेतु बालक का नाम कृत्तिवास रख दिया गया। कृत्तिवास ने गौडेश्वर की प्रेरणा से भक्तिमय रामकथा का प्रणयन किया। वहीं कृत्तिवास रामायण के रूप में ख्याति प्राप्त है। कृत्तिवास द्वारा रचित अनेक ग्रंथों में रामायण के अतिरिक्त, योगाद्यार बन्दना, शिवरामेर युद्ध, रूक्मांगदेर एकादशी की भी रचना की है। सन् १४६७ ई. से १४७२ ई. के मध्य पाँच वर्षों का समय कृत्तिवास रामायण की रचना का माना गया है। मात्र ४७ वर्ष की अवस्था में १४८० ई. में उनका स्वर्गवास हो गया। इनके संतान होने का उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं है। यह रामायण सात काण्डों में वर्णित है। कृत्तिवास रामायण जनसाधारण के लिए अति सरल एवं सुबोध पयार छन्दों में वर्णित 'पाञ्चाली (पांचाली)’ गान है। कृत्तिवासजी अलंकार, छन्द, रस, व्याकरण, ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के महापण्डित थे। उनकी रामनाम में परम आस्था-श्रद्धा और विष्णु-शिव शक्ति के स्वरूप में समानरूपेण अनन्यभक्ति थी। संस्कृत में कालिदास और हिन्दी में गो. तुलसीदासजी के समान बंगला में कृत्तिवास रामायण अजर अमर और उनकी रामायण की रचना सर्वकालानुयायिनी, सर्वतोगामिनी तथा सर्वतोव्यापिनी है। महाकवि कृत्तिवास की रामायण में मुख्यतया वाल्मीकि रामायण, जैमिनिय अश्वमेघ, अद्भुत रामायण, अध्यात्म रामायण, शिवपुराण और अन्य कई जनश्रुतियों से प्रसंग-उपादान संग्रहीत किए गए हैं। बंगला कृत्तिवास रामायण में मन्दोदरी को श्रीराम से भारतीय भाषाओं की अनेक श्रीरामकथाओं में रावण वध उपरान्त मन्दोदरी संबंधी प्रसंग नगण्य सा है। इस कृत्तिवास रामायण में यह प्रसंग अपनी एक विशिष्टता के साथ वर्णित है। रावण के वध उपरान्त विभीषण ने उसे विलाप न करने का कहा तथा मन्दोदरी को अन्त:पुर चली जाने का कहा। मन्दोदरी रावण का मुंड गोद में लिये जोर-जोर से रोने लगी। उसकी दस हजार सोतें भी उसको धीरज देने में असमर्थ रही। मन्दोदरी ने कहा, जिसने राजा का वध किया है, उसको मैं एक बार अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ। राम मनुष्य नहीं है, नारायण देव हैं। मैं उनके चरण अवश्य देखूँगी। ऐसा कहकर अस्त-व्यस्त वस्त्रों में तथा खुले और बिखरे केशों सहित मन्दोदरी राम को देखने चल पड़ी। कटके वेष्ठित ब से आच्छेन श्रीराम, हेनकाले मन्दोदरी करिल प्रणाम सेना से घिरे राम बैठे हैं। ऐसे समय मन्दोदरी ने आकर उन्हें प्रणाम किया। रानी मन्दोदरी को सीता समझकर 'अखण्ड सौभाग्यवती’ होओ। यह कहकर राम ने आशीर्वाद दिया। तब तक रानी ने राम के चरणों को पकड़कर कहा हे कमललोचन तुमने ऐसा वर मुझे क्यों दिया? चन्द्र-सूर्य, पृथ्वी, समुद्र सभी अपना-अपना स्थान छोड़ सकते हैं किन्तु हे रघुनाथ आपका वचन नहीं टल सकता है। ऐसा कहकर श्रीराम से मन्दोदरी ने अपना परिचय बताया। शुन मोर राणी, गृहे जाओ राणि, दु:ख ना भाविओ चिते। मेरी बात सुनो, हे रानी, तुम अपने घर जाओ, मन में दु:खी मत हो ओ। रावण की चिता सदा के लिए जलती रहेगी और तुम भी चिरकाल के लिए सधवा (सौभाग्यवती) बनी रहोगी। तुम सौभाग्यवती के रूप में चिरकाल तक जीवित रहोगी। हे रानी, मेरी वाणी मिथ्या नहीं होगी। राम के वचन से रानी मन्दोदरी प्रसन्न होकर घर चली गई। लंकाकाण्ड के गीत सुललित है जिनकी रचना कृत्तिवास ने की है। इस तरह रानी मन्दोदरी को सौभाग्यवती का आशीर्वाद देकर श्रीराम ने अपने वचन और आशीर्वाद को सत्य किया। कथा के पूर्व प्रसंग में विभीषण को श्रीराम के शरणागत होने पर उन्होंने जो वचन एवं आशीर्वाद विभीषण को दिया था, उसमें मन्दोदरी देने का कहा गया था।
बंगला कृतिवास रामायण लंकाकाण्ड ६१५ आनन्द रामायण में रावण-मन्दोदरी प्रसंग जबकि रात्रि में हम लोग सोते हैं, तब कान में धौकनी की तरह किसकी ध्वनि सुनाई देती है? मेरे इस संशय का निराकरण कीजिए। इस बात का मुझे बड़ा कौतुहल है। लव की बात सुनकर महर्षि वसिष्ठजी ने कहा- रावण ने जिस देह (शरीर) से बहुत सी ब्रह्महत्याएँ की थी। हे लव! वह देह आज भी लंका में जल रही है। रामजी के हाथों वध होने, राम का स्मरण करने और उनके साथ बैर बुद्धि (शत्रुता) रखने से रावण क्षण भर में मुक्त हो गया। आत्मा के सारे पापों को पहले ही जला चुका था किन्तु शरीर से उसने कभी देवताओं को नमस्कार तक भी नहीं किया। न कभी देव मंदिर की सफाई की, न उस शरीर से तीर्थ यात्रा की, न अपने शरीर से कोई निष्काम तपश्चर्या की और न शीत-उष्ण ही सहन करके शरीर से परिश्रम किया। ब्राह्मणों की हत्या करने वाली उसकी देह आज भी लंका में जल रही है। उसी का शब्द प्रत्येक मनुष्य को सुनाई देता है। ज्वाला की धक धकाहट का निनाद धौंकनी की तरह सुनाई पड़ता है। दिन के समय मनुष्यों के कोलाहल से वह शब्द नहीं सुनाई पड़ता है। आज भी हनुमान जी को रोज सौ भार लड़की उस चिता में डालनी पड़ती है। जब रावण के पाप नष्ट होंगे तब कहीं उसका शरीर जलेगा। हे बालक लव! मैं तुम्हें एक दूसरा कारण भी बताता हूँ वह सुनो- अपनी मृत्यु के समय रावण ने श्रीराम से यह वरदान माँगा था कि आप हमें कोई ऐसा वर दीजिए, जिससे संसार के लोग मेरा भी सदा स्मरण किया करें। श्रीराम ने कहा कि तुम्हारी (रावण की) देह जलाने वाली आग का धक्-धक् शब्द सातों द्वीपों के प्रत्येक व्यक्ति को सुनाई पड़ता रहेगा। इसी से सबको तुम्हारी याद आती रहेगी। इस प्रकार का वरदान पाकर रावण श्रीराम के शरीर में लीन हो गया। वसिष्ठजी ने लव से कहा तुमने मुझसे जो प्रश्न किया वह सब कह सुनाया। महर्षि गुरु वसिष्ठजी की बात सुनकर लव का संदेह निवृत्त (समाप्त) हो गया और वे पालकी में बैठकर अपने निवास स्थान चले गए। हम आज भी देखते हैं कि दशहरे के दिन बुराईयों एवं दुराचरण के प्रतीक रावण का पुतला नष्ट नहीं करते हैं बल्कि रावण दहन करते आ रहे हैं। रावण का मान्धाता के साथ युद्ध और मैत्री प्रसंग रावण ने मुनि से कहा कि मैं बिना युद्ध के तो एक दिन भी नहीं हर सकता। तुम युक्ति बताओ कि मैं किसके साथ युद्ध करूँ। पूर्व मुनि ने कहा- मान्धाता, नाम का राजा है, तुम उसके साथ युद्ध करो। वह सप्त-द्वीपों का राजा है। वह देश भ्रमण के लिए उत्तर दिशा में गया है। आज तुम इसी रमणीय-पर्वत पर रहो। इसी पर्वत पर उससे तुम्हारी उसकी भेंट होगी। मान्धाता के आने पर उससे तुम युद्ध करना। ऐसा कहकर पूर्व मुनि स्वर्ग निवास हेतु चले गए। उसी समय सेना सहित मान्धाता वहाँ से आ गए। मान्धाता को देखकर रावण रुष्ट हो गया। मान्धाता और रावण दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। दोनों ही राजाओं ने अनेक अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध किया। मान्धाता ने हीरे की कुल्हाड़ी रावण पर घुमाकर फेंकी। कुल्हाड़ी की चोट से रावण रथ से गिर पड़ा। रावण को रथ से गिरा देखकर उसके सेनापतियों ने उसे घेर लिया। यह देखकर मान्धाता ने हर्ष के साथ सिंहनाद किया। उधर पलक मारते ही राजा रावण सचेत होकर धनुष उठाकर तैयार हो गया। यह देखकर मान्धाता चिन्तित हो गए। राक्षस रावण ने अग्रिबाण छोड़ा, यह देखकर देवताओं को आश्चर्य हुआ। मान्धाता गिर पड़े तथा उसकी सेना में हाहाकार हो गया। कुछ क्षण बाद मान्धाता सचेत हो गए। दोनों में असंख्य बाणों को छोड़ते हुए निर्णायक युद्ध हुआ। रामायण कौन सी भाषा में लिखी गई है?हिन्दी में कम से कम 11, मराठी में 8, बाङ्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गयी।
हिंदी में रामायण कौन सी लिपि में लिखी गई है?रामायण काल की बात करें तो मूल बाल्मीकि रामायण संस्कृत में है। इस तरह रामायण और महाभारत काल की भाषा या लिपि जो भी माने संस्कृत हुई।
निराला की कौन सी रचना कृत्तिवास रामायण पर आधारित है?राम की शक्तिपूजा, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित काव्य है। निराला जी ने इसका सृजन २३ अक्टूबर १९३६ को सम्पूर्ण किया था। कहा जाता है कि इलाहाबाद(प्रयागराज) से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'भारत' में पहली बार 26 अक्टूबर 1936 को उसका प्रकाशन हुआ था।
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