कथेतर साहित्य के प्रकारों को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। - kathetar saahity ke prakaaron ko sankshep mein spasht keejie.

कथेतर साहित्य (non-fiction) साहित्य की वह शाखा है जिसमें दर्शाए गए स्थान, व्यक्ति, घटनाएँ और सन्दर्भ पूर्णतः वास्तविकता पर ही आधारित होते हैं। इसके विपरीत कपोलकल्पना है जिसमें कथाएँ कुछ मात्रा में या पूरी तरह लेखक की कल्पना पर आधारित होतीं हैं और उन में कुछ तत्त्व वास्तविकता से हट के होते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • कपोलकल्पना

कथेतर साहित्य भारतीय साहित्य की वह शाखा है, जिसमें दर्शाए गए स्थान, व्यक्ति, घटनाएँ और सन्दर्भ पूर्णतः वास्तविकता पर ही आधारित होते हैं। इसके विपरीत कपोल कल्पना है, जिसमें कथाएँ कुछ मात्रा में या पूरी तरह लेखक की कल्पना पर आधारित होतीं हैं। उनमें कुछ तत्व वास्तविकता से हटकर होते हैं।

  • हिंदी साहित्य की दो शैलियाँ हैं-
  1. पद्य साहित्य
  2. गद्य साहित्य
  • गद्य साहित्य के दो रूप हैं-
  1. कथात्मक गद्य
  2. कथेतर गद्य
  • कथा गद्य की पाँच प्रमुख विधाएँ हैं- कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी और लघु कथा
  • कथेतर गद्य की दस प्रमुख शैलियाँ हैं- निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, समालोचना, जीवनी, आत्मकथा, पत्र लेखन, साक्षात्कार, समीक्षा
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हिन्दी साहित्य की दो शैलियाँ हैं- पद्य साहित्य और गद्य साहित्य। गद्य साहित्य के दो रूप हैं- कथात्मक गद्य और कथेतर गद्य। कथा गद्य की पांच प्रमुख विधाएं हैं- (1.) कहानी, (2.) उपन्यास, (3.) नाटक (4.) एकांकी तथा (5.) लघुकथा। कथेतर गद्य की दस प्रमुख शैलियां हैं- (1.) निबंध, (2.) रेखाचित्र, (3.) संस्मरण, (4.) यात्रा वृत्तांत, (5.) समालोचना, (6.) जीवनी, (7.) आत्मकथा, (8.) पत्र लेखन (9.) साक्षात्कार एवं (10.) समीक्षा।

रेखाचित्र विधा

जब कम से कम शब्दों में कलात्मक ढंग से किसी वस्तु, व्यक्ति या दृश्य का अंकन किया जाता है, उसे रेखाचित्र कहते हैं। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जब किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व या उसकी आदतों अथवा पशु, पक्षी की आदतों एवं विशेषताओं अथवा पर्वत, नदी, उद्यान, भवन, दुर्ग, मंदिर आदि की विशेषताओं आदि को कलात्मक भाषा में लिखना हो तो रेखाचित्र लेखन विधा का सहारा लिया जाता है। चूंकि इसमें शब्दों से व्यक्तित्व का या दृश्य का अंकन किया जाता है इसलिए इसे हिन्दी में शब्दचित्र तथा अंग्रेजी में ‘स्केच’ भी कह देते हैं।

रेखाचित्र का शिल्प

रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाव का कम से कम शब्दों में भाव-पूर्ण एवं सजीव अंकन है। कहानी से इसका नैकट्य है- दोनों में क्षण, घटना या भाव विशेष पर ध्यान रहता है, दोनों की रूपरेखा संक्षिप्त रहती है और दोनों में कथाकार के उद्बोधन और पात्रों के संवाद का उपयोग किया जाता है। इन विधाओं के साम्य के कारण अनेक कहानियों को रेखाचित्र एवं अनेक रेखाचित्रों को कहानी कहा जा सकता है। क्योंकि इन रचनाओं में कहानी और रेखाचित्र के बीच विभाजन रेखा खींचना सरल नहीं है। महादेवी वर्मा लिखित रामा, घीसा आदि रेखाचित्र हैं किंतु इन्हें कहानी भी हा जा सकता है। रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक ‘माटी की मूरत’ में संकलित रजिया, बलदेव सिंह, देव आदि रेखाचित्र एवं कहानी दोनों श्रेणियों में रखे जा सकते हैं। कहानी और रेखाचित्र में साम्य किंतु रेखाचित्र में कहानी की गहराई का अभाव रहता है। कहानी में किसी न किसी मात्रा में कथात्मकता (घटना का क्रमबद्ध घटित होना या अपने चरम पर पहुंचकर समाप्त होना जैसी अपेक्षा रहती है, पर रेखाचित्र में नहीं।

जीवन चरित एवं संस्मरण से भिन्न

व्यक्तियों के जीवन पर आधारित रेखाचित्र लिखे जाते हैं, पर रेखाचित्र जीवनचरित नहीं है। जीवनचरित के लिए वास्तविक तथ्यों की अनिवार्य है। रेखाचित्र में वास्तविक तथ्यों को साहित्यिक प्रतिभा की चाशनी में लपेट दिया जाता है। इसमें लेखक अपनी भावना एवं कल्पना की तूलिका से वास्तविक तथ्यों के विभिन्न आयाम अथवा दृश्य अथवा चित्र अंकित करता है। जीवनचरित में समग्रता का भी आग्रह रहता है, इसमें सामान्य एवं महत्त्वपूर्ण सब प्रकार की घटनाओं का चित्रण होता है। जीवन चरित में विस्तार होता है किंतु रेखा चित्रकार कम से कम शब्दों का प्रयोग करके अधिक से अधिक बात कहने की प्रतिभा का प्रदर्शन करता है। अतः स्पष्ट है कि रेखाचित्र आत्मकथा और संस्मरण दोनों से भिन्न अस्तित्व रखता है। रेखाचित्र की विशेषताएं

रेखाचित्र का लेखन विस्तार में नहीं, संक्षेप में होता है इसलिए रेखाचित्र पूर्ण चित्र नहीं है। वह व्यक्ति, वस्तु, घटना आदि का एक निश्चित विवरण होता है जो अपनी अधिकतम संवेदनशीलता के साथ विद्यमान रहता है। इसीलिए रेखाचित्रांकन का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण है, उस चरम बिन्दु का निर्धारण, जहाँ से लेखक अपने बिम्ब का अंकन करता है। इस दृष्टि से व्यंग्य चित्र और रेखाचित्र की कलाएँ बहुत समान हैं। दोनों में दृष्टि की सूक्ष्मता तथा कम से कम स्थान में अधिक से अधिक अभिव्यक्त करने की तत्परता परिलक्षित होती है। रेखाचित्र के लिए संकेत सामर्थ्य भी बहुत आवश्यक है। रेखाचित्र का लेखक शब्दों और वाक्यों से परे भी बहुत कुछ कहने की क्षमता रखता है। रेखाचित्र के लिए उपयुक्त विषय का चुनाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

विषय और शैलीगत विशेषताएं

रेखाचित्र के लिए विषय का बन्धन नहीं रहता, इसमें विविध प्रकार के विषयों का समावेश हो सकता है। फिर भी रेखाचित्र की विषय वस्तु ऐसी होती है जिसे विस्तृत वर्णन और रंगों की अपेक्षा न हो और जो कुछ ही वाक्यों, रूपकों एवं मुहावरों से चमक उठे। फिर भी रेखाचित्र की सीमाएं हैं, उदाहरण के लिए चाँदनी रात में यमुनाजी की शोभा को रेखाचित्र में बाँधा जा सकता है, पर राधा और कृष्ण के प्रेम को रेखाचित्र की सीमा में बाँधना लगभग असम्भव है। मूल चेतना के आधार पर रेखाचित्रों को अनेक वर्गों में रखा जा सकता है- (1.) संस्मरणात्मक (2.) वर्णनात्मक (3.) व्यंग्यात्मक (4.) मनोवैज्ञानिक आदि।

हिंदी के प्रसिद्ध रेखाचित्र

हिन्दी में महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, पद्मसिंह शर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी, कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’, निराला, प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, अज्ञेय, दिनकर, उपेन्द्रनाथ अश्क, पं. श्री राम शर्मा तथा देवेन्द्र सत्यार्थी आदि अनेक साहित्यकारों ने प्रसिद्ध रेखाचित्र लिखे हैं। महादेवी वर्मा के रेखाचित्र अतीत के चिलचित्र, शृंखला की कड़ियाँ, एवं स्मृति की रेखाएं बहुत प्रसिद्ध हैं। अतीत के चलचित्र में लेखिका हमारा परिचय रामा, भाभी, बिन्दा, सबिया, बिट्टो, बालिका माँ, घीसा, अभागी स्त्री, अलोपी, बबलू तथा अलोपा इन ग्यारह चरित्रों से करवाती हैं। सभी रेखा-चित्रों को उन्होंने अपने जीवन से ही लिया है, इसीलिए इनमें उनके अपने जीवन की विविध घटनाओं तथा चरित्र के विभिन्न पहलुओं का प्रत्यारोपण अनायास ही हुआ है। उन्होंने अनुभूत सत्यों को उसी रूप में अंकित किया है जिस रूप में उन सत्यों का अनुभव हुआ। महादेवी के रेखाचित्रों की यह विशेषता भी है कि उनमें चरित्र चित्रण का तत्व प्रमुख रहा है और कथ्य उसी का एक हिस्सा मात्र है। इनमें गंभीर लोक दर्शन का उद्घाटन होता चलता है, जो हमारे जीवन की सांस्कृतिक धारा की ओर इंगित करता है। अतीत के चल-चित्र में सेवक रामा की वात्सल्यपूर्ण सेवा, भंगिन सबिया का पति-परायणता और सहनशीलता, घीसा की निश्छल गुरुभक्ति, साग-भाजी बेचने वाले अंधे अलोपी का सरल व्यक्तित्व, कुम्हार बदलू व रधिया का सरल दांपत्य प्रेम तथा पहाड़ की रमणी लछमा का महादेवी के प्रति अनुपम प्रेम, यह सब प्रसंग महादेवी के चित्रण की अकूत क्षमता का परिचय देते हैं।

रामवृक्ष बेनीपुरी का माटी की मूरत, गेहूँ और गुलाब, प्रकाशचन्द्र गुप्त का पुरानी स्मृतियाँ और नये स्केच, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का भूले हुए चेहरे हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध रेखचित्र हैं। आपने देखा होगा कि सिनेमा में भी कई ऐसे व्यक्तित्व बनाए जाते हैं जो अलग से दर्शक का ध्यान खींचते हैं। उदाहरण के लिए शोले फिल्म का अंग्रेजों के जमाने का जेलर या सूरमा भोपाली।

रेखाचित्र एवं संस्मरण का सम्बन्ध

रेखाचित्र वस्तुतः कहानी, संस्मरण, जीवनी और निबंध आदि समस्त विधाओं के बहुत निकट है। हिंदी में निबंध तथा कहानी पर लिखी गयी आलोचना पुस्तकों में रेखाचित्र को कहानी या निबंध-कला की सहायक शैली मान लिया गया है अथवा कहानी और निबंध की रचना-सीमाओं को फैलाकर रेखाचित्र को उन्हीं के अंतर्गत समाविष्ट करने का प्रयास किया गया है। रेखाचित्र में कहानी से अधिक मार्मिकता, निबंध से अधिक मौलिकता एवं रोचकता होती है। इसमें कहानी का कौतूहल है तो निबंध की गहराई भी है। वस्तुतः रेखाचित्र विभिन्न विधाओं की विशेषताओं का अद्भुत समुच्चय है।

संस्मरण रेखाचित्र के अत्यधिक निकट है। दोनों विधाओं में संवेदनशील स्मृतियों का प्रत्यक्षीकरण है जिसके सूत्र किसी साधारण अथवा विशिष्ट व्यक्ति से जुड़े होते हैं। रेखाचित्र और संस्मरण की बाहरी बनावट एक सी प्रतीत होती है किन्तु उनकी आत्मका में अंतर होता है। संस्मरण संस्मरणकार का अनुभूत यथार्थ होता है जिसका सम्बन्ध अतीत से होता है। उसमें कल्पना नहीं होती। वह केन्द्रीय पात्र, घटना या प्रसंग के वास्तविक तथ्यों की सीमा के बंधन में रहता है। रेखाचित्र संस्मरण के इन गुणों का पालन करते हुए भी साहित्यिक प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए अवकाश देता है। जैसे संस्मरण में लिखा जाएगा- ‘वह बहुत भूखा था।’ जबकि रेखाचित्र में लिखा जाएगा- ‘भूख से उसकी आंतड़ियां बाहर आ रही थीं।’

कहानी अथवा निबंध की अपेक्षा रेखाचित्र, संस्मरण विधा के अधिक निकट हैं। कभी-कभी तो दोनों को अलग करना कठिन हो जाता है। बाबू गुलाब राय ने दोनों विधाओं की तुलना करते हुए लिखा है- ‘जहाँ रेखाचित्र वर्णनात्मक अधिक होते हैं, वहां संस्मरण विवरणात्मक अधिक होते हैं’ डॉ. नगेन्द्र दोनों को एक ही जाति का मानते हैं। महादेवी वर्मा और पं. बनारसीदास चतुर्वेदी की मान्यता है कि संस्मरण का सम्बन्ध अतीत से है और रेखाचित्र वर्तमान का भी हो सकता है। एक ही सतह से जुड़ी इन दोनों विधाओं में पर्याप्त समानता होने पर भी कई अंतर हैं।

रेखाचित्र अपेक्षित, अपरिचित साधारण व्यक्ति के असाधारण व्यक्तित्व पर केन्द्रित होते हैं, जबकि संस्मरण सामान्यतः परिचित, असाधारण व्यक्तित्व पर केन्द्रित होते हैं। रेखाचित्र में वर्णनात्मक चित्रण की प्रधानता रहती है जबकि संस्मरण में विवरणों की प्रधानता रहती है। संस्मरण में कथाओं और प्रसंगों का उपयोग किया जाता है जबकि रेखाचित्र में रूप की अभिव्यक्ति पर ध्यान केन्द्रित होता है। संस्मरण में देश, काल और परिस्थितियों की प्रधानता होती है जबकि रेखाचित्र में केन्द्रीय विषय अथवा वस्तु की। रेखाचित्र में लेखक की दृष्टि संवेदनात्मक होती है जबकि संस्मरण में श्रद्धात्मक होती है। रेखाचित्र में लेखक प्रायः समास शैली का आश्रय लेता है जबकि संस्मरण में व्यास शैली का। रेखाचित्र में प्रवृति गागर में सागर भरने की होती है। यही नहीं संस्मरणों में लेखक की अपनी रुचि-अरुचि, राग-द्वेष आदि विभिन्न प्रतिक्रियाओं और टिप्पणियों के माध्यम से व्यक्त होती चलती है, जबकि रेखाचित्र में लेखक इन सबसे तटस्थ होता है।

संस्मरण

संस्मरण निश्चित रूप से अतीत की किसी घटना का शब्दांकन है। जब किसी घटना, किसी के साथ हुई भेंट, किसी के साथ हुए वार्तालाप का साहित्यिक वर्णन करना हो तो संस्मरण विधा का सहारा लिया जाता है। संस्मरण के तत्त्व और गुण अन्य अनेक विधाओं में मिल जाते हैं। बहुत समय तक रिपोर्ताज, रेखाचित्र तथा जीवनी आदि विधाओं को संस्मरण ही समझा जाता रहा। महादेवी वर्मा की ‘स्मृति की रेखाएं’ इसका सबसे अच्छा उदहारण है। ‘स्मृति’ जहाँ इस रचना को संस्मरण ठहराती है वहीं ‘रेखाएं’ इसे रेखाचित्र घोषित करती हैं।

संस्मरण के तत्त्व

दूसरी कथेतर गद्य विधाओं से निकटता रखते हुए संस्मरण के कुछ निश्चित तत्व हैं जो इसे अन्य विधाओं से अलग करते हैं। यह बारीक सी सीमा रखा है जिसे अभ्यास एवं लेखकीय अनुभव से पहचाना जा सकता है।

अतीत की स्मृति: संस्मरण केवल अतीत की घटनाओं पर आधारित होता है। जब किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना आदि के साथ जुड़ी हुई यादों को लिखा जाता है।

आत्मीय सम्बन्धों का लेखन: संस्मरण किसी आत्मीय-जन अथवा किसी श्रद्धेय व्यक्ति के साथ रहे अंतरंग सम्बन्धों एवं सम्पर्कों की अभिव्यक्ति होती है। यह अभिव्यक्ति पाठकों को भी शुभ एवं अच्छा जीवन जीने की प्रेरणा दे सकती है।

प्रामाणिकता: इस विधा में कल्पना के लिए स्थान नहीं होता। वास्तव में घटित घटनाओं को ही साहित्यिक प्रतिभा के साथ लिखा जाता है।

वैयक्तिकता: संस्मरण लेखन में वैयक्तिकता हावी रहती है। इस कारण संस्मरण में प्रायः उन्हीं घटनाओं का वर्णन किया जाता है जिन्हें लेखक अपने जीवन में कभी भुला नहीं सकता।

जीवनी के संक्षिप्त भाग का चित्रण: जीवनी में किसी श्रद्धेय एवं प्रेरक व्यक्ति की सम्पूर्ण जीवनी लिखी जाती है जबकि संस्मरण में किसी काल खण्ड की घटनाओं का चित्रण किया जाता है।

चित्रात्मकता: संस्मरण की भाष निबंध की भाषा से दूर किंतु रेखाचित्र की भाषा के निकट होती है। इसलिए ये प्रायः छोटे कलेवर वाले होते हैं।

कथात्मकता: संस्मरण कथेतर विधा होते हुए भी कथात्मकता का आभास देती है। कथा में कल्पना का समावेश होता है जबकि संस्मरण में कल्पना का समावेश नहीं होता, केन्द्रीय पात्र से तादात्म्यता लिए होता है।

तटस्थता: संस्मरण के माध्यम से श्रद्धेय पात्र के साथ-साथ लेखक स्वयं को भी महिमा-मण्डित कर सकता है किंतु संस्मरण लेखक से अपेक्षा की जाती है कि वह स्वयं के प्रति तटस्थ रहे। हिंदी साहित्य में पद्मसिंह शर्मा को संस्मरण विधा का पहला लेखक माना जाता है। आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, तथा महादेवी वर्मा इस क्षेत्र के बड़े नाम हैं। पथ के साथी, मेरा परिवार आदि महादेवी वर्मा के प्रमुख संस्मरण संकलन हैं।

निबंध

जब किसी विषय की गहराई में जाकर उसके विभिन्न पक्षों को समझाने की आवश्यकता हो तो निबंध विधा का सहारा लिया जाता है। निबंध कई प्रकार के हो सकते हैं किंतु इनके पांच मुख्य प्रकार हैं- (1.) वर्णनात्मक निबंध, (2.) विवरणात्मक निबंध (3.) विचारात्मक निबंध (4.) ललित निबंध (5.) व्यंग्य निबंध।

(1.) वर्णनात्मक निबंध- ऐसे निबंध जिनमें किसी स्थान, वस्तु, समय, कार्यकलाप आदि के वर्णन की प्रधानता के साथ लेखक के व्यक्तित्व एवं कल्पना का पूर्ण समावेश होता है।

(2.) विवरणात्मक निबंध- ऐसे निबंध जिनमें लेखक ने किसी घटना, इतिहास, प्रसंग आदि का विवरण, वृत्तांत, वर्णन या विवेचन प्रस्तुत किया हो।

(3.) विचारात्मक निबंध- ऐसे निबंध जिनमें बुद्धि एवं तर्क के आधार पर विचारों की अभिव्यक्ति की गई हो। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- शुद्ध विचारात्मक निबंधों का चरम उत्कर्ष वही कहा जा सकता है, जहाँ एक-एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबा कर ठूँसे गये हो और एक-एक वाक्य किसी सम्बद्ध विचार-खण्ड को लिए हो। महादेवी वर्मा ने शृंखला की कड़ियाँ, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था, संकल्पिता आदि शीर्षक से कई महत्वूर्ण निबंध लिखे हैं।

(4.) ललित निबन्ध- ऐसे निबंध जिनमें लेखक का व्यक्तित्व, उसकी आत्मीयता का प्रकाशन पूर्ण स्वच्छन्दता के साथ अभिव्यक्त होता है और लेखक की शैलीगत विशेषता अत्यन्त उन्मुक्त रूप से प्रकट होती है। इनमें रोचकता, चरित्रात्मकता, कथात्मकता, कल्पनातमकता, नाटकीयता आदि का भी समावेश होता है। ये निबंध रचना-कौशल एवं शैली-वैशिष्ट्य की मांग करते हैं। ललित निबंध कला का विकास गद्य विधा के साथ आरम्भ हुआ। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, सरदार पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकुन्द गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी आदि ने ललित निबंध कला का विकास किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस विधा को व्यवस्थित रूप दिया। अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता उनके सर्वश्रेष्ठ ललित निबंध हैं। कुबेरनाथ राय, विद्यानिवास मिश्र, विवेकी राय, परिचय दास आदि निबन्धकारों ने इस विधा को और आगे बढ़ाया। उन्होंने क्षणदा शीर्षक से ललित निबंधों का भी लेखन किया है। वर्तमान समय में डॉ. श्रीराम परिहार जो कि अखिल भारतीय साहित्य परिषद के बौद्धिक प्रमुख हैं, ललित निबंधों पर बहुत अच्छा काम किया है।

(5.) व्यंग्य निबंध- ऐसे लेख जिनमें भाषा की व्यंजना शक्ति का साहित्यिक प्रतिभा के साथ उपयोग किया जाता है, व्यंग्य निबंध कहलाते हैं। हिन्दी साहित्य में व्यंग्य निबंधों का आरम्भ भारतेन्दु-युग से माना जाता है। हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबंध बहुत प्रसिद्ध हैं।

6.) भावात्मक निबंध- भावात्मक निबंध में लेखक के हृदय का आग्रह सर्वोच्च स्थान पर और बौद्धिक प्रतिभा द्वितीय स्थान पर रखी जाती है। हिन्दी साहित्य में राधा-कृष्ण को लेकर अनेक भावात्मक निबंध पढ़ने को मिलते हैं। बावन वैष्णवन की वार्ता को इस श्रेणी में प्रमुख स्थान दिया जा सकता है।

यात्रा वृत्तांत

जब किसी ऐतिहासिक, धार्मिक अथवा पुरातात्विक स्थल, देश, प्रांत, पर्वत, समुद्र आदि की यात्रा को दूसरों के उपयोगार्थ लिखा जाए तथा उसमें साहित्यक प्रतिभा का उपयोग किया जाए तो उसे यात्रा वृत्तांत कहा जाता है। इसे रिपोर्ताज भी कह दिया जाता है किंतु रिपोर्ताज किसी घटना विशेष, उत्सव अथवा आयोजन के संदर्भ में भी लिखे जाते हैं। भारत में यात्रा वृत्तांत लिखने की परम्परा बहुत कम रही है किंतु विश्व के अनेक देशों से भारत आए यात्रियों एवं विद्वानों ने यात्रा वृत्तांत लिखकर भारत की सांस्कृतिक समृद्धि को विश्व पटल तक पहुंचा दिया। इनमें फाहियान, ह्वेनसांग, इब्नबतूता, अल बरूनी, मार्केपोलो, बर्नियर आदि महत्वपूर्ण हैं। रामायण, महाभारत, हर्ष चरित्र, कादंबरी आदि संस्कृत रचनाओं में यात्रा वृत्तांतों की छाया एवं लक्षण देखने को मिलते हैं। हिंदी साहित्य में यात्रा वृत्तांत लेखन ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी साहित्य के संपर्क से आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे इनका विधायी ढांचा भी तैयार हो गया। यात्रा वृत्तांत अपने निकटतम स्थान से लेकर विदेशों में स्थित स्थलों की यात्रा करके लिखे जा सकते हैं। कुछ लोगों के लिए यात्रा वृत्तांत एक आख्यान है, जिसे लेखक अपनी लेखनी के माध्यम से कहता है। कुछ लोगों के लिए यह एक व्यक्ति का निजी अनुभव मात्र है। कुछ विद्वान इसे एक प्रकार का संस्मरण ही मानते हैं।

यात्रा वृत्तांत लेखन के पीछे जो मनोविज्ञान काम करता है, उसे समझना अत्यंत आवश्यक है। संसार के विभिन्न हिस्सों में मानव जाति का विकास अलग-अलग समय पर एवं एक दूसरे से असंपृक्त रहकर हुआ। इस कारण अलग-अलग देशों में अथवा प्रांतों में समाजिक प्रथाएं, खान-पान, वेशभूषा, त्यौहार, मेले एवं पर्व आदि में पर्याप्त भिन्नता होती है जिन्हें वहाँ की विशेषता भी कहा जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य में इस सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को जानने और निकट से देखने की सहज जिज्ञासा होती है। यही कारण है कि मनुष्य अपने निवास स्थल से दूर जाकर प्रकृति एवं समाज की विविधताओं के दर्शन करते हैं तथा दूसरों के अनुभवों से भी उन स्थानों एवं उनकी विशेषताओं को जानने की रुचि रखते हैं। यात्रा वृत्तांत उन्हीं रुचिवान मनुष्यों के लिए लिखे जाते हैं।

भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने ई.1877 में ‘दिल्ली दरबार दर्पण’ लिखा जिसे हिन्दी साहित्य का प्रथम यात्रा वृत्तांत माना जाता है। भारतेंदु के संपादन में निकलने वाली पत्रिकाओं में हरिद्वार, लखनऊ, जबलपुर, सरयूपार की यात्रा, वैद्यनाथ की यात्रा और जनकपुर की यात्रा आदि यात्रा-साहित्य प्रकाशित हुआ। इन यात्रा-वृतांतों की शैली रोचक और सजीव है। बाबू शिवप्रसाद गुप्त द्वारा लिखित यात्रा-वृतांत पृथ्वी प्रदक्षिणा का भी आरंभिक यात्रा-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रात्मक वर्णन शैली इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इसमें संसार भर के अनेक स्थानों का रोचक वर्णन है। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक कृत मेरी कैलाश यात्रा तथा मेरी जर्मन यात्रा महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने सन् 1936 में यात्रा मित्र नामक पुस्तक लिखी, जो यात्रा-साहित्य के महत्व को स्थापित करने का काम करती है। विदेशी यात्रा-विवरणों में कन्हैयालाल मिश्र कृत हमारी जापान यात्रा, रामनारायण मिश्र कृत यूरोप यात्रा के छः मास और मौलवी महेशप्रसाद कृत मेरी ईरान यात्रा, दामोदर शास्त्री कृत मेरी पूर्व दिग्यात्रा, देवी प्रसाद खत्री कृत रामेश्वर यात्रा साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

यात्रा वृत्तांत लेखन की विधा में सर्वाधिक सफलता राहुल सांकृत्यायन को प्राप्त हुई। उन्होंने विपुल मात्रा में देशाटन एवं विदेश भ्रमण करकेे ढेर सारे यात्रा वृत्तांत लिखे जिन्हें घुमक्कड़ शास्त्र, वोल्गा से गंगा, मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी लद्दाख यात्रा, किन्नर देश में, रूस में 25 मास, तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी यूरोप यात्रा, यात्रा के पन्ने, जापान, ईरान, एशिया के दुर्गम खंडों में नामक संकलनों में प्रकाशित किया गया। अज्ञेय ने एक बूंद सहसा उछली और अरे यायावर रहेगा नामक प्रसिद्ध यात्रा वृत्तांत लिखे। रघुवंश के यात्रा वृत्तांत हरी घाटी की भी हिन्दी साहित्य में प्रचुर प्रशंसा हुई। निर्मल वर्मा ने चीड़ों पर चांदनी और धुंध से उठती धुन शीर्षक से प्रसिद्ध यात्रावृत्तांत लिखे। धुंध से उठती धुन में ऐसे यात्रावृत्तांत हैं, जिनमें भारतीय सभ्यता और संस्कृति को आधुनिक दृष्टि से समझने का प्रयास किया गया है। हिमालय की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत से परिचित करवाने वाले यात्रा वृत्तांतों में कृष्णनाथ द्वारा लिखित स्फीति में बारिश, किन्नर, धर्मलोक और लद्दाख राग-विराग प्रसिद्ध हैं।

यात्रा वृत्तांत कैसे लिखें

यात्रा वृत्तांत लेखन स्थानीय सांस्कृतिक उत्सवों, मेलों और अपने नगर के प्रसिद्ध स्थलों अथवा अपने नगर की विशेषताओं को लिखने से आरम्भ करना चाहिए। जब आप दूरस्थ प्रांतों अथवा विदेशों की यात्रा पर जाएं जो न केवल वहां के पर्यटन एवं सुंदर स्थलों को देखें अपितु वहां के ऐतिहासिक स्थलों, सांस्कृतिक स्थलों, मेलों, धार्मिक आयोजनों, वहां के रीति रिवाजों को निकट से देखने का प्रयत्न करें। वहां के संग्रहालयों, किलों, मंदिरों, महलों को देखें और अपनी डायरी में अंकित करें। उन स्थलों के चित्र स्वयं खींचने का प्रयास करें। वीडियो रिकॉर्ड करें। वहां के स्थानीय लोगों से अधिक से अधिक बात करें। टैक्सी ड्राइवर, टूरिस्ट गाईड, होटल के कर्मचारी, देश-विदेश से आए हुए पर्यटकों से विविध विषयों पर बात करें तथा उनके द्वारा दी गई जानकारी को अपनी डायरी में अंकित करें एवं रिकॉर्ड करें। लोगों के व्यवहार, खान-पान सम्बन्धी आदतें, वेशभूषा आदि की जानकारी प्राप्त करें।

कम दूरी के स्थान देखने के लिए पैदल चलें। किसी भी स्थान को देखने की औपचारिकता भर न निभाएं, वहां के परिवेश की गहराई को अपने भीतर अनुभव करने का प्रयास करें। अपने विवरणों के साथ तिथियां एवं समय भी अंकित करें। जिस आदमी से बात कर रहे हैं, उसका नाम एवं स्थान लिखें तथा उसका फोटो खींचकर अपने पास स्टोर करें। अपने साथ लैपटॉप, वीडियो रिकॉर्डर, कैमरा, मोबाइल फोन रखें। जिस देश में जाएं वहां की इण्डिण्न एम्बेसी से सम्पर्क करने एवं पर्यटक सामग्री प्राप्त करने का प्रयास करें। एयर पोर्ट, बस स्टैण्ड, रेलवे प्लेटफॉर्म पर उस देश की संस्कृति की बहुत सी बातें देखने को मिलती हैं। उनका अवलोकन करें, अपने रिकॉर्ड में दर्ज करें। फोटो एवं वीडियो बनाने से पहले उस देश के नियमों की जानकारी प्राप्त करें।

आप अपने यात्रा वृत्तांतों को प्रकाशित करने होने के लिए स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं से लेकर देश-विदेश के मीडिया माध्यमों को भेज सकते हैं। अपने ब्लॉग पर लिख सकते हैं। अपनी वैबसाइट एवं एप बनाकर भी आप यात्रा वृत्तांतों का प्रकाशन कर सकते हैं और इनसे धन अर्जित कर सकते हैं।

लघुकथा

यह भी कथा तथा कथेतर विधा का मिला-जुला रूप है। जब किसी विचार या परिस्थिति या घटना को कलात्मक रूप में बहुत कम शब्दों में लिखना हो जो बिजली की तरह कौंध कर अपना प्रभाव छोड़ जाए तो लघुकथा विधा का सहारा लिया जाता है। हिंदी साहित्य में लघुकथा नवीनतम् विधा है। हिंदी की प्रथम लघुकथा के बारे में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत हैं। हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में अधिक लघु आकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के अधिक निकट है ‘पहली हिन्दी लघुकथा’ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी कृत ‘झलमला’ मानी जाती है। यह ई. 1916 में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। हालांकि अनेक रचनाओं को हिन्दी की प्रथम लघुकथा होने का दावा किया जाता है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं- (1.) अंगहीन धनी (परिहासिनी, 1876) - भारतेंदु हरिश्चन्द्र, (2.) अद्भुत संवाद (परिहासिनी, 1876) - भारतेंदु हरिश्चन्द्र (3.) बिल्ली और बुखार - माखनलाल चतुर्वेदी। भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित दो लघुकथाएं इस प्रकार हैं-

अंगहीन धनी

एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे।

नौकर बुलाने को घंटी बजी।

मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।

और नौकरों ने पूछा,“क्यों बे, हँसता क्यों है?”

तो उसने जवाब दिया,“भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए, तब बुझे।”

अद्भुत संवाद

“ए, जरा हमारा घोड़ा तो पकड़े रहो।”

“यह कूदेगा तो नहीं?”

“कूदेगा! भला कूदेगा क्यों? लो सँभालो।”

“यह काटता है?” “

नहीं काटेगा, लगाम पकड़े रहो।”

“क्या इसे दो आदमी पकड़ते हैं, तब सम्हलता है?”

“नहीं।”

“फिर हमें क्यों तकलीफ देते हैं? आप तो हई हैं।”

उपरोक्त उदाहरण स्वयं स्पष्ट हैं कि लघुकथा का कलेवर छोटा होता है। केन्द्रीय कथ्य के रूप में लघु कथा में एक ही बात होती है जो प्रायः कहानी के अंतिम अंश में प्रकट होती है। यह आवश्यक नहीं है कि लघुकथा में संवाद हों। यह बिना संवाद के भी हो सकती है। अधिक जोर इस बात पर रहता है कि लघुकथा के संदेश को कितने जोरदार ढंग से स्थापित किया गया है।

अच्छे लेखक कैसे बनें

विचार हर व्यक्ति के पास होते हैं किंतु विचार होने मात्र से कोई व्यक्ति लेखक नहीं बन सकता। कोई भी लेखक अच्छा लेखक तभी बनता है जब वह-

1. सृष्टि के विविध रूपों को जानने और समझने की लालसा रखता है।

2. विभिन्न स्थानों में विकसित मानव संस्कृतियों को देखने की जिज्ञासा रखता है।

3. इतिहास एवं भूगोल की जानकारी रखता है।

4. दूसरे स्थानों की यात्रा करता हैै।

5. मूलतः अंतर्मुखी होता है किंतु आवश्यकता होने पर लोगों से बात करके उपनयोगी तथ्य प्राप्त कर सकता है।

6. अच्छी स्मरण शक्ति का स्वामी होता है किंतु अपने नोट्स अवश्य लेता है। कुछ भी स्मरण शक्ति के भरोसे नहीं छोड़ता।

7. दूसरे लेखकों के साहित्य को पढ़ता है और अपनी दृष्टि से उसका विवेचन करता है।

8. जो प्रतिदिन कुछ समय निकालकर स्वयं से संवाद करता है।

9. जो देखा गया है, उसी तक सीमित नहीं रहता है अपितु कल्पना लोक में विचरण करने की सामर्थ्य रखता है।

10. दुनिया की भाषाओं को सीख सकता है और अपनी भाषा का विकास स्वयं कर सकता है।

11. जिसमें दूसरों के प्रति करुणा का भाव है।

12. जिसमें विश्व को सुंदरएवं मानवों को सुखी बनाने की इच्छा है।

13. जो विपुल परिश्रम कर सकता है।

भाषा को प्रभावी कैसे बनाएं

कोई भी लेखक तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि उसके पास एक प्रभावी भाषा न हो। प्रभावी भाषा विकसित करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं-

1. अच्छे लेखकों के विपुल एवं समृद्ध साहित्य का अध्ययन किया जाए।

2. विभिन्न लेखकों के साहित्य में प्रयुक्त भाषाई शक्तियों को समझने का प्रयास किया जाए।

3. मुहावरों, लोकोक्तियों आदि की अच्छी जानकारी हो।

4. अंतःस्थल में साहित्य के आनंद को अनुभव करना चाहिए।

5. किसी भी नए शब्द के सामने आने पर शब्दकोश से उसके विविध अर्थ जानने का प्रयास किया जाए।

6. छोटे-छोटे वाक्य बनाए जाएं। एक वाक्य में एक ही बात कही जाए। दो वाक्यों को मिलाकर लिखने से प्रायः अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

7. सरल, सुग्राह्य शब्दावली का प्रयोग किया जाए।

8. कविता की भी थोड़ी-बहुत समझ अवश्य प्राप्त की जाए। -

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

कथेतर गद्य साहित्य में क्या संकलित है?

कथेतर गद्य साहित्य में निबंध, संस्मरण, डायरी, आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्र, यात्रा वर्णन, और रिपोर्ताज आदि को रखा जाता है। आधुनिक युग के नवजागरण काल में कथेतर साहित्य का विकास अपनी चरमसीमा पर पहुँचा है। आजकल गद्य की विधाओं में निबंध विधा का एक विशिष्ट स्थान ।

कथेतर गद्य साहित्य का उद्देश्य क्या होता है?

कथेतर साहित्य (non-fiction) साहित्य की वह शाखा है जिसमें दर्शाए गए स्थान, व्यक्ति, घटनाएँ और सन्दर्भ पूर्णतः वास्तविकता पर ही आधारित होते हैं। इसके विपरीत कपोलकल्पना है जिसमें कथाएँ कुछ मात्रा में या पूरी तरह लेखक की कल्पना पर आधारित होतीं हैं और उन में कुछ तत्त्व वास्तविकता से हट के होते हैं।

कथेतर गद्य साहित्य पुस्तक के संपादक कौन है?

महादेवी वर्मा लिखित रामा, घीसा आदि रेखाचित्र हैं किंतु इन्हें कहानी भी हा जा सकता है।