कविता में कौन सी भाषा का प्रयोग किया गया है *? - kavita mein kaun see bhaasha ka prayog kiya gaya hai *?

                
                                                                                 
                            

ब्रज भाषा में रचना करने वाले कवियों में से एक महत्वपूर्ण कवि हैं भक्त-कवि सूरदास जिनके काव्य में श्रृंगार और वात्सल्य रस की प्रचुरता देखने को मिलती है। पेश है कुछ ऐसे ही चुनिंदा वात्सल्यपूर्ण पद जिनमें आपको ब्रज भाषा की मिठास महसूस होगी।

मैया री मोहिं माखन भावै
मधु मेवा पकवान मिठा मोंहि नाहिं रुचि आवे
ब्रज जुवती इक पाछें ठाड़ी सुनति स्याम की बातें
मन-मन कहति कबहुं अपने घर देखौ माखन खातें
बैठें जाय मथनियां के ढिंग मैं तब रहौं छिपानी
सूरदास प्रभु अन्तरजामी ग्वालि मनहिं की जानी

(यहां कृष्ण मां यशोदा से कह रहे हैं कि मैय्या, मुझे तो माखन ही भाता है। मुझे मधु, मेवा, पकवान और मीठा नहीं अच्छा लगता। कृष्ण की यह बात एक ब्रज की युवती पीछे से सुन रही है और अपने मन में कह रही है कि कभी अपने घर भी माखन खाकर देखा है, मैं मथनी के पीछे छुप जाती हूं तो कृष्ण वहां आकर माखन खाने लगते हैं। सूरदास कहते हैं कि प्रभु अंतर्यामी हैं और वह उस युवती के मन की बात को जानते हैं) 

चली ब्रज घर घरनि यह बात....

चली ब्रज घर घरनि यह बात
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम
हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार

(भगवान् श्रीकृष्ण की बाललीला से संबंधित सूरदास जी का यह पद राग कान्हड़ा पर आधारित है। ब्रज के घर-घर में इस बात की चर्चा हो गई कि नंदपुत्र श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं। एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें ऐसी ही चर्चा कर रही थीं। उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पूर्व तो वह मेरे ही घर में आए थे। कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ी देखकर वह भाग गए। एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं। मैं तो उन्हें इतना अधिक और उत्तम माखन दूं जितना वह खा सकें। लेकिन किसी भांति वह मेरे घर तो आएं। तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिखाई पड़ जाएं तो मैं गोद में भर लूं। एक अन्य ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वह मिल जाएं तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुड़ा ही न सके। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु मिलन की जुगत बिठा रही थीं। कुछ ग्वालिनें यह भी विचार कर रही थीं कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएं तो वह हाथ जोड़कर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें)

खीझत जात माखन खात
अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात
कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात
सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात

(यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार श्रीकृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे कि रोते-रोते नेत्र लाल हो गए। भौंहें वक्र हो गई और बार-बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकलते थे। घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धूल-धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक पल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी-छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा)

कहन लागे मोहन मैया - मैया

कहन लागे मोहन मैया मैया
नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया
ऊंच चढि चढि कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया
दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया

(सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबद्ध है। भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया-मैया नंदबाबा को बाबा-बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं। इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात् कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं कि लल्ला गाय तुझे मारेगी। सूरदास कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ)

जो तुम सुनहु जसोदा गोरी
नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी
जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी
लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी

(सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन है। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आई। वह बोली कि हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए। पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा कि माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनके नयनों में अश्रु भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया)

साभार- कविताकोश

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कविता की भाषा कौन सी?

काव्य शब्द संस्कृत भाषा का अपना शब्द है और उसमें इस शब्द का प्रयोग साहित्य के लिए होता है संस्कृत में साहित्य के दो भेद किए गए है- पद्य काव्य और गद्य काव्य/पद्य का अर्थ छन्दोबद्ध रचना से होता है।

कवि ने कौन सी भाषा का प्रयोग किया है?

ब्रजभाषा में ही अनेक भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं की हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि।

काव्य भाषा कौन सी भाषा है?

कावी इंडोनेशिया के जावा द्वीप की एक प्राचीन साहित्यिक भाषा है। इसकी अपनी लिपि थी। जावा के काव्य इसी भाषा में लिखे गये।

कविता का अर्थ क्या है?

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य कि वह विधा है जिसमे मनोभावों को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। अर्थात काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छंदों कि श्रृंखलाओं में विधिवत बाँधी जाती हैं, कविता कहलाती हैं