कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

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Class 9 Hindi – A Chapter 10 Vaakh Important Questions. myCBSEguide has just released Chapter Wise Question Answers for class 09 Hindi – A. There chapter wise Practice Questions with complete solutions are available for download in myCBSEguide website and mobile app. These test papers with solution are prepared by our team of expert teachers who are teaching grade in CBSE schools for years. There are around 4-5 set of solved Hindi Extra questions from each and every chapter. The students will not miss any concept in these Chapter wise question that are specially designed to tackle Exam. We have taken care of every single concept given in CBSE Class 09 Hindi – A syllabus and questions are framed as per the latest marking scheme and blue print issued by CBSE for class 09.

CBSE Class 9 Hindi Ch – 10 Practice Tests

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Class 9 Hindi – A Chapter wise Question and Answers

वाख (ललद्यद)

  1. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
    थल-थल में बसता है शिव ही,
    भेद ने कर क्या हिंदू-मुसलमां।
    ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
    वही है साहिब से पहचान।

    1. कवयित्री ने उपर्युक्त काव्यांश में शिव किसे कहा है? उनका वास कहाँ बताया गया है?
    2. कवयित्री ने काव्यांश के माध्यम से क्या संदेश दिया है?
    3. स्वयं को जानने से ईश्वर को कैसे पहचाना जा सकता है?

  2. कवयित्री ललद्यद ने ईश्वर का निवास कहाँ बताया है?

  3. कवयित्री ललद्यद किसे साहब मानती है? वह साहब को पहचानने का क्या उपाय बताती है?

  4. वाख में रस्सी किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?

  5. वाख कविता के आधार में भाव स्पष्ट कीजिए- जेब टटोली कौड़ी न पाई।

वाख (ललद्यद)

Answer

    1. उपर्युक्त काव्यांश में कवयित्री ने अपने आराध्य प्रभु को शिव कहा है। उन्होंने उनका वास प्रत्येक कण में बताया है।
    2. कवयित्री ने काव्यांश के माध्यम से यह संदेश दिया है कि मनुष्य को हिंदू-मुसलमान के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक । वह कहती हैं कि हे मनुष्य! तुम धार्मिक भेदभाव को त्यागकर उसे अपना लो। ईश्वर को जानने से पहले तुम स्वयं को पहचानो अर्थात् आत्मज्ञान प्राप्त करो।
    3. कवयित्री के अनुसार ईश्वर सर्वव्यापक है। वह किसी सीमा में नहीं बंधा हुआ है | उसका वास तो स्वयं मनुष्य के हृदय में है। अतः यदि मनुष्य स्वयं को जान लेगा तो वह ईश्वर को पा लेगा।
  1. कवयित्री ने ईश्वर को सर्वव्यापी बताते हुए उसे हर जगह पर व्याप्त रहने वाला कहा है। वास्तव में ईश्वर का वास हर प्राणी के अंदर है परंतु मत-मतांतरों के चक्कर में पड़कर अज्ञानता के कारण मनुष्य अपने अंदर बसे प्रभु को नहीं पहचान पाता है। इस प्रकार कवयित्री का प्रभु सर्वव्यापी है।
  2. कवयित्री परमात्मा को साहब मानती है, जो भवसागर से पार करने में समर्थ हैं। वह साहब को पहचानने का यह उपाय बताती है कि मनुष्य को आत्मज्ञानी होना चाहिए। वह अपने विषय में जानकर ही साहब को पहचान सकता है।
  3. वाख में ‘रस्सी’ शब्द मनुष्य की साँसों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसके सहारे वह शरीर-रूपी नाव को इस संसार रुपी सागर में खींच रहा है। यह रस्सी अत्यंत कमज़ोर है। यह कब टूट जाए इसका कुछ निश्चित पता नहीं है। अर्थात् मनुष्य की साँसे कब रुक जाए , इसका कुछ पता नहीं है।
  4. भाव – कवयित्री ने अपना सारा जीवन सांसारिक वासनाओं में फंसकर व्यर्थ गँवा दिया। जीवन के अंतिम समय में जब उन्होंने पीछे देखा तो ईश्वर को देने के लिए उनके पास कोई सद्कर्म ही नहीं थे।

Class 9 Hindi – A Chapter Wise Important Question

Kritika

  1. Do Bailon Ki Katha (Premchand)
  2. Lhasa ki or (Rahul Sankrityayan)
  3. Upbhoktavad ki Sanskriti (Deleted)
  4. Sawle sapno ki yaad (Jabir Husain)
  5. Nana Saheb ki Putri (Chapla Devi)
  6. Premchand ke Phate Joote (Harishankar Parsai )
  7. Mere Bachpan ke Din (Mahadevi Varma )
  8. Ek kutta or ak Mena (Deleted)
  9. Sakhiya aav Shabad (kabir)
  10. Vaakh (LalGhad)
  11. Savaiye (Raskhan)
  12. kaidi aur kokila (Makhanlal Chaturvedi)
  13. Gram shri (Deleted)
  14. Chandra Gehna se Lautti Ber (Kedarnath Agarwal)
  15. Megh Aaye (Sarveshwar Dayal Saxena)
  16. Yamraj ki Disha (Chandrakant Devtale)
  17. Bache kam par ja rahe hain (Rajesh Joshi)

Kritika

  1. Is Jal Pralay Mein (Deleted)
  2. Mere sang ki Auratein
  3. Reedh ki haddi
  4. Mati wali
  5. Kis tarah aakhirkar main Hindi Mein Aaya (Deleted)


 

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

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Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 वाख Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 वाख

JAC Class 9 Hindi वाख Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
‘रस्सी’ यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?
उत्तर :
‘रस्सी’ यहाँ निरंतर चलनेवाली साँसों के लिए प्रयुक्त किया गया है जो स्वाभाविक रूप से बहुत कमज़ोर है।

प्रश्न 2.
कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जानेवाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं ?
उत्तर :
कवयित्री स्वाभाविक रूप से कमज़ोर साँसों रूपी रस्सी से जीवन रूपी नौका को भवसागर के पार ले जाना चाहती है पर शरीर रूपी कच्चे बरतन से जीवन रूपी जल टपकता जा रहा है, इसलिए उनके प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 3.
कवयित्री का ‘घर जाने की चाह से’ क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
सभी संतों के समान कवयित्री भी मानती है कि उसका वास्तविक घर तो वह है जहाँ परमात्मा बसते हैं क्योंकि जीवात्मा वहीं से आई थी और उसे वहीं लौट जाना है इसलिए उसकी उसी घर जाने की चाह है।

प्रश्न 4.
भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) जेब टटोली कौड़ी न पाई।
(ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
उत्तर :
(क) इस संसार में रहते हुए माया के जाल से मुक्ति ही नहीं पाई। परमात्मा के प्रति ध्यान ही नहीं लगाया; सत्कर्म नहीं किए। जब आत्मलोचन किया तो पता लगा कि हमने जीवन व्यर्थ गँवा दिया है।
(ख) इस मायात्मक संसार में सुखों की प्राप्ति की कामना ही करते रहे। तरह-तरह के सुख उपभोग के साधन जुटाते रहे जिनसे परमात्मा नहीं मिलते। बाह्याडंबर करते हुए व्रत और साधना का सहारा लिया। स्वयं को कष्ट देकर सिद्धि पानी चाही। भूखे रहकर ब्रह्म पाना चाहा पर इससे और तो कुछ नहीं मिला। बस स्वयं को संयमी समझकर अहंकार का भाव मन में अवश्य समा गया।

प्रश्न 5.
बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है ?
उत्तर :
कश्मीरी संत कवयित्री ललद्यद ने सुझाया है कि मानव तू अपने अंतःकरण और बाह्य इंद्रियों का निग्रह कर, अपने तन-मन पर नियंत्रण रख। जब तेरी चेतना व्यापक हो जाएगी; तेरे भीतर समानता की भावना उत्पन्न हो जाएगी। तब तेरे मन रूपी बंद द्वार की साँकल खुल जाएगी। आडंबर करने से तुझे कुछ प्राप्त नहीं होगा।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 6.
ईश्वर-प्राप्ति के लिए बहुत-से साधक हठयोग जैसी साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है ?
उत्तर :
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,
सुषुम – सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।
जेब टटोली कौड़ी न पाई,
माझी को दूँ क्या उतराई ?

प्रश्न 7.
‘ज्ञानी’ से कवयित्री का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर
कवयित्री का ‘ज्ञानी’ से अभिप्राय उस मानव से है जो बिना आडंबर रचाए सच्चे मन से परमात्मा को अपने भीतर खोजने की चेष्टा करता है। वह माया जाल से दूर रहता है। जात-पात और भेद-भाव से दूर रह आत्मलोचन करता हुआ सत्कर्मों में लीन रहता है।

रचना और अभिव्यक्ति –

प्रश्न 8.
हमारे संतों, भक्तों और महापुरुषों ने बार-बार चेताया कि मनुष्यों में परस्पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता; लेकिन
आज भी हमारे समाज में भेदभाव दिखाई देता है –
(क) आपकी दृष्टि में इस कारण देश और समाज को क्या हानि हो रही है ?
(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए अपने सुझाव दीजिए।
उत्तर :
(क) यद्यपि संतों, भक्तों और महापुरुषों ने मनुष्यों को आपसी भेदभाव दूर करने के लिए बार-बार चेताया पर फिर भी जात-पात, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, ऊँच-नीच आदि तरह-तरह के भेदभाव उन्हें सदा घेरे रहते हैं। इस कारण लोगों में मानसिक विद्वेष बढ़ता है; वे एक-दूसरे से घृणा करने लगते हैं। इसका सीधा प्रभाव उनके जीवन और काम-काज पर पड़ता है। संकीर्ण विचारधारा मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना देती है। मनुष्य हीन बुद्धि के हो जाते हैं। वे एक-दूसरे को छूने से भी परहेज़ करने लगते हैं। ऐसे लोग मिल-बाँटकर खाते-पीते नहीं; पारिवारिक संबंध नहीं बनाते। इससे समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटने लगता है। जिस समाज या देश में जितने छोटे टुकड़े होंगे वह उतना ही कमजोर होगा और समुचित उन्नति नहीं कर पाएगा।

(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए शिक्षा का व्यापक प्रचार सबसे महत्त्वपूर्ण है। अशिक्षित व्यक्ति का बौद्धिक विकास पूरी तरह नहीं हो पाता इसलिए अच्छे-बुरे के बीच भेद करने का विवेक उन्हें प्राप्त नहीं होता। वे कुएँ के मेंढक की तरह संकुचित मानसिकता के हो जाते हैं। आपसी भेद-भाव मिटाने के लिए आर्थिक विषमता का दूर होना भी आवश्यक है। गरीबी-अमीरी के बीच की खाई भेद-भाव को बढ़ाती है। नर-नारियों पर लगे तरह-तरह के सामाजिक-धार्मिक प्रतिबंध पूर्ण रूप से मिटा दिए जाने चाहिए। नारी-शिक्षा को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए ताकि नारी शिक्षित होकर अपने परिवेश से ऐसे विचारों को दूर कराने में सहायक बन सके। कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा भेद-भावों को बढ़ाने संबंधी भ्रामक विचारों के प्रसारण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इसे दंडनीय अपराध मानना चाहिए ताकि वे भोली-भाली जनता को बहका न सकें। सरकार के द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में ऐसे सजगता संबंधी कार्यक्रम कराने चाहिए जिनसे वे जागरूक हो सकें।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

पाठेतर सक्रियता –

प्रश्न :
भक्तिकाल में ललद्यद के अतिरिक्त तमिलनाडु की आंदाल कर्नाटक की अक्क महादेवी, और राजस्थान की मीरा जैसी भक्त कवयित्रियों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए एवं उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में कक्षा में चर्चा कीजिए।
ललद्यद कश्मीरी कवयित्री हैं। कश्मीर पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर :
छात्र / छात्राएँ अपने अध्यापक / अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।

JAC Class 9 Hindi वाख Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
‘ललद्यद ने संकीर्ण मतभेदों के घेरों को कभी स्वीकार नहीं किया’- इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
ललद्यद की शैवधर्म में आस्था थी पर उसने संकीर्ण मतवादों के घेरों को कभी स्वीकार नहीं किया था। उसने जो कहा वह सार्वभौम महत्त्व रखता था। किसी धर्म या संप्रदाय विशेष को अन्य धर्मों या संप्रदायों से श्रेष्ठ मानने की भावना का उसने खुलकर विरोध किया। वह उदात्त विचारोंवाली उदार संत थी। उसके अनुसार ब्रह्म को चाहे जिस नाम से पुकारो वह ब्रह्म ही रहता है। सच्चा संत वही है जो प्रेम और सेवा भाव से सारी मानव जाति के कष्टों को दूर करे तथा ईश्वर को मतभेद से दूर होकर स्वीकार करे।

प्रश्न 2.
ललद्यद के क्रांतिवादी व्यक्तित्व पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
ललद्यद में विभिन्न धर्मों के विचारों को समन्वित करने की अद्भुत शक्ति थी। वह धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों, रीति-रिवाजों पर कड़ा प्रहार करती थी। धर्म के नाम पर ठगनेवाले लोग उसकी चोट से तिलमिला उठते थे। वह मानती थी कि धार्मिक बाह्याडंबरों का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है। तीर्थ यात्राओं और शरीर को कष्ट देकर की जानेवाली तपस्याओं से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। बाहरी पूजा एक ढकोसला मात्र है। वह देवी-देवताओं के लिए पशु-बलि देना सहन नहीं करती थी।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 3.
‘पानी टपके कच्चे सकोरे’ से क्या आशय है ?
उत्तर :
‘पानी टपके कच्चे सकोरे से’ कवयित्री का आशय यह है कि मानव शरीर धीरे-धीरे कच्चे सकोरे की तरह कमज़ोर हो रहा है और एक दिन वह नष्ट हो जाएगा। जिस प्रकार कच्चे सकोरे से धीरे-धीरे पानी टपकने से वह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार उसका शरीर भी धीरे-धीरे अपनी निश्चित आयु को प्राप्त हो कमज़ोर हो रहा है। यह प्राकृतिक नियम है और प्राणी को यह पता भी नहीं चलता है कि उसकी आयु समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 4.
कवयित्री ने ‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ कहकर किस तथ्य की ओर संकेत किया है ?
उत्तर :
‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ में कवयित्री ने इस बात की ओर संकेत किया है कि मानव परमात्मा को प्राप्त कराने के लिए तरह-तरह के बाह्य आडंबर करता है। भूखे रहकर व्रत करता है परंतु उसे वह स्वयं को संयमी और शरीर पर नियंत्रण रखनेवाला मान लेता है। इससे उसके मन में अहंकार उत्पन्न हो जाता है। वह स्वयं को योगी पुरुष मान लेता है।

प्रश्न 5.
‘खा-खाकर’ कुछ प्राप्ति क्यों नहीं हो पाती ?
उत्तर :
मनुष्य को लगातार खाने से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है। यह भोग-विलास का प्रतीक है। मनुष्य का जीवन जितना अधिक भोग-विलास में डूबता जाता है, उतना ही भगवान से दूर हो जाता है। उसका मन ईश्वर की भक्ति में नहीं लगता है और ईश्वर की प्राप्ति के बिना इस दुनिया से पार हो संभव नहीं है। इसलिए खा-खाकर भी कुछ प्राप्त होनेवाला नहीं है।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 6.
कवयित्री क्या प्रेरणा देना चाहती है ?
उत्तर :
कवयित्री मनुष्य को यह प्रेरणा देना चाहती है कि बाहरी आडंबरों से कुछ भी संभव नहीं है। मानव को अपने जीवन में सहजता बनाए रखनी चाहिए। संयम का भाव श्रेष्ठ होता है। और इसी से वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 7.
‘गई न सीधी राह’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
‘गई न सीधी राह’ से कवयित्री का तात्पर्य है कि परमात्मा ने उसे जब संसार में भेजा था तो वह सीधी राह पर चल रही थी परंतु संसार के मायात्मक बंधनों ने उसे अपने बस में कर लिया और वह चाहकर भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर नहीं बढ़ सकी। दुनियादारी में उलझकर सत्कर्म नहीं किया।

प्रश्न 8.
मनुष्य मन-ही-मन भयभीत क्यों हो जाता है ?
उत्तर :
परमात्मा जब मनुष्य को धरती पर भेजता है, उसका मन साफ़ हो जाता है; उसे दुनियादारी से कोई मतलब नहीं होता है परंतु धीरे-धीरे वह संसार के मोह-माया के बंधनों में उलझ जाता है। वह सत्कर्मों से दूर हो जाने पर मन-ही-मन भयभीत होता है कि अब उसका समय पूरा होने वाला है, उसे परमात्मा के पास वापिस जाना है, परमात्मा जब उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखेगा, वह क्या बताएगा। भव सागर से पार जाने के लिए मनुष्य के सत्कर्म ही उसके काम आते हैं। यही सोच मनुष्य को मन-ही-मन भयभीत करती रहती है।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 9.
ईश्वर वास्तव में कहाँ है ? उसकी पहचान कैसे हो सकती है ?
उत्तर :
ईश्वर वास्तव में संसार के कण-कण में समाया हुआ है। वह तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर है इसलिए उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो अपने भीतर से ही पाने की कोशिश की जानी चाहिए। ईश्वर के सच्चे स्वरूप की पहचान अपनी आत्मा को पहचानने से संभव हो सकती है। आत्मज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है।

प्रश्न 10.
‘भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां’ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां’ इस पंक्ति में कवयित्री यह कहना चाहती है कि सभी के लिए परमात्मा एक है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान उनके लिए परमात्मा के स्वरूप के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। कवयित्री ने अपनी वाणी से यह स्पष्ट किया है कि धर्म के नाम पर परमात्मा के प्रति आस्था नहीं बदलनी चाहिए।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 11.
ईश्वर के प्रति भक्ति कब दृढ़ हो जाती है ?
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद का मत है कि जब ईश्वर विरह में जलनेवाला ऐसे ही दूसरे व्यक्ति से मिलता है तो ईश्वर के प्रति भक्ति दृढ़ हो जाती है उनमें विचारों का आदान-प्रदान होता है। दोनों अपने अनुभवों को बताते हैं और इस प्रकार अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। इससे ईश्वर के प्रति भक्ति को दृढ़ता मिलती है।

प्रश्न 12.
परमात्मा के न मिलने पर कवयित्री की स्थिति कैसी हो गई है ?
उत्तर :
परमात्मा के न मिलने पर कवयित्री की स्थिति अत्यंत दुःखदायी हो गई है। उसकी स्थिति उस प्यासे व्यक्ति के समान हो गई है जो प्यास से अत्यधिक व्याकुल है। कवयित्री की आत्मा ईश्वर से कहती है कि उनके बिना वह अत्यधिक परेशान है। उसका जीवन घटता जा रहा है। उसे परमात्मा की प्राप्ति अभी तक नहीं हो पाई। उसे हृदय से रह-रहकर पीड़ाभरी आवाज़ उत्पन्न होती है। उसे परमात्मा से मिलने की इच्छा है लेकिन वह इस इच्छा को चाहकर भी पूरी नहीं कर पा रही है।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

प्रश्न 13.
ललद्यद की कविता ‘वाख’ का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कवयित्री ने अपनी कविता ‘वाख’ में पदों के रूप में भक्ति को प्रधानता देते हुए अपने मन की पीड़ा को प्रकट किया है। लक्षणा शब्द-शक्ति का पर्याप्त प्रयोग किया गया है। प्रतीकात्मकता विद्यमान है। भक्ति के विप्रलंभ का निरुपण किया गया है। अनुप्रास, रुपक, उपमा आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है। शांत रस, भक्ति रस तथा करुण रस विद्यमान है। गीतिकाव्य की विशेषताएँ विद्यमान हैं। तद्भव शब्दावली का सटीक एवं भावानुकूल प्रयोग हुआ है। भाषा सरल, सहज तथा विचारानुकूल है।

सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –

1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे ॥

शब्दार्थ : रस्सी कच्चे धागे की – कमज़ोर और नाशवान सहारे। नाव – जीवन रूपी नौका। भवसागर – दुनिया रूपी सागर। कच्चे सकोरे – स्वाभाविक रूप से कमज़ोर। व्यर्थ – बेकार। प्रयास – प्रयत्न।

प्रसंग : प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित किया गया है जिसकी रचयिता कश्मीरी संत ललद्यद हैं। मानव ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है और उसे पाने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करता है पर उसके द्वारा किए गए प्रयत्नों से उसे सफलता नहीं मिलती। कवयित्री ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए किए जानेवाले ऐसे ही प्रयत्न की व्यर्थता को प्रकट किया है।

व्याख्या : कवयित्री दुखभरे स्वर में कहती है कि मैं अपनी जीवन रूपी नौका को कमज़ोर और नाशवान कच्चे धागे की साँसों रूपी रस्सी से लगातार खींच रही हूँ। मैं इसे उस पार लगाना चाहती हूँ पर पता नहीं परमात्मा कब मेरी पुकार सुनेंगे और मुझे दुनिया रूपी सागर को पार कराएँगे। स्वाभाविक रूप से कमज़ोर कच्चे बरतन रूपी शरीर से निरंतर पानी टपक रहा है; मेरा जीवन घटता जा रहा है; आयु व्यतीत होती जा रही है पर मेरे द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने के लिए किए गए सभी प्रयत्न असफल होते जा रहे हैं। मेरे हृदय से रह-रहकर पीड़ाभरी आवाज़ उत्पन्न होती है। परमात्मा से मिलने और इस संसार को छोड़कर वापस जाने की मेरी इच्छा बार-बार मुझे घेर रही है पर वह इच्छा चाहकर भी पूरी नहीं हो रही है।

अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) ‘रस्सी कच्चे धागे की’ तथा ‘नाव’ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ख) कवयित्री के हृदय से बार-बार हूक क्यों उत्पन्न होती है ?
(ग) कवयित्री किस ‘घर’ में जाना चाहती है ?
(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) पानी टपकने से क्या तात्पर्य है ?
(च) कवयित्री का घर कहाँ स्थित है ?
(छ) ‘कच्चे सकोरे’ से क्या आशय है ?
उत्तर :
(क) ‘रस्सी कच्चे धागे की’ का अर्थ कमज़ोर और नाशवान रूपी रस्सी साँस से है जो हर समय चल तो रही हैं पर पता नहीं कब तक वे चलेगी। ‘नाव’ शब्द का अर्थ जीवन रूपी नौका से है।
(ख) कवयित्री हर क्षण ईश्वर से एक ही प्रार्थना करती है कि वह परमात्मा की शरण प्राप्त कर इस जीवन को त्याग दे पर ऐसा हो नहीं रहा।
(ग) इसी कारण उसके हृदय से बार- बार हूक उत्पन्न होती है।
(घ) कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है। यह संसार तो उसका घर नहीं है। उसका घर तो वह है जहाँ परमात्मा है। कवयित्री ने अपने रहस्यवादी वाख में परमात्मा की शरण प्राप्त करने की कामना की है। वह भवसागर को पार कर जाना चाहती है पर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा। प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग सहज रूप से किया गया है। कश्मीरी से अनूदित वाख में तत्सम शब्दावली की अधिकता है। लयात्मकता का गुण विद्यमान है। शांत रस और प्रसाद गुण ने कथन को सरसता प्रदान की है। पुनरुक्ति, प्रकाश, रूपक, प्रश्न और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है
(ङ) ‘पानी टपकने’ से तात्पर्य धीरे-धीरे समय का व्यतीत होना है। प्राणी जान भी नहीं पाता और उसकी आयु समाप्त हो जाती है।
(च) कवयित्री का घर परमात्मा के पास है। वही परमधाम है और उसे वहीं जाना है।
(छ) ‘कच्चे सकोरे’ से तात्पर्य मानवीय शरीर से है जो स्वाभाविक रूप से कमज़ोर है और निश्चित रूप से नष्ट हो जाने वाला है।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

2. खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं
न खाकर बनेगा अहंकारी,
सम खा तभी होगा समभावी
खुलेगी साँकल बंद. द्वार की।

शब्दार्थ : अहंकारी – घमंडी। सम (शम ) – अंतःकरण तथा बाह्य-इंद्रियों का निग्रह। समभावी – समानता की भावना। खुलेगी साँकल बंद द्वार की – मन मुक्त होगा; चेतना व्यापक होगी।

प्रसंग : प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ से लिया गया है जो कश्मीरी संत ललद्यद के द्वारा रचित है। मानव परमात्मा की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के आडंबर रचता है पर उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। परमात्मा की प्राप्ति तो मानव की चेतना अंतःकरण से समभावी होने पर ही व्यापक हो सकती है।

व्याख्या : कवयित्री कहती है कि हे मानव ! यह संसार तो मायात्मक है। तू इसके भ्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर पाएगा। सुखों की प्राप्ति करता हुआ और नित तरह-तरह के व्यंजन खाकर तू कुछ नहीं पाएगा। यदि बाह्याडंबर करता हुआ तू व्रत के नाम पर कुछ नहीं खाएगा तो स्वयं को संयमी मानकर तू अहंकार का भाव अपने मन में लाएगा। स्वयं को योगी- तपी मानने लगेगा। यदि तू परमात्मा को वास्तव में पाना चाहता है तो अपने अंतःकरण और बाह्य – इंद्रियों को अपने बस में कर; अपने तन – मन पर नियंत्रण कर। जब समानता की भावना तेरे भीतर उत्पन्न होगी तभी तेरा मन मुक्त होगा, तेरे मन रूपी बंद द्वार की साँकल खुलेगी, तेरी चेतना व्यापक होगी। बाह्याडंबरों से तुझे कुछ नहीं मिलेगा।

अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न :
(क) कवयित्री ने ‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ कहकर किस तथ्य की ओर संकेत किया है ?
(ख) ‘सम खा’ से क्या तात्पर्य है ?
(ग) कवयित्री किस द्वार के बंद होने की बात कहती है ?
(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) ‘खा-खाकर’ कुछ प्राप्ति क्यों नहीं हो पाती ?
(च) मनुष्य अहंकारी क्यों बनता है ?
(छ) कवयित्री क्या प्रेरणा देना चाहती है ?
(ज) ‘समभावी’ किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
(क) कवयित्री ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि मानव ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के बाह्याडंबर रचते हैं। भूखे रहकर व्रत करते हैं पर इससे उनमें संयमी बनने और अपने शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का अहंकार मन में आ जाता है।
(ख) ‘सम खा’ से तात्पर्य मन का शमन करने से है। इससे अंत: करण और बाह्य इंद्रियों के निग्रह का संबंध है।
(ग) कवयित्री मानव मन के मुक्त न होने तथा उसकी चेतना के संकुचित होने को ‘द्वार के बंद होने से’ संबोधित करती है।
(घ) संत ललद्यद जीवन में बाह्याडंबरों को महत्त्व न देकर समभावी बनने का आग्रह करती है। उनके काव्य उपदेशात्मकता की प्रधानता है। कश्मीरी से अनूदित वाख में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है। पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। लाक्षणिकता ने कथन को गहनता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस की प्रधानता है। प्रतीकात्मकता ने कथन को गंभीरता प्रदान की है।
(ङ) ‘खा-खाकर ‘ कुछ प्राप्त नहीं हो पाता। यह भोग-विलास का प्रतीक है। जीवात्मा जितनी भोग-विलास में लिप्त होती जाती है उतनी ही परमात्मा से दूर होती जाती है। वह ईश्वर की ओर अपना मन लगा ही नहीं पाता और ईश्वर को पाए बिना वह कुछ नहीं पाता।
(च) इंद्रियों पर संयम रखने और तपस्या का जीवन जीने से मनुष्य स्वयं को महात्मा और त्यागी मानने लगता है और इससे वह अहंकारी बनता है।
(छ) कवयित्री प्रेरणा देना चाहती है कि मानव को अपने जीवन में सहजता बनाए रखनी चाहिए। संयम का भाव श्रेष्ठ हो जाता है और इसी से वह ईश्वर की ओर उन्मुख हो सकता है।
(ज) समभावी वह है जो भोग और त्याग के बीच के रास्ते पर आगे बढ़े।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।
जेब टटोली कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?

शब्दार्थ : गई न सीधी राह – जीवन में सांसारिक छल-छद्मों के रास्ते चलती रही। सुषुम-सेतु – सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल; हठयोग के अनुसार शरीर की तीन प्रधान नाड़ियों (इंगला, पिंगला और सुषुम्ना) में से जो नासिका के मध्य भाग (ब्रहमरंध्र) में स्थित है। जेब टटोली – आत्मालोचन किया। कौड़ी न पाई – कुछ प्राप्त न हुआ। माझी – ईश्वर गुरु; नाविक। उत्तराई – सत्कर्म रूपी मेहनताना।

प्रसंग : प्रस्तुत वाख हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित है जिसकी रचयिता कश्मीरी संत ललद्यद हैं। परमात्मा जब मानव को धरती पर भेजता है तो वह साफ़-स्वच्छ मन का होता है पर दुनियादारी उसे बिगाड़ देती है। वह सत्कर्मों से दूर हो जाता है जिस कारण वह मन-ही-मन भयभीत होता है कि परमात्मा के पास जाने पर वह वहाँ क्या बताएगा ? भवसागर से पार जाने के लिए सत्कर्म ही सहायक होते हैं।

व्याख्या : कवयित्री दुखभरे स्वर में कहती है कि जब परमात्मा ने मुझे संसार में भेजा था तो मैं सीधी राह से यहाँ आई थी पर मोह माया से ग्रसित इस संसार में सीधी राह पर न चली। मैं सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल पर खड़ी रही और मेरा जीवन रूपी दिन बीत गया अर्थात हठयोग ने मुझे रास्ता तो दिखाया था पर मैं ही अज्ञान वश उस मार्ग पर पूरी तरह चल नहीं पाई। मैं माया रूपी संसार में उलझ गई।

अब जब इस संसार को छोड़कर वापस जाने का समय आया है तो मेरे द्वारा आत्मालोचन करने से पता चला कि मैंने इस संसार कुछ नहीं पाया; जीवनभर भक्ति नहीं की इसलिए मुझे उसका फल नहीं दिया। मुझे नहीं पता कि अब मैं उतराई के रूप में नाविक रूपी ईश्वर को क्या दूँगी। भाव है कि मैंने अपना जीवन व्यर्थ ही गवाँ दिया है और मेरे पास सत्कर्म रूपी मेहनताना भी नहीं है।

अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न :
(क) ‘गई न सीधी राह’ से क्या तात्पर्य है ?
(ख) ‘माझी’ और ‘उतराई’ क्या है ?
(ग) कवयित्री को जेब टटोलने पर कौड़ी भी क्यों न मिली ?
(घ) साख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) मनुष्य मन-ही-मन भयभीत क्यों हो जाता है ?
(च) ‘सुषुम-सेतु’ क्या है ?
(छ) कवयित्री का दिन कैसे व्यतीत हो गया ?
उत्तर :
(क) ‘गई न सीधी राह’ से तात्पर्य है कि संसार के मायात्मक बंधनों ने मुझे अपने बस में कर लिया और मैं चाहकर भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर नहीं बढ़ी। मैंने सत्कर्म नहीं किया और दुनियादारी में उलझी रही।
(ख) ‘माझी’ ईश्वर है; गुरु है जिसने इस संसार में जीवन दिया था और जीने की राह दिखाई थी। ‘उतराई’ सत्कर्म रूपी मेहनताना है जो संसार को त्यागते समय मुझे माझी रूपी ईश्वर को देना होगा।
(ग) कवयित्री ने माना है कि उसने कभी आत्मालोचन नहीं किया; सत्कर्म नहीं किए। केवल मोह-माया के संसार में उलझी रही इसलिए अब उसके पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसकी मुक्ति का आधार बन सके।
(घ) संत कवयित्री ने स्वीकार किया है कि वह जीवनभर मोह-माया में उलझकर परमात्मा तत्व को नहीं पा सकी। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो उसे भक्ति मार्ग में उच्चता प्रदान करा सकता। वह तो सांसारिक छल-छद्मों की राह पर ही चलती रही। प्रतीकात्मकता ने कवयित्री के कथन को गहनता प्रदान की है। अनुप्रास और स्वरमैत्री ने कथन को सरसता दी है। लाक्षणिकता के प्रयोग ने वाणी को गहनता – गंभीरता से प्रकट किया है। ‘सुषुम – सेतु’ संतों के द्वारा प्रयुक्त विशिष्ट शब्द है।
(ङ) परमात्मा जब मानव को धरती पर भेजता है तो वह साफ़-स्वच्छ मन का होता है पर दुनियादारी उसे बिगाड़ देती है। वह सत्कर्मों से दूर हो जाता है जिसके कारण वह अपने मन-ही-मन भयभीत होता है कि परमात्मा के पास वापस जाने पर वहाँ क्या बताएगा ? भवसागर से पार जाने के लिए सद्कर्म ही सहायक होते हैं।
(च) हठयोगी सुषुन्ना नाड़ी के माध्यम से कुंडलिनी जागृत कर परमात्मा को पाने की योग साधना करते हैं। ‘सुषुम-सेतु’ सुषुन्ना नाड़ी की साधना को कहते हैं।
(छ) कवयित्री ने अपना दिन (जागृत अवस्था) व्यर्थ की हठयोग-साधना में व्यतीत कर दिया।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

4. थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान ॥

शब्दार्थ : थल-थल – सर्वत्र। शिव – ईश्वर। भेद – अंतर। साहिब – स्वामी, ईश्वर।

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ से अवतरित है जिसे ‘वाख’ के अंतर्गत संकलित किया गया है। संत कवयित्री ललद्यद ने शैव दर्शन के आधार पर चिंतन किया था। वह मानती है कि परमात्मा शिव रूप में संसार के कण-कण में विद्यमान है।

व्याख्या : कवयित्री कहती है कि शिव तो इस संसार में सर्वत्र विद्यमान हैं। प्रभु का स्वरूप तो प्रत्येक वस्तु के कण-कण में सिमटा हुआ है। आप चाहे हिंदू हैं या मुसलमान – उस परमात्मा को जानने पहचानने में कोई अंतर न करो। यदि आप ज्ञानवान हैं तो स्वयं को पहचानो। स्वयं को पहचानना ही परमात्मा को पहचानना है क्योंकि परमात्मा ही तो आपके जीवन का आधार है। वही आपके भीतर है और आपके जीवन की गति का आधार है। ईश्वर सर्वव्यापक है इसलिए धर्म के आधार पर उसमें भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। आत्मज्ञान ही सर्वोपरि है।

अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) कवयित्री के द्वारा परमात्मा के लिए ‘शिव’ प्रयुक्त किए जाने का मूल आधार क्या है ?
(ख) ‘भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां’ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) ईश्वर वास्तव में कहाँ है ?
(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) ईश्वर की पहचान कैसे हो सकती है ?
(च) कवयित्री सांप्रदायिक भेद-भाव को दूर किस प्रकार करती है ?
(छ) ज्ञानी को क्या जानने की प्रेरणा दी गई है ?
(ज) कवयित्री ईश्वर के विषय में क्या मानती थी ?
उत्तर :
(क) कवयित्री शैव मत से संबंधित शैव यौगिनी थी। उसके चिंतन का आधार शैव दर्शन था इसलिए उसने परमात्मा के लिए ‘शिव’ प्रयुक्त किया है।
(ख) परमात्मा सभी के लिए एक ही है। चाहे हिंदू हों या मुसलमान- उनके लिए परमात्मा के स्वरूप के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उपदेशात्मक स्वर में यही स्पष्ट किया गया है कि धर्म के नाम पर परमात्मा के प्रति आस्था नहीं बदलनी चाहिए।
(ग) ईश्वर वास्तव में संसार के कण-कण में समाया हुआ है। वह तो हर प्राणी के शरीर के भीतर भी है इसलिए उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो अपने भीतर से ही पाने की कोशिश की जानी चाहिए।
(घ) कवयित्री ने भेदभाव का विरोध तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराने का प्रयास उपदेशात्मक स्वर में किया है और माना है कि ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। उसे पाने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता है। पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। अभिधा शब्द – शक्ति ने कथन को सरलता – सरसता प्रदान की है। शांत रस और प्रसाद गुण विद्यमान हैं। अनुदित अवतरण में तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक है।
(ङ) ईश्वर की पहचान अपनी आत्मा को पहचानने से संभव हो सकती है। आत्मज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है।
(च) कवयित्री सर्वकल्याण के भाव से सांप्रदायिक भेद-भाव को दूर करती है। उसके अनुसार हिंदू-मुसलमान दोनों शिव आराधना से आपसी दूरियाँ मिटा सकते हैं।
(छ) कवयित्री के द्वारा व्यक्ति को अपने आपको पहचानने की प्रेरणा दी गई है। अपने भीतर स्थित आत्मा को पहचानने के पश्चात ही ईश्वर को पाया जा सकता है।
(ज) संत कवयित्री ललद्यद ने शैव दर्शन के आधार पर चिंतन किया था। वह मानती है कि परमात्मा शिव रूप में संसार के कण-कण में विद्यमान है।

वाख Summary in Hindi

कवयित्री – परिचय :

ललद्यद कश्मीरी भाषा में रचना करनेवाली प्रथम कवयित्री थी जिन्होंने आज से लगभग 700 वर्ष पहले कश्मीरी जनता पर अपने विचारों से गहरा प्रभाव छोड़ा था। उनकी वाणी से तत्कालीन समाज ही प्रभावित नहीं हुआ था बल्कि अब भी उनकी रचनाएँ कश्मीर की जनता में गाई जाती हैं।

इनके जीवन के विषय में अन्य संतों के समान प्रामाणिक जानकारी बहुत कम मात्रा में प्राप्त हुई है। इनका जन्म कश्मीर स्थित पांपोर के सिमपुरा गाँव में लगभग 1320 ई० में हुआ था। इनका देहावसान सन् 1391 ई० के आसपास माना जाता है। इन्हें केवल ललद्यद नाम से ही नहीं जाना जाता बल्कि लल्लेश्वरी, लाल्ल योगेश्वरी, ललारिका आदि नामों से भी जाना जाता है। इनके द्वारा रचित काव्य का वहाँ के लोक जीवन पर गहरा प्रभाव है। इनकी काव्य- शैली ‘वाख’ नाम से प्रसिद्ध है।

जिस प्रकार हिंदी में कबीर के दोहे, मीराबाई के पद, तुलसीदास की चौपाइयाँ और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार ललद्यद के ‘वाख’ प्रसिद्ध हैं। इन्होंने इनके द्वारा तत्कालीन समाज में प्रचलित भेद-भावों और धार्मिक संकीर्णताओं को दूर करने का प्रयास किया था। इन्होंने समाज को भक्ति की उस राह पर चलाने में सफलता प्राप्त की थी जो अपने-आप में उदार थीं। इनकी भक्ति का जन-जीवन से संबंध था। इन्होंने धार्मिक आडंबरों का विरोध किया था तथा प्रेम को मानव जीवन का सबसे बड़ा उपहार माना था।

इन्होंने लोक जीवन के तत्वों से प्रेरित होकर तत्कालीन पंडिताऊ भाषा संस्कृत और दरबार के बोझ से दबी फ़ारसी को अपनी कविता के लिए स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने इनके स्थान पर सामान्य जनता की भाषा का प्रयोग करते हुए अपने भावों को अभिव्यक्त किया था। भाषा और विषय की सरलता और सहजता के कारण शताब्दियों बाद भी इनकी वाणी जीवित है। इनके भाव और भाषा की प्रासंगिकता इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि ये आधुनिक कश्मीरी भाषा की प्रमुख आधार स्तंभ स्वीकार की जाती हैं।

ललद्यद के ‘वाख’ भक्ति भाव से परिपूर्ण हैं। वे जीवन को अस्थिर मान परम ब्रह्म को पाना चाहती थीं। वे शैवयोगिनी थी। इनका चिंतन का आधार शैवधर्म था। इनकी कविता केवल पुस्तक वर्णित धर्म नहीं है बल्कि इसमें लोगों के विश्वास – विचार और आशा-निराशा का स्पंदन है। इन्होंने शैवधर्म की दीक्षा अपने कुलगुरु बूढ़े सिद्ध श्री कंठ से ली थी। इनका काव्य जीवन और संसार को असत्य न मानकर उसमें आस्था रखना सिखाता है। ये कबीर की तरह क्रांतिकारी व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। इन्होंने लोगों को समझाया था कि बाह्याडंबरों का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है।

कवयित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है? - kavayitree ne eeshvar ko kya upama dee hai?

कविता का सार :

कश्मीरी भाषा की प्रथम संत कवयित्री ललद्यद ने भक्ति के क्षेत्र में व्यापक जन-चेतना को जगाने में सफलता प्राप्त की थी। उनके पहले वाख में ईश्वर-प्राप्ति के लिए किए जानेवाले प्रयासों की व्यर्थता की चर्चा की गई है। अपनी जीवन रूपी नाव को कच्चे धागे की रस्सी से खींच रही है पर पता नहीं ईश्वर उसके प्रयास को सफलता प्रदान करेंगे या नहीं। उसके सारे प्रयत्न असफल सिद्ध हो रहे हैं। वह परमात्मा के घर जाना चाहती है पर जा नहीं पा रही। दूसरे वाख में बाह्याडंबरों का विरोध करते हुए कहा गया है कि अंतःकरण से समभावी होने पर ही मनुष्य की चेतना व्यापक हो सकती है।

माया के जाल में व्यक्ति को कम-से-कम लिप्त होना चाहिए। व्यर्थ खा-खाकर कुछ प्राप्त नहीं होगा जबकि कुछ न खाकर व्यर्थ अहंकार बढ़ेगा। जीवन से मुक्ति तभी प्राप्त होगी जब बंद द्वार की साँकल खुलेगी। तीसरे वाख में माना गया है कि दुनिया रूपी सागर से पार जाने के लिए सत्कर्म ही सहायक सिद्ध होते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए अनेक साधक हठयोगी जैसी कठिन साधना करते हैं पर इससे लक्ष्य की प्राप्ति सरल नहीं हो जाती। चौथे वाख में भेदभाव का विरोध और ईश्वर की सर्वव्यापकता को प्रकट किया गया है। ईश्वर सभी के भीतर विद्यमान है पर मानव स्वयं उसे पहचान नहीं पाता।

कवित्री ने ईश्वर को क्या उपमा दी है?

कवयित्री ने ईश्वर को सर्वव्यापी बताते हुए उसे हर जगह पर व्याप्त रहने वाला कहा है। वास्तव में ईश्वर का वास हर प्राणी के अंदर है परंतु मत-मतांतरों के चक्कर में पड़कर अज्ञानता के कारण मनुष्य अपने अंदर बसे प्रभु को नहीं पहचान पाता है। इस प्रकार कवयित्री का प्रभु सर्वव्यापी है

कवयित्री क्या भूल जाना चाहती है?

इसमें कवयित्री लोगों को अपनी असफलताओं को भूल जाने के लिए कहती है। वे मनुष्य को अपने हृदय में आग भरने के लिए प्रेरित करती है। उस में आग लक्षणा शक्ति का द्योतक है। श्लेष अलंकार 'पानी' शब्द में दिखाई देता है।

कवयित्री भीख मंगवाने की प्रार्थना ईश्वर से क्यों करती है?

उत्तर: दूसरे वचन में ईश्वर से सब कुछ छीन लेने की कामना की गई है। कवयित्री ईश्वर से प्रार्थना करती है कि वह उससे सभी तरह के भौतिक साधन, संबंध छीन ले। वह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे कि वह भीख माँगने के लिए मजबूर हो जाए।

अक्का महादेवी के आराध्य देव कौन थे?

बारहवीं शताब्दी की प्रख्यात कन्नड़ कवियत्री- अक्का महादेवी एक परम शिव भक्त थीं।