ललद्यद ने साहिब से पहचान कैसे करवाया है ? - laladyad ne saahib se pahachaan kaise karavaaya hai ?

जो कश्मीर की शैव-भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी मानी जाती हैं। कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

ललद्यद की काव्य शैली

ललद्यद की काव्य शैली को वाख कहा जाता है। इनकी कविताओं में चिंतन एवं भावनात्मकता का विचित्र संगम है। इन्होंने अपने वाखों के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त धार्मिक आडंबरों का खुल कर विरोध किया है। इनकी काव्य-शैली की भाषा अत्यंत सरल मानी जाती है, जिसके वजह से ललद्यद और भी प्रभावशाली बन जाती हैं। ललघद आधुनिक कश्मीरी भाषा का प्रमुख स्तंभ मानी जाती हैं।

रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव-भावार्थ                    

रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।।

भावार्थ :-  कवयित्री ने इन पंक्तियों में अपने इंतज़ार और प्रयास का वर्णन किया है कि कब उनका मिलन परमात्मा से हो पाएगा। जिस तरह कच्चे घड़े से पानी टपक-टपक कर कम होता जाता है, उसी तरह कवयित्री का जीवन भी कम होता जा रहा है। इसी वजह से वे व्याकुल होती जा रही हैं कि कब ईश्वर उनकी पुकार सुनेंगे और इस संसार-रूपी सागर से उनका बेड़ा पार लगाएंगे। इन पंक्तियों में कवयित्री ने परमात्मा के निकट जाने वाले प्रयासों को कच्चे धागे से खींची जाने वाली नाव के रूप में बताया है। उन्होंने कच्चे धागे शब्द का प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि मनुष्य कुछ समय के लिए ही इस धरती पर रहता है, उसके बाद उसे अपना शरीर त्यागना पड़ता है।

धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा है, पर कवयित्री द्वारा प्रभु-मिलन के लिए किये गए सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं। अब उन्हें ऐसा लग रहा है कि समय खत्म होने वाला है, अर्थात मृत्यु समीप है और अब शायद वो प्रभु से मिल नहीं पाएंगी, इसलिए उनका हृदय तड़प रहा है। वो प्रभु से मिलकर उनके घर जाना चाहती हैं। अर्थात उनकी भक्ति में लीन हो जाना चाहती हैं।

खा खा कर कुछ पाएगा नहीं-भावार्थ 

खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।

भावार्थ :-  अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि अगर हम सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहेंगे, तो कभी भी हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। इसके विपरीत अगर हम सांसारिक मोह-माया को छोड़कर त्याग और तपस्या में लग जाएंगे, तो इससे भी हमें कुछ लाभ नहीं होगा। भोग का पूरी तरह से त्याग करने पर हममें अहंकार आ जाएगा, जिसकी वजह से हमें मुक्ति अर्थात ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। इसी वजह से कवयित्री के अनुसार, दोनों रास्ते ही गलत हैं।

जब हम सांसारिक भोग-लिप्सा में तृप्त रहते हैं, तब तो हम सच्चे ज्ञान से दूर रहते ही हैं, इसके विपरीत जब हम त्याग और तपस्या में लीन हो जाते हैं, तब हमारे अंदर अहंकार रूपी अज्ञान आ जाता है, जिसके द्वारा हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाते। इसीलिए कवयित्री हमें बीच का मार्ग अपनाने के लिए कह रही है। जिससे हमारे अंदर वासना और भोग-लिप्सा भी नहीं होगी और न ही अहंकार हमारे अंदर पनप पाएगा। तभी हमारे अंदर समानता की भावना रह पाएगी। इसके बाद ही हम प्रभु की भक्ति में सच्चे मन से लीन हो सकते हैं।

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह-भावार्थ 


आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?


भावार्थ :- अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री ने मनुष्य द्वारा ईश्वर की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों पर कड़ा प्रहार किया है। यहाँ कवयित्री ये कहना चाहती हैं कि अपने जीवन की शुरुआत में उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए शुरुआत तो की, लेकिन उसके बाद उन्हें यह नहीं समझ आया कि कौनसा मार्ग सही है और कौनसा मार्ग गलत।

 

इसलिए वो राह भटक गईं, अर्थात संसार के आडम्बरों में बहक गईं। यहाँ रास्ता भटकने से मतलब है, समाज में प्रभु-भक्ति के लिए अपनाएं जाने वाले तरीके, जैसे कुंडली फेरना, जागरण करना, जप करना इत्यादि। परन्तु ये सब करने के बाद भी उनका परमात्मा से मिलन नहीं हुआ। इसी लिए वो दुखी हो गई हैं कि जीवनभर इतना सब कुछ करने के बाद भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ और वे खाली हाथ ही रह गईं। उन्हें तो अब ये डर लग रहा है कि जब वे भवसागर रूपी समाज को पार करके ईश्वर के पास जाएँगी, तो परमात्मा को क्या जवाब देंगी।


थल थल में बसता है शिव ही-भावार्थ 

 

थल थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
यही है साहिब से पहचान।।


भावार्थ :- अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री हमें भेद-भाव, हिन्दू-मुस्लिम इत्यादि समाज में व्याप्त बुराइयों का बहिष्कार करने का संदेश दे रही है। उनके अनुसार शिव (ईश्वर) हर जगह बसा हुआ है, चाहे वो जल हो या आकाश या फिर धरती हो या प्राणी यहाँ तक कि हमारे अंदर भी ईश्वर बसा हुआ है। वह किसी व्यक्ति को ऊँच-नीच, भेद-भाव की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि वह हिन्दू-मुसलमान को एक ही नजर से देखता है।

 

उनके अनुसार ईश्वर की प्राप्ति के लिए सबसे पहले हमें आत्म-ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है, क्योंकि इससे ही हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर  स्वयं हमारे अंदर आत्मा रूप में बसे हुए हैं। इसलिए कवयित्री ज्ञानी पुरुषों से कह रही हैं कि अगर तुम ज्ञानी हो

ईश्वर की पहचान का कौन सा मार्ग है?

ईश्वर की पहचान का मार्ग आत्मज्ञान है।

ललद्यद परमात्मा से क्या पुकार कर रही है?

उत्तरः कवयित्री-ललद्यद, कविता-वाख। प्रश्न (ख) कवयित्री किसको और क्यों पुकार रही है? उत्तरः कवयित्री ईश्वर से भवसागर को पार करवाने के लिए पुकार रही है।

ललद्यद के पास भगवान को देखने के लिए क्या नहीं है?

भाव – कवयित्री ने अपना सारा जीवन सांसारिक वासनाओं में फंसकर व्यर्थ गँवा दिया। जीवन के अंतिम समय में जब उन्होंने पीछे देखा तो ईश्वर को देने के लिए उनके पास कोई सद्कर्म ही नहीं थे।

ललद्यद की रचना का नाम क्या है?

ललद्यद की काव्य-शैली को वाख कहा जाता है। जिस तरह हिंदी में कबीर के दोहे, मीरा के पद, तुलसी की चौपाई और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं, उसी तरह ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं।