मीराबाई की भक्ति भावना का विश्लेषण कीजिए - meeraabaee kee bhakti bhaavana ka vishleshan keejie

मीराबाई की भक्ति भावना का विश्लेषण कीजिए - meeraabaee kee bhakti bhaavana ka vishleshan keejie
मीराबाई की भक्ति भावना

  • मीराबाई की भक्ति भावना
    • (क) मीराबाई की कविताओं में भावपक्ष
    • (ख) मीराबाई की कविताओं में कलापक्ष
    • Important Links…

मीराबाई की भक्ति भावना

मीरा का काव्य जहाँ एक तरफ कृष्ण-भक्ति में एकनिष्ठ होकर अपनी मुक्ति का मार्ग खोजने का आख्यान है वहीं दूसरी तरफ एक नारी के शाश्वत दुःखों का गायन भी है। मीरा के काव्य में काव्यशास्त्रों में वर्णित सिद्धान्तों का निदर्शन बहुत कम प्राप्त होता है, क्योंकि इनके काव्य में भाव-प्रवणत्ता प्रधान है और शिल्प द्वितीयक है। ऐसा भी नहीं है कि शिल्प का बिल्कुल अभाव हो, परन्तु कलात्मक तत्त्वों से अधिक भावात्मक तत्त्वों का ध्यान रखने के कारण इनका काव्य शिल्प-प्रधान नहीं है। इनके काव्य का मूल्यांकन करने के लिए इसे दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-

(क) मीराबाई की कविताओं में भावपक्ष

मीराबाई का भाव-संसार विविध आयामी नहीं है। चूँकि इनके सर्वस्व भगवान श्रीकृष्ण थे इसलिए इनके भाव-जगत की संरचना कृष्ण के ही आस-पास निर्मित होती है। मीरा अन्य कृष्ण-भक्त कवियों से इस रूप में भी अलग है कि इनका विरह-भाव अन्य कवियों से भिन्न है और वह व्यक्तिगत स्तर पर है। अन्य कवि विरह-भाव का प्राकट्य गोपियों के माध्यम से करते हैं, जबकि मीरा सीधे तौर पर विरह-वेदना को प्रकट करती है। इसके अतिरिक्त मीरा अन्य स्तरों पर भी अपने पूर्ववर्ती तथा समवर्ती कवियों से भिन्न है-

(1) नारी- दशा का प्रतिनिधित्व- मीरा के काव्य का विश्लेषण करते हुए श्री नन्द चतुर्वेदी लिखते हैं-“मीरा की कविता के सन्दर्भ में यह रेखांकित करना आवश्यक है कि वह अवरुद्ध और अशान्त सामाजिक जीवन के बीच लिखी गयी है। स्वयं कवयित्री के जीवन पर दृष्टि डालें तो वह ऊँची-ऊँची तरंगों पर बने, हितले, जादुई घर की तरह लगता है, यायावर का आवेगपूर्ण जीवन । उनकी अनेक और निरन्तर यात्राएँ तथा अन्य में द्वारका के समुद्र में विलीन हो जाना ‘आत्मानन्द’ की तलाश के सिवा मध्य युग के अँधेरे में ‘बेजुबान’ स्त्री ने अपने जीवन के अर्थ को ढूँढ़ने की आकुल इच्छा भी है।” मीरा का काव्य आश्चर्यजनक रूप से स्त्री जाति द्वारा लिखा गया काव्य बनकर सामने आता है।

(2) सामाजिक विसंगति और संघर्ष- मीरा के युग में, सामान्य से लेकर राजघरानों तक, स्त्री की दशा अत्यन्त दयनीय एवं विचारणीय थी। मीरा के पदों में इस बात के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण-प्रेम में दीवानी होने के कारण उन पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाये गये। नैहर और ससुराल, दोनों को ही बदनाम करने का आरोप भी मीरा पर लगा। वस्तुतः मीरा का ‘भक्त और स्त्री एक साथ होना समाज तथा परिवार को किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं था।

(3) भक्ति-भावना- भक्ति-काव्य का विश्लेषण करने की दृष्टि से मीरा का काव्य माधुर्य-भाव की भक्ति पर आधारित है। इनकी भक्ति-भावना में किसी प्रकार के दार्शनिक वाद और सिद्धान्त का आधार नहीं है, बल्कि सहज भाव से कृष्ण-आराधना के क्रम में जो भी उद्गार प्रकट हुए हैं उन्हें लयात्मकता प्रदान कर दी गयी है। इस भक्ति-भावना को विश्लेषित करते हुए नन्द चतुर्वेदी लिखते हैं-“यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि मीरा की कविताएँ उनके जीवन का स्वर हैं-कृष्ण उस स्वर, उस निवेदन, उस कविता के अन्तरंग श्रोता हैं। कभी भूल न जाये। इसलिए बार-बार वे कहती हैं- ‘भूल मत ज्यो जी महराज । यहाँ कविता और मीरा के व्यक्तिगत जीवन की भेद-रेखा मिट जाती है।”

कहीं-कहीं मीरा के पदों में राम की भक्ति अथवा राम-रूप का दर्शन या राम-नाम का जाप भी मिलता है, लेकिन ‘राम’ का आशय भी मीरा के काव्य में कृष्ण के ही रूप में है। यहाँ ‘राम’ कृष्ण का ही प्रतिबिम्ब हैं- लागी मोहि राम-खुमारी हो’, ‘मेरो मन राम-ही-राम रटै’, ‘राम-नाम-रस पीजै’, ‘मैंने राम रतन धन पायो’, मेरे प्रियतम प्यारे राम कूँ लिख भेजूँ रे पाती। इन पदों में प्रकारान्तर से मीरा ने कृष्ण के प्रति ही भक्ति निवेदित की है।

(4) विरह-भाव का वर्णन- मीराबाई के काव्य में जो भी विरह-निरूपण प्राप्त होता है वह किसी अन्य के लिए नहीं है, बल्कि स्वयं अपने लिए ही है। जैसा कि ऊपर भी उल्लेख किया जा चुका है कि मीरा अन्य कृष्ण-भक्त कवियों से इस अर्थ में भिन्न है कि इनका विरह-भाव व्यक्तिगत इनके स्तर पर है। वस्तुतः साकार – भाव की भक्ति होने के कारण सगुण-उपासक कवि अपने आराध्य से विरह-भाव का अनुभव करते हैं। मीराबाई भी अपने गिरिधर गोपाल से निकटता चाहती हैं, उनके दर्शन चाहती हैं। इसलिए तो वे कहती हैं-

दरस बिन दूखण लागे नैन ।

जब से तुम बिछुड़े मेरे प्रभु जी, कबहुँ न पायो चैन।।

(5) सम्पूर्ण आत्म-समर्पण की कविता- मीराबाई का काव्य सम्पूर्ण समर्पण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इन्होंने अपना सर्वस्व अपने अन्यतम अवलम्बन भी कृष्ण को समर्पित कर दिया और स्वयं उनकी चेरी बनकर उनके चरणों की वन्दना में रत थीं-

हरि बिन कूण गती मेरी ।

तुम मेरे प्रतिफल कहिए, मैं रावरी चेरी ।

(6) प्रकृति-वर्णन – मीरा के काव्य में स्थान-स्थान प्रकृति के विभिन्न उपादानों का वर्णन किया है। यद्यपि कि प्रकृति के विभिन्न रूपों का वर्णन काव्य के अन्तर्गत प्राप्तः होता रहा है। मीरा ने अधिकांश वर्णन आलम्बन रूप में ही किया है। जैसे-

मेहा! बरसबो कर रे ।

आज तो रमइयो म्हारै घर रे ।

नान्ही- नान्ही बूंदन मेहा बरसै, सूखे में बारिश ।

या बदला रे तू जल भरि ले आयो ।

छोटी-छोटी बूंदन बरसन लागीं, कोयल सबद सुनायो।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मीरा का भावपक्ष अत्यन्त केन्द्रित और सघन है। इनकी भक्ति और इनका समर्पण अद्वितीय है इनकी जैसी भावुकता अन्यत्र दुर्लभ है।

(ख) मीराबाई की कविताओं में कलापक्ष

मीराबाई के कलापक्ष पर विचार करते हुए नन्द चतुर्वेदी लिखते हैं-“यह सुनिश्चित है कि मीरा की कविता का प्रयोजन किसी भी प्रकार की शिल्पगत चतुराइयों के लिए नहीं था न यश के लिए, न अर्थ के लिए, न व्यवहारविद बनने के लिए। वे किसी भी तरह उन कवियों की श्रेणी में नहीं थीं जिन्हें कविताई का शास्त्रीय ज्ञान हो। मीरा की कविता आत्मनिवेदन की सहज स्फूर्त अभिव्यंजना है।” इस प्रकार कहा जा सकता है कि मीरा के काव्य में विभिन्न शिल्पगत विशेषताएँ प्रयासपूर्वक नहीं आयी हैं, बल्कि भाव प्रकटन के क्रम में स्वतः सहज रूप से उपस्थित हुई है। शिल्पगत विशेषताओं के कुछ विश्लेषण निम्नवत् हैं

(1) रस- विधान- रस की दृष्टि से मीरा के काव्य का अवलोकन करने पर श्रृंगार, शांत तथा भक्ति रस का निदर्शन प्राप्त होता है। यद्यपि कि इनके श्रृंगार रस का स्वरूप पूर्णतः विरह-पक्ष पर ही आधारित है, फिर भी उसका आवेग अन्य रीतिकालीन या भक्तिकालीन कवियों से भिन्न है। इनका वियोग जीव और ब्रह्म का शाश्वत वियोग है, इनका वियोग भक्त और भगवान के साक्षात्कार की प्रतीक्षा पर आधारित है। मीरा अपने आराध्य से उलाहना देती हैं कि-

प्रभु जी! थें कहाँ गया नेहड़ो लगाय ।

छोड़ गया अब कौन बिसासी प्रेम की बाती बलाय ।

बिरह समन्द में छोड़ गया छो, नेह की नाव चलाय ।

(2) छंद-योजना- मीराबाई के काव्य में छन्द-वैविध्य नहीं प्राप्त होता । वे अन्य भक्त कवियों की भाँति विभिन्न प्रकार के छन्दों, जैसे-सवैया, घनाक्षरी, दोहा, चौपाई आदि का प्रयोग नहीं करती। ऐसा प्रतीत होता है जिस प्रकार इनकी भक्ति एकनिष्ठ थी, उसी प्रकार इनकी छन्द-योजना भी एकनिष्ठ थी। एक आराध्य को एक ही शैली में रिझाने की कोशिश मीरा के यहाँ स्पष्ट है। डॉ० सी०एल० प्रभात का मानना है कि अन्य भक्त-कवियों की भाँति मीरा ने भी ‘गेय-पदों में ही अपनी भावाभिव्यक्ति की है।

मीरा की संगीत-शिक्षा के बारे में अधिक जानकारी नहीं प्राप्त होती, लेकिन इतना अवश्य है कि जिस प्रकार इनके पदों में रागों की सृष्टियाँ अन्तर्निहित है उससे ज्ञात होता है कि इन्हें संगीत का अच्छा ज्ञान था। विद्वानों ने बताया है कि इनके सम्पूर्ण पदों को संगीत-आधारित 27 रागों में गाया जा सकता है। इनकी कृतियाँ राग सोरठ के पद’, ‘मलार राग’ रागों पर आधारित पदों का संग्रह की हुई है। राग ‘कल्याण’ और राग ‘मारू’ में भी कई पद हैं।

(3) अलंकार- सृष्टि- जैसा कि ऊपर उद्धृत किया जा चुका है इनके काव्य में शिल्पगत तत्त्व सहजतापूर्वक स्वतः ही उद्भूत हुए हैं। कवि ने प्रयासपूर्वक अलंकारों आदि का प्रक्षेपण-आरोपण नहीं किया है। चूँकि अलंकारों की व्याप्ति इतनी अधिक है कि सामान्य बोलचाल में भी व्यक्ति अलंकारों के प्रयोग से बच नहीं सकता।

कुछ अलंकार दृष्टव्य हैं-

(क) उत्प्रेक्षा अलंकार

अंग खीण, व्याकुल भया, मुख पिव-पिव वाणी हो ।

ज्यूँ चातक धन कूँ रटै, मछरी ज्यूँ पाणी हो ।।

(ख) रूपक अलंकार

तन-मन बाऱ्या हरि चरणों में दरसण अमृत पास्याँ री।

(ग) काव्यलिंग अलंकार

भज मन चरण कमल अबिनाशी ।

जेताई दीखे धरणि गगनबिच तेता सब उठ जासी ।

(घ) अनुप्रास अलंकार

कुटिल, भृकुटि, तिलक भाल, चितवन में टोना ।

खंजन अरु मधुप मीन, भूले मृग छौना ।।

(4) भाषा-शैली- नन्द चतुर्वेदी लिखते हैं- “कवयित्री मीरा किसी भाषा, कुल, गोत्र, जाति, स्थान की नहीं होतीं। स्थानीय भाषाओं के माधुर्य को ग्रहण करती वे गिरधर नागर की अनेक छवियों का, उनकी प्रतीक्षा में विरह विदग्ध घड़ियों का वर्णन करती हैं।” इस प्रकार मीराबाई एक सहज भाषा का प्रयोग करती हैं। इनकी भाषा हिन्दी का राजस्थानी रूप है। ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग तथा अन्य क्रियापदों में राजस्थानी रूप देखा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि इनकी भाषा सधुक्कड़ी है। इनकी शैली मुक्तक-शैली है। इन्होंने किसी प्रबन्ध-काव्य की रचना नहीं की, बल्कि फुटकर पदों की ही रचनाएँ की हैं। कृष्ण से संवाद के क्रम में संवाद- शैली का प्रयोग स्पष्टतः देखा जा सकता है, जैसे-

हेरी! मैं तो दरद-दिवानी, मेरो दरद न जाने कोय ।

राणा जी! हूँ अब न रहूँगी तेरी हटकी ।

मन रे ! परस हरि के चरण । चलो मन !

गंगा-जमुना तीर । मन रे! काहे न धीर धरे ।

इस प्रकार के सम्बोधन युक्त सैकड़ों उदाहरण मीरा के काव्य में उपस्थित हैं । अन्ततः हम कह सकते हैं कि- “इस प्रकार हम देखते.. सम्बल है ।

Important Links…

  • तुलसीदास की समन्वय भावना
  • तुलसी भारतीय संस्कृति के उन्नायक कवि हैं।
  • तुलसीदास की भक्ति-भावना
  • तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ
  • जायसी का रहस्य भावना
  • जायसी का विरह वर्णन
  • मलिक मुहम्मद जायसी का प्रेम तत्त्व
  • मलिक मुहम्मद जायसी का काव्य-शिल्प
  • कबीर एक समाज सुधारक ( kabir ek samaj sudharak in hindi)
  • सगुण भक्ति काव्य धारा की विशेषताएं | सगुण भक्ति काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
  • सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां/विशेषताएं
  • आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/आदिकाल की विशेषताएं
  • राम काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ
  • सूफ़ी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguiderdoes not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us:

मीरा की भक्ति भावना क्या है?

Solution : मीरा भगवान कृष्ण की भक्त थीं। वे कृष्ण को अपना प्रियतम, पति और रक्षक मानती थीं। इन पदों में उन्होंने उनके दो रूपों-रक्षक रूप तथा रसिक रूप की आराधना करते हुए प्रभु से अपनी रक्षा करने की गुहार की है। वे स्वयं को उनकी दासी बताते हुए कहती हैं-.

मीरा बाई के अनुसार भक्ति भावना की विशेषता क्या है?

मीराँ ने अपने प्रभु को सदा इसी रूप में स्मरण , आराधना किया है। अत : मीराँ की भक्ति मार्य भाव की भक्ति कहलाती है। वस्तुत : मीराँ ने अपने गिरधर गोपाल की आराधना पति रूप में की है। उनकी भक्ति मधुरा भक्ति होने से भक्त ईश्वर को अपने पति के सर्वस्व रूप में देखता है व इसी रूप में प्रभु का स्मरण व आराधना करता है।

मीरा की भक्ति भावना में प्रमुखत कौन सा तत्व प्रधान है?

मीरा की भक्ति-भावना माधुर्य भाव की रही है। आध्यात्मिक दृष्टि से वो कृष्ण को अपना पति मानती है। मीरा अपने कृष्ण प्रेम की दीवानी हैं। उन्होंने अपनी इस प्रेम बेलि की आंसुओं के जल से सिंचाई की है।

कबीर और मीरा की भक्ति की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?

इन सब से दूर होकर भक्ति की भावना में लीन होने के लिए कबीरदास जी कहते हैंl मीरा का काव्य जहाँ एक तरफ कृष्ण-भक्ति में एकनिष्ठ होकर अपनी मुक्ति का मार्ग खोजने का आख्यान है वहीं दूसरी तरफ एक नारी के शाश्वत दुःखों का गायन भी है।