Show मैथिलीशरण गुप्त अट्ठारह सौ सत्तावन (१८५७) से पहले की बात है। गोरी हुकूमत और छोटे रजवाड़ों के जुल्म चरम पर थे। मध्य भारत का चंबल इलाका भी इसका शिकार था। कारोबार करना जोखिम भरा था डाकुओं और ठगो की तरह पिंडारी भी लुटेरे थे। गांव गांव में इन पंडारियों का आतंक था। अमीर और संपन्न घराने पिंडारीयों के निशाने पर रहते थे। ग्वालियर के पास भाड़े रियासत का धनवान कनकने परिवार इन पिंडलियों से दुखी होकर झांसी के पास चिरगांव जा बसा। झांसी रियासत हमेशा प्रजाति की हिफाजत को सर्वोच्च प्राथमिकता देती थी। कनकने परिवार के मुखिया सेठ राम चरण दास ने सुरक्षित होकर कारोबार किया और बेशुमार दौलत कमाई उनके पास अनेक रथ, घोड़ा, गाड़ियां और वगिया थी सैकड़ों नौकर चाकर थे कोठीया थी। लाड प्यार में पलकर बड़े हुए मैथिलीशरण का मन खेलने कूदने में बहुत लगता था पढ़ाई लिखाई में ज्यादा होशियार नहीं थे लेकिन पिताजी ने घर पर एक पंडित जी को भी लगा दिया। वो चाहते थे बेटा डिप्टी कलेक्टर बनें लेकिन नियति ने रास्ता कुछ और ही तय कर दिया था। तीसरे दर्जे तक मदरसे में तालीम के बाद पिताजी ने झांसी के मैकडॉनल्ड हाई स्कूल में दाखिला करा दिया। झांसी में जब यह स्कूल बनाया गया था तब उसमें सेठ राम चरण कनकने ने सबसे ज्यादा तीन हजार रुपए दान दिए थे उस जमाने के तीन हजार माने आज के करीब एक करोड़ रुपए। झांसी में भी मैथिलीशरण का मन पढ़ाई में नहीं लगा। दिन दिन भर चकरी चलाते और पतंग उड़ाने का तो जैसा जुनून था। जब भी कोई बारात या दूसरे गांव किसी जलसे में जाते तो पतंग उड़ाने वाले दोस्त भी ले जाते। दरअसल अंग्रेजी दर्जे की पढ़ाई से मैथिलीशरण चिढ़ने लगें थे। मैथिलीशरण की नियति इम्तिहान ले रही थी पत्नी और बच्चों की यादों से निकले ही ना थे कि पिताजी हमेशा के लिए छोड़ गए। बड़ा झटका पति के जाने से मां को लगा और अगले साल वह भी चल बसी। घर के व्यापार में लाखों का घाटा हुआ। जवान हो रहे मैथिलीशरण टूट गए। परेशान रिश्तेदारों ने 1904 में दूसरी शादी करा दी। यह विवाह भी केवल 10 साल चला और दूसरी पत्नी भी चल बसी। मैथिलीशरण उन दिनों बस 28 साल के थे। कम उम्र में ही वो माता पिता से पिछोर, दो पत्नियों का गम और कारोबार में लाखों का घाटा देख चुके थे। जाति जिंदगी का खालीपन जवान मैथिलीशरण ने शब्दों से बांट लिया। उन्होंने कविता, दोहा, चौपाई, छप्पाय आदि लिखने शुरू कर दिए। वो ये कविताएं रसिकेंद्र उपनाम से लिखा करते और अलग-अलग पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजा करते थे। 1904 और 1905 के बीच उनकी रचनाएं कोलकाता की वैश्योपकारक, बंबई की वेंकटेश्वर और कन्नौज की मोहिनी पत्रिका में प्रकाशित होती रही। उन्हीं दिनों हिंदी के पूर्वथा पं महावीर प्रसाद द्विवेदी झांसी रेलवे में काम करते थे और वही से सरस्वती पत्रिका का संपादन करते थे। सरस्वती इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी और उस दौर की हिंदी में सबसे अच्छी पत्रिका थी। सरस्वती में छपना किसी भी लेखक के लिए सम्मान की बात थी। एक दिन मैथिलीशरण हिम्मत कर महावीर प्रसाद जी से मिलने गए। कौन जानता था की यह मुलाकात जिंदगी बदल देंगी। दोनों के बीच दिलचस्पी संवाद हुआ जो इस प्रकार था। मैथिलीशरण:- मेरा नाम मैथिलीशरण है मैं कविता लिखता हूं और मैं चाहता हूं कि मेरी कविता सरस्वती में प्रकाशित हो द्विवेदी जी:- बहुत से लोग चाहते हैं कि उनकी रचनाएं सरस्वती में छपे। लेकिन सबको मौका नहीं मिलता... और फिर आप तो ब्रज भाषा में लिखते हैं। सरस्वती खड़ी बोली की पत्रिका है। मैं भला कैसे छाप सकता हूं? मैथिलीशरण:- अगर आप मुझे आश्वासन दे तो मैं खड़ी बोली में भी कविता लिख सकता हूं द्विवेदी जी:- ठीक है तो पहले आप हमें कोई कविता भेजिए तो सही। अगर छपने लायक होगी तो हम जरुर प्रकाशित करेंगे। मैथिलीशरण:- मैं अपनी कविताएं रसिकेंद्र के नाम से भेजूंगा द्विवेदी जी:- अब आप रसिकेंद्र बनने की इच्छा छोड़िए... वो जमाना चला गया। उनके आदेश का पालन हुआ और रसिकेंद्र बन गए मैथिलीशरण गुप्त इसके बाद मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली में हेमंत शीर्षक से कविता लिखी और सरस्वती में भेजी। द्विवेदी जी ने कुछ संशोधन करके उसे प्रकाशित किया। गुरु ने कविता लिखने के लिए कुछ टिप्स दिए। गुप्त जी की कविताएं अब लगातार सरस्वती में छप रही थी। मैथिलीशरण गुप्त ने जब हिंदी की सेवा की उन दिनों ब्रज बोली का वर्चस्व था। महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी के लिए देशभर में बड़ा आंदोलन चला रहे थे। आचार्य, नौजवान मैथिलीशरण गुप्त के साहित्यिक गुरु बन गए। देखते ही देखते वे अपनी हिंदी की सेवा के कारण देश के ददा के रूप में लोकप्रिय हो गए 12 वर्ष तक भारत की संसद में उनकी कविताएं सांसदों को मंत्र मुक्त करती रही। 1905 से 1921 तक मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं लगातार सरस्वती के पन्नों में जगह पाती रही। उनकी पहली कविता हेमंत से लेकर जयद्रथ वध, भारत भारती, साकेत जैसी अनेक मशहूर रचनाएं किताब की शक्ल लेने से पहले सरस्वती में छप चुकी थी। साकेत की प्रस्तावना में मैथिलीशरण ने सरस्वती और महावीर प्रसाद द्विवेदी से अपने रिश्ते के बारे में लिखा। करते तुलसीदास भी कैसे मानस का नाद? सरस्वती एक सचित्र मासिक थी और उसमें रंगीन चित्र की छपते थे। मैथिलीशरण की अनेक रचनाएं इन चित्रों के भाव को उजागर करती थी। 16 साल के दौरान उन्होंने करीब 300 कविताएं सरस्वती मे लिखी। इसी बीच 1921 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संपादक पद से इस्तीफा दे दिया और इधर मैथिलीशरण ने भी गोरी सरकार हुकूमत के खिलाफ खुलकर लिखना शुरु कर दिया। 1910 में आई रंग में भंग ने लोगों को जोश से भर दिया आज की चित्तौड़ का सुन नाम कुछ जादू भरा चमक जाती चंचला-सी चित में करके त्वरा रंग में भंग के बाद आई जयद्रथ-वध। 1905 में बंगाल विभाजन का गुस्सा जयद्रथ वध के जरिए निकला वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो, जयद्रथ वध के बाद मैथिलीशरण गुप्त लोकप्रियता के शिखर पर थे लेकिन 1914 में भारत भारती ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहली जमात में बैठा दिया। भारत भारती गुप्त जी ने 1912 में ही पूरी कर ली थी लेकिन वो प्रकाशित हुई थी 1914 में। इस कविता में वो हिंदुस्तान के कठिन हालात के प्रति लोगों को कुछ इस तरह सावधान करते हैं। हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी भारत भारती की लोकप्रियता का आलम ये था कि सारी प्रतियां देखते ही देखते समाप्त हो गई और 2 महीने के भीतर दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। भारत भारती साहित्य जगत में आज भी सांस्कृतिक नवजागरण का ऐतिहासिक दस्तावेज है। गुप्त जी ने अतीत वर्तमान और भविष्य तीनों की बात कही है मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरतीं- हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा, संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा, राष्ट्रीय आंदोलनों, शिक्षा संस्थानों और प्रातः कालीन प्रार्थनाओं में भारत भारती गाई जाती थी। गांव गांव में अनपढ़ लोग भी सुन सुनकर याद कर चुके थे। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के बाद जब नागपुर में झंडा सत्याग्रह हुआ तो सभी सत्याग्रही जुलूस में भारत भारती के गीत गाते हुए सत्याग्रह करते। गोरी सरकार ने भारत भारती पर पाबंदी लगा दी। सारी प्रतियां जब कर ली गई। जिस समय भारत भारती को हिंदुस्तान का बच्चा बच्चा गुनगुना रहा था उन्हीं दिनों गुप्त जी की जाति जिंदगी में तूफान आया दूसरी पत्नी भी चलबसी। गुप्त जी सदमे में थे। दो पत्नियां जिंदगी से जा चुकी थी कोई बच्चा भी नहीं था और माता-पिता तो पहले ही विदा ले चुके थे। मन उचाट था और शुभचिंतकों ने एक बार फिर मनाया और 1917 में सरजू देवी के साथ तीसरा विवाह हुआ। इस शादी से भी कई संताने हुई परंतु वो जिंदा नहीं रही। ढलती उम्र में एक बेटा हुआ नाम रखा गया उर्मिलशरण। इसी बीच प्रेस और साहित्य सदन के नाम से चिरगांव में प्रिंटिंग प्रेस और प्रकाशन के कारोबार में उतर आए। 1914 में शकुंतला और इसके 2 साल बाद किसान नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुए। किसान में भारतीय किसानों की दुर्दशा और उनकी परेशानियों का चित्रण अद्भुत है हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है गुप्त जी की रचनाएं सरस्वती के अलावा इंदु, प्रताप और प्रभा जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में छप रही थी। लोग उनकी एक एक कविता के दीवाने थे। इसी बीच उन्होंने एक प्रयोग और किया अहिंदीभाषी साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद करने लगे ये अनुवाद उन्होंने मधुप के नाम से किया। इसी दौरान उन्होंने तीन नाटक तिलोत्तमा, चंद्रहार, अनघ लिखे यह नाटक बहुत पसंद किए गए। 1925 में मैथिलीशरण गुप्त ने अपने ऐतिहासिक खंडकाव्य पंचवटी की रचना की। इसमें उन्होंने राम-सीता और लक्ष्मण के 14 साल की बनवास के दौरान पंचवटी दिनों का सजीव चित्रण किया। खास तौर पर लक्ष्मण के किरदार पर गुप्तजी ने जैसी कलम चलाई हिंदी साहित्य में वैसा काम किसी और ने नहीं किया। इतना ही नहीं पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त की वो रचना है जिसमें उन्होंने कुदरत के अनमोल खजाने को खोला है। चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में, पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना, है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर, पंचवटी के बाद 1927 में हिंदू, सौरन्ध्री, वकसंहार, धन-वैभव और शक्ति। 1929 झंकार कविता के जरिए सारे देश में देशभक्ति की लहर दौड़ गई। 1931 में मैथिलीशरण गुप्त का एक और खंडकाव्य साकेत पाठकों के सामने आया। साकेत में उन्हें अठारह साल लगे थे। जब साकेत प्रकाशित हुई तो हिंदुस्तान के साहित्य जगत में जैसे धमाका हो गया। विद्वानों ने इसे महाकाव्य माना। दरअसल इसका नाम साकेत इस लिए रखा गया क्योंकि इसमें अधिकतर अयोध्या की घटनाओं के प्रसंग है। गुप्तजी ने राम और सीता की जगह लक्ष्मण और उर्मिला को इस महाकाव्य में नायक और नायिका की तरह पेश किया है। मैं राज्य भोगने नहीं, भुगाने आया। साकेत में वह सिर्फ पुरुष का गुणगान ही नहीं करते थे बल्कि गांधीवादी विचारों और आंदोलनों से प्रेरित होकर सीता के हाथों में चरखा, तकली देकर शारीरिक श्रम और स्वावलंबन का पाठ पढ़ाते हैं। औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ, 1932 गुप्त जी की एक और शानदार प्रसूति यशोधरा स्त्री संवेदना की बारीक और मार्मिक अभिव्यक्ति। गौतम बुद्ध के गृह त्याग और उनकी पत्नी यशोधरा की पीड़ा को ध्यान में रख कर लिखी हुई इस रचना में वो सिद्धार्थ यामी गौतम बुद्ध के रात में अपने महल से चुपचाप चले जाने पर यशोधरा के मन की हालत बयान करते हैं। यशोधरा का सवाल है। सखि, वे मुझसे कहकर जाते, मुझको बहुत उन्होंने माना स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, और इसी रचना में उन्होंने महिलाओं की वेदना की अमर अभिव्यक्ति की है। 85-90 साल बाद भी यह पंक्तियां प्रासंगिक है। अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी 1933 में उन्होंने द्वापर और सिद्धराज जैसे पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य संग्रह लिखें। वे अब तक कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध पत्र, आत्मकथा अंश, महाकाव्य की लगभग 10000 पंक्तियां लिख चुके थे। इसी बीच जिंदगी के 50 साल पूरे हुए। देशभर के साहित्य प्रेमियों ने बनारस से लेकर चिरगांव तक मैथिलीशरण गुप्त की 50 वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई। इस अवसर पर राष्ट्रपिता महात्मा ने मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रीय कवि की उपाधि से सम्मानित किया। इसके बाद से मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि हो गए। 50 वीं वर्षगांठ का जश्न समाप्त नहीं हुआ था की 1937 एक ओर कामयाबी लेकर आया। साकेत के लिए मैथिलीशरण गुप्त को हिंदी के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उसके बाद 1936 में द्वापर, 1940 में नहुष, 1941 में कुणाल गीत, 1942 में विश्व वेदना, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, 1952 में जब भारत और युद्ध, 1956 में राजा प्रजा, 1957 में विष्णुप्रिया प्रकाशित हुई मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रीय कवि क्यों कहा जाता है?गुप्त राष्ट्रकवि केवल इसलिए नहीं हुए कि देश की आजादी के पहले राष्ट्रीयता की भावना से लिखते रहे। वह देश के कवि बने क्योंकि वह हमारी चेतना, हमारी बातचीत, हमारे आंदोलनों की भाषा बन गए। व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण उन्हें 1941 में जेल जाना पड़ा. तब तक वह हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित कवि बन चुके थे।
भारत का प्रथम राष्ट्रकवि कौन है?राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे।
मैथिलीशरण गुप्त क्या आधुनिक भारत के प्रथम राष्ट्रकवि है?राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६–१२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से जाना जाता है। बोधित किया जाता था।
हिंदी में राष्ट्र कवि कौन है?हिंदी में दो राष्ट्रकवि माने गए हैं- एक मैथिलीशरण गुप्त, और दूसरे रामधारी सिंह 'दिनकर।
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