नाच कविता का उद्देश्य क्या है - naach kavita ka uddeshy kya hai

नाच

एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।

जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ

वह दो खंभों के बीच है।

रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ

वह एक खंभे से दूसरे खंभे तक का नाच है।

दो खंभों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ

उस पर तीखी रोशनी पड़ती है

जिसमें लोग मेरा नाच देखते हैं।

मुझे देखते हैं जो नाचता है

रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ

खंभों को जिस पर रस्सी तनी है

रोशनी को ही जिसमें नाच दीखता है :

लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।

पर मैं जो नाचता हूँ

जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ

जो जिन खंभों के बीच है

जिस पर जो रोशनी पड़ती है

उस रोशनी में उन खंभों के बीच उस रस्सी पर

असल में मैं नाचता नहीं हूँ

मैं केवल उस खंभे के इस खंभे तक दौड़ता हूँ

कि इस या उस खंभे से रस्सी खोल दूँ

कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाए—

पर तनाव ढीलता नहीं

और मैं इस खंभे से उस खंभे तक दौड़ता हूँ

पर तनाव वैसा बना ही रहता है

सब कुछ वैसा ही बना रहता है

और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं

मुझे नहीं

रस्सी को नहीं

खंभे नहीं

रोशनी नहीं

तनाव भी नहीं

देखते हैं—नाच!

स्रोत :

  • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 160)
  • संपादक : अशोक वाजपेयी
  • रचनाकार : अज्ञेय
  • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
  • संस्करण : 1997

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एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है:
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
     पर मैं जो नाचता
     जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
     जो जिन खम्भों के बीच है
     जिस पर जो रोशनी पड़ती है
     उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
     असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये -
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
     और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
     मुझे नहीं
     रस्सी को नहीं
     खम्भे नहीं
     रोशनी नहीं
     तनाव भी नहीं
     देखते हैं - नाच !

मार्च, 1976

नाच कविता में लोग क्या देखते है?

वह दो खंभों के बीच है। वह एक खंभे से दूसरे खंभे तक का नाच है। जिसमें लोग मेरा नाच देखते हैं। लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।

नाच कविता के कवि कौन है * *?

नाच | अज्ञेय - कविता - पोषम पा

नाच यह रचना किसकी है?

नाच ( Naach ) : अज्ञेय