निम्नलिखित में से कौन सी विशेषता प्रशासनिक हिन्दी की नहीं है? - nimnalikhit mein se kaun see visheshata prashaasanik hindee kee nahin hai?

भारतीय संविधान के अनुसार अंग्रेज़ी भाषा की क्या स्थिति है?

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CTET Paper 2 Maths & Science 3rd Jan 2022 (English-Hindi)

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  1. संपर्क सूत्र भाषा
  2. प्रशासनिक भाषा
  3. सहयोगी-प्रशासनिक भाषा
  4. अकादमिक भाषा

Answer (Detailed Solution Below)

Option 3 : सहयोगी-प्रशासनिक भाषा

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10 Questions 10 Marks 10 Mins

राजभाषा- वह भाषा जो एक पूरे राष्ट्र अथवा देश की धोषित भाषा है; तथा यह सरकारी औपचारिक राजकाज की भाषा होती है। 

निम्नलिखित में से कौन सी विशेषता प्रशासनिक हिन्दी की नहीं है? - nimnalikhit mein se kaun see visheshata prashaasanik hindee kee nahin hai?
Key Points 

  • राजभाषा के प्रयोग का क्षेत्र 'विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका' सभी हैं।  
  • किसी राज्य या देश की घोषित भाषा होती है जो कि सभी राजकीय प्रयोजनों में प्रयोग होती है।
  • उदाहरणतः भारत की राजभाषा हिन्दी है।
  • भारतीय संविधान में हिंदी को कार्यालयी भाषा का स्थान दिया गया है, जबकि अंग्रेज़ी को भारत संघ की सह कार्यालयी भाषा के रूप में स्थान प्राप्त है।

अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान के अनुसार अंग्रेज़ी भाषा सहयोगी-प्रशासनिक भाषा है।

Last updated on Oct 25, 2022

Detailed Notification for  CTET (Central Teacher Eligibility Test) December 2022 cycle released. The last date to apply is 24th November 2022. The CTET exam will be held between December 2022 and January 2023. The written exam will consist of Paper 1 (for Teachers of class 1-5) and Paper 2 (for Teachers of classes 6-8). Check out the CTET Selection Process here. Candidates willing to apply for Government Teaching Jobs must appear for this examination.

निम्नलिखित में से कौन सी विशेषता प्रशासनिक हिन्दी की नहीं है? - nimnalikhit mein se kaun see visheshata prashaasanik hindee kee nahin hai?

निम्नलिखित में से कौन सी विशेषता प्रशासनिक हिन्दी की नहीं है? - nimnalikhit mein se kaun see visheshata prashaasanik hindee kee nahin hai?

भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं।

भाषा, मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वर एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे से प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है जैसे - बोली, जबान, वाणी विशेष।

सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यन्तर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यन्तर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।

इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रान्तीय भेदों, उपभाषाओं अथवा बोलियों को रखा है। जैसे हिंदी भाषा(हिन्दी) भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखण्डी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास-पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है।

संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।

प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।

परिभाषा[संपादित करें]

भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है। इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  • (1) 'भाषा' शब्द संस्कृत के 'भाष्' धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाए।
  • (2) प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि विचार और भाषा में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है और वही शब्द जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।
  • (3) स्वीट के अनुसार ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।
  • (4) वेन्द्रीय कहते हैं कि भाषा एक तरह का चिह्न है। चिह्न से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों के समक्ष प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।
  • (5) ब्लाक तथा ट्रेगर- भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह सहयोग करता है।
  • (6) स्त्रुत्वा – भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं समृपर्क करते हैं।
  • (7) इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका - भाषा को यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तन्त्र है जिसके द्वारा मानव प्राणि एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में एक सामाजिक समूह के सदस्य संपर्क एवं सम्प्रेषण करते हैं।
  • (8) ए. एच. गार्डिबर का मन्तव्य है-"The common definition of speech is the use of articulate sound symbols for the expression of thought." अर्थात् विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जिन व्यक्त एवं स्पष्ट भ्वनि-संकेतों का व्यवहार किया जाता है, उनके समूह को भाषा कहते हैं।
  • (9) ‘‘भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परम्परा विचारों का आदान-प्रदान करता है।’’[1] स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है-
(1) भाषा एक पद्धति है, अर्थात् एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं।(2) भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं।(3) भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अन्तर्गत आते हैं।(4) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है - ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।

हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक ‘प्रतीक-स्थिति' है। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति-एक वह जो संबोधित करता है, दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी संकेतित वस्तु और चौथी-प्रतीकात्मक संवाहक जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है।

विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी उच्चारण-प्रक्रिया, शब्द-भण्डार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं।भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है। सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। यह संकेत स्पष्ट होना चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है; किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है। रेलगाड़ी का गार्ड हरी झण्डी दिखाकर यह भाव व्यक्त करता है कि गाड़ी अब खुलनेवाली है; किन्तु भाषा में इस प्रकार के संकेत का महत्त्व नहीं है। सभी संकेतों को सभी लोग ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते और न इनसे विचार ही सही-सही व्यक्त हो पाते हैं। सारांश यह है कि भाषा को सार्थक और स्पष्ट होना चाहिए।

बोली, विभाषा, भाषा और राजभाषा[संपादित करें]

यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें प्रमुख अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है। वैयक्तिक विविधता के चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं-

(1) बोली,

(2) विभाषा, और

(3) भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा)

बोली और भाषा में अन्तर होता है। यह भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल अर्थात सीमित क्षेत्र से होता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोलचाल के माध्यम की रहती है और देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की भाषा है, इसका रूप (लहजा) कुछ-कुछ दूरी पर बदलते पाया जाता है तथा लिपिबद्ध न होने के कारण इसमें साहित्यिक रचनाओं का अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें विसंगतियाँ पायी जाती है।

विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर कई बोलियाँ प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएँ मिल सकती हैं।

भाषा, या परिनिष्ठित भाषा अथवा आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है।

प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है।

राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा[संपादित करें]

किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अन्तर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोलीऔर समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है।

भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त 22 अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राज्यभाषा घोषित कर सकती हैं।

राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्रायः वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्रायः राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है।

भाषा के विभिन्न रूप[संपादित करें]

जीवन के विभिन्न व्यवहारों के अनुरूप भाषिक प्रयोजनों की तलाश हमारे दौर की अपरिहार्यता है। इसका कारण यह है कि भाषाओं को सम्प्रेषणपरक प्रकार्य (फ़ंक्शन) कई स्तरों पर और कई सन्दर्भों में पूरी तरह प्रयुक्ति सापेक्ष होता गया है। प्रयुक्ति और प्रयोजन से रहित भाषा, अब भाषा ही नहीं रह गई है। भाषा की पहचान केवल यही नहीं कि उसमें कविताओं और कहानियों का सृजन कितनी सप्राणता के साथ हुआ है, बल्कि भाषा की व्यापकतर सम्प्रेषणीयता का एक अनिवार्य प्रतिफल यह भी है कि उसमें सामाजिक सन्दर्भों और नये प्रयोजनों को साकार करने की कितनी सम्भावना है। इधर संसार भर की भाषाओं में यह प्रयोजनीयता धीरे-धीरे विकसित हुई है और रोजी-रोटी का माध्यम बनने की विशिष्टताओं के साथ भाषा का नया आयाम सामने आया है : वर्गाभाषा, तकनीकी भाषा, साहित्यिक भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा, बोलचाल की भाषा, मानक भाषा आदि।

बोलचाल की भाषा[संपादित करें]

‘बोलचाल की भाषा’ को समझने के लिए ‘बोली’ (Dialect , डायलेक्ट‌ ) को समझना आवश्यक है। ‘बोली’ उन सभी लोगों की बोलचाल की भाषा का वह मिश्रित रूप है जिनकी भाषा में पारस्परिक भेद को अनुभव नहीं किया जाता है। विश्व में जब किसी जन-समूह का महत्त्व किसी भी कारण से बढ़ जाता है तो उसकी बोलचाल की बोली ‘भाषा’ कही जाने लगती है, अन्यथा वह ‘बोली’ ही रहती है। स्पष्ट है कि ‘भाषा’ की अपेक्षा ‘बोली’ का क्षेत्र, उसके बोलने वालों की संख्या और उसका महत्त्व कम होता है। एक भाषा की कई बोलियाँ होती हैं क्योंकि भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है।जब कई व्यक्ति-बोलियों में पारस्परिक सम्पर्क होता है, तब बालेचाल की भाषा का प्रसार होता है, आपस में मिलती-जुलती बोली या उपभाषाओं में हुई आपसी व्यवहार से बोलचाल की भाषा को विस्तार मिलता है। इसे ‘सामान्य भाषा’ के नाम से भी जाना जाता है। यह भाषा बडे़ पैमाने पर विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त होती है।

मानक भाषा[संपादित करें]

भाषा के स्थिर तथा सुनिश्चित रूप को मानक या परिनिष्ठित भाषा कहते हैं। भाषाविज्ञान कोश के अनुसार ‘किसी भाषा की उस विभाषा को परिनिष्ठित भाषा कहते हैंजो अन्य विभाषाओं पर अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक श्रेष्ठता स्थापित कर लेती है तथा उन विभाषाओं को बोलने वाले भी उसे सर्वाधिक उपयुक्त समझने लगते हैं।मानक भाषा शिक्षित वर्ग की शिक्षा, पत्राचार एवं व्यवहार की भाषा होती है। इसके व्याकरण तथा उच्चारण की प्रक्रिया लगभग निश्चित होती है। मानक भाषा को टकसाली भाषा भी कहते हैं। इसी भाषा में पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन होता है। हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, संस्कृत तथा ग्रीक इत्यादि मानक भाषाएँ हैं। किसी भाषा के मानक रूप का अर्थ है, उस भाषा का वह रूप जो उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य-रचना, शब्द और शब्द-रचना, अर्थ, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, प्रयोग तथा लेखन आदि की दृष्टि से, उस भाषा के सभी नहीं तो अधिकांश सुशिक्षित लोगों द्वारा शुद्ध माना जाता है।मानकता अनेकता में एकता की खोज है, अर्थात यदि किसी लेखन या भाषिक इकाई में विकल्प न हो तब तो वही मानक होगा, किन्तु यदि विकल्प हो तो अपवादों की बात छोड़ दें तो कोई एक मानक होता है। जिसका प्रयोग उस भाषा के अधिकांश शिष्ट लोग करते हैं। किसी भाषा का मानक रूप ही प्रतिष्ठित माना जाता है। उस भाषा के लगभग समूचे क्षेत्र में मानक भाषा का प्रयोग होता है। 'मानक भाषा' एक प्रकार से सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक होती है। उसका सम्बन्ध भाषा की संरचना से न होकर सामाजिक स्वीकृति से होता है।मानक भाषा को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि समाज में एक वर्ग मानक होता है जो अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण होता है तथा समाज में उसी का बोलना-लिखना, उसी का खाना-पीना, उसी के रीति-रिवाज़ अनुकरणीय माने जाते हैं। मानक भाषा मूलत: उसी वर्ग की भाषा होती है। अंग्रेजी में इसे 'स्टैंडर्ड लैंग्वेज' कहा जाता है।

सम्पर्क भाषा[संपादित करें]

अनेक भाषाओं के अस्तित्व के बावजूद जिस विशिष्ट भाषा के माध्यम से व्यक्ति-व्यक्ति, राज्य-राज्य तथा देश-विदेश के बीच सम्पर्क स्थापित किया जाता है उसे सम्पर्क भाषा कहते हैं। एक ही भाषा परिपूरक भाषा और सम्पर्क भाषा दोनों ही हो सकती है।आज भारत मे सम्पर्क भाषा के तौर पर हिन्दी प्रतिष्ठित होती जा रही है जबकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई है। सम्पर्क भाषा के रूप में जब भी किसी भाषा को देश की राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा के पद पर आसीन किया जाता है तब उस भाषा से कुछ अपेक्षाएँ भी रखी जाती हैं। जब कोई भाषा ‘सम्पर्क भाषा’ के रूप में उभरती है तब राष्ट्रीयता या राष्ट्रता से प्रेरित होकर वह प्रभुतासम्पन्न भाषा बन जाती है। यह तो आवश्यक नहीं कि मातृभाषा के रूप में इसके बोलने वालों की संख्या अधिक हो पर द्वितीय भाषा के रूप में इसके बोलने वाले बहुसंख्यक होते हैं।

राजभाषा[संपादित करें]

जिस भाषा में सरकार के कार्यों का निष्पादन होता है उसे राजभाषा कहते हैं। कुछ लोग राष्ट्रभाषा और राजभाषा में अन्तर नहीं करते और दोनों को समानार्थी मानते हैं। परन्तु दोनों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। राष्ट्रभाषा सारे राष्ट्र के लोगों की सम्पर्क भाषा होती है जबकि राजभाषा केवल सरकार के कामकाज की भाषा है। भारत के संविधान के अनुसार हिन्दी संघ सरकार की राजभाषा है। राज्य सरकार की अपनी-अपनी राज्य भाषाएँ हैं। राजभाषा जनता और सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करती है। किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र की उसकी अपनी स्थानीय राजभाषा उसके लिए राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान का प्रतीक होती है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की अपनी स्थानीय भाषाएँ राजभाषा हैं। आज हिन्दी हमारी राजभाषा है।

राष्ट्रभाषा[संपादित करें]

देश के विभिन्न भाषा-भाषियों में पारस्परिक विचार-विनिमय की भाषा को राष्ट्रभाषा कहते हैं। राष्ट्रभाषा को देश के अधिकतर नागरिक समझते हैं, पढ़ते हैं या बोलते हैं। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश के नागरिकों के लिए गौरव, एकता, अखण्डता और अस्मिता का प्रतीक होती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा को राष्ट्र की आत्मा की संज्ञा दी है। एक भाषा कई देशों की राष्ट्रभाषा भी हो सकती है; जैसे अंग्रेजी आज अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा कनाडा इत्यादि कई देशों की राष्ट्रभाषा है। संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो नहीं दिया गया है किन्तु इसकी व्यापकता को देखते हुए इसे राष्ट्रभाषा कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में राजभाषा के रूप में हिन्दी, अंग्रेजी की तरह न केवल प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा है, बल्कि उसकी भूमिका राष्ट्रभाषा के रूप में भी है।। वह हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है। महात्मा गांधी जी के अनुसार किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो; जिसको बोलने वाले बहुसंख्यक हों और जो पूरे देश के लिए सहज रूप में उपलब्ध हो। उनके अनुसार भारत जैसे बहुभाषी देश में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा के निर्धारित अभिलक्षणों से युक्त है। उपर्युक्त सभी भाषाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। इसलिए यह प्रश्न निरर्थक है कि राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा आदि में से कौन सर्वाधिक महत्त्व का है, आवश्यकता है हिन्दी को अधिक व्यवहार में लाने की।

भारत की भाषाएँ[संपादित करें]

भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। 1950 में भारतीय संविधान की स्थापना के समय में, मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 14 थी। आठवीं अनुसूची में तदोपरान्त जोड़ी गई भाषाएँ सिन्धी, कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी, मैथिली, डोगरी, बोडो और सन्थाली सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यांवयन (कार्यान्वयन) मन्त्रालय की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार पहचान योग्य मातृभाषाओं की संख्या 234 है। शास्त्रीय भाषा का दर्जा पाने वाली पहली भाषा तमिल शास्त्रीय भाषा का दर्जा पाने वाली अन्य भाषाएँ संस्कृत, कन्नड़, मलयालम, तेलुगू और उड़िया नागालैंड की राजभाषा है अंग्रेजी, जम्मू और कश्मीर की राजभाषा उर्दू, गोवा की राजभाषा कोंकणी है। भारत के संविधान द्वारा निर्धारित सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की राजभाषा अंग्रेजी है। लक्षद्वीप की प्रमुख भाषाएँ जेसरी (द्वीप भाषा) और महल सामान्यतः पुडुचेरी (पूर्व में पांडिचेरी) में बोली जाने वाली विदेशी भाषा फ्रेंच 'पूर्व की इतालवी' कही जाने वाली भारतीय भाषा तेलुगु भारत का एकमात्र राज्य जहाँ संस्कृत राजभाषा मे रूप में मान्य है उत्तराखण्ड अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह के प्रमुख भाषाएँ हिन्दी, निकोबारी, बंगाली, तमिल, मलयालम और तेलुगू। अंग्रेजी मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची में नहीं है।

  • जम्मू एवं कश्मीर में कश्मीरी डोगरी और हिन्दी है।
  • हिमाचल प्रदेश में हिन्दी पंजाबी और नेपाली है।
  • हरियाणा में हिन्दी, पंजाबी और हरियाणवी है।
  • पंजाब में पंजाबी व हिन्दी है।
  • उत्तराखण्ड में हिन्दी, पहाड़ी (गढ़वाली ,कुमाँऊनी ,जौनसारी), उर्दू, पंजाबी और नेपाली है।
  • दिल्ली में हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और बंगाली है।

"उत्तर प्रदेश में हिन्दी व उर्दू है।

  • राजस्थान में हिन्दी, पंजाबी और उर्दू है।
  • मध्य प्रदेश में हिन्दी,मराठी और उर्दू है।
  • पश्चिम बंगाल बंगाली हिन्दी, संताली, उर्दू, नेपाली है।
  • छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी व हिन्दी है।
  • बिहार में हिन्दी, मैथिली और उर्दू हैं।
  • झारखण्डमें हिन्दी, संताली, बंगाली और उर्दू है।
  • सिक्किम में नेपाली, हिन्दी, बंगाली है।
  • अरुणाचल प्रदेश में बंगाली, नेपाली, हिन्दी और असमिया है।
  • नागालैण्ड में बंगाली हिन्दी और नेपाली है।
  • मिजोरम में बंगाली हिन्दी और नेपाली है।
  • असम में असमिया बंगाली, हिन्दी, बोडो और नेपाली है।
  • त्रिपुरा में बंगाली व हिन्दी है।
  • मेघालय में बंगाली, हिन्दी और नेपाली है।
  • मणिपुर में मणिपुरी, नेपाली, हिन्दी और बंगाली है।
  • ओडिशा में ओड़िया हिन्दी, तेलुगु और संताली है।
  • महाराष्ट्र में मराठी, हिन्दी, उर्दू और गुजराती है।
  • गुजरात में गुजराती, हिन्दी, सिन्धी, मराठी और उर्दू है।
  • कर्नाटक में कन्नड़ उर्दू, तेलुगू, मराठी और तमिल है।
  • दमन और दीव में गुजराती हिन्दी और मराठी है।
  • दादरा और नगर हवेली में गुजराती, हिन्दी, कोंकणी और मराठी है।
  • गोवा में कोंकणी मराठी, हिन्दी और कन्नड़ है।
  • आन्ध्र प्रदेश में तेलुगु उर्दू, हिन्दी और तमिल है।
  • केरल में मलयालम है।
  • लक्षद्वीप में मलयालम है।
  • तमिलनाडु में तमिल तेलुगू, कन्नड़ और उर्दू‌ है।
  • पुडुचेरी में तमिल तेलुगू, कन्नड़ और उर्दू है।
  • अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह में बंगाली, हिन्दी, तमिल, तेलुगू और मलयालम है।

इन्हें भी पढ़ें[संपादित करें]

  • भाषाई साम्राज्यवाद
  • भाषावसान
  • भाषाभाषियों की संख्या के अनुसार भाषाओं की सूची
  • लिपि
  • लिपि के अनुसार भाषाओं की सूची
  • सांकेतिक भाषा

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group co-operates. - Outlines of linguistic analysis, b. Block and G.L. Trager, page 5.

सम्बन्धित पुस्तकें[संपादित करें]

  • भाषा विज्ञान - भोला नाथ तिवारी, किताब महल, नई दिल्ली, 1951
  • भाषा और समाज - रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • भाषा और समाज (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राम विलास शर्मा)
  • भाषा का संसार (गूगल पुस्तक ; लेखक - प्रो॰ दिलीप सिंह)
  • कोई भी भाषा कैसे सीखें ?
  • World language Resources - All the resources for all languages)
  • भारत भाषा नीति, एक नई सोच (संक्रान्त सानु)

कौन सी विशेषता प्रशासनिक हिन्दी की नहीं है?

वैसे प्रशासनिक हिंदी भाषा की यह भिन्नता कोई दोष नहीं है। दुनिया की सभी भाषाओं में प्रशासनिक, अकादमिक और बोलचाल के रूप अलग- अलग होते हैं। किंतु प्रशासनिक हिंदी की भिन्नता के कारण दूसरे हैं। प्रशासनिक हिंदी पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग के चलते आमलोगों के लिए कुछ हद तक कठिन हो सकती है, जो स्वाभाविक है।

प्रशासनिक हिंदी की विशेषता कौन कौन सी है?

प्रशासनिक भाषा- सरकारी कामकाज, बोलचाल और कार्यव्यवहार की भाषा प्रशासनिक भाषा कहलाती है। हिन्दी एक ऐसी समर्थ भाषा है जो सम्पूर्ण भारत में कमोबेश बोली एवं समझी जाती है। देश के सामाजिक विकास से इसका गहरा सम्बन्ध है। यह उच्च, मध्य, निम्न, शिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित, अशिक्षित आदि सभी वर्गों की भाषा है।

प्रशासनिक हिंदी का प्रयोग कहाँ होता है?

इसके अतिरिक्त प्रशासन के अन्य क्षेत्रों में संगठन के कर्मचारियों से संबंधित स्थापना, कल्याण, औद्योगिक संबंध, सुरक्षा आदि के क्षेत्र में भी प्रशासनिक हिंदी का प्रयोग होता है । प्रशासन या राजकाज में प्रयुक्त होने वाली भाषा को प्रशासनिक भाषा कहा जाता है । प्रशासनिक भाषा का स्वरूप सामान्य भाषा से भिन्न होता है।

प्रशासनिक हिंदी के लेखक कौन है?

नारायणदत्त पालीवाल