न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्या तात्पर्य है व्याख्या - nyaayapaalika kee svatantrata se kya taatpary hai vyaakhya

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The correct option is A केवल 1, 2 और 3व्याख्या: कथन 1, 2 और 3 सही हैं: न्यायपालिका की स्वतंत्रता से तात्पर्य है: सरकार के अन्य अंगों जैसे कार्यपालिका एवं विधायिका द्वारा न्यायपालिका के कामकाज में अवरोध (जब तक न्याय करने में असमर्थ न हो) उत्पन्न नहीं किया जाएगा।सरकार के अन्य अंगों द्वारा न्यायपालिका के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा।न्यायाधीशों द्वारा किसी भय या पक्षपात के बिना अपने कार्यों को संपन्न किया जाएगा। कथन 4 गलत है: न्यायपालिका की स्वतंत्रता में मनमानी या जवाबदेही का अभाव अंतर्निहित नहीं है। न्यायपालिका भी देश की लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना का एक भाग है। हालांकि, न्यायपालिका संविधान, लोकतांत्रिक परंपराओं एवं देश के लोगों के प्रति उत्तरदायी है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्या तात्पर्य है व्याख्या - nyaayapaalika kee svatantrata se kya taatpary hai vyaakhya

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Published in Journal

Year: Sep, 2018
Volume: 15 / Issue: 7
Pages: 406 - 409 (4)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: http://ignited.in/I/a/200907
Published On: Sep, 2018

Article Details

भारत में न्यायपालिका की भूमिका | Original Article


  • न्यायपालिका किसे कहते है – Nyaypalika Kise Kahate Hain
  • न्यायपालिका क्या है – Nyaypalika Kya Hai
  • न्यायपालिका की परिभाषा – Nyaypalika ki Paribhasha
  • न्यायपालिका का महत्त्व – Nyaypalika ka Mahatva
  • न्यायपालिका के प्रकार – Nyaypalika Ke Prakar
  • न्यायपालिका के कार्य – Nyaypalika ke Karya
  • (1) अभियोगों का निर्णय –
  • (2) काूननों की व्याख्या सम्बन्धी कार्य –
  • (3) औचित्य के आधार पर कानून-निर्माण –
  • (4) नागरिकों की स्वतंत्रता तथा उनके मूल अधिकारों की रक्षा –
  • (5) घोषणात्मक निर्णय प्रदान करना –
  • (6) संविधान के रक्षण का कार्य –
  • (7) परामर्श सम्बन्धी कार्य –
  • (8) संघीय ढाँचे को बनाए रखना –
  • (9) विविध कार्य –
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता क्यों आवश्यक है – Nyaypalika Ki Swatantrata Kyon Avashyak Hai
  • (1) लोकतंत्र की रक्षा हेतु –
  • (2) न्याय की रक्षा हेतु –
  • (3) संविधान की रक्षा हेतु –
  • (4) नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु –
  • (5) निष्पक्ष न्याय –
  • (6) व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका में संतुलन –
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कैसे स्थापित किया जा सकता है –  Nyaypalika Ki Swatantrata Ko Kese Sthapit Kiya Ja Sakta Hai
  • (1) न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका या न्यायपालिका का संगठन –
  • (2) सुनिश्चित और सुरक्षित कार्यकाल –
  • (3) पद की सुरक्षा –
  • (4) न्यायाधीशों की योग्यता –
  • (5) समुचित एवं पर्याप्त वेतन –
  • (6) अवकाश प्राप्ति के बाद वकालत करने का निषेध –
  • (7) कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण –
  • (8) न्यायाधीशों के प्रति औचित्यपूर्ण व्यवहार –
  • (9) अन्य उपाय –
  • न्यायिक पुनरावलोकन क्या है –  Nyayik Punravlokan Kya Hai
  • न्यायिक पुनरावलोकन का क्या अर्थ है?
  • न्यायिक सक्रियता क्या है – Nyayik Shaktiyan Kya Hai
  • FAQ

आज के आर्टिकल में हम न्यायपालिका किसे कहते हैं (Nyaypalika Kise Kahate Hain),  न्यायपालिका के कार्य (Nyaypalika ke karya) और स्वतंत्र न्यायपालिका का क्या महत्व है (Nyaypalika ka kya Mahatva Hain)   Nyaypalika in Hindi  – इन सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने वाले है।

पिछले आर्टिकल में हमने व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के बारे में पढ़ा। आज के आर्टिकल में न्यायपालिका(Nyaypalika) के बारे में पढ़ने जा रहे है।

Nyaypalika ka Arth – साधारण अर्थ में कानूनों की व्याख्या करने व उनका उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने की संस्थागत व्यवस्था को न्यायपालिका(Nyaypalika) कहा जाता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्या तात्पर्य है व्याख्या - nyaayapaalika kee svatantrata se kya taatpary hai vyaakhya

न्यायपालिका क्या है – Nyaypalika Kya Hai

  • यह उन व्यक्तियों का समूह है जिन्हें कानून के अनुसार समाज के विवादों को हल करने का अधिकार प्राप्त है।
  • इस अर्थ में न्यायपालिका सरकार का एक विशिष्ट अंग है जिसको कानूनों का पालन कराने के लिए विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं। न्यायपालिका कानून में अंतर्निहित अर्थ को समझाने का कार्य भी करती है।
  • न्यायपालिका की वह सक्षम अंग है जो कानून की वैधता, सार्थकता और उपादेयता के आधार पर वाद-विवादों का निस्तारण करता है। सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग न्यायपालिका है।
  • न्यायपालिका सरकार का वह अंग है जो मौलिक अधिकारों की रक्षा, संविधान की व्याख्या तथा विवादों का निपटारा करता है।

न्यायपालिका की परिभाषा – Nyaypalika ki Paribhasha

लास्की ने न्यायपालिका को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ’’एक राज्य की न्यायपालिका, अधिकारियों के ऐसे समूह के रूप में परिभाषित की जा सकती है, जिनका कार्य, राज्य के किसी कानून विशेष के उल्लंघन या तोङने सम्बन्धी शिकायत, जो विभिन्न लोगों के बीच या नागरिकों व राज्य के बीच एक-दूसरे के विरुद्ध होती है, का समाधान या फैसला करना है।’’

प्रसिद्ध न्यायशास्त्री रोले के अनुसार, ’’प्रत्येक संगठित सरकार में उसके अधिकारों को निश्चित करने, अपराधियों को दण्ड देने, न्याय का प्रशासन करने और अबोध व्यक्तियों को हानि तथा भ्रष्टाचार से बचाने के लिए एक न्याय विभाग होना चाहिए।’’

न्यायपालिका का महत्त्व – Nyaypalika ka Mahatva

🔸 न्यायपालिका के महत्त्व के बारे में मेरियट का कहना है कि ’सरकार के जितने भी मुख्य कार्य है, उनमें निस्संदेह न्याय कार्य अतिमहत्त्वपूर्ण है।’’ क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध नागरिकों से होता है। चाहे कानून के निर्माण की मशीनरी कितनी भी विस्तृत और वैज्ञानिक हो, चाहे कार्यपालिका का संगठन कितना भी पूर्ण हो, परन्तु फिर भी नागरिक का जीवन दुःखी हो सकता है और उसकी सम्पत्ति को खतरा उत्पन्न हो सकता है, यदि न्याय करने में देरी हो जाये या न्याय में दोष रह जाये अथवा कानून की व्याख्या पक्षपातपूर्ण या भ्रामक हो।

🔹 गार्नर के शब्दों में, ’’न्याय विभाग के अभाव में एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती।’’

🔸 यद्यपि सरकार के तीनों अंगों का महत्त्व है, परंतु न्यायपालिका किसी अच्छे सरकार की कसौटी है। अच्छे सरकार की परख इसी बात से होती है कि उसकी न्यायपालिका, कितनी निष्पक्ष, कुशल और स्वतंत्र है। किसी सरकार में न्यायपालिका ही कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को मर्यादित करती है। संविधान में लिखित नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी न्यायपालिका ही है। यदि किसी देश की विधायिका और कार्यपालिका कितनी अच्छी क्यों न हो, पर स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका न हो तो उस देश के संविधान का अधिक मूल्य नहीं रह जाता। स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका के बिना किसी सभ्य समाज या संगठन की कल्पना नहीं की जा सकती।

🔹 कोई भी समाज बिना विधानमण्डल के रह सकता है, यह बात समझ में आ सकती है, लेकिन किसी भी समय ऐसे समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, जिसमें न्यायपालिका की कोई व्यवस्था न हो। अन्य शासन व्यवस्थाओं की तुलना में, प्रजातंत्र में न्याय व्यवस्था का बहुत अधिक महत्त्व होता है। प्रजातंत्र अपने स्वभाव से ही मर्यादित शक्तियों वाला शासन होता है और शासन को इस प्रकार की मर्यादा में रखने का कार्य न्यायपालिका के द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रजातन्त्र को जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन कहा जाता है। लेकिन जब निष्पक्ष, शीघ्र और सर्वजनसुलभ न्याय की व्यवस्था नहीं होती, तो जनता का शासन एक मिथ्या धारणा बनकर ही रह जाता है।

🔸 वर्तमान समय के प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में तो सामान्यतः संविधान के द्वारा ही नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये जाते है और शासन से अपेक्षा की जाती है कि वे नागरिकों के इन अधिकारों में कोई हस्तक्षेप न करेगा, लेकिन व्यवहार में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका का अस्तित्व आवश्यक है, उसके अभाव में नागरिकों के अधिकार निरर्थक हो जाते है।

🔹 संघात्मक शासन व्यवस्था में तो न्यायपालिका का महत्त्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि इस शासन व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायपालिका अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ, संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है। न्यायपालिका केन्द्रीय सरकार और इकाईयों की सरकारों को उनके निश्चित सीमाओं में रखने का कार्य करती है और यदि इनमें से कोई भी एक पक्ष संविधान द्वारा निश्चित सीमाओं का उल्लंघन करने का प्रयत्न करता है तो न्यायपालिका उनके कार्यों को अवैध घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति कहा जाता है।

🔸 अमेरिका की न्यायपालिका ने इस शक्ति के आधार पर अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। यद्यपि भारत की संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायपालिका को अमेरिकी व्यवस्था जितना अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं है लेकिन फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि सभी शासन व्यवस्थाओं में विशेषकर संघात्मक शासन व्यवस्थाओं में न्यायपालिका की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण होती है।

🔹 न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। न्यायपालिका ही नागरिकों की रक्षा एवं नागरिक-अधिकारों की रक्षा, स्वतंत्रता की वृद्धि, अपराधों पर नियन्त्रण एवं समाज से सुरक्षा की भावना बनाये रखती है।

न्यायपालिका के प्रकार – Nyaypalika Ke Prakar

न्यायपालिका के तीन प्रकार होते है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्या तात्पर्य है व्याख्या - nyaayapaalika kee svatantrata se kya taatpary hai vyaakhya

न्यायपालिका के कार्य – Nyaypalika ke Karya

न्यायपालिका के मुख्य कार्य निम्नलिखित है –

(1) अभियोगों का निर्णय –

  • व्यक्ति के वैचारिक-भेद और स्वाथों की भिन्नता के कारण फौजदारी और मान सम्बन्धी विवाद उत्पन्न होते रहते है। न्यायालय का प्रथम आवश्यक कार्य विद्यमान कानूनों के आधार पर दीवानी व फौजदारी मुकदमों की सुनवाई कर निर्णय करना है।
  • प्राचीन काल से ही सभी देशों में न्याय विभाग के द्वारा इस प्रकार के कार्यों को किया जाता है।
  • ऐसे विवादों की सुनवाई कर न्यायालय न्याय प्रदान करता है, उसकी देख-रेख करता है और निर्दोष को हानि व अधिकारों से वंचित हो जाने से बचाता है।
  • मुकदमों में निर्धारित कानून की सीमा में दण्ड की मात्रा को निर्धारित करने का न्यायालय को स्वच्छन्द अधिकार है।
  • न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय मान्य होते हैं।

(2) काूननों की व्याख्या सम्बन्धी कार्य –

  • कानूनों की भाषा सदैव ही स्पष्ट नहीं होती और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते है। इस प्रकार की प्रत्येक स्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका के द्वारा ही किया जाता है।
  • न्यायालयों द्वारा की गई इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानूनों के समान ही होती है।
  • इस प्रकार न्यायपालिका ’कानून-विषयक सन्देहपूर्ण परिस्थिति’ की निश्चित व्याख्या देकर और उनका स्पष्टीकरण प्रस्तुत करके कानून का क्षेत्र व्यापक बना सकती है।

(3) औचित्य के आधार पर कानून-निर्माण –

  • कानूनों का स्वरूप चाहे कितना ही विस्तृत क्यों न हो, लेकिन फिर भी न्यायपालिका में अनेक ऐसे विवाद उपस्थित हो जाते है जिनका निर्णय वर्तमान कानून द्वारा नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ऐसे विवादों का निपटारा विवेक, औचित्य व स्वाभाविक तथ्य के सिद्धान्त का आश्रय लेकर करते हैं और यदि अन्य न्यायालय भी समान परिस्थितियों में इसी प्रकार का निर्णय करें, तो परम्परा के आधार पर एक नवीन कानून का निर्माण हो जाता है।
  • इस प्रकार न्यायाधीशों द्वारा किया गया निर्णय अप्रत्यक्ष रूप से कानून का पूरक होता है।

(4) नागरिकों की स्वतंत्रता तथा उनके मूल अधिकारों की रक्षा –

  • व्यक्तियों की स्वतंत्रता में बाधा दो प्रकार से हो सकती है – अन्य व्यक्तियों के द्वारा या राज्य के द्वारा
  • न्याय विभाग के द्वारा इन दोनों ही बाधाओं को दूर करते हुए, व्यक्तियों की स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा का काम करता है। यदि शक्तिशाली व्यक्ति किसी दूसरे की स्वतंत्रता को नष्ट करने का प्रयत्न करता है तो पीङित पक्ष न्यायालय की शरण लेकर शक्तिशाली व्यक्ति को ऐसा कार्य करने से रोक सकता है और उसके द्वारा किये गये अनुचित कार्यों के लिए दण्ड दिलवा सकता है।
  • वर्तमान समय की प्रवृत्ति यह है कि व्यक्ति और राज्य के सम्बन्ध को संविधान द्वारा ही मर्यादित कर दिया जाता है।
  • ऐसे स्थिति में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका या किन्हीं पदाधिकारियों द्वारा संवैधानिक या कानूनी मर्यादा भंग करने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है।
  • प्रायः प्रत्येक संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों की व्यवस्था होती है, नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय अनेक प्रकार के लेख जारी कर सकता है, जैसे – बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख, परमादेश लेख, अधिकार-पृच्छा लेख आदि।

(5) घोषणात्मक निर्णय प्रदान करना –

  • जब कभी व्यवस्थापिका ऐसे कानूनों का निर्माण कर देती है, जो अस्पष्ट या पूर्व निर्धारित कानूनों के विरुद्ध होते हैं, तो न्यायालयों को ऐसे कानूनों के सम्बन्ध में घोषणात्मक निर्णय देने का अधिकार होता है।
  • इस प्रकार की घोषणाओं द्वारा व्यक्ति बिना किसी प्रकार के विशेष मुकदमे के न्यायालय से कानून के स्पष्टीकरण या उनके औचित्य-अनौचित्य के सम्बन्ध में निर्णय प्राप्त कर सकते हैं।
  • न्यायालयों द्वारा दिये गये इस प्रकार के निर्णय भी ’घोषणात्मक निर्णय’ के अन्तर्गत आते है।

(6) संविधान के रक्षण का कार्य –

  • न्याय विभाग संविधान की पवित्रता या संविधान में प्रतिपादित व्यवस्था की रक्षा का कार्य भी करता है।
  • वर्तमान समय में अधिकांश राज्यों के संविधान कठोर है उनमें साधारण कानून एवं संवैधानिक कानून में अन्तर किया जाता है और संविधान द्वारा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियों को सीमित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में यदि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका संविधान के प्रतिकूल कोई कार्य करती है, तो न्यायपालिका इस प्रकार के कानूनों या कार्यों को अवैधानिक घोषित कर सकती है।

(7) परामर्श सम्बन्धी कार्य –

  • अनेक राज्यों में इस प्रकार की व्यवस्था है कि न्यायालय निर्णय देने के साथ-साथ कानूनी-प्रश्नों पर परामर्श देने का कार्य भी करती है।
  • अनेक देशों में न्यायालय को तकनीकी, कानूनी तथा संवैधानिक मामलों के जटिल प्रश्नों पर परामर्श देने का भी अधिकार होता है। यदि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा इस प्रकार का परामर्श माँगा जाए, जैसे – इंग्लैण्ड में प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति से सरकार प्रायः वैधानिक और कानूनी प्रश्नों पर परामर्श लेती है।
  • कनाडा में सर्वोच्च न्यायालय का एक कार्य यह है कि वह गवर्नर जनरल को कानूनी-परामर्श दे। आस्ट्रिया, पनामा, स्वीडन और भारत आदि देशों में भी इसी प्रकार की व्यवस्था है।
  • लेकिन परामर्श सम्बन्धी न्यायिक निर्णय बाध्यकारी नहीं होता है।

(8) संघीय ढाँचे को बनाए रखना –

  • संघात्मक शासन व्यवस्था में संविधान द्वारा केन्द्र एवं इकाइयों की शक्तियों का विभाजन किया जाता है। न्यायपालिका केन्द्र तथा इकाइयों को अपने-अपने क्षेत्राधिकार में बनाए रखती है।
  • केन्द्र एवं इकाइयों के मध्य विवाद उत्पन्न होने पर न्यायालय ही संविधान के अनुकूल निर्णय देते हैं।

(9) विविध कार्य –

न्यायपालिका निम्नलिखित विविध कार्य भी करती है –

  1. पूर्व सोवियत संघ जैसे समाजवादी राज्यों के न्यायाधिकारी वर्ग द्वारा क्रान्ति के रक्षक का महान् कार्य किया जाता है।
  2. प्रतिबन्धात्मक आदेश देना अर्थात् न्यायालय किसी व्यक्ति या संस्था कह सकते हैं कि जब तक उनके द्वारा अभियोग की पूरी जाँच न हो अथवा निर्णय न हो तब तक वे इस सम्बन्ध में कोई कार्य न करें। इस आदेश के उल्लंघन को न्यायालय का अपमान समझा जाता है।
  3. कुछ विभागीय और प्रशासकीय कार्य भी न्यायपालिका के द्वारा किये जाते है जैसे – निचली अदालतों का निरीक्षण।
  4. अनुज्ञा पत्र जारी करना।
  5. विदेशियों को नागरिकता प्रदान करना।
  6. नागरिक विवाहों को पंजीकृत करना।
  7. न्यायिक विधि का निर्माण करना।
  8. प्रक्रियात्मक नियमों का निर्माण करना।
  9. न्यायपालिका के कर्मचारियों की नियुक्ति करना।
  10. संरक्षकों और न्यासियों की नियुक्ति करना।
  11. वसीयतनामों को प्रमाणित करना।
  12. व्यक्तियों या निगमों की विवादास्पद सम्पत्ति की देख-रेख के लिए प्रबन्धकर्त्ता नियुक्त करना।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता क्यों आवश्यक है – Nyaypalika Ki Swatantrata Kyon Avashyak Hai

⇒न्यायपालिका की स्वतंत्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने, न्याय प्रदान करने और स्वतंत्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें कर्त्तव्य-पालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल या किसी वर्ग-विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता की आवश्यकता के सम्बन्ध में अमेरिकी राष्ट्रपति ड्राॅफ्ट ने कहा है कि ’’सभी मामलों में चाहे व्यक्ति या राज्य के बीच में हो, चाहे अल्पमत और बहुमत के बीच में हो, चाहे आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जैसे शक्तिशाली और निर्वहन के बीच में हो न्यायपालिका को निष्पक्ष रहना चाहिए और बिना किसी भय एवं पक्षपात के निर्णय देना चाहिए।’’

न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्व या न्यायपालिका की स्वतंत्रता की आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है –

(1) लोकतंत्र की रक्षा हेतु –

लोकतंत्र एक सीमित और मर्यादित शासन-व्यवस्था का नाम है और शासन को मर्यादा में रखने का कार्य एक स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। दूसरे, नागरिकों की स्वतन्त्रता और समानता के लक्ष्यों की प्राप्ति भी स्वतंत्र न्यायपालिका के आधार पर ही की जा सकती है। इसी दृष्टि से स्वतंत्र न्यायपालिका को ’लोकतंत्र का प्राणकहा जा सकता है।

(2) न्याय की रक्षा हेतु –

न्यायपालिका का प्रमुख कार्य कानूनों की व्याख्या करते हुए न्याय प्रदान करना होता है और न्यायपालिका यह कार्य तभी भली-भाँति कर सकती है जबकि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष हो तथा वह व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के नियंत्रण व प्रभाव से मुक्त हो।

(3) संविधान की रक्षा हेतु –

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्थाओं में संविधान की सर्वोच्चता की धारणा को अपनाया जाता है और संविधान की रक्षा का भार न्यायपालिका पर ही होता है। न्यायपालिका संविधान की रक्षा के अपने दायित्व को तभी भली-भाँति निभा सकती है, जबकि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष हो।

(4) नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु –

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का महत्त्व मुख्य रूप से नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से है। आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में भी इस बात की आशंका बनी रहती है कि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका नागरिक अधिकारोें को आघात न पहुँचा दे। ऐसी स्थिति में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से नागरिक अधिकारों की रक्षा स्वतंत्र न्यायपालिका के द्वारा ही की जा सकती है।

(5) निष्पक्ष न्याय –

यदि न्यायपालिका स्वतंत्र होगी तो निष्पक्ष निर्णय दिये जा सकते है। यदि न्यायपालिका पर व्यवस्थापिका और कार्यपालिका का दबाव होगा तो न्यायाधीश निर्भीकतापूर्ण निष्पक्ष निर्णय नहीं दे पायेंगे, इससे न्याय का स्वच्छता एवं पवित्रता खण्डित होगी और नागरिकों में उसके प्रति श्रद्धा एवं आस्था नहीं रहेगी।

(6) व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका में संतुलन –

यदि न्यायपालिका स्वतन्त्र होगी तो वह पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारी से अपना कार्य कर सकेगी। इसके अलावा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियों पर केवल न्यायपालिका ही नियन्त्रण लगा सकती है। लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब न्यायपालिका स्वतंत्र हो। न्यायपालिका एक ओर कार्यपालिका को भ्रष्ट होने से रोकती है तो दूसरी ओर व्यवस्थापिका को भी निरंकुश नहीं होने देती है। इस सभी कारण से स्पष्ट है कि न्यायपालिका व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से स्वतन्त्र हो। जहाँ लोकतन्त्र नहीं है वहाँ न्याय कार्यपालिका में ही निहित होता है। इसलिए ऐसे व्यवस्था में स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्याय सम्भव नहीं हो पाता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कैसे स्थापित किया जा सकता है –  Nyaypalika Ki Swatantrata Ko Kese Sthapit Kiya Ja Sakta Hai

न्यायपालिका की स्वतंत्रता निम्नलिखित तरीकों से बनाये रखी जा सकती है –

(1) न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका या न्यायपालिका का संगठन –

न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में प्रायः तीन तरीके से अपनाये जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं –

(अ) सर्वसाधारण (जनता) द्वारा निर्वाचन – कुछ राज्यों में, जैसे – स्विट्जरलैंड व अमरीकी संघ के कुछ प्रान्तों में, जनता द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की पद्धति प्रचलित है। यह पद्धति दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें जनता द्वारा न्यायाधीशों के निर्वाचन की पद्धति को अपनाया गया है। जिससे अयोग्य व्यक्ति न्यायाधीश के पद पर आसीन हो सकते है। चुनावों में विजय भी लोकप्रियता के आधार पर ही प्राप्त की जा सकती है, योग्यता के आधार पर नहीं। इसके अन्तर्गत न्यायाधीशों की नियुक्ति योग्यता व कुशलता के आधार पर न होकर राजनीतिक आधार पर होती है। इसलिए अयोग्य व्यक्ति न्यायाधीश बन जाते हैं और न्याय का स्तर नीचा हो जाता है।

इस पद्धति के अन्तर्गत न्यायाधीशों का निष्पक्ष और ईमानदार होना भी कठिन है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में प्रत्येक प्रकार का निर्वाचन दलबन्दी से जुङा होता है। न्यायाधीश जब राजनीतिक दल की सहायता से चुनाव लङकर अपना पद प्राप्त करेंगे तो उनमें दलीय आधार पर पक्षपात करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाएगी।

(ब) व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन – रूस, स्विट्जरलैंड, बोलीविया, कोस्टारिका, यूगोस्लाविया आदि देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्वाचन के द्वारा वहाँ की व्यवस्थापिकाएँ करती हैं। किन्तु यह पद्धति न्यायपालिका को व्यवस्थापिका के अधीन बना देती है। इस पद्धति में न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार उनका कानूनी ज्ञान एवं अनुभव, निष्पक्षता और योग्यता नहीं वरन् राजनीतिक और दलीय आधार पर होता है। इस प्रकार के न्यायाधीश कभी भी निष्पक्षतापूर्ण न्याय प्रदान नहीं कर सकते।

(स) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति – विश्व के अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है। शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध होने पर भी यह पद्धति श्रेष्ठ है। इस पद्धति में भी कार्यपालिका द्वारा शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना रहती है। अतः प्रत्येक देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए या तो संविधान में व्यवस्था की जाती है या कुछ नियम निर्धारित किये जाते हैं। कार्यपालिका द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग न किया जा सके इसके लिए यह प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है कि कार्यपालिका सर्वमान्य न्यायिक योग्यता वाले व्यक्तियों या स्थायी न्यायिक समिति के परामर्श पर ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करे।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति, न्यायिक योग्यता वाले व्यक्तियों के परामर्श के आधार पर कार्यपालिका द्वारा की जानी चाहिए।

(2) सुनिश्चित और सुरक्षित कार्यकाल –

यदि न्यायाधीशों को कम अवधि के लिए नियुक्त किया जाता है तो उनकी स्वतंत्रता का अंत हो जाता है इसलिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता लम्बी पदावधि के द्वारा ही हो सकती है। इसके लिए न्यायाधीशों का कार्यकाल अवकाश प्राप्त करने की अवधि तक बना रहना चाहिए, जिससे उनके भ्रष्ट या पक्षपाती होने की कम सम्भावना रहेगी। न्यायाधीशों की पदच्युति की पद्धति काफी जटिल होनी चाहिए ताकि न्यायाधीश किसी भी व्यक्ति या दल-विशेष की दया पर निर्भर न रहे। इसी कारण अधिकांश राज्यों में न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के सम्बन्ध में ’महाभियोग’ की व्यवस्था है।

(3) पद की सुरक्षा –

न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों की पदमुक्ति विशिष्ट विधि अर्थात् महाभियोग के द्वारा ही की जाये। विशिष्ट विधि अपनाए जाने पर कार्यपालिका या व्यवस्थापिका न्यायाधीशों पर अनुचित दबाव नहीं डाल सकेगी। इससे न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक अपना कार्य करते रह सकेंगे।

(4) न्यायाधीशों की योग्यता –

न्यायपालिका की स्वतंत्रता हेतु यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे व्यक्तियों को दिया जाये जिनकी व्यावसायिक कुशलता, शैक्षिक योग्यता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो।

(5) समुचित एवं पर्याप्त वेतन –

न्यायाधीशों को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बने रहने के लिए आवश्यक है कि उन्हें पर्याप्त वेतन दिया जाए तथा सेवा-निवृत्त होने पर उन्हें पेन्शन की भी सुविधा मिलनी चाहिए। साथ ही न्यायाधीशों की पदावधि में उनके वेतन में अलाभकारी परिवर्तन नहीं होेने चाहिए।

(6) अवकाश प्राप्ति के बाद वकालत करने का निषेध –

पद के दुरुपयोग को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों के अवकाश ग्रहण करने के बाद उनके द्वारा वकालत करने का निषेध कर दिया जाए। इस सम्बन्ध में इतनी व्यवस्था तो अवश्य होनी चाहिए कि एक व्यक्ति जिन न्यायालयों में न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका है कम-से-कम उन न्यायालयों या उनके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत अन्य न्यायालयों में वकालत न कर सके।

(7) कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण –

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता के लिए यह आवश्यक है कि उसे कार्यपालिका से पृथक् रखा जाए। एक ही व्यक्ति की सत्ता का अभियोक्ता और साथ-साथ ही न्यायाधीश होने पर स्वतंत्रता की आशा नहीं की जा सकती। इसी बात को दृष्टि में रखते हुए भारतीय संविधान के ’नीति निर्देशक तत्त्वों’ में कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखने की बात की गई है और भारतीय संघ की अधिकांश इकाइयों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् कर दिया गया है।

(8) न्यायाधीशों के प्रति औचित्यपूर्ण व्यवहार –

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सदस्यों का सदन या सार्वजनिक स्थानों पर न्यायाधीश के प्रति औचित्यपूर्ण व्यवहार होना चाहिए।

(9) अन्य उपाय –

उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए प्रायः सभी देशों में निम्न उपायों को भी अपनाया गया है-

  1. विशेष उन्मुक्तियाँ तथा सुविधाएँ व श्रेष्ठ सेवा-शर्तें।
  2. न्यायालय को स्वयं की कार्य-प्रक्रिया के निर्धारण का अधिकार।
  3. मानहानि का मुकदमा चलाने का अधिकार आदि।

उक्त सभी दशाएं न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। निष्पक्ष तथा स्वतंत्र न्यायपालिका लोकतंत्र के प्राण है बिना न्यायपालिका के स्वतंत्रता, अधिकार तथा व्यक्तियों के व्यक्तित्व के विकास के सभी प्रयास अधूरे ही रहेंगे। इस प्रकार से न्यायपालिका न्याय तथा समताशील और सभ्य समाज के निर्माण में सहायक और विकास का वाहक भी है।

न्यायपालिका के संदर्भ में आधुनिक प्रवृत्तियाँ जो वर्तमान समय में उभर सामने आ रही है उनमें दो प्रवृत्तियाँ है –

  1. न्यायिक पुनरावलोकन
  2. न्यायिक सक्रियता/जनहित याचिका।

न्यायिक पुनरावलोकन क्या है –  Nyayik Punravlokan Kya Hai

शासन अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न कर सके, इसके लिए वर्तमान में तीन व्यवस्थाएँ अपनायी जाती हैं –

  • प्रथमत, शासन की शक्तियों को संविधान द्वारा निर्धारित व सुनिश्चित करना।
  • द्वितीय, शासन के विविध अंगों की शक्तियों को नियंत्रित व संतुलित करना।
  • तृतीय, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की व्यवस्था कर उसे न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करना।

यहाँ पर हमारा प्रतिपाद्य विषय न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था व महत्त्व का प्रतिपादन करना है।

न्यायिक पुनरावलोकन न्यायपालिका का सर्वश्रेष्ठ कार्य व शक्ति है।

न्यायिक पुनरावलोकन से तात्पर्य है – सर्वोच्च न्यायालय इस कार्य के लिए संविधान द्वारा अधिकृत अन्य न्यायालयों द्वारा संविधान तथा उसकी सर्वोच्चता की रक्षा की व्यवस्था करे। यदि संघीय या राज्य विधानमण्डलों द्वारा अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया जाता है, अपनी निश्चित सीमाओं के बाहर मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानूनों का निर्माण किया जाता है तो संघीय व्यवस्थापिका का या राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्मित प्रत्येक विधि अथवा संघीय या राज्य प्रशासन द्वारा किये गये प्रत्येक कार्यों को सर्वोच्च न्यायलय अवैधानिक घोषित कर सकता है।

⇒न्यायिक पुनरावलोकन का आशय न्यायालयों की उस शक्ति से जिससे वे व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के उन कार्यों और काूननों को अवैधानिक एवं अमान्य घोषित कर सकते हैं, जो उनके मत में संविधान के किसी प्रावधान के प्रतिकूल हों। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति से न्यायालय संविधान की व्याख्या करते हैं। साथ ही कानूनों तथा कार्यपालिका के कार्यों एवं आदेशों की संवैधानिकता या असंवैधानिकता का निर्णय करते हैं।

⇒न्यायिक पुनरावलोकन की परिभाषा – सर्वोच्च न्यायालय तथा संबंधित संविधान द्वारा अधिकृत अन्य न्यायालयों की इस शक्ति को ही ’न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति’ कहा जा सकता है।

न्यायिक पुनरावलोकन का क्या अर्थ है?

न्यायालय द्वारा कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के कार्यों की वैधता की जाँच करना तथा इस प्रसंग में उन कानूनों तथा प्रशासनिक नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना जो संविधान का अतिक्रमण करती हों।

न्यायिक सक्रियता क्या है – Nyayik Shaktiyan Kya Hai

⇒न्यायिक सक्रियता/जनहित याचिका का अर्थ – पीङित व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा अथवा उनकी तरफ से स्वयंसेवी संस्थाओं या व्यक्ति द्वारा न्यायालय को भेजे गये प्रार्थना पत्र को जब न्यायालय रिट याचिका के रूप में स्वीकार कर लेता है तो उसे जनहित याचिका का रूप प्राप्त हो जाता है। इस तरह की सुनवाई के लिए मामले अपने सामने लाना और सुनवाई करते समय तमाम कानूनी औपचारिकताओं दर-किनार करना और मूल मुद्दे पर पहुँचाना न्यायिक सक्रियता कहलाता है। न्यायिक सक्रियता से आशय न्यायपालिका के द्वारा नागरिकों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करना और समाज में न्याय स्थापित करना होता है।

न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका को कर्त्तव्यपालन की दिशा में प्रवृत्त करने या मनमाना आचरण करने से रोकने का साधन है। यह न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का ही विस्तार है। न्यायिक सक्रियता की स्थिति को न्यायपालिका द्वारा उसी देश में अपनाया जा सकता है, जिस देश में न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था है। क्योंकि न्यायिक सक्रियता न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति पर आधारित है।

FAQ

1. भारत सरकार की प्रथमता सारणी में भारत के मुख्य न्यायाधीश के ऊपर कौन आता/आते हैं ?
(अ) भारत का महान्यायवादी (ब) भूतपूर्व राष्ट्रपति ✔
(स) चीफ ऑफ़ स्टाफ्स (द) लोकसभा का अध्यक्ष


2. भारत के संविधान के दो उपबंध जो सर्वाधिक स्पष्ट रूप से न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति को व्यक्त करते हैं, कौनसे हैं ?
(अ) अनुच्छेद 21 तथा अनुच्छेद 446
(ब) अनुच्छेद 32 तथा अनुच्छेद 226 ✔
(स) अनुच्छेद 44 तथा अनुच्छेद 152
(द) अनुच्छेद 17 तथा अनुच्छेद 143


3. सूची-। को सूची-।। से सुमेलित कीजिए तथा नीचे दिए गए कूटों का प्रयोग करते हुए सही उत्तर चुनिए –

सूची-।  सूची-।।
संविधान के अनुच्छेद प्रावधान
(क) 215 (1) किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में अंतरण
(ख) 222 (2) सभी न्यायालयों के अधीक्षण की शक्ति
(ग) 226 (3) कुछ रिट निकालने की उच्च न्यायालय की शक्ति
(घ) 227 (4) उच्च न्यायालय का अभिलेख न्यायालय होता

कूट –
क ख ग घ
(अ) 4 1 3 2✔
(ब) 2 1 3 4
(स) 1 4 3 2
(द) 4 2 3 1


4. भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के संबंध में निम्नलिखित में से कौनसा/कौनसे अधिकथन सत्य है ?
(क) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
(ख) वह राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद धारण करता है।
(ग) किसी भी जांच के लंबित रहने तक उसे निलंबित किया जा सकता है।
(घ) उसे दुर्व्यवहार सिद्ध होने या अक्षमता के कारण हटाया जा सकता है।
नीचे दिए गए कोड से सही उत्तर का चयन कीजिए –
कोड –
(अ) क, ख और ग (ब) क, ग और घ
(स) क और ग (द) क और घ ✔


5. सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपना पद त्याग सकता है, पत्र लिखकर –
(अ) मुख्य न्यायाधीश को (ब) राष्ट्रपति को ✔
(स) प्रधानमंत्री को (द) विधि मंत्री को


6. भारत में संविधान का संरक्षक किसे कहा गया है ?
(अ) संसद (ब) उपराष्ट्रपति
(स) सर्वोच्च न्यायालय ✔ (द) उपर्युक्त में से कोई नहीं


7. संविधान के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय से विधि के प्रश्न पर राय लेने का अधिकार किसको है ?
(अ) राष्ट्रपति को ✔ (ब) किसी भी हाई कोर्ट को
(स) प्रधानमंत्री को (द) उपर्युक्त में सभी को


8. अधीनस्थ न्यायालयों का पर्यवेक्षण कौन करता है ?
(अ) उच्चतम न्यायालय (ब) जिला न्यायालय
(स) उच्च न्यायालय ✔ (द) संसद


9. किस कानून के अंतर्गत यह विहित है कि भारत के उच्चतम न्यायालय की समस्त कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में होगी ?
(अ) उच्चतम न्यायालय नियम, 1966
(ब) संसद द्वारा किया गया विधि-निर्माण
(स) भारत के संविधान का अनुच्छेद 145
(द) भारत के संविधान का अनुच्छेद 348 ✔


10. एक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपना त्यागपत्र संबोधित करता है ?
(अ) राष्ट्रपति ✔
(ब) भारत के मुख्य न्यायाधीश
(स) उसके राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
(द) राज्य के राज्यपाल

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व्यवस्थापिका किसे कहते हैं

कार्यपालिका किसे कहते हैं

भारत का राष्ट्रपति

भारत परिषद अधिनियम, 1919

भारतीय संविधान की विशेषताएँ

भारतीय संविधान की अनुसूचियाँ

भारत के प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद्

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से क्या तात्पर्य है?

न्यायपालिका की स्वतंत्रता या न्यायिक स्वातंत्र्य (Judicial independence) से आशय यह है कि न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) से स्वतन्त्र हो। इसका अर्थ है कि न्यायपालिका सरकार के अन्य अंगों से, या किसी अन्य निजी हित-समूह से अनुचित तरीके से प्रभावित न हो। यह एक महत्वपूर्ण परिकल्पना है।

स्वतंत्र न्यायपालिका से क्या तात्पर्य है इसे कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है?

Swatantr Nyaypalika Se Kya Tatparya Hai सर्वोच्च न्यायालय को अपने नये मामलों तथा उच्च न्यायालयों के विवादों, दोनो को देखने का अधिकार है। भारत में 24 उच्च न्यायालय हैं, जिनके अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के परस्पर मतभेद या विवाद का सुलह राष्ट्रपति करता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता क्यों महत्त्वपूर्ण है?

न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह 'कानून के शासन' की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करे । न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।

न्यायपालिका की क्या भूमिका है स्वतंत्र न्यायपालिका क्या होती है?

न्यायपालिका की स्वतंत्रता की आवश्यकता:- न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह कानून के शासन की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करें। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न चले।