प्रेत का बयान कविता का व्यंग्य स्पष्ट कीजिए - pret ka bayaan kavita ka vyangy spasht keejie

रचना-विधान को समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम किसी रचना को सामने रखें और उसे ध्यान से पढ़ें। कविता जो भी है वह अपने शब्दों में ही है। इसलिए शब्दों के आचरण को समझना ही सबसे महत्वपूर्ण है। तो आइये, हम नागार्जुन की एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद से अपनी चर्चा आरंभ करें। पहले कविता को सामने रखिए, नज़र के सामने। हाथ में पेंसिल लीजिए और पढ़िए। पहले मन-ही-मन पढ़िए। फिर बोल कर पढ़िए। चुपचाप पढ़ने से आपका ध्यान अर्थ पर रहेगा। बोलकर पढ़ने से आप लय को पकड़ सकेंगे। शब्द के मोटा-मोटी दो पहलू हैं – ध्वनि और अर्थ। कविता दोनों ही पार्यों का व्यवहार करती है:

अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए न खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

2) नाटकीयता

नागार्जुन की कविताओं में नाटकीयता का तत्व प्रमुख है। किसी भी कविता में मुख्यतः दो में कोई एक तत्व अधिक मुखर होता है। कविता या तो गीतात्मक (लिरिकल) होगी या फिर नाटकीयता सम्पन्न। छायावाद की कविताओं की मुख्य भंगिमा गीतात्मक है। नागार्जुन के यहाँ नाटकीयता मुखर है। प्रायः नागार्जुन एक स्थिति लेते हैं और उसका वर्णन करते हैं। स्थिति में जो द्वंद्व है, अंतर्विरोध है यानी दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों या तत्वों की उपस्थिति है, नागार्जुन उसे पकड़ने और अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इसी कारण नाटक जैसा वातावरण बनता है, क्योंकि यहाँ घात-प्रतिघात है, परस्पर द्वंद्व है। उनकी कविता स्थितियों द्वारा उत्पन्न भावों को प्रकाशित करने की कविता मूलतः नहीं है। इसीलिए उसका रचना-विधान भी भिन्न है, नाटकीयता से सम्पन्न। उदाहरण के लिए, ‘भोजपुर’ कविता की आरंभिक पंक्तियाँ :

यही धुआँ मैं ढूँढ रहा था

यही आग मैं खोज रहा था

यही गंध थी मुझे चाहिए

बारूदी छरे की खुशबू

3) व्यंग्य

यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिंदी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ।’ डॉ0 नामवर सिंह कहते हैं। नागार्जुन का व्यंग्य भारतेंदुकालीन व्यंग्यकारों से भी जुड़ता है। उन्होंने आज की व्यवस्था पर गहरा प्रहार किया है। सबसे ज्यादा चोट राजनेताओं पर की और कई बार खुद अपने पर। हम देखें कि कैसे नागार्जुन की कविताओं का रूप व्यंग्य को धारण और संप्रेषित करता है।

     व्यंग्य के लिए द्वंद्व या अंतर्विरोध का होना ज़रूरी है। दो मूल्यों की टकराहट, दो परस्पर विपरीत स्थितियों की प्रस्तुति से व्यंग्य उत्पन्न होता है। कविता का रूप यानी शिल्प ऐसा होना चाहिए कि यह द्वंद्व या अंतर्विरोध सर्वाधिक तीव्रता से व्यक्त हो सके। नागार्जुन की व्यंग्य कविताएँ अधिकांशतः राजनीतिक हैं, विशेषकर तात्कालिक राजनीति। इसके द्वंद्व और विद्रूप को उभारने के लिए नागार्जुन प्रायः पारम्परिक छंदों का प्रयोग करते हैं। इस तरह गंभीर विषयों के लिए प्रयुक्त हो चुके पारंपरिक छंद जब हल्की तथा अंतर्विरोधी चरित्र वाली स्थिति को व्यक्त करते हैं तो स्वभावतः एक तनाव उत्पन्न होता है जो व्यंग्य को धारदार बनाता है।

नागार्जुन और रूप प्रयोग

जैसा कि आप सब जानते हैं कि छायावाद के बाद हिंदी कविता में मोटी-मोटी दो प्रवृतियाँ या आंदोलन उभरे। ये हैं प्रगतिवाद’ और ‘प्रयोगवाद | वैसे हम हमेशा याद रखें कि ये सारी चिप्पियाँ या बिल्ले अंततः निरूपयोगी ही सिद्ध होते हैं। नागार्जुन घोषित रूप से प्रगतिवादी हैं। जो प्रयोगवादी हुए उनका बल या आग्रह रूप पर था, कविता में नये-नये रूप-प्रयोगों यानी नयी बात तो हो ही नया रूप भी हो और इसके लिए नये प्रयोग किए जाएँ। नागार्जुन ने अपनी कविताओं द्वारा भी प्रयोगवादी कवियों की आलोचना की। प्रयोगवादियों ने भी नागार्जुन को उनका उचित दाम नही दिया। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि नागार्जुन ने रूप संबंधी जितने प्रयोग किये हैं उतने बहुत कम कवियों ने किये हैं। शमशेर बहादुर सिंह ने नागार्जुन की इस क्षमता को रेखांकित भी किया है।

     नागार्जुन ने पहले तो कोई एक तरह की, एक ही शिल्प की कविता नहीं लिखी; छंद में लिखा, गद्य में लिखा, तुकों का प्रयोग किया, अतुकांत भी लिखा, पुराने से पुराने सवैयों-दोहों का इस्तेमाल किया और नवीनतम गद्य-शैली भी अपनायी, वर्णन भी किया यथातथ्य तो यथार्थ-संबंधों में परिवर्तन भी किये, नयेनये वस्तु-संयोजन द्वारा। गंभीर स्वर के साथ-साथ हल्का-फुल्का स्वर भी लगा दिया। यानी भाषा की समस्त शक्तियों के साथ प्रयोग किया। अब हम कुछ कविताओं को लेकर देखेंगे कि कैसे नागार्जुन ने कुछ अभिनव, नितांत नये प्रयोग रूप-विधान में किये। ‘मंत्र’ कविता तो आपने देखी ही, वह स्वयं एक अनूठा प्रयोग है। लेकिन यहाँ हम ले रहे हैं ‘चंदू मैंने सपना देखा’, ‘इन सलाखों से टिका कर भाल’, ‘नेवला’, ‘पिछली रात’, ‘प्रेत का बयान’ तथा ऐसी ही कुछ अन्य कविताओं को। लेकिन एक बात हम ज़रूर याद रखें कि नागार्जुन ने केवल प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं किये हैं। उनके प्रयोगों, नये रूप विधानों के पीछे कथ्य या विषय-वस्तु की माँग रहती है। अपनी बात को अधिकाधिक बल के साथ कहने के लिए या कविता के ज़रिए वह जो करना चाहते हैं उसकी पूर्ति के लिए ही नागार्जुन नये रूपाकारों की रचना करते हैं।

प्रेत का बयान कविता में किसकी व्यथा का चित्रण हुआ है?

भिखारियों का बेहद भावुक एवं हृदयस्पर्शी चित्रण प्रस्तुत कविता में किया गया है।

प्रेत का बयान कविता का प्रतिपाद्य क्या है?

इस कविता में स्वाधीन भारत की व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है। फैण्टेसी के उपयोग द्वारा यहाँ भारत के सामाजिक, आर्थिक यथार्थ पर प्रहार किया गया है। एक मास्टर के प्रेत के बयान से स्पष्ट किया गया है कि अन्नाभाव ने उस दौर के राष्ट्र-निर्माता कहे जानेवाले शिक्षक की जान ले ली।

सिंदूर तिलकित भाल कविता में कवि को अपने गांव का क्या याद आता है?

सिंदुर तिलकित भाल नागार्जुन की सबसे प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कविताओं में एक है. कवि अपने घर-परिवार से दूर पड़ा हुआ अपनी पत्नी का तिलकित भाल याद करता है. और उसी के साथ साथ जुड़ी हुई अपने गाँव की प्रकृति और वहाँ का समूचा जनजीवन उसकी आँखों के आगे तैरने लगता है. फिर इन सबके बीच उसे पत्नी का सिंदुर तिलकित भाल याद आता है.

कविता की रचना प्रक्रिया क्या है?

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।