राज्यसभा का पीठासीन अधिकारी कौन होता है - raajyasabha ka peethaaseen adhikaaree kaun hota hai

सभापति की शक्तियाँ और कार्य

सभा के पीठासीन अधिकारी के रूप में

सभा के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में

सभापति द्वारा निर्णायक मत दिया जाना

भारत के संविधान में उल्लिखित सभापति की शक्तियां एवं कर्त्तव्य

सभा के विचार-विमर्श में भूमिका

राज्य सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन विषयक नियमों के अधीन सभापति को प्रदत्त शक्तियां

संविधान और नियमों की व्याख्या करने का सभापति का अधिकार

सभा में व्यवस्था बनाए रखना

सभापति द्वारा उल्लेख

राज्य सभा में पारित विधेयकों से संबंधित शक्तियाँ

राज्य सभा सचिवालय और राज्य सभा के परिसर में संबंधित अधिकार

सभापति को सौंपे गये कर्तव्य

सभा के पीठासीन अधिकारी के रूप में

राज्य सभा के सभापति के रूप में, उपराष्ट्रपति सभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। पीठासीन अधिकारी के रूप में, राज्य सभा का सभापति सभा की प्रतिष्ठा और गरिमा का निर्विवाद संरक्षक होता है। वह सभा का प्रमुख प्रवक्ता भी होता है और बाहरी दुनिया के लिए एक सामूहिक भावना का प्रतिनिधित्व करता है। वह यह सुनिश्चित करता है कि सभा की कार्यवाही संगत संवैधानिक उपबंधों, नियमों, प्रथाओं और परिपाटियों के अनुसार संचालित की जाए और सभा में शिष्टाचार बना रहे। वह सभा और उसके सदस्यों के अधिकारों और विशेषाधिकारों का अभिरक्षक और संरक्षक होता है। उपराष्ट्रपति के रूप में अनेक आवश्यक और तात्कालिक कार्यों और व्यस्तताओं के कारण वह राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी के रूप में अपना पूरा समय समर्पित करने में समर्थ नहीं हो सकता है परंतु व्यवहार में वह सभा की बैठक के पहले घंटे, जो प्रश्नकाल होता है, के दौरान उसकी अध्यक्षता करता है। प्रत्येक सत्र के दौरान यह जीवंत और कभी-कभी हंगामेदार समय दिन का सबसे मुख्य समय होता है जब सरकार की जवाबदेही सर्वाधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वह कुशलता से स्थिति को संभालते हुए यह सुनिश्चित करता है कि प्रश्न पूछने और पूरा उत्तर प्राप्त करने का सदस्य का अधिकार भली-भांति प्रवर्तित हो और वह विशेषाधिकार मामलों और अन्य प्रक्रियात्मक बिन्दुओं के संबंध में विनिर्णय देता है। जब भी महत्वपूर्ण वाद-विवादों या संविधान संशोधन विधेयकों जैसी ऐतिहासिक चर्चाएं होती हैं, तो वह अनिवार्य रूप से पीठासीन होता है। अनिर्णय की स्थिति को छोड़कर उसका कोई मत नहीं होता है (अनुच्छेद 100)। सभापति के विनिर्णय पूर्वोदाहरण बन जाते हैं जोकि बाध्यकारी प्रकृति के होते हैं। सभापति अपने निर्णय का कारण बताने के लिए बाध्य नहीं होता है। सभापति के विनिर्णयों पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है या उनकी आलोचना नहीं की जा सकती है और सभापति के विनिर्णय के विरुद्ध अभ्यापत्ति करना सभा की अवमानना होती है।

सभापति के रूप में अपने कार्य में, उसे उप-सभापति का सहयोग मिलता है जो सभा का सदस्य होता है और उसके द्वारा चुना जाता है। सभापति की अनुपस्थिति में उप सभापति, राज्य सभा की अध्यक्षता करता है और यदि उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कर्त्तव्य निर्वहन कर रहा हो या उपराष्ट्रपति का पद रिक्त हो तो सभापति के पद के कर्तव्यों का निर्वहन करता है। छह उप-सभाध्यक्षों का एक पैनल भी होता है, जिसका गठन प्रतिवर्ष किया जाता है। उप-सभाध्यक्ष, सभापति या उप सभापति की अनुपस्थिति में राज्य सभा की बैठक की अध्यक्षता करता है। सभापति के कार्यों के निर्वहन में उसकी सहायता करने के लिए राज्य सभा का एक सचिवालय है जिसका प्रमुख महासचिव होता है।

पीठासीन अधिकारी के रूप में, राज्य सभा का सभापति सभा की प्रतिष्ठा और गरिमा का निर्विवाद संरक्षक होता है। उसके निष्पक्ष और न्यायसम्मत निर्णय इस पद की गरिमा और महत्व को बढ़ा देते हैं।

दिनांक 20 अप्रैल, 1987 को, कतिपय रक्षा सौदों में कमीशन एजेंटों के संलिप्त होने के संबंध में जाँच स्थापित करने के सरकार के निर्णय के संबंध में एक अल्पकालिक चर्चा के शुरू होने से पहले, सभापति ने यह घोषणा की : "15 जनवरी, 1982 से, जून 1984 के मध्य तक मैं रक्षा मंत्री रहा था, इसलिए मैं इस चर्चा की अध्यक्षता करना उचित नहीं समझता हूँ।" अत: उन्होंने सभापीठ के आसन को रिक्त कर दिया और कार्यवाही उप सभापति द्वारा संचालित की गई। 31

सभा के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में

सभापति सभा का प्रमुख प्रवक्ता भी होता है और वह बाहरी दुनिया के लिए सभा की सामूहिक भावना को अभिव्यक्त करता है।

Cराष्ट्रपति द्वारा सभा को भेजे जाने वाले पत्र सभापति को संबोधित होते हैं। 32 जब राष्ट्रपति से कोई संदेश, चाहे संसद में लंबित किसी विधेयक या अन्यथा के संबंध में सभापति को प्राप्त होता है तो वह उसे सभा में पढ़ता है और उस संदेश में उल्लिखित मामलों पर विचार करने के लिए अपनायी जाने वाली प्रक्रिया के संबंध मंा आवश्यक निदेश देता है और उन निदेशों को देते समय वह नियमों को उस सीमा तक निलंबित कर सकता है या उनमें परिवर्तन कर सकता है जितना आवश्यक हो। 33 इसी प्रकार, सभा में किसी प्रस्ताव को किए जाने और उस पर चर्चा के पश्चात राष्ट्रपति को भेजे जाने वाले पत्र औपचारिक संबोधन के रूप में सभापति के माध्यम से भेजे जाते हैं। 34 उदाहरण के लिए, संसद की दोनों सभाओं के एक साथ समवेत होने पर राष्ट्रपति के अभिभाषण के संबंध में धन्यवाद प्रस्ताव, सभा द्वारा गृहीत किए जाने के बाद, सभापति द्वारा राष्ट्रपति को सम्प्रेषित किया जाता है।

बाहरी दुनिया के लिए सभा के प्रतिनिधि के रूप में, सभापति सभा के निर्णयों के बारे में उन संबंधित प्राधिकारियों को सूचित करता है जिनके लिए ऐसे निर्णयों का अनुपालन करना अपेक्षित होता है। इसी प्रकार, वह सभा के सभापति के रूप में उसे संबोधित उन पत्रों और दस्तावेजों की सूचना देता है जो सभा और उसके सदस्यों के अधिकारों और विशेषाधिकारों से संबंधित होते हैं ।

सभापति अन्य देशों और विधान मंडलों से उसे प्राप्त हुए संदेशों को भी संसूचित करता है।

वह यथावश्यक सभा के आदेशों के निष्पादन के लिए अधिकार-पत्र भी जारी करता है।

सभापति द्वारा निर्णायक मत दिया जाना

संविधान के अधीन, सभापति केवल तभी निर्णायक मत देता है, जब मत विभाजन बराबर होता है। तथापि, यदि सभा की किसी बैठक में सभापति को उसके पद से पदच्युत करने का संकल्प विचाराधीन हो, तो वह उस बैठक की अध्यक्षता नहीं करता है। ऐसी कार्यवाहियों के दौरान वह इस प्रकार के संकल्प पर अथवा अन्य किसी मामले में भी मत नहीं दे सकता।

भारत के संविधान में उल्लिखित सभापति की शक्तियां एवं कर्त्तव्य

संविधान में सभापति की कतिपय शक्तियां एवं कर्तव्य भी निर्धारित किए गए है: उसे सभा को स्थगित करने अथवा गणपूर्ति न होने की स्थिति में बैठक को निलम्बित करने की शक्ति प्राप्त है। किसी सदस्य द्वारा सभा से त्याग-पत्र देने के मामले में, यदि प्राप्त सूचनाओं अथवा अन्यथा, और ऐसी जांच करवाने, जो वह उचित समझे, के पश्चात् वह इस बात से संतुष्ट हो कि वह त्याग-पत्र स्वैच्छिक अथवा वास्तविक नहीं है, सभापति से त्याग-पत्र स्वीकार न करने की अपेक्षा की जाती है; संविधान की दसवीं अनुसूची के अन्तर्गत दल-बदल के आधार पर राज्य सभा के किसी सदस्य के बारे में यह निर्णय करता है कि वह निरर्हक है या नहीं; वह इस अनुसूची के उपबंधों को प्रभावकारी बनाने के लिए भी नियम बनाता है; उसे यह निदेश देने की शक्ति प्राप्त है कि उक्त नियमों के जानबूझकर किसी भी उल्लंघन पर उसी प्रकार की कार्यवाही होगी जिस प्रकार सभा के विशेषाधिकार हनन के मामले में होती है; और सभापति किसी सदस्य को सभा में अपनी मातृभाषा में संबोधित करने की अनुमति दे सकता है यदि वह स्वयं को हिंदी या अंग्रेजी में व्यक्त करने में असमर्थ हो।

सभा के विचार-विमर्श में भूमिका

सभापति सभा के विचार-विमर्श में पीठासीन अधिकारी के रूप में अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन के सिवाय किसी अन्य रूप में भाग नहीं लेता है। तथापि, व्यवस्था के प्रश्न पर अथवा स्वमेव, वह सदस्यों को उनके विचार-विमर्श में सहायता देने के उद्देश्य से किसी विचाराधीन मामले पर किसी भी समय सभा को संबोधित कर सकता है।

राज्य सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन विषयक नियमों के अधीन सभापति को प्रदत्त शक्तियां

राज्य सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन विषयक नियमों के अंतर्गत सभापति को सभा, समितियों की कार्यवाहियों और अन्य ऐसे मामलों जैसे प्रश्न, ध्यानाकर्षण प्रस्तावों, संकल्पों, विधेयकों में संशोधनों, विधेयकों के अधिप्रमाणन, याचिकाओं, सभा पटल पर रखे जाने वाले पत्रों, वैयक्तिक स्पष्टीकरण आदि के संबंध में अनेक शक्तियां प्रदान की गई हैं।

सभापति, यदि उचित समझे, नियम तारीख या जिस समय पर सभा को स्थगित किया गया हो, या सभा अनियत तिथि के लिए स्थगित हो चुकी हो किन्तु राष्ट्रपति द्वारा सत्रावसान न किया गया हो, सभा की बैठक का आह्वान कर सकता है। सभा में विशेषाधिकार हनन का प्रश्न उठाने के लिए सभापति की सहमति अपेक्षित होती है। वह स्वप्रेरणा से ऐसे किसी प्रश्न को निरीक्षण, जांच-पड़ताल और प्रतिवेदन के लिए विशेषाधिकार समिति को निर्दिष्ट भी कर सकता है।

संसदीय समितियां, चाहे सभापति या सभा द्वारा गठित की गई हों, उसके मार्गदर्शन में कार्य करती हैं। वह उनके अध्यक्षों को नियुक्त करता है और प्रक्रिया एवं कार्य के संबंध में यथावश्यक निदेश जारी करता है। वह विभिन्न स्थायी समितियों और विभाग-संबंधित संसदीय समितियों के लिए सदस्यों का नाम-निर्देशन करता है। वह स्वयं कार्य-मंत्रणा समिति,  नियम समिति और सामान्य प्रयोजन समिति का अध्यक्ष होता है।

संविधान और नियमों की व्याख्या करने का सभापति का अधिकार

जहां तक सभा में अथवा सभा से संबंधित मामलों का संबंध है, सभापति के पास संविधान और नियम की व्याख्या करने का अधिकार होता है और ऐसी व्याख्या के संबंध में सभापति के साथ कोई भी तर्क-वितर्क या विवाद नहीं कर सकता है। सभापति के विनिर्णय पूर्वोदाहरण बन जाते हैं जो बाध्यकारी प्रकृति के होते हैं। सभापति के विनिर्णयों पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है या उनकी आलोचना नहीं की जा सकती है और सभापति के किसी विनिर्णय का विरोध करना सभा और सभापति की अवमानना होती है। सभापति अपने निर्णयों का कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है। आम तौर पर ये विनिर्णय सभापति द्वारा सभा में दिए जाते हैं परंतु कोई आकस्मिकता होने पर उसके विनिर्णय को उसके अनुरोध पर उप-सभापति द्वारा सभा में पढ़ा जा सकता है।

सभा में व्यवस्था बनाए रखना

सभा में व्यवस्था बनाए रखना सभापति का मौलिक कर्त्तव्य है और इस प्रयोजनार्थ उसे नियमों के अधीन सभी आवश्यक अनुशासनात्मक शक्तियां प्रदान की गई हैं जैसे किसी सदस्य के भाषण में विसंगति या दोहराव को रोकना, यदि कोई सदस्य कोई अनावश्यक या अपमानजनक टिप्पणी करे तो हस्तक्षेप करना और उसे ऐसी टिप्पणी वापस लेने के लिए कहना। सभापति वाद-विवाद में प्रयुक्त किसी असंसदीय या अमर्यादित शब्दों को हटाये जाने का आदेश भी दे सकता है या यह आदेश दे सकता है कि उसकी अनुमति के बिना किसी सदस्य द्वारा कही गई कोई बात अभिलिखित नहीं की जाएगी। वह अनुचित व्यवहार के दोषी किसी सदस्य को सभा से बाहर जाने के लिए कह सकता है और यदि कोई सदस्य सभापीठ का अपमान करता है और सभा की कार्यवाही में निरंतर बाधा डालता है तो उसे निलंबित कर सकता है। वह गंभीर अव्यवस्था के मामले में सभा की बैठक को स्थगित या निलंबित भी कर सकता है।

सभापति द्वारा उल्लेख

सभापति के लिए यह परिपाटी रही है कि वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा की वर्षगांठ, शहीद दिवस, भारत छोड़ो आन्दोलन दिवस, हिरोशिमा, नागासाकी आदि पर बम गिराये जाने की वर्षगांठ जैसे विशेष अवसरों पर सभा में समुचित उल्लेख करे। इसी प्रकार, सभापति राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों संबंधी प्रस्तावों या संकल्पों, घटनाओं या अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजनों, या किसी त्रासदी अथवा सुखद घटना पर सभा की भावनाएं व्यक्त करने के लिए उन्हें सभा के समक्ष रख सकता है। ऐसे प्रस्तावों या संकल्पों को किसी चर्चा के बिना सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया जाता है। राज्य सभा की सुस्थापित प्रथा के अनुसार, आमतौर पर सभापति ही सभा की ओर से दिवंगत के प्रति श्रद्धांजलि देता है यद्यपि कुछ आपवादिक मामलों में, राज्य सभा में विभिन्न दलों/समूहों के नेता भी सभापति द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं से स्वयं को संबद्ध कर सकते हैं। राज्य सभा में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद सदस्यों के सेवानिवृत्त होने पर सभापति विदाई भाषण देता है और नवनिर्वाचित सदस्यों का स्वागत करता है।

जब भी कोई प्रतिष्ठित विदेशी आगंतुक या विदेश से संसदीय शिष्टमंडलों के सदस्य सभा की कार्यवाही देखने के लिए विशिष्ट स्थान पर मौजूद होते हैं, सभापति सभा की ओर से देश में उनका स्वागत करता है।

राज्य सभा में पारित विधेयकों से संबंधित शक्तियाँ

सभापति को नियमों के अधीन विधेयक के राज्य सभा से पारित किये जाने के बाद इसकी स्पष्ट गलतियों में सुधार करने और सभा द्वारा स्वीकृत संशोधनों के परिणामस्वरूप विधेयक में कुछ अन्य परिवर्तन करने की शक्ति प्राप्त है। जब विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाता है और राज्य सभा के पास रहता है, तब सभापति विधेयक को राष्ट्रपति के समक्ष उनकी स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करने के पूर्व अपने हस्ताक्षर से प्रमाणित करता है।

नियमों में विशेष रूप से उपबंधित नहीं किए गये सभी मामले और नियमों के विस्तृत कार्यकरण से संबंधित सभी प्रश्न ऐसी रीति से जैसा कि सभापति समय-समय पर निदेश करें, विनियमित किये जाते हैं।

राज्य सभा सचिवालय और राज्य सभा के परिसर में संबंधित अधिकार

राज्य सभा सचिवालय सभापति के नियंत्रण और निदेश के अधीन कार्य करता है। प्रेस दीर्घा समेत विभिन्न दीर्घाओं में प्रवेश सभापति के निदेश के अनुसार विनियमित होता है। सभापति संसद सदस्यों के अधिकारों के संरक्षण के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी है कि उन्हें सभी समुचित सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं। यदि किसी संसद सदस्य को गिरफ्तार या निरुद्ध किया जाता है, तो संबंधित अधिकारी द्वारा इस बात की सूचना तुरंत सभापति को दी जानी अपेक्षित है। सदस्य को रिहा कर दिए जाने की स्थिति में भी, यही बात लागू होती है। किसी संसद सदस्य को सभापति की अनुमति के बिना, चाहे सत्राधीन है अथवा नहीं, सभा के परिसर के भीतर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, और न ही उसके विरूद्ध कोई कानूनी-सिविल अथवा आपराधिक प्रक्रिया प्रारंभ की जा सकती है।

सभापति को सौंपे गये कर्तव्य

कुछ संविधियों के अंतर्गत सभापति को कर्तव्य भी सौंपे गये हैं। उदाहरण के तौर पर, संसद सदस्य वेतन, भत्ता और पेंशन अधिनियम, 1954 के तहत बने नियम तब तक प्रभावी नहीं होते जबतक उन्हें सभापति और लोकसभाध्यक्ष द्वारा स्वीकृति प्रदान नहीं की जाती और संपुष्टि नहीं की जाती है।

 न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के अधीन सभापति को उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पदच्युत करने के लिए प्रस्ताव प्राप्त होने पर उन आधारों की जांच करने के लिए एक समिति गठित करनी होती है जिनके आधार पर न्यायाधीश को पदच्युत किये जाने की प्रार्थना की गई है। इस अधिनियम के अधीन बनाये गये नियमों को भी सभापति और लोकसभाध्यक्ष द्वारा स्वीकृत और संपुष्ट कराया जाना अपेक्षित है।

 प्रेस परिषद अधिनियम, 1978 के अधीन, सभापति उस समिति का एक सदस्य होता है जो प्रेस परिषद के सभापति का नाम-निर्देशन करता है।

सभापति संगत संविधियों के अधीन गठित विभिन्न निकायों जैसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, नॉर्थ-ईस्टर्न हिल विश्वविद्यालय, पांडिचेरी विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय के कोर्टों, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अंजूमन (कोर्ट), हज समिति, भारतीय प्रेस परिषद, विश्व भारती की संसद (कोर्ट), राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद आदि में राज्य सभा के सदस्यों के नामनिर्देशित करता है। सभापति अन्य निकायों जैसे भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की महासभा, केन्द्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड की महासभा, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर की महापरिषद, हिन्दी शिक्षा समिति, संवैधानिक और संसदीय अध्ययन संस्थान आदि में भी राज्य सभा के सदस्यों के नामनिर्देशित करता है।

सभापति, यदि सभा में आम सहमति हो, ऐसे मामले जो सभा में उठाये गये हों, की जांच कर सकता हैं अथवा इस संबंध में सभा की समिति गठित कर सकता है।

राज्यसभा का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है?

भारतीय संसद भारत गणराज्य का सर्वोच्च विधायी निकाय है। यह भारत के राष्ट्रपति और दो सदनों: राज्य सभा (राज्यों का सदन) और लोक सभा (लोगों का सदन) से बना एक द्विसदनीय विधानसभा है। राष्ट्रपति को विधायिका के प्रमुख के रूप में अपनी भूमिका में संसद के सदन को बुलाने और सत्रावसान करने या लोकसभा को भंग करने की पूरी शक्ति है।

राज्य सभा का पदेन सभापति कौन होता है?

भारत के उपराष्ट्रपति राज्य सभा के पदेन सभापति हैं। राज्य सभा के सदस्यों के विपरीत राज्यसभा के सभापति का कार्यकाल ५ वर्षों का ही होता है, राज्य सभा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति का भी चयन करती है।

सभापति कौन होता है?

भारत के उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा के सभापति होते है।

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की सीटें कितनी है?

सदस्यता 250 सदस्यों तक सीमित है, और वर्तमान राज्यसभा में 245 सदस्य हैं। 233 सदस्यों को विधानसभा सदस्यों द्वारा चुना जाता है और 12 राष्ट्रपति द्वारा कला, साहित्य, ज्ञान, और सेवाओं में उनके योगदान के लिए नामित किए जाते हैं।