रस काव्य का मूल आधार प्राणतत्व अथवा आत्मा है रस का संबंध सृ धातु से माना गया है। जिसका अर्थ है जो बहता है, अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है उसे को रस कहते हैं। Show
एक अन्य मान्यता के अनुसार रस शब्द रस् धातु और अच् प्रत्यय के योग से बना है। जिसका अर्थ है- जो बहे अथवा जो आस्वादित किया जा सकता है।
रस की परिभाषाइसका उत्तर रसवादी आचार्यों ने अपनी अपनी प्रतिभा के अनुरूप दिया है। रस शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्भ में इसका अर्थ अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए- पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में, भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है। रस के भेदइसके मुख्यतः ग्यारह भेद हैं :- १.वीभत्स २.शृंगार ३.करुण ४.हास्य ५.वीर ६.रौद्र ७.भयानक ८.अद्भुत ९.शांत १०.वात्सल्य और ११.भक्ति रस को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु
आचार्य भरतमुनि ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र रचना के अंतर्गत रस का सैद्धांतिक विश्लेषण करते हुए रस निष्पत्ति पर अपने विचार प्रस्तुत किए उनके अनुसार-
इस प्रकार रस की अवधारणा को पूर्णता प्रदान करने में उनके चार अंगों स्थाई भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का महत्वपूर्ण योगदान होता है। १. स्थाई भावस्थाई भाव रस का पहला एवं सर्वप्रमुख अंग है। भाव शब्द की उत्पत्ति भ् धातु से हुई है। जिसका अर्थ है संपन्न होना या विद्यमान होना। अतः जो भाव मन में सदा अभिज्ञान ज्ञात रूप में विद्यमान रहता है उसे स्थाई या स्थिर भाव कहते हैं। जब स्थाई भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से होता है तो वह रस रूप में व्यक्त हो जाते हैं।सामान्यतः स्थाई भावों की संख्या अधिक हो सकती है किंतु आचार्य भरतमुनि ने स्थाई भाव आठ ही माने हैं – रति, हास्य, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय। वर्तमान समय में इसकी संख्या 9 कर दी गई है तथा निर्वेद नामक स्थाई भाव की परिकल्पना की गई है। आगे चलकर माधुर्य चित्रण के कारण वात्सल्य नामक स्थाई भाव की भी परिकल्पना की गई है। इस प्रकार रस के अंतर्गत 10 स्थाई भाव का मूल रूप में विश्लेषण किया जाता है इसी आधार पर 10 रसों का उल्लेख किया जाता है। २.विभावरस का दूसरा अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है। भावों का विभाव करने वाले अथवा उन्हें आस्वाद योग्य बनाने वाले कारण विभाव कहलाते हैं। विभाव कारण हेतु निर्मित आदि से सभी पर्यायवाची शब्द हैं। विभाव का मूल कार्य सामाजिक हृदय में विद्यमान भावों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। विभाव के अंग – १ आलंबन विभाव और २ उद्दीपन विभाव आलंबन विभावआलंबन का अर्थ है आधार या आश्रय अर्थात जिसका अवलंब का आधार लेकर स्थाई भावों की जागृति होती है उन्हें आलंबन कहते हैं। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जो सोए हुए मनोभावों को जागृत करते हैं वह आलंबन विभाव कहलाते हैं। जैसे- श्रृंगार रस के अंतर्गत नायक-नायिका आलंबन होंगे, अथवा वीर रस के अंतर्गत युद्ध के समय में भाट एवं चरणों के गीत सुनकर या शत्रु को देखकर योद्धा के मन में उत्साह भाव जागृत होगा। इसी प्रकार आलंबन के चेष्टाएं उद्दीपन विभाव कहलाती है जिसके अंतर्गत देशकाल और वातावरण को भी सम्मिलित किया जाता है। उद्दीपन विभावउद्दीपन का अर्थ है उद्दीप्त करना भड़काना या बढ़ावा देना जो जागृत भाव को उद्दीप्त करें वह उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। उदाहरण के लिए-
३. अनुभावरस योजना का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है। आलंबन और उद्दीपन के कारण जो कार्य होता है उसे अनुभाव कहते हैं। शास्त्र के अनुसार आश्रय के मनोगत भावों को व्यक्त करने वाली शारीरिक चेष्टाएं अनुभव कहलाती है।भावों के पश्चात उत्पन्न होने के कारण इन्हें अनुभाव कहा जाता है। उदाहरण के लिए- श्रृंगार रस के अंतर्गत- नायिका के कटाक्ष, वेशभूषा या कामोद्दीपन अंग संचालन आदि वीर रस के अंतर्गत- नाक का फैल जाना, भौंह टेढ़ी हो जाना, शरीर में कंपन आदि अनुभाव कहे गए हैं। अनुभावों की संख्या 4 कही गई है- सात्विक, कायिक, मानसिक और आहार्य। कवि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से इन सभी अनुभाव का यथास्थान प्रयोग करता चलता है। सात्विक वह अनुभाव है जो स्थिति के अनुरूप स्वयं ही उत्पन्न हो जाते हैं इनकी संख्या 8 मानी गई है – स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कंपन, विवरण, अश्रु, प्रलय। परिस्थिति के अनुरुप उत्पन्न शारीरिक चेष्टाओं का यह एक अनुभाव कहलाती है। जैसे- क्रोध में कटु वचन कहना, पुलकित होना, आंखें झुकाना आदि। मन या हृदय की वृत्ति से उत्पन्न हर्ष, विषाद आदि का जन्म मानसिक अनुभाव कहलाता है। बनावटी अलंकरण, भावानुरूप वेश रचना आहार्य अनुभाव कहलाती है। ४. संचारी भावरस के अंतिम महत्वपूर्ण अंग संचारी भाव को माना गया है।आचार्य भरतमुनि ने रस सूत्र व्यभिचारी नाम से जिसका प्रयोग किया है वह कालांतर में संचारी नाम से जाना जाता है।मानव रक्त संचरण करने वाले भाव ही संचारी भाव कहलाते हैं। यह तत्काल बनते हैं एवं मिटते हैं। जैसे पानी में बनने वाले बुलबुले क्षणिक होने पर भी आकर्षक एवं स्थिति परिचायक होती हैं, वैसे ही इनके भी स्थिति को समझना चाहिए। सामान्य शब्दों में स्थाई भाव के जागृत एवं उद्दीपन होने पर जो भाव तरंगों की भांति अथवा जल के बुलबुलों की भांति उड़ते हैं और विलीन हो जाते हैं तथा स्थाई भाव को रस की अवस्था तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होते हैं उन्हीं को संचारी भाव कहते हैं। संचारी भाव कितने प्रकार के होते है?संचारी भावों की संख्या 33 मानी गई है- निर्वेद, स्तब्ध, गिलानी, शंका या भ्रम, आलस्य, दैन्य, चिंता, स्वप्न, उन्माद, पीड़ा, सफलता, हर्ष, आवेद, जड़ता, गर्व, विषाद, निद्रा, स्वप्न, उन्माद, त्रास, धृति, समर्थ, उग्रता, व्याधि, मरण, वितर्क आदि। वास्तव में काव्य को आस्वाद योग्य रस ही बनाता है। रस के बिना काव्य निराधार एवं प्राणहीन है। अतः रस की जानकारी रखते हुए रसयुक्त काव्य पढ़ना साहित्य शिक्षण का मूल धर्म है। अतः शुद्ध रूप से रसयुक्त साहित्य की चर्चा करते हुए उसके उदाहरण आदि को जानेगे-पररखेंगे। आचार्य भरतमुनि का मानना है कि अनेक द्रव्यों से मिलकर तैयार किया गया प्रमाणक द्रव्य नहीं खट्टा होता है ना मीठा और ना ही तीखा। बल्की इन सब से अलग होता है ठीक उसी प्रकार विविध भाव से युक्त रस का स्वाद मिलाजुला और आनंद दायक होता है। अभिनवगुप्त रस को आलोकिक आनंदमई चेतना मानते हैं। जबकि आचार्य विश्वनाथ का मानना है कि रस अखंड और स्वयं प्रकाशित होने वाला भाव है जिसका आनंद ब्रह्मानंद के समान है। रस के आनंद का आस्वाद करते समय भाव समाप्ति रहती है। रस के भेद उदाहरण सहितइस लेख में आपको रस के ग्यारह भेद और उनके उदाहरण पढ़ने को मिलेंगे। मुख्यतः रस 10 प्रकार के होते हैं परंतु हमारे आचार्यों द्वारा एक और रस भी स्वीकृत किया गया है जिसे हम भक्ति रस कहते हैं। रस के भेद उदाहरण सहित1. श्रृंगार रस (Shringar ras)श्रृंगार रस रसों का राजा एवं महत्वपूर्ण प्रथम रस माना गया है। विद्वानों के मतानुसार श्रृंगार रस की उत्पत्ति श्रृंग + आर से हुई है। इसमें श्रृंग का अर्थ है – काम की वृद्धि तथा आर का अर्थ है प्राप्ति।अर्थात कामवासना की वृद्धि एवं प्राप्ति ही श्रृंगार है इसका स्थाई भाव रति है। सहृदय के हृदय में संस्कार रुप में या जन्मजात रूप में विद्यमान रति नामक स्थाई भाव अपने प्रतिकूल विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब अस्वाद योग्य बन जाता है तब वह श्रृंगारमें परिणत हो जाता है। श्रृंगार रस में परिणत हो जाता है श्रृंगार का आलंबन विभाव नायक-नायिका या प्रेमी प्रेमिका है। उद्दीपन विभाव- नायक-नायिका की परस्पर चेष्टाएं उद्यान, लता कुंज आदि है। अनुभाव- अनुराग पूर्वक स्पष्ट अवलोकन, आलिंगन, रोमांच, स्वेद आदि है। संचारी भाव- उग्रता, मरण और जुगुप्सा को छोड़कर अन्य सभी संचारी भाव श्रृंगार के अंतर्गत आते हैं। श्रृंगार रस के सुखद एवं दुखद दोनों प्रकार की अनुभूतियां होती है इसी कारण इसके दो रूप- १ संयोग श्रृंगार एवं २ वियोग श्रृंगार माने गए हैं। १ संयोग श्रृंगार (Sanyog shringar)संयोग श्रृंगार के अंतर्गत नायक-नायिका के परस्पर मिलन प्रेमपूर्ण कार्यकलाप एवं सुखद अनुभूतियों का वर्णन होता है। जैसे-
प्रस्तुत दोहे में बिहारी कवि ने एक नायक-नायिका के प्रेमपूर्ण चेष्टाओं का बड़ा कुशलतापूर्वक वर्णन किया है अतः यहां संयोग श्रृंगार है। २ वियोग श्रृंगार (Viyog shringar ras)इसे विप्रलंभ श्रृंगार भी कहा कहा जाता है। वियोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका में परस्पर उत्कट प्रेम होने के बाद भी उनका मिलन नहीं हो पाता।इसके अंतर्गत विरह से व्यथित नायक-नायिका के मनोभावों को व्यक्त किया जाता है-
अथवा मधुबन तुम कत रहत हरे विरह वियोग श्याम-सुंदर के ठाड़े क्यों न जरें। प्रस्तुत अंश में सूरदास जी ने कृष्ण के वियोग में राधा के मनोभावों एवं दुख का वर्णन किया है, अतः यहां वियोग श्रृंगार है। 2. करुण रस ( Karun ras )जहां किसी हानि के कारण शोक भाव उपस्थित होता है , वहां करुण रस उपस्थित होता है। पर हानि किसी अनिष्ट किसी के निधन अथवा प्रेमपात्र के चिर वियोग के कारण संभव होता है। शास्त्र के अनुसार ‘शोक’ नामक स्थाई भाव अपने अनुकूल विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है तब उसे करुण रस कहा जाता है। प्रिय जन का वियोग, बंधु, विवश, पराधव, खोया ऐश्वर्य, दरिद्रता, दुख पूर्ण परिस्थितियां, आदि आलंबन है। प्रिय व्यक्ति की वस्तुएं, सुर्खियां, यश एवं गुण कथन संकटपूर्ण परिस्थितियां आदि उद्दीपन विभाव है। करुण रस के अनुभाव – रोना, जमीन पर गिरना, प्रलाप करना, छाती पीटना, आंसू बहाना, छटपटाना आदि अनुभाव है। इसके अंतर्गत निर्वेद, मोह, जड़ता, ग्लानि, चिंता, स्मृति, विषाद, मरण, घृणा आदि संचारी भाव आते हैं। भवभूति का मानना है कि – करुण ही एकमात्र रस है जिससे सहृदय पाठक सर्वाधिक संबंध स्थापित कर पाता है। यथा रामचरित्रमानस में दशरथ के निधन वर्णन द्वारा करुण रस की चरम स्थिति का वर्णन किया गया है।
आधुनिक कवियों ने करुण रस के अंतर्गत भी दरिद्रता एवं सामाजिक दुख-सुख का वर्णन सर्वाधिक किया है। इसी रूप में करुण रस की अभिव्यक्ति सर्वाधिक रूप में देखी जा सकती है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कृत उत्साह शीर्षक कविता में व्याकुल जन-मानस का वर्णन करते हुए बादलों को करुणा प्रवाहित करते हुए बरसने का वर्णन किया गया है –
3. वीर रस ( Veer ras )जहां विषय और वर्णन में उत्साह युक्त वीरता के भाव को प्रदर्शित किया जाता है वहां वीर रस होता है। शास्त्र के अनुसार उत्साह का संचार इसके अंतर्गत किया जाता है, किंतु इसमें प्रधानतया रणपराक्रम का ही वर्णन किया जाता है। सहृदय के हृदय में विद्यमान उत्साह नामक स्थाई भाव अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तब उसे वीर रस कहा जाता है। आचार्यों के अनुसार वीर रस चार भेद हैं –१ युद्धवीर २ धर्मवीर ३ दानवीर और ४ दयावीर। वीर रस का आलंबन – शत्रु, तीर्थ स्थान, पर्व, धार्मिक ग्रंथ या दयनीय व्यक्ति माना गया है। शत्रु का पराक्रम, अन्न दाताओं का दान, धार्मिक इतिहास आदि अन्य व्यक्ति की दुर्दशा वीर रस का उद्दीपन विभाव है। गर्वोक्तियाँ, याचक का आदर सत्कार, धर्म के लिए कष्ट सहना, तथा दया पात्र के प्रति सांत्वना, अनुभाव है। धृति, स्मृति, गर्व, हर्ष, मति आदि वीर रस में आने वाले संचारी भाव हैं, तथा युद्धवीर का एक उदाहरण देखा जा सकता है जिसमें वीर अभिमन्यु अपने साथी से युद्ध के संबंध में उत्साहवर्धक पंक्ति कह रहे हैं – हे सारथे है द्रौण क्या, देवेंद्र भी आकर अड़े। जाना दरिया के बहुत तेज 4 हास्य रस ( Haasya ras )हास्य रस मनोरंजक है। आचार्यों के मतानुसार ‘हास्य’ नामक स्थाई भाव अपने अनुकूल, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है तब उसे हास्य कहा जाता है। सामान्य विकृत आकार-प्रकार वेशभूषा वाणी तथा आंगिक चेष्टाओं आदि को देखने से हास्य रस की निष्पत्ति होती है। यह हास्य दो प्रकार का होता है – १ आत्मस्थ तथा २ परस्य। आत्मस्थ हास्य केवल हास्य के विषय को देखने मात्र से उत्पन्न होता है,जबकि परस्त हास्य दूसरों को हंसते हुए देखने से प्रकट होता है। विकृत आकृति वाला व्यक्ति किसी की अनोखी और विचित्र वेशभूषा हंसाने वाली या मूर्खतापूर्ण चेष्टा करने वाला व्यक्ति हास्य रस का आलंबन होता है जबकि आलंबन द्वारा की गई अनोखी एवं विचित्र चेष्टाएं उत्पन्न होती है। आंखों का मिचना, हंसते हंसते पेट पर बल पड़ जाना, आंखों में पानी आना, मुस्कुराहट, हंसी, ताली पीटना आदि अनुभाव है। जबकि हास्य रस के अंतर्गत हर सफलता, अश्रु, उत्सुकता, स्नेह, आवेग, स्मृति आदि संचारी भाव होते हैं। यथा एक हास्य रस का उदाहरण इस प्रकार है –जिसमें पत्नी के बीमार पड़ने के चित्र को हल्की हास्यास्पद स्थिति का चित्रण काका हाथरसी अपने एक छंद में करते हैं –
रामचरितमानस के अंश राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद मे लक्ष्मण द्वारा परशुराम का मजाक बनाना एवं उस पर हंसने का वर्णन है, इस अंश में हम हास्य-रस का पुट देख सकते हैं यहां लक्ष्मण – परशुराम का मूर्खता को इंगित करते हुए उन पर हंसते हुए कहते हैं –
5. रौद्र रस ( Rodra ras )क्रोध भाव को व्यंजित करने वाला अगला रौद्र रस है। शास्त्र के अनुसार सहृदय में वासना में विद्यमान क्रोध रस नामक स्थाई भाव अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से जब अभिव्यक्त होकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तब उसे रौद्र कहा जाता है। वस्तुतः जहां विरोध, अपमान या उपकार के कारण प्रतिशोध की भावना क्रोध उपजती है वही रौद्र रस साकार होता है। अतः अपराधी व्यक्ति, शत्रु, विपक्षी या दुराचारी रौद्र का आलंबन है। अनिष्टकारी, निंदा, कठोर वचन, अपमानजनक वाक्य आदि उद्दीपन विभाव है। रौद्र रस का अनुभाव आंखों का लाल होना, होठों का फड़फड़ाना, भौहों का तेरेना, दांत पीसना, शत्रुओं को ललकारना, अस्त्र शस्त्र चलाना आदि है। वही मोह, उग्रता, स्मृति, भावेश, चपलता, अति उत्सुकता, अमर्ष आदि संचारी भाव है। यथा एक उदाहरण देखा जा सकता है जिसमें कृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन के क्रोध भाव को व्यक्त किया गया है – श्रीकृष्ण के सुन वचन, अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। राम लक्ष्मण परशुराम संवाद में भी इस उदाहरण को देखा जा सकता है – रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न संभार। 6. भयानक रस ( Bhayanak ras )शास्त्र के अनुसार किसी बलवान शत्रु या भयानक वस्तु को देखने पर उत्पन्न भय ही भयानक रस है। भय नामक स्थाई भाव जब अपने अनुरूप आलंबन, उद्दीपन एवं संचारी भावों का सहयोग प्राप्त कर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है तो इसे भयानक कहा जाता है। इसका आलंबन भयावह या जंगली जानवर अथवा बलवान शत्रु है।निस्सहाय और निर्बल होना शत्रुओं या हिंसक जीवो की चेष्टाएं उद्दीपन है स्वेद, कंपन, रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं। जबकि संचारी भावों के अंतर्गत प्रश्नों, गिलानी, दयनीय, शंका, चिंता, आवेश आदि आते हैं। एक और अजगरहि लखि , एक ओर मृगराय। प्रस्तुत उदाहरण में एक मुसाफिर अजगर और सिंह के मध्य फसने एवं उसके कार्य का वर्णन किया गया है। 7. वीभत्स रस ( Vibhats ras )वीभत्स घृणा के भाव को प्रकट करने वाला रस है। आचार्यों के मतानुसार जब घृणा या जुगुप्सा का भाव अपने अनुरूप आलंबन, उद्दीपन एवं संचारी भाव के सहयोग से आस्वाद का रूप धारण कर लेता है तो इसे वीभत्स रस कहा जाता है। घृणास्पद व्यक्ति या वस्तुएं इसका आलंबन है। घृणित चेष्टाएं एवं ऐसी वस्तुओं की स्मृति उद्दीपन विभाव है। झुकना, मुंह फेरना, आंखें मूंद लेना इसके अनुभाव हैं, जबकि इसके अंतर्गत मोह, अपस्मार, आवेद, व्याधि, मरण, मूर्छा आदि संचारी भाव है। इसका एक उदाहरण है – सिर पै बैठ्यो काग , आंख दोउ खात निकारत। उपयुक्त उदाहरण में शव को बांचते को और गिद्ध के घृणित विषय की प्रस्तुति के कारण यहां वीभत्स है। 8. अद्भुत रस ( Adbhut ras )विस्मय करने वाला अद्भुत रस कहलाता है । जो विस्मय भाव अपने अनुकूल आलंबन, उद्दीपन, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग पाकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तो उसे अद्भुत रस कहते हैं।इसका आलंबन आलौकिक या विचित्र वस्तु या व्यक्ति है। आलंबन की अद्भुत विशेषताएं एवं उसका श्रवण- वर्णन उद्दीपन है। इससे स्तंभ स्वेद, रोमांच, आश्चर्यजनक भाव, अनुभाव उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त वितर्क, आवेश, हर्ष, स्मृति, मति, त्रासदी संचारी भाव हैं।
प्रस्तुत अंश में माता यशोदा का कृष्ण के मुख में ब्रह्मांड दर्शन से उत्पन्न विषय के भाव को प्रस्तुत किया गया है। यह असंभव से लगने वाले भाव को उत्पन्न करता है। 9. शांत रस ( Shaant ras )तत्वज्ञान और वैराग्य से शांत रस की उत्पत्ति मानी गई है, इसका स्थाई भाव निर्वेद या शम है। जो अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयुक्त होकर आस्वाद का रूप धारण करके शांत रस रूप में परिणत हो जाता है। संसार की क्षणभंगुरता कालचक्र की प्रबलता आदि इसके आलंबन है। संसार के प्रति मन न लगना उचाटन का भाव या चेष्टाएं अनुभाव है जबकि धृति, मति, विबोध, चिंता आदि इसके संचारी भाव है। उदाहरणतः – तुलसी के निम्न छंद हैं संसार का सत्य बताया गया है कि समय चुकने के बाद मन पछताता है अतः मन को सही समय पर सही क्रम के लिए प्रेरित करना चाहिए-
10. वात्सल्य रस ( Vaatsalya ras )माता-पिता एवं संतान के प्रेम भाव को प्रकट करने वाला रस वात्सल्य रस है। वत्सल नामक भाव जब अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से युक्त होकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तब वह वत्सल रस में परिणत हो जाता है। माता-पिता एवं संतान इसके आलंबन है। माता-पिता संतान के मध्य क्रियाकलाप उद्दीपन है। आश्रय की चेष्टाएं प्रसन्नता का भाव आदि अनुभव है। जबकि हर्ष, गर्व आदि संचारी भाव हैं। इसका एक उदाहरण देखा जा सकता है जिसमें बालक कृष्ण को घुटने के बल चलते देख यशोदा की प्रसन्नता का वर्णन किया गया है – किलकत कान्ह घुटवानि आवत। 11. भक्ति रसभक्ति रस का स्थाई भाव है दास्य। मुख्य रूप से रस 10 प्रकार के ही माने गए हैं परंतु हमारे आचार्यों द्वारा इस रस को स्वीकार किया गया है। इस रस में प्रभु की भक्ति और उनके गुणगान को देखा जा सकता है। उदाहरण के लिएमेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई जोकि मीराबाई द्वारा लिखा गया है यह भक्ति रस का प्रमुख उदाहरण है। यह भी पढ़ें –व्याकरण की संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए ये सभी पोस्ट पढ़ें जो नीचे दी गयी है।
निष्कर्षकिसी भी काव्य का प्राण तत्व रस होता है, रस के बिना कोई भी साहित्य अधूरा रहता है। रस को काव्य को पूर्ण बनाते हैं, रस उसी पाठक को प्राप्त होता है जो सहृदय हो। उपरोक्त अध्ययन में हमने पाया रस विभिन्न प्रकार के होते हैं जिसके अनेक अंग भेद तथा लक्षण होते हैं आशा है उपरोक्त लेख आपको पसंद आया हो अपने सुझाव तथा विचार कमेंट बॉक्स में लिखें। यहाँ नीचे आपको हमारा कुछ सोशल मीडिया एकाउंट्स की लिंक दिए जा रहे हैं | facebook page hindi vibhag रस क्या है इसके स्वरूप को समझाइए?अर्थात विभाव,अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है। इन तीनों भावों के कारण स्थायीभाव जाग्रत होता है, जो रसरूप में परिणत होता है। अतः रस की परिभाषा हुई - विभाव,अनुभाव व व्यभिचारी भावों के संयोग से जाग्रत स्थायीभाव रस या रसदशा कहलाता है।
रस किसे कहते हैं और कितने प्रकार के होते हैं?रस की परिभाषा (ras ki paribhasha)
कविता, कहानी, नाटक आदि पढ़ने, सुनने या देखने से पाठक को जो एक प्रकार के विलक्षण आनन्द की अनुभूति होती है उसे रस कहते हैं। आचार्य भरत ने नाटक मे आठ रस माने है। परवर्ती आचार्यों ने शान्त रस को अतिरिक्त स्वीकृति देकर कुल नौ रसों की पहचान निश्चित की।
रस क्या है class 9?रस : शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में 'रस' शब्द की व्युत्पत्ति 'रसस्यते असो इति रसाः' के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे 'रस' कहते हैं।
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