UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह) Show
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह)विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक) प्रश्न 1 सामाजिक समुह का अर्थ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समूह में रहकरे जीवन व्यतीत करना चाहता है। समूह के बिना मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी भावना ने सामाजिक समूह को जन्म दिया है। सामाजिक समूह का सामान्य अर्थ व्यक्तियों के संग्रह से लगाया जाता है। वास्तव में, व्यक्तियों का संग्रह ही समूह नहीं है, वरन् कुछ व्यक्तियों द्वारा संगठित होकर परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना तथा एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करने का नाम सामाजिक समूह है। सामाजिक समूह एक ऐसा संगठन है जिसके सदस्य परस्पर जान-पहचान रखते हुए एकरूपता स्थापित करते हैं। परिवार, क्रीड़ा-समूह, पड़ोस, मित्र-मण्डली और राज्य ऐसे ही सामाजिक समूह हैं। सामाजिक समूह की परिभाषा विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी सामाजिक समूह की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं| ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, “जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एकत्रित होकर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।” बोगार्ड्स के अनुसार, “एक सामाजिक समूह का अर्थ हम व्यक्तियों के ऐसे संग्रह से लगा सकते हैं, जिनके सामान्य स्वार्थ होते हैं, जो एक-दूसरे को प्रेरणा देते हैं, जिनमें सामान्य वफादारी पायी जाती है और जो सामान्य क्रियाओं में भाग लेते हैं।” वास्तव में, सामाजिक समूह मनुष्यों का वह संग्रह या झुण्ड है जिसके मध्य पारस्परिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। पारस्परिक सम्बन्धों के द्वारा ही समूह के सदस्य परस्पर एकरूपता प्रकट करते हैं।
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ प्राथमिक समूह को पूरी तरह से समझ लेने के लिए उनकी विशेषताओं से परिचित होना अनिवार्य है। प्राथमिक समूह में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं 2. लघु आकार-प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध पाये जाते हैं। प्रत्यक्ष सम्बन्ध तभी स्थापित हो सकते हैं जब समूह का आकार बहुत छोटा हो। प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे से परिचित होते हैं तथा समीप रहते हैं। डेविस ने लघु आकार को प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषता स्वीकार किया है। 3. सम्बन्धों की घनिष्ठता-प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्ध बड़े घनिष्ठ होते हैं। इसमें सम्बन्धों में निरन्तरता और स्थिरता होने के कारण घनिष्ठता पनप जाती है, जो प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषता है। 4. समान उद्देश्य-प्राथमिक समूह के सदस्य समान उद्देश्यों के कारण परस्पर जुड़े रहते हैं। एक निवास-स्थान और एक जैसी संस्कृति उनमें समरूपता भर देती है, जिससे उनके उद्देश्य एकसमान हो जाते हैं। प्राथमिक समूह के सदस्य सबके हित की सोचते हैं। त्याग और बलिदान की भावना उन्हें व्यक्तिगत स्वार्थ त्यागकर समूह के हित में कार्य करने को विवश कर देती 5. हम की भावना-प्राथमिक समूह एक लघु समूह है। उनके सदस्यों में निकटता के कारण घनिष्ठता पायी जाती है। परस्पर घनिष्ठता उनमें ‘हम की भावना का संचार कर देती हैं। इसमें व्यक्ति समष्टि के कल्याण की बात सोचता है। 6. स्वाभाविक सम्बन्ध-प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य स्वैच्छिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये सम्बन्ध स्वतः उत्पन्न होते हैं, उनके मध्य कोई शर्त नहीं रहती। ये सम्बन्ध स्वाभाविक और प्राकृतिक होते हैं। 7. स्वतः विकास-प्राथमिक समूह का निर्माण न होकर स्वत: विकास होता है। इनके निर्माण में कोई शक्ति या दबाव काम नहीं करता, वरन् ये स्वाभाविक रूप से स्वतः विकसित हो जाते हैं। परिवार इसका सुन्दर उदाहरण है। 8. प्राथमिक नियन्त्रण-प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़े होते हैं। पारस्परिक जान-पहचान के कारण इनके व्यवहारों पर प्राथमिक नियन्त्रण बना रहता है। परिवार में वृद्ध पुरुषों का भय ही बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से रोके रखता है। प्रत्येक सदस्य अवचेतन ढंग से प्राथमिक समूह के आदर्शों एवं नियमों का पालन करता रहता है। 9. स्थायित्व प्राथमिक समूह शनै-शनैः स्वतः विकसित होने के कारण स्थायी प्रकृति वाले होते हैं। व्यक्तिगत और घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण व्यक्ति इन समूहों की सदस्यता छोड़ना नहीं चाहता। स्थायी प्रकृति भी प्राथमिक समूहों की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। 10. साध्य सम्बन्ध-प्राथमिक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध स्व:साध्य होते हैं, सम्बन्ध उन पर थोपे नहीं जाते। स्वार्थपरता न होने के कारण इनके सम्बन्ध, लक्ष्य और मूल्य समझे जाते हैं। प्राथमिक समूह के सम्बन्ध साधन न होकर साध्य होते हैं। सम्बन्ध साध्य होने के कारण प्रत्येक सदस्य उन्हें पूरा करना अपना परम कर्तव्य मानता है। द्वितीयक समूह की विशेषताएँ द्वितीयक समूह की परिभाषाओं का अध्ययन करने से हमें उसकी निम्नलिखित विशेषताओं का ज्ञान होता है
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह में अन्तर प्राथमिक समूहों का सामाजिक महत्त्व प्राथमिक समूहों का सामाजिक महत्त्व निम्नवत् है 2. समाजीकरण में सहायक-प्राथमिक समूह अपने सदस्यों को समाज के साथ अनुकूलन करने में सक्षम बनाते हैं। ये बालक में सहयोग, दया, त्याग, प्रेम, सहानुभूति एवं सहिष्णुता के गुणों का समावेश कराकर समाजीकरण की प्रक्रिया में सहायक होते हैं। ये व्यक्ति में सामाजिक आदर्शों एवं नियमों के पालन का भाव जाग्रत कर उसे सामाजिक दशाओं के साथ अनुकूलन का पाठ पढ़ाते हैं। 3. संस्कृति का हस्तान्तरण-प्राथमिक समूह संस्कृति के वाहक हैं। ये सदस्यों को सांस्कृतिक प्रतिमानों एवं मूल्यों से परिचित कराने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। प्राथमिक समूह व्यक्ति को धर्म, नैतिकता, रूढ़ियों और परम्पराओं का ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाते रहते हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक प्रतिमान के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने के कारण उनमें सांस्कृतिक निरन्तरता बनी रहती है। 4. आवश्यकताओं की सन्तुष्टि-प्राथमिक समूह व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। परिवार, विद्यालय, राजनीतिक दल, क्रीड़ा-समूह, पड़ोस, चिकित्सालय और छविगृह मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोगी बनकर उसे आन्तरिक सन्तोष प्रदान करते हैं। 5. पशु-प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण-प्राथमिक समूह व्यक्ति में मानवता का समावेश कर उसे दुर्गुणों से मुक्त रखते हैं। वे व्यक्तियों की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रखकर उसमें सद्गुणो का संचार करते हैं। परिवार मनुष्य को सत्य, अहिंसा, धर्म, नैतिकता, त्याग और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर उसे पशु-प्रवृत्तियों से बचाता है। कूले के शब्दों में, “पशु-प्रवृत्तियों का मानवीकरण ही सम्भवतः सबसे बड़ी सेवा है, जो प्राथमिक समूह करते हैं।’ 6. मनोरंजन-जीवन के दो पहलू हैं—कार्य और मनोरंजन। प्राथमिक समूह हारे-थके व्यक्ति को मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान कर उसे स्वस्थ और प्रसन्न बनाते हैं। परिवार में रहकर व्यक्ति गपशप, हँसी-मजाक, नाचकूद और खेलकूद की सुविधाओं का लाभ उठाकर अपना दिल बहलाता है। मनोरंजन से उसके जीवन में सरसता उत्पन्न होती है। 7. कार्यक्षमता में वृद्धि-प्राथमिक समूह व्यक्ति को उसकी रुचि और क्षमता के अनुरूप कार्य देकर उन्हें कुशल बनाते हैं। व्यक्ति के विभिन्न कार्यों में उसका मार्गदर्शन करके उसकी कार्यक्षमता बढ़ाते हैं। प्राथमिक समूह में व्यक्ति को अपने कौशल दिखाने का पूरा-पूरा अवसर दिया जाता है। अतः उसमें आत्मविश्वास जाग उठता है जो उसकी कार्यक्षमता को द्विगुणित कर देता है। 8. सुरक्षा-प्राथमिक समूह व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये व्यक्ति में यह विश्वास कूट-कूट कर भर देते हैं कि विपत्ति के समय उसे पूरी-पूरी सहायता प्राप्त होगी। सुरक्षा की भावना व्यक्ति को आत्मसन्तोष और निश्चिन्तता के भाव से ओत-प्रोत कर देती है। प्राथमिक समूह का प्रत्येक सदस्य स्वयं को मानसिक दृष्टि से पूर्णत: सुरक्षित मानता है। 9. सामाजिक नियन्त्रण में सहायक-प्राथमिक समूह सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं। प्राथमिक समूह सदस्यों में सद्गुणों का विकास कर समाज को नियन्त्रित करने में सहायक बनते हैं। 10. समाज का आधार-प्राथमिक समूह समाज के अभिन्न अंग होते हैं। व्यक्ति प्राथमिक समूह में उत्पन्न होकर समाज के अस्तित्व का आधार बनता है। प्राथमिक समूहों में समाज की निरन्तरता बनी रहती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राथमिक समूह का सामाजिक महत्त्व बहुत अधिक है। प्रश्न 2 अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह मनुष्य का सारा जीवन ही समूहों में व्यतीत होता है। वह स्वभावतः सामूहिक प्राणी है। किन्तु विभिन्न समूहों के प्रति उसके दृष्टिकोण और अन्य सदस्यों के साथ उसके सम्बन्धों की गुणवत्ता में भिन्नता पायी जाती है। इसी आधार पर समनर (Sumner) ने अपने ग्रन्थ ‘जनरीतियाँ’ (Folkways) में बताया कि मानव-समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं-अन्त:समूह एवं बाह्य समूह। अन्तःसमूह In-Group अन्त:समूहों में सम्बन्धों की गुणवत्ता इसमें व्याप्त अपेक्षाकृत शान्ति और व्यवस्था है। उसके सदस्य एक-दूसरे के प्रति सहयोग, शुभकामना, परस्पर-विश्वास और सहयोग प्रदर्शित करते हैं। अन्त:समूह में सदस्य एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान ही नहीं करते, वरन् एक-दूसरे के लिए बलिदान करने की भावना व तत्परता भी रखते हैं। इसीलिए उनमें एकता की भावना तथा समूह के प्रति निष्ठा पायी जाती है। इस प्रकार अन्त:समूह के बीच अभिन्न समरूपता, समानता और सहिष्णुता होती है। बाह्य समूह Out-Group समाजशास्त्र की दृष्टि से, अन्त:समूह और बाह्य समूह का वर्गीकरण बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में, व्यक्ति अपने जीवन के दौरान इसी सन्दर्भ में लोगों को देखता है तथा व्यवहार करता है। कुछ व्यक्ति और समूह उसके अपने लोग होते हैं और कुछ व्यक्ति और समूह उसके अपनों के दायरे से बाहर होते हैं, उसके लिए वे ही बाह्य समूह हैं। अन्त:समूह और बाह्य समूह के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि समनर द्वारा समूहों का यह वर्गीकरण व्यक्तिनिष्ठ (Subjective Classification) है, क्योंकि यह व्यक्ति को दृष्टि में रखकर किया गया है। तद्नुरूप जो समूह एक व्यक्ति के लिए अन्त:समूह है; जैसे उसका अपना परिवार, वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए बाह्य समूह होगा। इसी प्रकार उस अन्य व्यक्ति के लिए जो अन्त:समूह होगा वह उससे पहले व्यक्ति के लिए बाह्य समूह। उदाहरणार्थ-मेरा परिवार मेरे लिए अन्त:समूह है, किन्तु मेरे पड़ोसी के लिए बाह्य समूह। इसी प्रकार मेरे पड़ोसी का परिवार उसके लिए अन्त:समूह है, किन्तु मेरे लिए बाह्य समूह है।। अन्तःसमूह और बाह्य समूह के बीच अन्तर अन्त:समूह और बाह्य समूह की व्याख्या से ही दोनों के बीच अन्तर स्पष्ट हो जाता है। संक्षेप में उनके बीच अन्तर के बिन्दु निम्नलिखित हैं प्रश्न 3 मैकाइवर एवं पेज द्वारा समूहों का वर्गीकरण मैकाइवर एवं पेज ने सभी सामाजिक समूहों को तीन प्रमुख भागों और अनेक उपविभागों में प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण की जटिलता और विस्तृत प्रकृति को ध्यान में रखते हुए हम मैकाइवर के वर्गीकरण को संक्षेप में निम्नलिखित चार्ट द्वारा समझ सकते हैं सामाजिक संरचना में प्रमुख समूहों की योजना मिलर द्वारा वर्गीकरण मिलर ने सभी सामाजिक समूहों को उदग्र तथा समतल दो भागों में विभाजित किया है 2. समतल समूह-यह समूह इस अर्थ में समतल है कि इसके सभी सदस्यों की सामाजिक स्थिति लगभग समान होती है। सदस्यों के बीच न तो कोई ऊँच-नीच होती है और न ही उन्हें कम या अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए, श्रमिक-वर्ग अथवा लेखक-वर्ग समतल समूह हैं जिनके सभी सदस्य इस भावना से प्रभावित रहते हैं कि उन सबका स्तर लगभग एक समान है। अन्तःसमूह और बाह्य समूह समनर (Sumner) ने अपनी पुस्तक ‘Folkways’ में समूह के सदस्यों में घनिष्ठता तथा सामाजिक दूरी के आधार पर सभी समूहों को अन्त:समूह और बाह्य समूह जैसे दो प्रमुख भागों में विभाजित किया है। इन दोनों प्रकार के समूहों की प्रकृति को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है| अन्तःसमूह-इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम समनर ने सन् 1907 में किया और इसके बाद लगभग सभी समाजशास्त्रियों ने किसी-न-किसी रूप में ऐसे समूहों का उल्लेख अवश्य किया है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि आरम्भिक समय से ही वह कुछ वस्तुओं अथवा व्यक्तियों को अच्छा समझने लगता है और उनकी तुलना में दूसरी वस्तुओं अथवा व्यक्तियों की अवहेलना करता है। वास्तव में, अन्त:समूह की धारणा व्यक्ति की इसी मनोवृत्ति से सम्बन्धित है। बाह्य समूहबाह्य-समूह, अन्त:समूह से पूर्णतया विपरीत भावनाएँ प्रदर्शित करता है। जिस समूह को हम बाह्य समूह कहते हैं, उसके प्रति हमारी मनोवृत्ति कम सौजन्यपूर्ण और भेदभाव से युक्त होती है। हम कह सकते हैं कि जब बिना किसी विशेष कारण के ही हम कुछ व्यक्तियों से सामाजिक दूरी का अनुभव करते हैं और इसलिए उन्हें अपने से हीन मानकर उनकी अवहेलना करते हैं, तब ऐसे व्यक्तियों के समूह को ‘बाह्य समूह’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह समूह के सभी वर्गीकरणों में चार्ल्स कूले द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण सबसे अधिक संक्षिप्त, वैज्ञानिक और मान्य है। अमेरिकन समाजशास्त्री चार्ल्स कूले (Charles Cooley) ने सन् 1909 में अपनी पुस्तक ‘Social Organisation’ में सर्वप्रथम ‘प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग किया। बाद में ऐसे समूहों से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समूहों को द्वितीयक समूह’ कहा जाने लगा। यह वर्गीकरण समूह के आकार (size), महत्त्व और सदस्यों में पाये जाने वाले सम्बन्धों की प्रकृति के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। प्राथमिक समूह का अर्थ तथा उदाहरण-चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों को मानव स्वभाव की पोषिका’ (nursery of human nature) कहा है। कुले ने कुछ समूहों को प्राथमिक इसलिए कहा है क्योंकि महत्त्व के दृष्टिकोण से इनका स्थान प्रथम और प्रभाव प्राथमिक है। जब कभी भी कुछ व्यक्ति घनिष्ठता अथवा ‘हम की भावना से बँधकर अन्तक्रिया करते हैं तथा समूह के हित के सामने निजी स्वार्थों का बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं, तब ऐसे समूह को हम एक प्राथमिक समूह कहते हैं। कूले ने आरम्भ में परिवार, क्रीड़ा-समूह और पड़ोस के लिए प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग किया था। जीवन के आरम्भिक काल में परिवार व्यक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई होती है, जिसे कूले ने प्राथमिक समूह का सबसे अच्छा उदाहरण माना है। द्वितीयक समूह का अर्थ तथा उदाहरण-चार्ल्स कूले ने आरम्भ में द्वितीयक समूह’ जैसे किसी शब्द का उल्लेख नहीं किया था, लेकिन प्राथमिक समूह से विपरीत विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समूहों को जब द्वितीयक समूह (Secondary group) के रूप में स्पष्ट किया जाने लगा, तब कूले ने भी इसे स्वीकार करते हुए कहा, “ये वे समूह हैं जिनमें घनिष्ठता, प्राथमिक तथा अर्द्धप्राथमिक (quasi-primary) विशेषताओं का पूर्ण अभाव रहता है। लगभग इसी प्रकार ऑगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburm and Nimkoff) के अनुसार, “द्वितीयक समूह वे समूह हैं जो घनिष्ठता की कमी का अनुभव करते हैं।’ ऑगबर्न ने कहा है कि, “द्वितीयक समूहों का तात्पर्य व्यक्तियों के उन समूहों से है जो द्वितीयक सम्बन्धों द्वारा संगठित होते हैं। द्वितीयक सम्बन्धों का अर्थ ऐसे सामाजिक सम्बन्धों से है जो प्राथमिक नहीं हैं अथवा जो आकस्मिक और औपचारिक (formal) हैं।” द्वितीयक समूहों में घनिष्ठता का अभाव और औपचारिकता होने के कारण ही लैण्डिस (H. H. Landis) ने इन्हें ‘शीत जगत’ (cold world) के नाम से सम्बोधित किया है। लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 2. सामाजिक परिवर्तन द्वारा प्रगति-द्वितीयक समूह व्यक्ति को भविष्य के प्रति आशावान बनाकर परिवर्तन को प्रोत्साहन देते हैं। वास्तविकता यह है कि हमारे समाज में आज यदि प्रथाओं, परम्पराओं, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का प्रभाव कुछ कम हो सका है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि द्वितीयक समूहों ने हमें नये व्यवहारों को ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। 3. जागरूकता में वृद्धि-द्वितीयक समूह परम्परा पर आधारित न होकर विवेक और तर्क को अधिक महत्त्व देते हैं। इस कारण इन समूहों में रहकर व्यक्ति का दृष्टिकोण अधिक तार्किक बन जाता है। आज द्वितीयक समूहों के प्रभाव से ही अनेक उपनिवेशवादी समाजों को अपनी दमनकारी नीति को छोड़ना पड़ा है। इसके अतिरिक्त, स्त्रियों की वर्तमान उन्नति और श्रमिक वर्ग को प्राप्त होने वाले अधिकार भी द्वितीयक समूहों के कारण ही सम्भव हो सके हैं। 4. आवश्यकताओं की पूर्ति-औद्योगीकरण के युग में व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति केवल द्वितीयक समूह में रहकर ही सम्भव है। वर्तमान युग में कार्य करना आवश्यक हो गया है। उदाहरण के लिए, शिक्षा प्राप्त करना, किसी कारखाने या कार्यालय में नौकरी करना, राजनीतिक संगठनों से सम्बन्ध बनाये रखना, अनेक कल्याण संगठनों में रहकर कार्य करना, स्थानीय अथवा राष्ट्रीय मामलों में रुचि लेना आदि व्यक्ति की प्रमुख आवश्यकताएँ हैं। इन सभी आवश्यकताओं को केवल द्वितीयक समूह ही पूरा करते हैं। 5. श्रम को प्रोत्साहन-द्वितीयक समूहों ने श्रम को सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में स्वीकार करके सामाजिक प्रगति में विशेष योगदान दिया है। द्वितीयक समूह व्यक्ति को श्रम का वास्तविक पुरस्कार देकर उसे अधिक-से-अधिक काम करने की प्रेरणा देते हैं। इससे व्यक्ति का जीवन कर्मठ बनता है। अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक) प्रश्न 1
प्रश्न 2 प्रश्न 3
प्रश्न 4
प्रश्न 5
प्रश्न 6
निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रश्न 4 प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न 8 प्रश्न 9 प्रश्न 10 प्रश्न 12 प्रश्न 13 प्रश्न 14 प्रश्न 15 प्रश्न 16 प्रश्न 17 प्रश्न 18 प्रश्न 19 प्रश्न 20 प्रश्न 21
प्रश्न 22 प्रश्न 23 बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. प्रश्न 23. प्रश्न 24. निम्नलिखित में द्वितीयक समूह कौन-सा है ? [2013] उत्तर: We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह) help you. सामाजिक समूह क्या है मानवीय आचरण पर इसके प्रभाव की चर्चा कीजिए?ये समूह मनुष्य के सामाजिक स्वभाव बनाने में तथा उसके जीवन में आदर्शों का निर्माण करने में भी प्राथमिक होते हैं। उदाहरण के लिए परिवार को ही लिया जाए, जिसे कूले ने प्रथम प्राथमिक समूह माना है। परिवार के सदस्यों में आमने-सामने के सम्बन्ध पाए जाते हैं। इसके कारण सभी सदस्य एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्धों में बँधे रहते हैं।
सामाजिक समूह से आप क्या समझते हैं इसके महत्व को समझते हैं?सामाजिक समूह (social group) किसी भी दो या दो से अधिक व्यक्तियों के ऐसे समूह को कहते हैं जो एक-दूसरे से सम्पर्क व लेनदेन रखें, जिनमें एक-दूसरे से कुछ सामानताएँ हों और जो आपस में एकता की भावना रखें।
मानव जीवन में सामाजिक समूह का क्या महत्व है?सामूहिक समाज कार्य व्यक्ति की सामूहिकता की आवश्यकता को पूरा करने के लिए विकसित हुआ है। सामाजिक समूह कार्य अपने आप में एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रणाली है, जिसके माध्यम से कार्यकर्ता व्यक्ति को समूह और समूह समूह को व्यक्ति की आवश्यकता से परिचित करवाते हुए व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के गुणों को विकसित करता है।
सामाजिक समूह क्या है इसके विशेषताओं को समझाइए?सामाजिक समूह केवल व्यक्तियों का एक योग है जो नियमित रूप से एक दूसरे के साथ अन्त:क्रिया करते है। इस तरह की नियमित अन्त:क्रियाएँ समूह के सदस्यों को एक निश्चित इकाई का रूप देती है। इन सदस्यों की पूर्ण रूप से सामाजिक पहचान अपने समूह से ही होती है।
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