टीपू सुल्तान ने ईस्ट इंडिया कंपनी की रक्षा के लिए क्या किया? - teepoo sultaan ne eest indiya kampanee kee raksha ke lie kya kiya?


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नई दिल्ली: ऐसे समय में जब ‘टीपू सुल्तान’ का नाम किसी भी बहस को दो पक्षों में बांट सकता है, ऐतिहासिक शख्सियत का जिक्र ही ध्रुवीकरण करने के लिए पक्ष और विपक्ष में लोगों की अलग-अलग राय सामने ले आता है, तो डीएजी की ये नई प्रदर्शनी, ‘टीपू सुल्तान: इमेज एंड डिस्टेंस’, भारत में कला के जरिए एक नए नजरिये को सामने लेकर आई है- ईस्ट इंडिया कंपनी के कलाकारों का नजरिया.

जाइल्स टिलोटसन इस प्रदर्शनी को लेकर आए हैं जिसे एब डीएजी, द क्लेरिजेस, नई दिल्ली में उनके संग्रह के हिस्से के रूप में स्थायी रूप से रखा गया है. यह प्रदर्शनी एक विवादास्पद शासक पर एक अलग नजरिया देती है. इसमें 90 से ज्यादा कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है, जिनमें युद्ध के दृश्यों और परिदृश्य चित्रित किए गए हैं. इसके साथ ही 1799-1800 के तीन समाचार पत्रों को भी इसमें जगह दी गई है. इनमें से कई पेंटिंग पहले कभी ब्रिटेन में विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय जैसे निजी पार्टियों और संग्रहालयों के स्वामित्व में थीं.

टीपू सुल्तान ने ईस्ट इंडिया कंपनी की रक्षा के लिए क्या किया? - teepoo sultaan ne eest indiya kampanee kee raksha ke lie kya kiya?
जाइल्स टिलोटसन, डीएजी प्रदर्शनी के क्यूरेटर | दिशा बागची/दिप्रिंट

25 जुलाई को सांसद शशि थरूर ने इसका उद्घाटन किया था. ‘टीपू सुल्तान: इमेज एंड डिस्टेंस’ में मौजूद कलाकृतियों में ईआईसी और मुस्लिम शासक के बीच मैसूर युद्ध के इतिहास को चित्रित किया गया है. पेंटिंग इस बात की भी पड़ताल करती हैं कि कैसे सेरिंगपट्टम की घेराबंदी के बाद से 222 सालों से भारत और ब्रिटेन दोनों देशों के पब्लिक नैरेटिव कला से प्रभावित होते आए हैं.

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उद्घाटन में कांग्रेस सांसद शशि थरूर | दिशा बागची/दिप्रिंट

जबकि डीएजी और टिलोटसन समकालीन सामाजिक-राजनीतिक समझ से अच्छी तरह वाकिफ हैं, वे टीपू सुल्तान के आसपास की वर्तमान राजनीति को इसमें जोड़ना नहीं चाहते. वे सिर्फ भारतीय इतिहास लेखन में योगदान देना चाहते हैं. टिलोटसन कहते हैं, ‘हम टीपू सुल्तान के आसपास की समकालीन बहस में कदम नहीं रखना चाहते, बल्कि हम लोगों को उन्हें एक अलग नजरिये से दिखाना चाहते हैं ताकि लोग अपनी खुद की धारणा बना सकें.’


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ईआईसी मैडल, जिसे श्रीरंगपट्टम मैडल या श्री रंगा पट्टाना के रूप में जाना जाता है, भारत के गवर्नर-जनरल द्वारा 1799 के चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में उनकी जीत के लिए सभी ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों को दिया गया था. ये मैडल टीपू सुल्तान की हार को रेखांकित करते हैं. इनमें ब्रिटिश शेर एक बाघ को रौंदते हुए प्रदर्शित किया गया है. बाघ जो टीपू के शासनकाल का प्रतीक है. और साथ में उर्दू में कैप्शन लिखी है, ‘असद अल्लाह अल-ग़ालिब’ या ‘द विक्टोरियस लायन ऑफ़ गॉड’.

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चित्रों के अलावा एग्जिबिशन में ऐतिहासिक वस्तुओं जैसे नक्शे, चीनी मिट्टी और लकड़ी की मूर्तियां और भी बहुत कुछ प्रदर्शित किया गया है.

शशि थरूर ने प्रदर्शनी और पुस्तक का लोकार्पण करते हुए टीपू सुल्तान से जुड़े अपने अस्पष्ट पारिवारिक इतिहास को भी इसमें जोड़ दिया. उन्होंने बताया कि कथित तौर पर, जब शासक मालाबार पर आक्रमण करने वाला था, तब थरूर का पारिवारिक खजाना कहीं छिपा दिया गया था. जो बाद में कभी बरामद नहीं हुआ था. कांग्रेस सांसद ने एक घटना को भी याद किया जब दक्षिण में शासक के आसपास के कई विवादों में से एक के पक्ष में बोलने पर हिंदूवादी संगठनों और अधिकारों के लिए लड़ने वालों ने उन पर हमला किया था. हालांकि वह प्रदर्शनी में लगे चित्रों पर भी बोले. उन्होंने कहा ‘हमने देखा है कि टीपू के ये ब्रिटिश चित्रण, नि:संदेह, अप्रभावी हैं. हमें इन्हें सही या गलत के नजरिए से नहीं बल्कि इतिहास के परिप्रेक्ष्य से देखना चाहिए.’

हालांकि, ये ब्रिटिश कलाकृतियां टीपू सुल्तान के प्रचलित नकारात्मक सार्वजनिक इतिहास को दिखा रहीं हैं. लेकिन वे कला की एक जरूरी विशेषता और उसके प्रभाव को भी सामने लेकर आती हैं. कला को हमेशा अतीत के ईमानदार इतिहासकार के रूप में नहीं देखा जा सकता है. यह अक्सर उसके लिखने या मढ़ने वाले के पूर्वाग्रहों के बोझ के साथ आती हैं. ब्रिटिश कलाकृतियों के मामले में देखा जाए तो ये ईआईसी के एजेंडे पर प्रकाश डालती हुई नजर आती हैं. इनका उद्देश्य इस ऐतिहासिक व्यक्ति को बदनाम करना है. क्रांतिकारी, निरंकुश, कट्टर – टीपू के इतिहास से जुड़ी उसके व्यक्तित्व की ये खासियतें उस समय का हिस्सा हैं जिसमें वह रहता था. प्रदर्शनी में ईआईसी पेंटिंग खिड़की के शीशे पर लगे हुए दाग का एक हिस्सा है.

प्रचार कार्य के रूप में कला

मुख्य रूप से ब्रिटिश कलाकारों के कार्यों को प्रदर्शित करने वाली, ‘टीपू सुल्तान: इमेज एंड डिस्टेंस’ की अनूठी विशेषताओं में से एक खासियत इसके अधिकांश दृश्यों और परिदृश्यों का काल्पनिक होना है. इन्हें औपनिवेशिक साम्राज्य के लक्ष्यों का समर्थन करने के लिए बनाया गया है. सैनिकों और अन्य ब्रिटिश अधिकारियों की ओर से वे टीपू सुल्तान के खलनायकी और ‘कमतर’ काम के हिस्से पर ध्यान देते हैं.

टिलोटसन बताते हैं ‘ये कलाकृतियां भारतीय दर्शकों के लिए नहीं बनाई गईं थीं. वे ब्रिटिश दर्शकों के लिए किया गया प्रचारक कार्य था जो उन्हें यह समझा रहा था कि युद्ध की जरूरत क्यों थी. मैंने इन्हें आधुनिक भारतीय दर्शकों को दिखाने के लिए जान-बूझकर समय और स्थान दोनों के संदर्भ से बाहर किया है.’ उन्हें उम्मीद है कि इस प्रदर्शनी का भारत में टीपू सुल्तान के आसपास के समकालीन राजनीतिक चर्चा पर असर पड़ेगा.

हेनरी सिंगलटन की द लास्ट एफर्ट एंड फॉल ऑफ टीपू सुल्तान (1809), रॉबर्ट केर पोर्टर की द स्टॉर्मिंग ऑफ सेरिंगापटम (1802) और सिंगलटन की टीपू सुल्तान जैसी अन्य कृतियां पूरी तरह से काल्पनिक हैं और मैसूर युद्धों के ब्रिटिश जनमत को प्रभावित करने और प्रचार-प्रसार करने के लिए बनाई गई थीं. चूंकि इनमें से कई कलाकार तो वास्तव में कभी भारत भी नहीं आए और मुख्य रूप से उनका काम युद्धों और देश की स्थितियों के बारे में अधिकारियों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है. उनका काम ब्रिटिश अधिकारियों को बहादुर और विजयी के रूप में प्रदर्शित करता है और वहीं दूसरी तरफ टीपू सुल्तान को एक अत्याचारी के रूप में अपने कैदियों को यातना देने और मारने के रूप में चित्रित किया गया है.

टीपू सुल्तान ने ईस्ट इंडिया कंपनी की रक्षा के लिए क्या किया? - teepoo sultaan ne eest indiya kampanee kee raksha ke lie kya kiya?
हेनरी सिंगलटन (1766-1839), द लास्ट एफर्ट एंड फॉल ऑफ टीपू सुल्तान c. 1802, तैल चित्र | शिवानी बेंजामिन, डीएजी, द क्लेरिज/नई दिल्ली.
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हेनरी सिंगलटन (1766-1839), जोसफ ग्रोजर (1755-99) द्वारा उकेरा गया, टीपू सुल्तान ने अपने बेटों को गुल्लम अल्ली बेग द वेकेल को देते हुए, जो अपने भाई की छुट्टी से पहले सेरिंगपट्टम से प्रस्थान कर रहे हैं, 1793, मेज़ोटिंट, पानी के रंग से रंगा हुआ कागज पर | शिवानी बेंजामिन, डीएजी, दि क्लेरिज/नई दिल्ली.

टिलोटसन कहते हैं, ‘उनका सफाया करने के अपने कृत्यों को सही ठहराने के लिए, उन्हें उसे एक खलनायक में बदलना होगा. ठीक यही काम उन्होंने (ईआईसी) भी किया है.’

पेंटिंग्स औपनिवेशिक भारत की ब्रिटिश अज्ञानता को मंदिरों को गलत लेबल वाली मस्जिदों, खाली सड़कों, बड़े करीने से तैयार किए गए परिदृश्य, और बहुत कुछ के माध्यम से दर्शाती हैं. एक आश्चर्यजनक तथ्य जो क्यूरेटर ने प्रदर्शनी के अपने पूर्वाभ्यास के दौरान दिखाया, वह प्रकाशक ओरमे द्वारा जेम्स हंटर, जो कभी भारत नहीं आया था, की ए मूरिश मस्जिद में एक हिंदू मंदिर की गलत पहचान थी.

फ्रांसिस स्वैन वार्ड के फोर्ट स्क्वायर फ्रॉम दि साउथ साइड ऑफ दि परेड में खाली सड़कें, फोर्ट सेंट जॉर्ज (1805) और थॉमस डेनियल के ए व्यू ऑफ ओस्सोर (1804) में अछूते परिदृश्य, और अन्य पेंटिंग एक युद्ध से तबाह हो चुके इलाकों को दर्शा रहीं थीं.

प्रदर्शनी के साथ ही टीपू सुल्तान: इमेज एंड डिस्टेंस शीर्षक वाली एक किताब भी है, जिसमें जानकी नायर, जेनिफर होवेस और सविता कुमारी जैसे टीपू सुल्तान के प्रमुख विशेषज्ञों के अध्याय हैं. ये निबंध शासक की विरासत के आसपास के कई विषयों की जानकारी देते हैं.

दोनों पक्षों से दूर जाते हुए

भारत में टीपू सुल्तान के इर्द-गिर्द की समकालीन चर्चा धर्म के इर्द-गिर्द घूमती रहती है, जिससे वह सांस्कृतिक राजनीति में एक विवादित संवेदनशील मुद्दे में बदल जाता है. कर्नाटक कांग्रेस सरकार ने 2015 में 10 नवंबर को ‘हजरत टीपू सुल्तान जयंती’ मनाने का फैसला किया था, तब से टीपू सुल्तान की विरासत विवादों में घिरी हुई है. इस कारण पार्टी की भाजपा के साथ विरोध और गरमागरम बहस भी हुई. जहां कांग्रेस उन्हें एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में देखती है, वहीं भाजपा उन्हें एक निरंकुश, कट्टर तानाशाह के रूप में देखती है जिसने असंख्य हिंदुओं की हत्या की थी.

जानकी नायर ने अपने निबंध द लाइव्स एंड आफ्टरलाइव्स ऑफ टीपू सुल्तान ऑफ मैसूर के टीपू सुल्तान के शायद यह सबसे अच्छी बात लिखी है: टीपू सुल्तान पर पेशेवर ऐतिहासिक कार्य का विशाल और परिष्कृत निकाय भारत में विजय और संघर्ष के गैर-सांप्रदायिक इतिहास के लिए बायनेरिज़ को पीछे छोड़ने और प्रयास करने का अवसर खोलता है. यह अब एक विकल्प नहीं बल्कि एक अनिवार्यता है.’

महिलाएं कहां हैं?

आप ‘टीपू सुल्तान: इमेज एंड डिस्टेंस’ में विभिन्न कलाकृतियों को देखते हुए यह सवाल कर सकते हैं कि अधिकांश पेंटिंग युद्ध के दृश्यों या टीपू सुल्तान के उत्तराधिकारियों के जीवन पर केंद्रित हैं. लेकिन कोई भी कलाकृति श्रीरंगपटना में उनके महल में रहने वाली सैकड़ों महिला दरबारियों का वर्णन नहीं करती हैं.

कलाकृतियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की उपेक्षा क्यों की गई, इसकी खोज करते हुए, जेनिफर होवेस ने अपने निबंध द वीमेन ऑफ टीपू सुल्तान कोर्ट में लिखा है, ‘यह आश्चर्यजनक नहीं है कि टीपू सुल्तान की महिला दरबारियों को मैसूर के 19वीं शताब्दी के वृतांतों में काफी हद तक अनदेखा कर दिया गया था, और जब उन्हें कला में चित्रित किया गया था, तो उन्हें टीपू सुल्तान के निरंकुश चरित्र के बारे में साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिए मूक पीड़ितों के रूप में दिखाया गया. आश्चर्य की बात यह है कि टीपू के दरबार की इस साधारण सी बात को समझना में कितना समय लगा.’

अपने निबंध के जरिए वह विभिन्न ऐतिहासिक दृश्यों पर प्रकाश डालती है, जहां महिलाओं को पूरी तरह से भुला दिया गया था. थॉमस मैरियट की दर्ज की गई जानकारी का हवाला देते हुए, वह निष्कर्ष निकालती हैं कि वास्तव में, टीपू के दरबार में 600 से अधिक महिलाएं थीं, जो विभिन्न पदनामों से संबंधित थीं और कई भाषाओं और अन्य कौशल में प्रशिक्षित थीं.

फिर भी इन सभी कलाकृतियों को केवल प्रचारक दृश्यों को चित्रित करने के तौर पर अलग नहीं किया जा सकता है. ये चित्र कुछ न समझ में आने वाली बातों को भी बता रहा है, कि उन कलाकारों के इरादों और उद्देश्य तो थे ही लेकिन उन्हें यह काम करने के लिए कहने वाले कौन थे.

हेनरी सिंगलटन की द लास्ट एफर्ट एंड फॉल ऑफ टीपू सुल्तान (1809), से इस प्रदर्शनी की शुरुआत होती है, शायद चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध के दौरान ईआईसी के खिलाफ टीपू सुल्तान की लड़ाई का प्रतिनिधित्व करने वाला सबसे उल्लेखनीय काम है. इस चित्र के जरिए सिंगलटन ने ब्रिटिश सैनिकों को बहादुर और वीर के रूप में प्रदर्शित करने का लक्ष्य रखा था, जिन्होंने सफलतापूर्वक एक राक्षसी अत्याचारी को हराया था.

सिंगलटन के कल्पना से भरे इस काम बारे में बात करते हुए, टिलॉटसन ने एक दिलचस्प खुलासा किया. वह कहते हैं, ‘एक यह कल्पना करना है कि इस उग्र सैनिक का अनदेखा दाहिना हाथ टीपू की तरफ खंजर चला रहा है. लेकिन मैं इसमें कुछ जोड़ने जा रहा हूं जिसे हममें से किसी ने भी कहने की हिम्मत नहीं की है. यह तस्वीर पूरी कहानी नहीं कहती है. आप खंजर बिल्कुल नहीं देख सकते हैं. तो क्या वह वास्तव में वही कर रहा था?’

टिलोटसन कहते हैं, ‘अंग्रेजों की ओर से कहानी का सिर्फ एक पहलू पता चलता है कि जिस व्यक्ति ने टीपू को मार डाला, वह वास्तव में उसके गहने चोरी करने की कोशिश कर रहा था. मेरे लिए तो सिंगलटन कह रहा है कि टीपू को मारने वाला कोई वीर सैनिक या बहादुर हत्यारा नहीं था, वह चोर था.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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