दांडी डाकू के लिए सुरक्षित क्यों है? - daandee daakoo ke lie surakshit kyon hai?

डॉडे तिब्बत में सबसे खतरे की जगहें हैं। सोलह-सत्रह हजार फीट की ऊँचाई होने के कारण उनके दोनों तरफ मीलों तक कोई गाँव-गिराँव नहीं होते। नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी को देखा नहीं जा सकता। डाकुओं के लिए यही सबसे अच्छी जगह है। तिब्बत में गाँव में ङ्केआर माही जापा, या खुनी को तजा भी मिल सकती है, लेकिन इन निर्जन स्थानों में मरे हुए आदमियों के लिए कोई परवाह नहीं करता। सरकार खुफिया-विभाग और पुलिस पर उतना खर्च नहीं करती और वहाँ गवाह भी तो कोई नहीं मिल सकता। डकैत पहले आदमी को मार डालते हैं, उसके बाद देखते हैं कि कुछ पैसा है कि नहीं।

डकैतों की कहानियों में आज आपको बता रहे हैं चंबल के मुश्किल बीहड़ में डाकू कैसे रहते थे। गोली लगने पर कैसे उनका इलाज होता था। इसके साथ ही आपको बताएंगे डाकू मलखान सिंह के राइट हैंड रहे मुन्ना सिंह की आपबीती। कैसे एक टीचर का बेटा दबंगों के जुल्मों सितम से तंग आकर डाकू बन गया।

दांडी डाकू के लिए सुरक्षित क्यों है? - daandee daakoo ke lie surakshit kyon hai?

बीहड़ में रहने और जीने के कुछ नियम थे, जिन्हें डाकुओं ने बना रखे थे। जिसने भी इन नियमों तोड़ा वो मारे जाते थे। क्या थे यह नियम नीचे पढ़िए...

आसान नहीं है बीहड़ की जिंदगी
बीहड़ की जिंदगी इतनी आसान भी नहीं थी। कई लोगों के मन में सवाल उठता है कि आखिर डकैत रहते कैसे थे? इसका जवाब दिया पूर्व डाकू मुन्ना सिंह ने। मुन्ना ने बताया कि बीहड़ में सुरक्षित जीवन के लिए कुछ नियम थे, जिन्हें हर गिरोह सख्ती से पालन करता था, जिन्होंने नियम तोड़े उन्हें पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ा। हम पानी भरने से लेकर नहाने तक का काम रात में ही करते थे। पुलिस जैसी वर्दी पहनते थे, ताकि ग्रामीण भ्रम में रहे। हर गैंग का एक कोड वर्ड और इलाका तय था।

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रात को बीड़ी नहीं पीते थे
डकैत जंगल में या फिर बीहड़ में ही रहते थे, लेकिन जगह बदलते रहते थे। जैसे जहां भोजन करते थे, वहां रुकते नहीं थे। जहां रुकते थे, वहां भोजन नहीं बनाते थे। पानी भरने से लेकर नहाने तक का काम रात में करते थे, क्योंकि दिन में पानी के स्रोतों पर पुलिस की नजर होती थी। रात में किसी को बीड़ी पीने की इजाजत नहीं थी। बीड़ी की चमक दूर से दिख जाती थी। दाढ़ी खुद बना लेते थे। बाल कटवाने के लिए नाई को बुलवाते थे।

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चूंकि सभी डाकू पुलिस की जैसी वर्दी पहनते थे। कभी असली पुलिस से भी सामना हो जाता था। पुलिस से बचने के लिए हर गिरोह का एक कोर्ड वर्ड था, जो हर गिरोह को पता हाेता था। इनका उपयोग कैसे किया जाता था, यह आप नीचे पढ़िए...

मलखान का कोड था 3 और घनश्याम का साढे़ 3
चंबल में तब कई डकैतों के गिरोह थे। अलग-अलग गिरोह से हमारा मिलना भी होता था। पुलिस जैसी वर्दी के चलते भ्रम न हो, इस कारण हर गिरोह का एक कोड वर्ड था। जैसे मलखान सिंह गिरोह का कोड वर्ड 3 था और घनश्याम सिंह गिरोह का कोड वर्ड साढ़े तीन था, जैसे ही कोई गिरोह दिखता तो सामने वाले गिरोह से कोड वर्ड बोला जाता। सामने वाले गिरोह को भी अपना कोर्ड वर्ड बताना होता था। नहीं बताने का मतलब होता था कि वो पुलिस है। हर डकैत का इलाका भी बंटा था। हम किसी के इलाके में दखल या अपहरण नहीं करते थे।

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डाकुओं के पास पुलिस से बचने के कई उपाय और नियम थे। दोपहर में खाना भी इसी कायदे में से एक था। ऐसा क्यों था इसका जवाब है नीचे के पैरा में।

खाना दिन में एक बार, दोपहर बाद बनता था
डकैत चावल कभी-कभार ही बनाते थे। वे दाल या सब्जी बनाते थे। इसके लिए गैंग के पास एक भगोना होता था। वहीं 8 से 10 तवे होते थे, जिन पर रोटी बनती थी। तवे एक जगह नहीं, सदस्यों के पिट्‌ठू बैग में रखे होते थे। सभी के पास अपनी-अपनी एक छोटी कटोरी होती थी। आटा गूंथने के लिए एक मोटी पॉलीथिन रखते थे। उसी पर रोटी भी बनाकर रख लेते थे। कटोरी में सब्जी या दाल रखकर रोटी से खा लेते थे। खाना 24 घंटे में एक बार, लेकिन दोपहर दो बजे के बाद बनता था। कारण कि दिन में धुआं कम दिखता है। दूसरा ये कि यदि पुलिस को पता चल जाए और मुठभेड़ हो जाए तो दो से तीन घंटे में अंधेरा हो जाता। अंधेरे में भागने में आसानी होती थी और पुलिस को लौटना पड़ता था।

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डकैत दिन में एक ही बार खाना बनाते थे। सुबह वे नाश्ते में सूखे मेवे खाते थे।

हर डाकू के बैग में राशन से ज्यादा गोलियां होती थीं
सभी डकैत सुबह के नाश्ते में काजू, बादाम और अन्य ड्रायफ्रूट्स खाते थे। रोटी बच जाती थी तो उसे बैग में रख लेते थे। राशन किसी मुखबिर की मदद से मंगवा लेते थे, लेकिन उसे अपनी जगह और समय पर लेते थे। कभी भी बताई गई जगह या समय पर नहीं जाते थे। राशन की 100-़100 ग्राम की पोटली बना लेते थे। हर डकैत के पिट्‌ठू बैग में थोड़ा-थोड़ा करके राशन रखते थे, जिससे डकैत को दौड़ने या चलने में परेशानी न हो। बैग में राशन से अधिक गोली रखते थे। डकैत का बीहड़ में बंदूक और कारतूस ही साथी था।

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डाकू मलखान सिंह के राइट हैंड रहे मुन्ना सिंह परिहार को भी दबंगों के जुल्मों के कारण बंदूक उठानी पड़ी। क्या है आगे की कहानी नीचे से पढ़ना जारी रखिए।

पहले जानते हैं कौन है मुन्ना सिंह परिहार
डाकू मलखान सिंह के राइट हैंड रहे मुन्ना सिंह परिहार अब 77 साल के हो चुके हैं। ग्वालियर-भिंड मार्ग से सटे खेरिया मिर्धा गांव में रहते हैं। 8वीं तक पढ़ाई करने वाले मुन्ना सिंह 18 साल की उम्र में डाकू बनने मलखान सिंह गिरोह से जा मिले थे। 1982 तक चंबल में सक्रिय रहे। एमपी सहित यूपी और राजस्थान में 125 से अधिक मामले दर्ज हुए। गिरफ्तारी पर 50 हजार का इनाम था। 17 जून 1982 को भिंड में अपनी AK-47 के साथ आत्म समर्पण किया था। ये हथियार तब दो लाख में खरीदा था। मलखान सिंह के पास अमेरिकन गन थी, जो तीन लाख में मिली थी।

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मुन्ना के पिता सरकारी टीचर थे। उनका समाज में सम्मान था। कई उन्हें जानने वाले थे, इस कारण उन्होंने मुन्ना की एक नहीं चार-चार बार सरकारी नौकरी लगवाई, लेकिन जैसे मुन्ना को डकैत ही बनना था। हर बार वो नौकरी छोड़ आए।

नानी ने फौज में नहीं जाने दिया, आखिर में डाकू बन गया
हमने सवाल किया कि आखिर एक शिक्षक पिता का बेटा डाकू कैसे बना? इस पर मुन्ना बोले कि शायद नसीब में डाकू बनने का कलंक लिखा था। मेरे पिता शिक्षक देवी सिंह ने मेरी तीन बार पीडब्ल्यूडी आगरा, बांदा व चिल्लाघाट में नौकरी लगवाई थी, पर मैंने नौकरी नहीं की। चौथी बार राज्य परिवहन निगम के वर्कशॉप में नौकरी पर लगवाया। वो भी नहीं की। फिर सेना में भी भर्ती हो गया था। झांसी जॉइन करने जाना था, तब फौज में जाने वालों से मिलने सारे रिश्तेदार आते थे। मेरी नानी भी आई थी। बोली कि 'लाम' पर जा रहे लोग जिंदा नहीं लौटते हैं। तब 'लाम' शब्द का उपयोग मोर्चे पर जाने वाले सैनिक के लिए किया जाता था। नानी और मेरी मां गंगा रोने लगी। मैं घर का बड़ा बेटा था। आखिर में मुझे सेना में जाने से रोक दिया गया।

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यह वह घर है, जिसमें इन दिनों मुन्ना रहते हैं। वे बताते हैं कि बीहड़ में रहने के दौरान कभी सोचा नहीं था कि हम कभी घर भी लौटेंगे, लेकिन गांधीवादी सुब्बारावजी की वजह से यह संभव हो पाया।

दो साल बाद मैंने उन्हें पीट-पीटकर मार डाला
मुन्ना सिंह परिहार ने चंबल में उतरने की वजह बताई। बोले कि 70-80 के दशक में चोरियां बहुत होती थीं। हमारे गांव में भी चोरियां हो रही थीं। मेरे गांव के दबंग धनसजा माहौर और भरोसे ने इन चोरियों में मेरा नाम पुलिस में लिखवा दिया था। एक बार पुलिस भी पकड़ कर ले गई। तब पिता ने 400 रुपए देकर थाने से छुड़वा लिया। दबंगों ने फिर मेरा नाम चोरी में लिखवा दिया। मेरा दोनों दबंगों से विवाद हुआ। दोनों ने मुझे खूब पीटा। मैं अपमान से जला था। मैंने दोनों से बदला लेने की सोची। मलखान सिंह उस समय तक बीहड़ में उतर चुके थे, उनसे मेरी दूर की रिश्तेदारी थी। मैं डाकू बन गया था। दो साल बाद मैं और पड़ोस के गांव तिलौरी के रहने वाले जगदीश सिंह और अन्य साथियों ने मिलकर हमें परेशान करने वाले गांव के दोनों दबंगों धनसजा माहौर और भरोसे को लाठी-डंडे से पीट-पीट कर मार डाला। तब मेरे घरवालों को पता चला कि मैं डाकू बन चुका हूं।

बीहड़ में पिता को देख मेरे आंसू निकल आए, पर लौटने का अंजाम पता था
मेरे पिता शिक्षक थे। मेरे डाकू बनने की खबर उनके लिए किसी सदमें से कम नहीं थी। वे मुझे समझाने बीहड़ में आए थे। तब तक मेरे ऊपर हत्या के 4 केस लग चुके थे। वापसी का मतलब था एनकाउंटर। पिता ने बहुत समझाया, बोले कि तुम समर्पण कर दो, मैं जेल से छुड़वा लूंगा। मैंने कहा पिताजी घर ले जाओगे तो मेरा छूटना मुश्किल हो जाएगा। मेरा एनकाउंटर भी हो सकता है। मैंने पिता से कहा कि अब इस राह पर बहुत आगे बढ़ चुका हूं। आखिरकार पिता को लौटना पड़ा। सोचता हूं पिता की बात मान लेता तो इतने जुर्म मेरे नाम न होते।

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मलखान गिरोह में मुन्ना के साथी बने जगदीश सिंह की कहानी

तिलौरी गांव निवासी जगदीश सिंह (56) ने मुन्ना सिंह के साथ मिलकर 1977 में धनसजा माहौर और भरोसे की लाठी-डंडे से पीटकर हत्या की थी। इस हत्या के बाद जगदीश सिंह भी मुन्ना सिंह की तरह चंबल में उतर गए। तीन भाईयों में दूसरे नंबर के जगदीश सिंह कहते हैं कि दो बिस्वा जमीन का विवाद था। धनसजा माहौर के खेत से सटे मेरी भी खेती थी। धनसजा गांव का दबंग था। उसने जबरन मेरे खेत में कब्जा कर रखा था। इसे लेकर अक्सर विवाद होता था।

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दबंगों ने इतना पीटा की सिर फट गया था। डेढ़ महीने अस्पताल में रहे लेकिन इतने पर भी दबंगों पर कार्रवाई नहीं हुई तो जगदीश ने बंदूक उठा ली। बाकी कहानी नीचे पढ़िए...

डांडे डाकुओं के लिए सुरक्षित क्यों है?

उत्तरः तिब्बत में डाँड़े डाकुओं के लिए सबसे सुरक्षित जगह है क्योंकि वहाँ ऊँचाई के कारण मीलों तक आबादी नहीं है और नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण दूर तक आदमी दिखाई नहीं देता। यहाँ कानून का प्रभाव भी नगण्य है क्योंकि पुलिस नहीं है अतः डाकुओं को कोई डर नहीं है।

तिब्बत में डाकू आदमियों को लूटने से पहले क्यों मार देते हैं?

तिब्बत के डाँड़े तथा निर्जन स्थलों पर डाकू यात्रियों का खून पहले इसलिए कर देते थे क्योंकि वहाँ की सरकार पुलिस और ख़ुफ़िया विभाग पर ज्यादा खर्च नहीं करती थी | इस कारण वहाँ के डाकुओं को पुलिस का कोई भय नहीं था | वहाँ कोई गवाह नहीं मिलने पर उन्हें सज़ा का भी डर नहीं रहता था | वहाँ हथियारों का कानून न होने से अपनी जान ...

बत्तियों के गंडे बनाने के लिए कपड़े कहाँ से लाए जाते थे?

Answer: सुमति बोधगया से लाए गए कपड़ों से गंडे बनाता था, परन्तु उसके यजमान काफी होने के कारण जब वे कपड़े समाप्त हो जाते तो वह किसी भी कपड़े की पतली-पतली चिरी बत्तियों से गंडे बना लेता था। प्रश्न 13. सुमति के यजमान और अन्य परिचित लोग लगभग हर गाँव में मिले।

लङ्कोर में रात को लेखक ने क्या खाया था?

सुमति भयंकर गुस्से में था । वह लाल आँखें करके लेखक से बोला, "मैंने दो टोकरी कंडे फूँक डाले, तीन-तीन बार चाय को गर्म किया ।" लेखक के द्वारा अपनी मज़बूरी बताने पर वह शांत हो गया। वे लङ्कोर में अच्छी जगह ठहरे। खाने-पीने के लिए भी अच्छी व्यवस्था थी जिसमें उन्हें चाय, सत्तू तथा गरमा-गरम थुक्पा मिला।