इस कविता में कवि 'निराला' जी ने एक पत्थर तोड़ने वाली मजदूरी के माध्यम से शोषित समाज के जीवन की विषमता का वर्णन किया है। कविता का भाव सौंदर्य की दृष्टि से बहुत ही अद्भुत है। सड़क पर पत्थर तोड़ती एक मजदूर महिला का वर्णन कवि ने अत्यंत सरल शब्दों में किया है। वो तपती दोपहरी में बैठी हुई पत्थर तोड़ रही है। Show
वह तोड़ती पत्थर;देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर_ ‘वह तोड़ती पत्थर’कोई न छायादारपेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;श्याम तन, भर बंधा यौवन,नत नयन, प्रिय–कर्म– रत मन,गुरु हथौड़ा हाथ,करती बार–बार प्रहार:–सामने तरु–मलिका अट्टालिका, प्राकार।चढ़ रही थी धूप;गर्मियों के दिनदिवा का तमतमाता रूप;उठी झुलसातहुई लू,रुई– ज्यों जलती हुई भू,गर्द चिनगीं छा गई,प्राय: हुई दुपहर:–वह तोड़ती पत्थर।देखते देखा मुझे तो एक बारउस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;देखकर कोई नहीं,देखा मुझे उस दृष्टि सेजो मार खा रोई नहीं।सजा सहज सितार,सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार;एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,ढुलक माथे से गिरे सीकर,लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा– ‘मैं तोड़ती पत्थर।’यह भी पढ़े रविन्द्र नाथ टैगोर का जीवन परिचय वह तोड़ती पत्थर कविता भावार्थसूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहते हैं_एक मजदूर स्त्री पत्थर तोड़ रही थी जिसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर यह कार्य करते देखा। वह मजदूरिन पत्थर तोड़ने में व्यस्त थी। अगली पंक्ति में निराला उन परिस्थितियों का वर्णन करते हैं। जिन परिस्थितियों में वह पत्थर तोड़ रही हैं। वह महिला जिस पेड़ के नीचे बैठे हैं वह कोई छायादार पेड़ नहीं है। खुले आसमान की चिलचिलाती धूप में वह पसीने से नहाई पत्थर तोड़ रही है। उसने इसे अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया है। वह मजदूरी युवती है। उसका शरीर सावला था परंतु आकर्षक था। वहां अपनी आंखें नीचे किए हुए अपने काम में लगी हुई थी। उसका मन अपने कार्य में तल्लीन था। उसके हाथ में बड़ा–सा हथौड़ा है। जिससे वह पत्थरों को तोड़ रही हैं। पत्थर कठोर होते हैं एक बार के प्रहार से नहीं टूटते। अत: वह युवती पत्थरों पर हथौड़े से बार– बार प्रहार करती है। सामने वृक्षों की पंक्तियां हैं, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं हैं, पर इन सब की ओर उसकी आंखें नहीं उठती। गर्मियों के दिन हैं, धूप तेज हो रही है, सूर्य अपने यौवन पर है, उसका प्रचंड रूप झेला नहीं जा रहा है। इतनी विकराल धूप है कि पृथ्वी तवे के समान तपने लगी है। भूमि ऐसे जल रही है जैसे मानो रुई जल रही हो। पूरे वातावरण में धूल छा गया है। लू चलने लगा है। इस झुलसने वाली गर्मी में भी वह मजदूरीन युवती विवश होकर पत्थर तोड़ने में व्यस्त है। दोपहर होने को आ गई है, पर वह युवती वहीं बैठकर पत्थर तोड़ो रही है। जब उस महिला ने निराला को अपनी ओर देखते हुए देखा तो, महिला की दृष्टि सहसा ही ऊंचे भवन की ओर चली जाती है। उसकी दृष्टि में एक प्रकार की विवशता है। वह अपनी असमर्थता और भाग्य को कोसती है। दु:ख से उसके हृदय के तार छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। वह स्त्री निराला को पल भर के लिए करुण दृष्टि से देखती है। उसकी दृष्टि से स्पष्ट झलक रहा था कि उसने काफी अत्याचार सहा है। लेकिन उसने अपनी दिनता को प्रकट नहीं होने दिया। वह स्वाभिमानी है। आगे कभी कहता है कि किसी भी सितार को सहज रूप से बजाने पर झंकार मैंने कभी नहीं सुनी थी। वह झंकार इस मजदूरिन के स्वाभिमानी दृष्टि से सुनाई पड़ी। एक क्षण के बाद वह व्याकुलता से कांप उठी। उसके माथे से पसीने की बूंदें गिरने लगी। उसने पसीने की बूंदों को पोछा और पुनः अपने काम में व्यस्त हो गई। वह पुन: पत्थर तोड़ने लगी। वह तोड़ती पत्थर कविता का भाव सौंदर्य क्या है?मजदूर वर्ग की दयनीय दशा को उभारने वाली एक मार्मिक कविता है। कवि कहता है कि उसने इलाहाबाद के मार्ग पर एक मजदूरनी को पत्थर तोड़ते देखा। वह जिस पेड़ के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही थी वह छायादार भी नहीं था, फिर भी विवशतावश वह वहीं बैठे पत्थर तोड़ रही थी। उसका शरीर श्यामवर्ण का था, तथा वह पूर्णत: युवा थी।
वह तोड़ती पत्थर कविता में निराला क्या संदेश दे रहे हैं स्पष्ट कीजिए?'वह तोड़ती पत्थर' कविता में भी श्रमिक नारी के जीवन और उसके प्रति समाज की हृदयहीनता का अंकन किया गया है । निराला का अपना जीवन भी कष्ट भोगते हुए बीता । उसमें सुख-आनंद की लहरें कुछ ही दिनों के लिए आईं, जिनकी स्मृति के सहारे ही उन्होंने शेष जीवन बिताया। 'मौन' कविता में कवि अपने प्रिय के साथ कुछ समय चुपचाप बिताना चाहता है ।
तोड़ती पत्थर का प्रतिपाद्य क्या है?वह तोड़ती पत्थर कविता का प्रतिपाद्य क्या है
निराला की कविताओं में जो सामाजिक और यथार्थ दृष्टि दिखाई देती है वह उनके जीवन संघर्षों की ही देन है। निराला को जीवन भर जो दुख और अपमान झेलने पड़े। उनके कारण उनका स्वर सामाजिक अन्याय और आर्थिक शोषण के विरुद्ध प्रबल वेग में उमड़ पड़ा।
वह तोड़ती पत्थर से क्या आशय है?'वह तोड़ती पत्थर' कविता में पत्थर के प्रयोग का आशय धनाढ्य और श्रमिक वर्ग के बीच की असमानता की दीवार है। कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 'वह तोड़ती पत्थर' कविता के माध्यम से पत्थर का प्रतीक बनाकर धनाढ्य वर्ग के लोगों द्वारा निर्धन और वंचित वर्ग के लोगों के शोषण के कारण उत्पन्न कठिनाइयों को बनाया पत्थर की उपमा दी है।
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