विज्ञापन की भाषा और उसके अनुवाद की चुनौतियां - vigyaapan kee bhaasha aur usake anuvaad kee chunautiyaan

विज्ञापन : एक नजर
आज हम उच्च प्रौद्योगिकी के ऐसे दौर में पहुंच चुके हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय सीमाएं टूट गई हैं। समूचा विश्व एक ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा के अंतर्गत एक नई विश्व व्यवस्था कायम करने की प्रक्रिया में लगा है । इस भूमंडलीय युग में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्रों में बहुत तेजी से परिवर्तन आया है निर्यात और आयात के पुराने आंकड़े तेजी से बदल गए । राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की प्रतिस्पर्धा में खड़े होने के लिए उत्पाद का प्रचार इस रूप में करने की आवश्यकता होती है, जिससे व्यक्ति के मन-मस्तिष्क और संवेगों को उत्पाद के पक्ष या समर्थन में मोड़कर उसे खरीदने को प्रेरित किया जा सके, और प्रचार का यह दायित्व निभाता है- विज्ञापन । कहा भी गया है कि ‘विज्ञापन सूचनाएं प्रसारित करने का वह साधन है जो किसी व्यापारिक केंद्र अथवा संस्था द्वारा भुगतान प्राप्त तथा हस्ताक्षरित होता है और इस संभावना को विकसित करने की इच्छा के साथ प्रचारित किया जाता है कि यह सूचना जिन लोगों के पास पहुंचेगी वह विज्ञापनदाता के अनुसार ही सोचेंगे अथवा व्यवहार करेंगे।’
भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देशों ने विकासशील देशों के बाजार पर अपना सिक्का कायम करने के लिए उपभोक्तावादी संस्कृति को जिस तरह से फैलाया, उससे यदि किसी क्षेत्र को फायदा मिला है, तो वह विज्ञापन का क्षेत्र ही है। आज बिना विज्ञापन के बाजार के क्षेत्र में प्रवेश करना मुश्किल है। प्रवेश के बाद भी बाजार में बने रहने तथा उत्पाद की मांग को और उसकी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए विज्ञापनों पर बराबर निर्भर रहना पड़ता है । आज रेडियो, टी.वी., वेबसाइट, अखबार व मैगजीन- सभी में विज्ञापनों की भरमार है । आज विज्ञापन प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की रीढ़ है। रेडियो, टी.वी. के कार्यक्रमों में विज्ञापनों का हस्तक्षेप दिनोदिन बढ़ता हुआ नजर आ रहा है। कैरियर की दृष्टि से विज्ञापन का क्षेत्र आज की युवा पीढ़ी को आकर्षित कर रहा है। रचनात्मक और सम्प्रेषण कला से संपन्न व्यक्ति के लिए इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं हैं।
विज्ञापन अंग्रेजी शब्द Advertising का हिंदी रूपांतरण है। एडवरटाइजिंग की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द Advertor से हुई, जिसका अर्थ है ‘टू टर्न टू’ यानी किसी ओर मुड़ना- अर्थात किसी के प्रति लोगों को मोड़ना या आकर्षित करना। हिंदी में विज्ञापन शब्द का अर्थ विशेष ज्ञान अथवा विशेष सूचना देने से जुड़ा है। जैसा कि जॉन एस. राइट का कहना है कि “विज्ञापन जन-संप्रेषण माध्यम द्वारा नियंत्रित, पहचान योग्य सूचना प्रदान करने तथा मनाने का कार्य करता है।”
‘ब्रिटेनिका’ कोशकार के अनुसार- विज्ञापन विज्ञापन द्वारा निश्चित भुगतान द्वारा दी गई वह घोषणा है जो किसी वस्तु अथवा सेवा के विक्रय, प्रोत्साहन, किसी विचार के विकास अथवा कोई अन्य प्रभाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से दी गई हो। “A form paid announcement interested to promote the sale of a commodity or service to advance an idea or to bring about other effect desired by the advertiser.”
गोपाल सरकार के अनुसार –
“विज्ञापन एक प्रकार से किराए के वाहन द्वारा जनसंप्रेषण है। यह वांछित सूचना को ऐसी दृष्टि उत्पन्न एवं विकसित करने के लिए फैलाता है, ताकि विज्ञापन के अनुकूल क्रियाओं को प्रेरित किया जा सके।”
विज्ञापन संबंधी इन सभी परिभाषाओं पर गौर करने पर लगता है कि यह परिभाषाएं एकांगी हैं और विज्ञापन से संपूर्ण पक्षों और विशेषताओं को उद्घाटित नहीं करती ।
निष्कर्षतः यह कह सकते हैं कि विज्ञापन विक्रय कला का एक भुगतानपरक, नियंत्रित और निर्धारित अवैयक्तिक संचार है, जिसमें उपभोक्ता या लक्षित जनसमूह को दृष्टि में रखकर मौखिक, लिखित तथा दृश्यात्मक सूचनाओं द्वारा विज्ञापनदाताओं के हक में जन-सहमति और जन-स्वीकृति का आधार तैयार किया जाता है।

विज्ञापन की भूमिका
सार्वजनिक रूप से वस्तुओं की श्रेष्ठता और उपादेयता को सिद्ध करने के लिए विचार प्रस्तुत कर माल बेचने की कला बहुत पुरानी है। अंतर केवल यह है कि प्राचीन युग में विज्ञापन अपने इतने वैविध्यमय स्वरूप और बहुआयामी भूमिका में सामने नहीं आया था, जिस तरह वह 21वीं सदी की शुरुआत से पहले आया। आज विज्ञापन की संस्कृति ने व्यापार जगत में अंतःप्रवेश कर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। अब वह व्यापार का अभिन्न हिस्सा है।
विज्ञापन-विशेषज्ञ शैल्डन ने विज्ञापन को एक व्यावसायिक शक्ति के रूप में ही परिभाषित किया है- “विज्ञापन वह व्यावसायिक शक्ति है जिससे मुद्रित शब्दों द्वारा विक्रय करने, उसकी प्रसिद्धि और छवि निर्माण में सहायता मिलती है।” इसी बात को अमेरिकन मार्केटिंग एसोसिएशन द्वारा व्यक्त विज्ञापन की अवधारणा में दोहराया गया है- “विज्ञापन एक सुपरिचित विज्ञापक द्वारा अपने विचारों, वस्तुओं या सेवाओं को अवैयक्तिक रुप में प्रस्तुत करने तथा संवर्द्धन करने का भुगतान किया हुआ प्रकार है।” ‘इनसाइक्लोपीडिया अमेरिकन’ में कहा गया है- “विज्ञापन दृष्टिगत तथा मौखिक सूचनाओं को भुगतान प्राप्त माध्यमों द्वारा प्रचारित करता है, जिससे व्यक्ति जागरुक होकर उत्पादित वस्तु, व्यापार-चिन्ह, वस्तु उपयोगिता, संस्था विचार अथवा दृष्टिकोण के प्रति सहमति रखता है।”
भूमंडलीकरण की आंधी और आर्थिक उदारीकरण की नीति के कारण विभिन्न राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच छिड़ी बाजार की लड़ाई में ‘विज्ञापन’ को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। भारत में भूमंडलीय मीडिया के उभार के चलते तेजी से विकसित हो रहे विज्ञापन उद्योग ने राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद की श्रेष्ठता और उपयोगिताओं को संप्रेषण के तमाम सिद्धांतों के सहारे तथा तरह-तरह के अनेक अपीलों के माध्यम से व्यक्त करके उपभोक्ता की क्रय शक्ति को बढ़ाया है। ‘विज्ञापन उन क्रियाकलापों को समाहित किए हुए हैं जिसके द्वारा दृष्टिगत अथवा मौखिक सूचनाओं के आधार पर जनता का उद्देश्यपूर्ण अथवा सूचित करने तथा प्रभावित करने की दृष्टि से चयन किया जाता है ताकि वे उत्पादित वस्तु खरीदें अथवा विचारों, व्यक्तियों, व्यापार-चिह्नों या संस्थाओं के प्रति सहमति रखें।’ (एडवरटाइजिंग मैनेजमेंट, नील एच. बोर्डन तथा मार्टन वी. मार्शल )
इस तरह से आज विज्ञापन आधुनिक जीवन-शैली और बाजार संस्कृति की बड़ी शक्तिशाली तथा महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं। आज विज्ञापन के बिना किसी भी व्यापार का फूलना-फलना असंभव है। पश्चिमी व्यंग्यकार तथा समाजशास्त्री ब्रिट इसीलिए व्यापार और विज्ञापन के अनिवार्य गठबंधन पर व्यंग करते हुए लिखा है -“बिना विज्ञापन किए व्यापार करना किसी खूबसूरत लड़की को अंधेरे में आंख मारने के समान है। अंधेरे में तुम जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो, लेकिन दूसरा कोई कुछ नहीं जानता। अतः संभावित लाभ नहीं होता। बात बहुत स्पष्ट है कि बिना विज्ञापन के किसी उत्पाद की जानकारी समाज तक पहुंचाकर उसे बेचना अब असंभव सा है।
आज विज्ञापन समाचार-पत्रों का अभिन्न हिस्सा ही नहीं, बल्कि प्रिंट मीडिया की रीढ़ है। प्रिंट मीडिया का समूचा वजूद इन्हीं विज्ञापनों पर टिका है, क्योंकि आज अधिकांश प्रकाशन संस्थान ‘मिशन’ भावना से पत्रों का प्रकाशन नहीं करते, व्यवसाय की दृष्टि से करते हैं। आज विज्ञापन को पत्र-पत्रिकाओं की जीवन रेखा माना जाता है। भूमंडलीकरण के दौर में समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित विज्ञापन मनुष्य के जीवन में अनावश्यक मांग को पैदा करके, यानी गैर-जरूरी को जरूरी बनाकर नई बाजार संस्कृति की रचना में अपनी बहुआयामी भूमिका निभा रहे हैं। विज्ञापन ने समाचार-पत्रों को बाजारोन्मुखी बना दिया है।
पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापनों के बढ़ते वर्चस्व ने संपादक के अस्तित्व को कुचल दिया- विज्ञापन के बढ़ते दबाव और वर्चस्व ने पत्रकारिता के प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया। आज के पत्र आदर्शों की नीव पर नहीं खड़े हैं बल्कि विज्ञापनों के न्यू पर खड़े हैं, उसमें अब संपादक की सत्ता महत्वपूर्ण नहीं रह गई है, इसलिए विशेष रणनीति के तहत संपादक की गरिमा को खत्म किया जा रहा है। अखबार की रीति-नीति को निर्धारित करने में विज्ञापन एजेंसियों का दखल बढ़ गया है।
आज प्रिंट मीडिया में आर्थिक लाभ का मूल स्त्रोत विज्ञापन ही हैं। मुनाफे के कारण ही समूचा प्रिंट मीडिया अपने वजूद की रक्षा कर पा रहा है। प्रेस उद्योग पनप रहा है। प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों के बढ़ते प्रसार ने व्यवसायिक गुणवत्ता में वृद्धि की है, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं में निहित राष्ट्रीय हित की परिकल्पना पृष्ठभूमि में डाल दी गई है। विज्ञापनों पर अधिक-से-अधिक कब्जा जमाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं के चिकने और रंग-बिरंगे आकर्षक पृष्ठ उपभोक्तावादी संस्कृति के संवाहक की भूमिका निभा रहे हैं ।
प्रिंट मीडिया में विज्ञापन की माया कबीर की ‘माया महा ठगनी हम जानी’ से होड़ लेती दिखाई देती है, जो उपभोक्ता की संवेदना के सूक्ष्म तारों से इस तरह खिलवाड़ करती है, ऐसी छेड़खानी करती है कि उसे उद्वेलित किए बिना नहीं रहती। उपभोक्ता को उत्पाद खरीदने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आमंत्रण बड़ी कुशलता से देती है। उसमें उत्पाद खरीदने की अभूतपूर्व ललक पैदा कर देती है विज्ञापनों ने समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ से वैचारिक गंभीरता वाले मुद्दों की जगह छीननी शुरू कर दी है, वैचारिक सामग्री उपेक्षित हो गई है, विचारों का महत्व कम हो गया है, हिंदी के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य और पत्रकारिता का रिश्ता टूट गया है, यहां तक कि खबर से अधिक महत्व विज्ञापन को मिल रहा है। इसीलिए कभी-कभी बड़ी महत्वपूर्ण रिपोर्ट या खबरें इसलिए रोक ली जाती है, क्योंकि विज्ञापन की भरमार के कारण जगह नहीं बचती। कभी-कभी तो समाचार-पत्र का पूरा पृष्ठ विज्ञापन घेर लेता है या किसी पृष्ठ पर केवल एक खबर होती है बाकी जगह विज्ञापन प्रकाशित होते हैं। ऐसी स्थिति को देखकर यह कहा गया है कि विज्ञापन और खबर के बीच का रिश्ता आज खत्म हो गया है। विज्ञापन खबर बन रहे हैं।
इस तरह विज्ञापनों ने प्रिंट मीडिया के परंपरागत ढांचे को तोड़कर उसके चरित्र को बदल दिया है। आज प्रिंट मीडिया सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के दायित्व का निर्वाह करने में असमर्थ है।
जिस तरह विज्ञापन एजेंसियां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कार्यक्रम संरचना में हस्तक्षेप करती हैं, उसी तरह वे प्रिंट मीडिया की नीतियों को भी निर्देशित करती हैं और समाचार-पत्र के संपादकीय कार्य को अपने हित में मनमाना मोड़ देती हैं। पत्र-पत्रिकाओं को लाखों रुपए का विज्ञापन देने वाली विज्ञापन एजेंसियां विज्ञापन के साथ-साथ कभी-कभी अपनी अनगिनत शर्तों की फेहरिस्त भी थमा देती हैं। आज भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में प्रिंट मीडिया में प्रकाशित विज्ञापन भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माल को बेचने के लिए विश्वग्राम की परिकल्पना के अनुसार ‘वैश्विक संस्कृति’ (ग्लोबल संस्कृति) का ही सहारा लेते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कोई मूल्य नहीं होता। उनका एक ही उद्देश्य होता है- ‘माल बेचो, पैसा कमाओ।’
कुल मिलाकर आज प्रिंट मीडिया में विज्ञापन की स्थिति यह है कि वह देश हित, लोकहित अथवा किसी महान उद्देश्य, किसी महान आंदोलन, किसी महान क्रांति के लिए काम नहीं कर रहा है। वह इनसे पैदा होने वाले मूल्यों से भी निकल कर नहीं आ रहा है। अब वह सीधे-सीधे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित से जुड़ गया है। जो कुछ भी करके, कोई भी संदेश देकर, चाहे वह गैर-मानवीय ही क्यों न हो, बाजार में पैदा हो रहे नए-नए उपभोक्ताओं का मन मोहकर, उन्हें झूठे सपने दिखाकर, कृत्रिम मायाजाल रचकर बाजार का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पना चाहता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन धीरे-धीरे क्षेत्रीय जीवन-मूल्यों और हजारों साल के संघर्ष से प्राप्त की गई प्रगति तथा सभ्यता को मिटाकर तथाकथित वैश्विक जीवन-मूल्यों का आडंबर रच रहे हैं, जिसमें उपभोक्ता ‘पैरानोइया’ का शिकार हो गया है, यानी गुमराह हो गया है। इस प्रकार के विज्ञापनों से भरी पत्र-पत्रिकाएं ऐसी वैश्विक संस्कृति को फूलने-फलने का भरपूर मौका दे रही हैं, जिसका अर्थ निश्चित रूप से ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ नहीं होता। यह तय है कि जिस दिन विज्ञापनों से सृजित तथाकथित वैश्विक संस्कृति दुनिया में यथार्थवादी रूप धारण कर लेगी, उस दिन मनुष्य का समाज मर जाएगा।

विज्ञापन की चुनौतियाँ
विज्ञापन का दायरा बहुत विस्तृत होता है। विज्ञापन में मुख्य रूप से विज्ञापन एजेंसियां अपनी भूमिका अदा करती है। यह अनेक विभागों और अनेक चरणों से होकर गुजरती है। एक विज्ञापन एजेंसी को विज्ञापन निर्माण से लेकर विभिन्न माध्यमों में उसे प्रचारित-प्रसारित करने तक के कार्य में अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे- विपणन योजना, ग्राहकों को ढूंढना, बाजार सर्वेक्षण, उपभोक्ता स्थिति का सर्वेक्षण, विज्ञापन निर्माण, मीडिया चयन, बिक्री वृद्धि या विक्रय प्रभाव की जाँच तथा अन्य।
किसी भी विज्ञापन एजेंसी के कार्य की शुरुआत उसकी विपणन नीति से शुरू होती है। विज्ञापन एजेंसी चलाने में बहुत पूंजी लगती है। यदि विज्ञापन अभियान को बुद्धिमत्ता के साथ और वैज्ञानिक तरीके से न चलाया जाए तो संस्थान और उत्पाद अथवा सेवा का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। विपणन नीति के तहत विज्ञापन की रणनीति का अनुसंधान करना पड़ता है। इसके अंतर्गत विज्ञापन से संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाएं तथा व्यस्थित जानकारी एकत्र की जाती है।
विज्ञापन के समक्ष कई तरह की चुनौतियां आती है। विज्ञापन ऐसे हो जो अपने पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करे, उसे पढ़ने, देखने और सुनने के लिए बाध्य करे। ऐसी कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करे, जिससे उपभोक्ता उस वस्तु या माल के प्रति आकर्षित होकर उसे खरीदने को निकल पड़े।
विज्ञापन की दुनिया में आज विज्ञापनों का विशिष्ट अंदाज है। इसकी विशिष्ट शैलियाँ होती हैं। विज्ञापन का माध्यम चाहे कोई भी हो, विज्ञापन में चित्रों, दृश्य बिम्बों और प्रस्तुतीकरण के साथ विज्ञापन की भाषा के कलात्मक स्वरूप देकर उसे जीवंत और शक्ति-संम्पन्न बनाने की कोशिश की जाती है, जो चुनौती भरा काम होता है। विज्ञापन को ध्यानाकर्षक, कलात्मक, सरल, बोधगम्य, आंचलिक, विश्वसनीय और जीवंत बनाना पड़ता है, जो उपभोक्ताओं को आकर्षित करे।
विज्ञापन का आवश्यक गुण ध्यानाकर्षण की क्षमता है और यह क्षमता विज्ञापन की भाषिक संरचना से जुड़ी हुई है। विज्ञापन की कॉपी अपील अपना यदि उपभोक्ताओं या लक्षित जनसमूह का ध्यान खींचने में असमर्थ है तो विज्ञापन अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। विज्ञापन को कलात्मक रूप देने के लिए प्रायः काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया जाता है। काव्यात्मक से विज्ञापन की भाषा में जो विशिष्ट लय और तुकबंदी पैदा होती है उससे उसमें प्रभावोत्पादकता पैदा होती है और विज्ञापन लोगों के कानों में समा जाता है और जुबान पर छा जाता है। इस तरह की कलात्मकता का ध्यान विज्ञापन में रखना अनिवार्य होता है।
काव्यात्मक स्वरूप में बदलती भाषा के उदाहरण-
ठंडे गरम की क्या है बात,
जब रूह अफजा है आपके साथ।

विज्ञापन द्वारा समाज के समक्ष उत्पन्न चुनौतियां
 उपभोक्ता समाज का निर्माण : आज, वैश्वीकरण के युग में विज्ञापन पूरे समाज को एक उपभोक्तावादी समाज के रूप में परिणित करने में लगा हुआ है । आकर्षक विज्ञापन के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को लुभाकर उस वस्तु को खरीदने के लिए बाध्य करता है ।मनुष्य एक अनंत अभिलाषाधारी प्राणी है, जिसकी इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता है किन्तु वह अपने सीमित संसाधनों के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होता है । मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित होती हैं, वह अपने सीमित संसाधनों के द्वारा काम चला सकता है, किन्तु उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास के कारण आज ऐसी स्थिति पैदा हो गई, विज्ञापन इस प्रकार हावी हो चुका है कि मनुष्य की इच्छाएं अब आवश्कता का रूप लेती दिखाई पड़ने लगी है । यही विज्ञापन को देखकर लोग उस वस्तु को खरीदने की होड़ में लग जा रहे है और यही कारण हैं कि विज्ञापन समाज के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ा दिखाई पड़ रहा है । जो समाज को भ्रमित करने का प्रयास तो करता है साथ ही साथ वर्चस्वशाली संस्कृति का निर्माण भी करता है जिसको खत्म करना चुनौतीपूर्ण लग रहा है । समाज को इस संस्कृति से परिचित होने की जरूरत है, इससे बचने की जरूरत है ।

 विवेक-हीनता का विकास : उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि आज का युवा वर्ग किसी वस्तु का चयन करने हेतु किसी विचार-विमर्श या सलाह करने की जिज्ञासा भी नहीं रखते ।

 विज्ञापन एक तरफ समाज विभिन्न क्षेत्रों से सुपरिचित कराते है तो दूसरी तरफ समाज के लिए चुनौतियां भी खड़ी करते है, इससे हमें लड़ने का प्रयास करना चाहिए और समाज पर हावी होने से रोकना चाहिए ।

—— अनूप यादव “विरह प्रेमी”

विज्ञापन की भाषा क्या है?

विज्ञापन की भाषा सरल, संक्षिप्त और बोधगम्य होनी चाहिए। बात को सीधे-सीधे इस रूप में कहा जाए कि सुनने या पढ़ने वाले की समझ में आसानी से आ जाए। प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक - सभी माध्यमों में अधिक विस्तार का अवकाश नहीं होता। कहीं स्थान की सीमा होती है तो कहीं समय की।

विज्ञापन में भाषा का क्या महत्व है?

उनके अनुसार विज्ञापन की भाषा अर्थ का एक नया स्तर निर्मित करती है जो स्थापित अर्थ से भिन्न होता है। वह उत्पाद की विशेषताओं को इस तरह शब्दों में बाँधती है कि हमारे लिए उनके कुछ ख़ास मायने हो जाते हैं। विज्ञापन केवल वस्तु ही नहीं बेचता वह हमारे मन की आकांक्षाओं की पूर्ति करता है।

विज्ञापन क्या है विज्ञापन की भाषा पर विचार?

'वि' से तात्पर्य 'विशेष' से तथा 'ज्ञापन' से आशय 'ज्ञान कराना' अथवा सूचना देना है। इस प्रकार 'विज्ञापन' शब्द का मूल अर्थ है 'किसी तथ्य या बात की विशेष जानकारी अथवा सूचना देना। ' वृहत्त हिन्दी कोष के अनुसार- विज्ञापन का अर्थ है- “समझना, सूचना देना, इश्तहार, निवेदन या प्रार्थना।”

विज्ञापन अनुवाद क्या है?

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