या मुरली मुरलीधर की पंक्ति में मुरलीधर कौन है? - ya muralee muraleedhar kee pankti mein muraleedhar kaun hai?

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काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-

या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।

उक्त पंक्ति में मुरलीधर के होठों सी लगी बांसुरी को गोपियाँ अपने होठों से लगाने को तैयार नहीं हैं क्योंकि वे मानती है कि बांसुरी उनकी सौतन है। वह हर समय श्री कृष्ण जी के पास रहती है। सभी गोपियाँ श्री कृष्ण जी की बांसुरी से ईर्ष्या करती हैं। गोपी ने अपनी सखी को जब श्री कृष्ण जी का रूप धारण करने का आग्रह किया तो सखी कहती है की वह मोर का मुकुट लगा लेगी, पीले वस्त्र धारण कर लेगी, गले में माला दाल लेगी और हाथों में लाठी लेकर गायों को चराने के लिए भी चली जायेगी लेकिन वह श्री कृष्ण जी की बांसुरी को नहीं बजाएगी।


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मुरली प्रभाव / सुजान-रसखान

Kavita Kosh से

कवित्‍त

दूध दुह्यौ सीरो पर्यौ तातो न जमायौ कर्यौ,
         जामन दयौ सो धर्यौ, धर्यौई खटाइगौ।
आन हाथ आन पाइ सबही के तब ही तें,
          जब ही तें रसखानि ताननि सुनाइगौ।
ज्‍यौं ही नर त्‍यौंहों नारी तैसीयै तरुन बारी,
            कहिये कहा री सब ब्रिज बिललाइगौ।
जानियै न माली यह छोहरा जसोमति को,
             बाँसुरी बजाइ गौ कि विष बगराइगौ।।107।।

जल की न घट भरैं मग की न पग धरैं,
             घर की न कछु करैं बैठी भरैं साँसुरी।
एकै सुनि लोट गईं एकै लोट-पोट भईं,\
            एकनि के दृगनि निकसि आग आँसु री।
कहै रसखानि सो सबै ब्रज बनिता वधि,
             बधिक कहाय हाय भ्‍ई कुल हाँसु री।।
करियै उपायै बाँस डारियै कटाय,
              नाहिं उपजैगौ बाँस नाहिं बाजे फेरि बाँसुरी।।108।।

सवैया

चंद सों आनन मैन-मनोहर बैन मनोहर मोहत हौं मन
बंक बिलोकनि लोट भई रसखानि हियो हित दाहत हौं तन।
मैं तब तैं कुलकानि की मैंड़ नखी जु सखी अब डोलत हों बन।
बेनु बजावत आवत है नित मेरी गली ब्रजराज को मोहन।।109।।

बाँकी बिलोकनि रंगभरी रसखानि खरी मुसकानि सुहाई।
बोलत बोल अमीनिधि चैन महारस-ऐन सुनै सुखदाई।।
सजनी पुर-बीथिन मैं पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रजराज कन्‍हाई।।110।।

डोरि लियौ मन मोरि लियो चित जोह लियौ हित तोरि कै कानन।
कुंजनि तें निकस्‍यौ सजनी मुसकाइ कह्यो वह सुंदर आनन।।
हों रसखानि भई रसमत्‍त सखी सुनि के कल बाँसुरी कानन।
मत्‍त भई बन बीथिन डोलति मानति काहू की नेकु न आनन।।111।।

मेरो सुभाव चितैबे को माइ री लाल निहारि कै बंसी बजाई।
वा दिन तें मोहि लागी ठगौरी सी लोग कहैं कोई बाबरी आई।।
यौं रसखानि घिर्यौ सिगरो ब्रज जानत वे कि मेरो जियराई।
जौं कोउ चाहै भलौ अपने तौ सनेह न काहू सों कीजियौ माई।।112।।

मोहन की मुरली सुनिकै वह बौरि ह्वै आनि अटा चढ़ि झाँकी।
गोप बड़ेन की डीठि बचाई कै डीठि सों डीठिं मिली दुहुं झांकी।
देखत मोल भयौ अंखियान को को करै लाज कुटुंब पिता की।
कैसे छुटाइै छुटै अंटकी रसखानि दुहुं की बिलौकनि बाँकी।।113।।

बंसी बजावत आनि कढ़ौ सो गली मैं अली! कछु टोना सौ डारे।
हेरि चिते, तिरछी करि दृष्टि चलौ गयौ मोहन मूठि सी मारे।।
ताही घरी सों परी धरी सेज पै प्‍यारी न बोलति प्रानहूं वारे।
राधिका जी है तो जी हैं सबे नतो पीहैं हलाहल नंद के द्वारे।।114।।

काल काननि कुंडल मोरपखा उर पै बनमाल बिराजति है।
मुरलीकर मैं अधरा मुसकानि-तरंग महा छबि छाजति है।।
रसखानि लखें तन पीत पटा सत दामिनि सी दुति लाजति है।|
वहि बाँसुरी की धुनि कान परे कुलकानि हियो तजि भाजति है।।115।।

काल्हि भटू मुरली-धुनि में रसखानि लियौ कहुं नाम हमारौ।
ता छिन ते भई बैरिनि सास कितौ कियौ झाँकन देति न द्वारौ।।
होत चवाव बलाई सों आलो जो भरि शाँखिन भेटिये प्‍यारौ।
बाट परी अब री ठिठक्‍यो हियरे अटक्‍यौ पियरे पटवारौ।।116।।

आज भटू इक गोपबधू भई बावरी नेकु न अंग सम्‍हारै।
माई सु धाइ कै टौना सो ढूँढ़ति सास सयानी-सवानी पुकारै।
यौं रसखानि घिरौ सिगरौ ब्रज आन को आन उपाय बिचारै।
कोउ न कान्‍हर के कर ते वहि बैरिनि बाँसरिया गाहि जारै।।117।।

कान्‍ह भए बस बाँसुरी के अब कौन सखि! हमको चहिहै।
निसद्यौस रहे संग साथ लगी यह सौतिन तापन क्‍यौं सहिहै।।
जिन मोहि लियौ मन मोहन को रसखानि सदा हमको दहिहै।
मिलि आऔ सबै सखि! भागि चलै अब तौ ब्रज में बसुरी रहिहै।।118।।
ब्रज की बनिता सब घेरि कहैं, तेरो ढारो बिगारो कहा कस री।
अरी तू हमको जम काल भई नैक कान्‍ह इही तौ कहा रस री।।
रसखानि भली विधि आनि बनी बसिबो नहीं देत दिसा दस री।
हम तो ब्रज को बसिबोई तजौ बस री ब्रज बेरिन तू बस री।।119।।

बजी है बजी रसखानि बजी सुनिकै अब गोपकुमारी न जीहै।
न जीहै कोऊ जो कदाचित कामिनी कान मैं बाकी जु तान कु पी है।।
कुपी है विदेस संदेस न पावति मेरी डब देह को मौन सजी है।
सजी है तै मेरो कहा बस है सुतौ बैरिनि बाँसुरी फेरि बजी है।।120।।

मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माला गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्‍वारनि संग फिरौंगी।।
भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहें सब स्‍वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरीं अधरा न धरौंगी।।121।

या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी पंक्ति में कौनसा अलंकार है *?

यहाँ पर 'ल' वर्ण और 'म' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है इस कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

या मुरली मुरलीधर की पंक्ति में मुरलीधर कौन हैं?

9. काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए- या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी। यहाँ श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम के साथ उनकी मुरली के प्रति ईर्ष्या प्रस्तुत पंक्ति का आशय यह है कि जब श्रीकृष्ण गोपी की ओर देखकर मुस्कुराएंगे तो उस समय उत्पन्न होने वाले आनन्द को सम्भालना असम्भव हो जाएगा।

मुरली मुरलीधर की अधरान पंक्ति का क्या आशय है?

या मुरली मुरलीधर की अधरन धरी अधरा न धरौंगी। भाव सौंदर्य - इस छंद में गोपी दूसरी सखी से श्री कृष्ण की भाँति वेशभूषा धारण करने को कहती है। सखी उसके इस आग्रह पर तयार तो हो जाती है। गोपी अपनी सखी के कहने पर कृष्ण के समान वस्त्राभूषण तो धारण कर लेगीं परन्तु कृष्ण की मुरली को अधरों पर नहीं रखेगीं।

या मुरिह मुरिहधर की अधरान धरह अधरा न धरौंगी में कौन सा अिींकार है?

सभंग यमक अलंकार को अन्य उदाहरण के द्वारा भी समझा जासकता है।