भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF Hindiभक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ Hindi PDF Downloadभक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ in Hindi PDF download link is available below in the article, download PDF of भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ in Hindi using the direct link given at the bottom of content.
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6 People Like This REPORT THIS PDF ⚐ भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ Hindi PDFहैलो दोस्तों, आज हम आपके लिए लेकर आये हैं भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF हिन्दी भाषा में। अगर आप भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ हिन्दी पीडीएफ़ डाउनलोड करना चाहते हैं तो आप बिल्कुल सही जगह आए हैं। इस लेख में हम आपको देंगे भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ के बारे में सम्पूर्ण जानकारी और पीडीएफ़ का direct डाउनलोड लिंक। हिंदी साहित्य के इतिहास में सन 1400-1700 इसापूर्व के समय को भक्ति काल और इस काल में रचित साहित्य को भक्ति काव्य कहा जाता है। क्योंकि इस काल का केंद्रीय विषय और प्रमुख प्रवृत्ति ‘भक्ति’ ही है और उसी को आधार बनाकर साहित्य की रचना हुई है। अतः इसे भक्ति काल कहना ही उचित है। वैसे भक्तिकाल का दायरा काफी विस्तृत है| इस काल में रचित भक्ति साहित्य की विविध प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। वैसे इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति भक्ति के अलावा जो अन्य प्रवृतियां हैं- उनमें वीर काव्य, प्रबंधकाव्य, श्रृंगार, रीति-निरूपण आदि भी है। आज हम इस लेख के माध्यम से आपको भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ की सम्पूर्ण जानकारी प्रदान कर रहे हैं और आपको इसको पीडीएफ़ प्रारूप में भी डाउनलोड कर सकते हैं नीचे दिए गए लिंक का उपयोग करके। भक्ति काल का केंद्रीय तत्व ईश्वर भक्ति है। भक्ति काल के सभी कवि पहले भक्त हैं और बाद में कवि। उन्होंने कविता करने के लिए रचनाएं नहीं की बल्कि ईश्वर भक्ति के रूप में उनके हृदय के उद्गार की कविता के रूप में हमारे सामने हैं। ईश्वर के प्रति आस्था और सच्चे सरल से आराध्य का गुणगान ही काव्य के रूप में प्रचलित हुआ| महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी भक्त संतो ने ईश्वर की भक्ति भावना से प्रेरित होकर अपनी रचनाएं की है, परंतु उनकी भक्ति की प्रकृति में अंतर है। इनमें से कई अपने ईश्वर को निर्गुण रूप में देखते हैं तो कई सगुण रूप में। लेकिन भक्ति ही दोनों धाराओं का सर्वसमावेशी तत्व है, भक्ति इस काल की मूल प्रवृत्ति और केंद्रीय चेतना भी है। भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF | भक्तिकालीन साहित्य की विशेषताएँ
आप नीचे दिए गए लिंक का उपयोग करके भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF में डाउनलोड कर सकते हैं। भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF - PAGE 2भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF Download LinkREPORT THISIf the purchase / download link of भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF is not working or you feel any other problem with it, please REPORT IT by selecting the appropriate action such as copyright material / promotion content / link is broken etc. If भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ is a copyright material we will not be providing its PDF or any source for downloading at any cost. RELATED PDF FILES
भक्तिकालीन साहित्य की विशेषताएँ | भक्तिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँभक्तिकालीन साहित्य की विशेषताएँ – पूर्व मध्य युग (भक्ति काल) में निःसंदेह निर्गुण और सगुण धाराओं के परस्पर भिन्न मत, विश्वास, विचार और मान्यताएँ थीं किन्तु इनमें कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी भी हैं जो दोनों में सामान्य रूप से पाई जाती हैं- (1) गुरु महिमा-‘सन्त काव्य’, ‘प्रेम काव्य’, राम भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति साहित्य में गुरु महिमा का समान रूप से प्रतिपादन मिलता है। जहां कबीर ने गुरू को गोविन्द से बड़ा बताया है वहां जायसी का कहना है कि “बिनु-गुरु-जगत को निरगुन पावा।” तुलसी “जहाँ में बन्दौ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि” कह कर गुरु के प्रति अपार श्रद्धा का प्रदर्शन करते हैं वहीं भतवर सूरदास को अपने गुरु वल्लभाचार्य के बिना संसार अन्धकारमय लगता है- “श्री वल्लभ-नख-चन्द्र छठा बिनु सब जगमहिं अंधेरो।” (2) भक्ति की प्रधानता-इस काव्य की चारों काव्यधाराओं अर्थात् सन्त, प्रेम, राम तथा कृष्ण साहित्य में ईश्वराधन के लिए भक्ति पर समान बल दिया गया है। यद्यपि कबीर के ईश्वर निराकार हैं और वे ज्ञान गम्य हैं किन्तु भक्ति के बिना उसकी प्राप्ति नहीं होती। भक्ति ज्ञान का प्रमुख साधन है- “हरि भरक्ति जाने बिना बूड़ि मुआ संसार”। जायसी ने शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारिफत इन चारों साधनों को भगवद्भक्ति के लिए आवश्यक बताया है। राम एवं कृष्ण साहित्य में वैधी तथा प्रेमा भक्ति का विशद चित्रण मिलता है। (3) बहुजन हिताय-भक्ति युग में निर्मित साहित्य की सर्वप्रमुख विशेषता बहुजन हित संपादन रहा है। भक्ति की शाखाओं में सदाचार तथा नैतिक भावना पर यथेष्ट बल दिया गया है। अनुभवाश्रयी निर्गुण साहित्य व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ निरंतर आध्यात्मिक प्रेरमा देता रहा है। राम भक्ति काव्य ने सदाचार, नैतिक भावना तथा वैयक्तिक अभ्युत्थान के साथ तत्कालीन प्रबुद्ध जनता के लिए रावणत्व पर रामत्व की विजय प्रदर्शित पर आत्मनिरीक्षण तथा परिस्थिति परीक्षण का अवसर प्रदान किया प्रेम भक्ति काव्यों में बिना किसी वर्ग भेद के जनसामान्य के लिए श्रेय एवं प्रेय का मार्ग उद्घाटित किया गया। समूचे भक्ति काव्य ने भेदभाव को कम कर समन्वयात्मकता को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया। (4) लोकभाषाओं की प्रधानता-लोकभाषाओं को प्रश्रय देना भक्तिकाव्य की सर्वमहती विशेषता है। सभी सन्त एवं भक्त कवियों ने अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के सक्षम माध्यम के रूप में लोक प्रचलित भाषा के विभिन्न रूपों का सफल प्रयोग किया। यद्यपि तुलसी नाना पुराण एव निगमागमों में पारंगत पंडित थे और उनका संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार था किन्तु उन्होंने अपने साहित्य का सृजन अवधी तथा ब्रज भाषा में किया। सूर आदि कृष्णभक्ति कवियों की भाषा लोकप्रचलित ब्रज भाषा का प्रतीक है। कबीर आदि सन्त कवियों ने सधुक्कड़ी भाषा के माध्यम से अफना संदेश जनसामान्य तक पहुँचाया। जायसी आदि के प्रेम काव्यों में लोक प्रचलित अवधी व्यवहृत हुई है। वर्ण्य विषय को जनसामान्य तक पहुँचाकर उसे लोकप्रिय बनाने के लिए जन-भाषाओं का उपयोग अतीव उपयोगी व हितकर सिद्ध हुआ। उक्त काव्य में लोकगीती और लोककथाओं को यथेष्ट सम्मान मिला। लोकपरिचित दृष्टान्तों, रूपकों, प्रतीकों तथा लोकोक्तियों का यथायोग्य प्रयोग किया गया। अपनी-अपनी अनुभूतियों को जनमानस तक पहुँचाने के लिए लोकप्रचलित भाषा शैली का प्रयोग करना भक्ति काव्य के प्रणेताओं का प्रमुख उद्देश्य रहा है। (5) समन्वयात्मकता-यद्यपि सन्तों की वाणियों में चुनौती भरी कड़वाहट है किन्नु उनका अंतिम उद्देश्य वर्गभेद मिटाकर समन्वयतात्मकता लाना है। सन्तों की इस समन्वयात्मक प्रवृत्ति को सूफी मत से प्रश्रय मिला। सहिष्णु समन्वय का आवश्यक उपबन्ध भारतीय परम्परा के अनुसार सन्त काव्य में जहां इष्टदेव को प्रयितम कहा गया है वहां सूफी काव्यों में उस पर प्रियतमा का आरोप किया गया है। इस प्रकार दोनों मतों में धार्मिक साम्प्रदायिकता का स्तर उत्तरोत्तर क्षीणप्राय हो गया। यह सर्वविदित है कि तुलसी साहित्य समन्वयात्मकता का एक विराट प्रयास है। निःसन्देह कृष्ण भक्ति काव्य में साम्प्रदायिक अर्चना पद्धतियाँ की चर्चा है किन्तु उसमें किसी प्रकार का कोई वर्गभेद नहीं है। भक्तिकताव्यों में बहुधा उनमें रचयिताओं का नामोल्लेख समन्वयात्मक सहिष्णुता का उपलक्षक है। भले ही इसके और भी नेक कारण रहे हों। (6) वीर काव्यों की रचना-यद्यपि भक्तिकाल में धार्मिक काव्यों की प्रमुखता रही है किन्तु इसमें वीर काव्य धारा भी निरंतर चलती रही है। तुलसी तथा जायसी ने अपने प्रबन्ध काव्यों में प्रसंगवश वीररस का उल्लेख किया है। इस काल में भी आदिकाल की भांति वीरकाव्यों की निरंतर रचना हुई, भले ही उनकी मात्रा कम है। ऐसे वीर काव्य प्रायः राजाश्रय में लिखे गये। इनमें मुख्यतः आश्रयदाताओं के यशोगान, विरुदावली, रण-सज्जा, दान, शौर्य शत्रु-निन्दा व उपहास तथा युद्धों की विकरालता आदि निरूपित हैं। श्रीधर नल्हसिंह, राउजेतसी; रासोकार दुहरसा जी, दयाराम (दयाल) कुंभकर्ण और न्यामत खां जान आदि इस काल में प्रमुख वीर काव्य के प्रणेता हैं। (7) प्रबन्धात्मक चरित काव्य-भक्तिकाल में कुछ ऐसे चरित काव्यों के प्रणयन का पता मिलता है जो दाइकालीन जैन काव्यों या पौराणिक काव्यों की पद्धति पर विचरित हैं। इनमें जैन काव्यों तथा रासों काव्यों की शैलीगत प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। सधारू अग्रवाल, शालिभद्र सूर, गौतम रासकार, जाखू मणियार, देवप्रभ सूरी और पद्नाभ आदि इस काल के प्रमुख चरित काव्यों में लेखक हैं। इन प्रबन्धात्मक चरित काव्यों में काव्यशास्त्रोक्त महाकाव्य के सभी लक्षण मिलते हैं। (8) नीतिकाव्य-भारतीय साहित्य में नीतिकाव्यों के निर्माण की परम्परा बहुत पुरातन है। वेद, रामायण, महाभारत, पुराणों तथा अन्य काव्यों में नीतिपरक उपदेश मिल जाते हैं। संस्क्ति साहित्य में नीति के अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी उपलब्ध होते हैं। यह परम्परा पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश के काव्यों में बराबर मिलती है। नाथों व सिद्धों के साहित्य में अनेक नीतिपरक सूक्तियाँ मिलती हैं। भक्तिकाल में कबीर, नानक और दादू दयाल आदि सन्तों की वाणियों तथा रामचरित मानस और पद्मावत आदि प्रबन्ध काव्यों में नीति सम्बन्धी उपदेश प्रासंगिक रूप से मिल जाते हैं, भक्तिकाल में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं, जिन्होंने स्वतंत्र रूप से नीति ग्रंथों की रचना की। इन कवियों में बनारसी दास, पद्मनाभ, देवीदास उत्थैरा, वाजिदराज समुद्र,त कुशलबीर तथा जमाल आदि उल्लेखनीय हैं। इन रचयिताओं ने भर्तृहरि के नीतिशतक तथा वैराग्य शतक के समान लोकव्यवहार, नैतिकता और अध्यात्मोन्मुख उपदेशों को काव्योचित भाषा में निबद्ध किया है। Important Links
Disclaimer Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: You may also likeAbout the authorभक्ति काल की प्रमुख प्रवृत्तियां क्या है?(2) भक्ति की प्रधानता-
इस काव्य की चारों काव्यधाराओं अर्थात् सन्त, प्रेम, राम तथा कृष्ण साहित्य में ईश्वराधन के लिए भक्ति पर समान बल दिया गया है। यद्यपि कबीर के ईश्वर निराकार हैं और वे ज्ञान गम्य हैं किन्तु भक्ति के बिना उसकी प्राप्ति नहीं होती। भक्ति ज्ञान का प्रमुख साधन है- “हरि भरक्ति जाने बिना बूड़ि मुआ संसार”।
भक्ति काल कितने प्रकार के होते हैं?इस प्रकार इन विभिन्न मतों का आधार लेकर हिंदी में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएँ साथ साथ चलीं। निर्गुणमत के दो उपविभाग हुए - ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी। पहले के प्रतिनिधि कबीर और दूसरे के जायसी हैं। सगुणमत भी दो उपधाराओं में प्रवाहित हुआ - रामभक्ति और कृष्णभक्ति।
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