भारत दुर्दशा नामक रचना गद्य की कौन सी विधा है? - bhaarat durdasha naamak rachana gady kee kaun see vidha hai?

भारत दुर्दशा के लेखक/रचयिता

भारत दुर्दशा (Bhaarat Durdasha) के लेखक/रचयिता (Lekhak/Rachayitha) "भारतेन्दु हरिश्चन्द्र" (Bharatendu Harishchandra) हैं।

Bhaarat Durdasha (Lekhak/Rachayitha)

नीचे दी गई तालिका में भारत दुर्दशा के लेखक/रचयिता को लेखक तथा रचना के रूप में अलग-अलग लिखा गया है। भारत दुर्दशा के लेखक/रचयिता की सूची निम्न है:-

रचना/रचनालेखक/रचयिता
भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
Bhaarat Durdasha Bharatendu Harishchandra

भारत दुर्दशा किस विधा की रचना है?

भारत दुर्दशा (Bhaarat Durdasha) की विधा का प्रकार "रचना" (Rachna) है।

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भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1880 ई में रचित एक हिन्दी नाटक है। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अन्त करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। भारतेन्दु का यह नाटक अपनी यूगीन समस्याओं को उजागर करता है, उसका समाधान करता है। भारत दुर्दशा में भारतेन्दु ने अपने सामने प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वर्तमान लक्ष्यहीन पतन की ओर उन्मुख भारत का वर्णन किया है।[1]

भारतेन्दु ब्रिटिश राज और आपसी कलह को भारत की दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं।

अंग्रेजों ने अपना शासन मजबूत करने के लिये देश में शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था, डाक सेवा, रेल सेवा, प्रिंटिंग प्रेस जैसी सुविधाओं का सृजन किया । पर यह सब कुछ अपने लिये, अपने शासन को आसान बनाने के लिये था। देश की अर्थ व्यवस्था जिन कुटीर उद्योगों से पनपती थी उनको बरबाद करके अपने कारखानों में बने माल को जबर्दस्ती हम पर थोपने लगे । कमाई के जरिये छीन लेने से देश में भूखमरी फैल गयी । लाखों लोग अकाल और महामारी से मरने लगे । पर इससे अंग्रेज विचलित नहीं हुए। वह बदस्तूर अपनी तिजोरियाँ भरते जा रहे थे। सारा देश खामोशी से अपने को लुटते हुए देख रहा था, मरते हुए देख रहा था । बिलकुल शान्ति से , तटस्थ भाव से , निरासक्ति से, निष्क्रियता से ।

ऐसे समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का भारत दुर्दशा नाटक प्रकाशित हुआ। उन्होंने लिखा-

रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ॥

भारत दुर्दशा एक दुखान्त नाटक है। डॉ जयनाथ नलिन लिखते हैं-

भारत दुर्दशा अतीत गौरव की चमकदार स्मृति है, आँसू-भरा वर्तमान है और भविष्य-निर्माण की भव्य प्रेरणा है। इसमें भारतेंदु का भारत प्रेम करुणा की सरिता के रूप में उमड़ चला आया है। आशा की किरण के रूप में झिलमिला उठा है।[2]

संरचना[संपादित करें]

‘भारत दुर्दशा’ में छः अंक है। अंक इतने छोटे-छोटे हैं कि यदि अंक की जगह दृश्य भी लिख दिया जाय तो उससे नाटक की संरचना में कोई अन्तर नहीं आएगा।

पहले अंक में एक योगी लावनी गाता हुआ देश के अतीत गौरव के परिप्रेक्ष्य में उसकी वर्तमान हीन दशा का ब्योरा देता है। वह शुरू में ही भारतीय दुर्दशा पर भारत भाईयों के रूदन का आह्वान कर नाटक के राष्ट्रीय सरोकार को ध्वनित कर देता है। यह योगी हमारे नाट्य शास्त्र का परिचित सूत्रधार मात्र नहीं है, यह तो मानो भारतीय आत्मा की आवाज है। यह

रोवहु सब मिलि कै आवहु भारत भाईहा! हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई

गाकर दर्शकों को भारत का दैन्य देखने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर देता है।

दूसरे अंक में श्मशान में कुत्तों, कौओं, स्यारों के बीच फटेहाल भारत का प्रवेश होता है। वह अपनी रक्षा के लिए कभी ईश्वर को और कभी राज-राजेश्वरी को पुकारता है। वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता। यह उन्हीं पूर्वजों का भारत है जो बिना लड़े सूई की नोंक के बराबर जमीन देने को भी तैयार नहीं होते थे। यह दुर्बल एवं रणभीरु भारत, नेपथ्य से भारत दुर्दैव की कर्कश गर्जना सुनकर मूर्च्छित हो जाता है। उसकी फटेहाली भारतीय विपन्नता एवं उसकी मूर्छा आत्माविश्वास-शून्यता एवं भयग्रस्तता के बिम्ब को उभारती है।

तीसरे अंक में 'भारत दुर्दैव' एवं 'सत्यानाश फौजदार' अपने भारत दुर्दशामूलक प्रयोजनों को स्पष्ट करते हैं। भारत दुर्दैव की वेशभूषा आधी मुसलमानी एवं आधी क्रिस्तानी है। भारत की हजार वर्षों की गुलामी को प्रत्यक्ष करने की यह बेजोड़ नाट्य युक्ति है।

चौथे अंक में गुलाम, हीन एवं हतदर्प बनने के कारणों का उल्लेख है। कारण है आलस्य, अपव्यय, रोग, मदिरा, अंधकार। ये अमूर्त्त, प्रतीकात्मक पात्र विस्तार से दुर्दशा के कारणों का खुलासा करते हैं। इनकी बोलीबानी एवं वेशभूषा हास्यरसोत्पादक है। इनके संवादों से भारत पर हमले के निमित्त की गई इनकी सैन्य तैयारी का पता चलता है।

पाँचवें अंक में भारत दुर्दैव के हमले से बचने के लिए पढ़े-लिखे भारतीयों की बैठक का उल्लेख है। इसमें बंगाली, महाराष्ट्री, देशी, कवि, एडिटर आदि सजीव पात्र हैं। बंगाली, महाराष्ट्री एवं एडिटर की साहसिकता तथा हिन्दी-भाषी देशी सज्जन एवं कवि की कायरता का दृश्य खड़ाकर नाटककार ने बंगाली नवजागरण एवं मराठी नवजागरण की तुलना में हिन्दी नवजागरण के पिछडे़पन को उभारा है।

छठवें अंक में भारतभाग्य नामक केवल एक पात्र का संवाद एवं कार्य व्यापार चित्रित है। भारतभाग्य का लम्बा गीतात्मक संवाद भारत के गौरवमय अतीत एवं दुःखद वर्तमान दोनों को समेटता है। भारतभाग्य का आत्मधिक्कार कारुणिक है। वह अन्ततः छाती में चाकू भोंककर आत्महत्या कर लेता है।

भाषा-शैली[संपादित करें]

भारतदुर्दशा की पात्रों के अनुरूप भाषा रंगमंचीयता के अनुकूल है। यह भाषा टकसाली उर्दू या नवाबी जुबान के संस्कार त्याग कर लोकप्रचलित हिन्दी के संस्कार अपनाती है, जिसे हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई सभी बोलते-समझते है। ‘ भारत-दुर्दशा’ की भाषा भी सीधे जनता से जुड़ी भाषा है। इसलिए वह दर्शक का पर्याप्त मनोरंजन करती है।

'निर्लज्जता’, भारत से कहती है:

मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र/ छिः छिः! जीओगे तो भीख माँगकर खाओंगे। प्राण देना तो कायरों का काम है। क्या हुआ जो धन-मान सब गया, एक जिन्दगी हजार नियामत है।

ऐसी भाषा हास्य एवं व्यंग्य की फुहारे छोड़ती हुई लोक मानस को बदलती है। इस भाषा में बनारसी बोली का रंगरोगन मिला है। मुहावरों, लोकोक्तियों से सजी यह भाषा दर्शक या पाठक से सहज आत्मीयता स्थापित करती है। एक उदाहरण देखिये-

जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?’ भई जात में ब्राह्मण, धर्म में वैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना, न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, ताना मारना और मस्त रहना।

भारत दुर्दशा में नाटकीय संघर्ष की जो कमी है, उसकी पूर्ति भारतेन्दु अपनी इस आमफहम भाषा से ही करते हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. भारत दुर्दशा की संवेदना
  2. भारत-दुर्दशा की मूल संवेदना

इन्हें भी देखिये[संपादित करें]

  • अंधेर नगरी

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • भारत दुर्दशा ('हिन्दी समय' पर)
  • राष्ट्रीय चेतना के वाहक भारतेन्दु हरिश्चंद्र

भारत दुर्दशा नामक रचना किसकी है?

भारतेन्दु हरिश्चंद्रभारत दुर्दशा / लेखकnull

भारत दुर्दूशा शीर्षक कविता का केन्द्रीय विषय क्या है?

भारतदुर्दशा न देखी जाई ।। 'अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी। ' लेकिन इसके तुरन्त बाद वह भारतीय धन के पारगमन पर अपनी चिंता जाहिर करता है- पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी ।। यह अंग्रेज राज सुख साज पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी है

भारत दुर्दशा नाटक का उद्देष्य क्या है?

यह नाटक भारत की तत्कालीन यथार्थ दशा से परिचित करता हैनाटक का प्रमुख उद्देश्य :- तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दुर्दशा करनेवालों का यथार्थ चित्र उपस्थित करना ।

भारतेन्दु जी के गुरु का क्या नाम था?

भारतेंदु हरीशचंद्र 9 सितम्बर 1850 को बनारस में पैदा हुए। उनके पिता का नाम गोपाल चन्द्र गुरु हरदास क़लमी नाम से शायरी करते थे।