भारत वंदना कविता में लंका की उपमा शतदल से क्यों की गई हैं? - bhaarat vandana kavita mein lanka kee upama shatadal se kyon kee gaee hain?

Suryakant Tripathi Nirala (सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) हिंदी साहित्य के उन प्रमुख चार स्तंभों में से एक हैं जिन्होंंने अपनी शानदार कविताओं से दिल जीता है। निराला जी हिंदी साहित्य के एक बहुत ही महत्वपूर्ण कवि, लेखक , उपन्यासकार, कहानीकार ,निबंधकार और संपादक थे। वह प्रगतिवाद प्रयोगवाद, काव्य का जनक , और अपने नाम के अनुरूप हर क्षेत्र में निराले भी थे। उनके अंदर एक सबसे अहम गुण ‘यथा नाम तथा गुण’ के बारे में प्रमाण मिलता था।

Show

भारत वंदना कविता में लंका की उपमा शतदल से क्यों की गई हैं? - bhaarat vandana kavita mein lanka kee upama shatadal se kyon kee gaee hain?
विकिपीडिया

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय

Points Information
नाम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala)
उपनाम निराला
जन्म 21 फरवरी 1896
आयु 62 वर्ष
जन्म स्थान महिसागर जिला मेदनीपुर पश्चिम बंगाल
पिता का नाम पंडित राम सहाय
माता का नाम रुकमणी
पत्नी का नाम मनोहर देवी
प्रमुख रचनाएं गीतिका ,तुलसीदास ,राम की शक्ति पूजा ,सरोज स्मृति
पेशा आर्मी ऑफिसर
बच्चे एक पुत्री
भाषा हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, संस्कृत
निदान 15 अक्टूबर 1961 ईस्वी में प्रयागराज उत्तर प्रदेश 

सूर्यकांत त्रिपाठी (Suryakant Tripathi Nirala) निराला का जन्म वसंत पंचमी  रविवार 21 फरवरी 1896 के दिन हुआ था, अपना जन्मदिन वसंत पंचमी को ही मानते थे। उनकी एक कहानी संग्रह ‘ लिली’ 21 फरवरी 1899 जन्म तिथि पर ही प्रकाशित हुई थी। रविवार को इनका जन्म हुआ था इसलिए वह सूर्ज कुमार के नाम से जाने जाते थे। उनके पिताजी का नाम पंडित राम सहाय था वह सिपाही की नौकरी करते थे। उनकी माता का नाम रुक्मणी था जब निराला जी  3 साल के थे तब उनकी माता की मृत्यु हो गई थी उसके बाद उनके पिता ने उनकी देखभाल की।

शिक्षा

उनकी प्रारंभिक शिक्षा महिषादल हाई स्कूल से हुई थी परंतु उन्हें वह पद्धति में रुचि नहीं लगी। फिर इनकी शिक्षा बंगाली माध्यम से शुरू हुई। हाई स्कूल की पढ़ाई पास करने के बाद उन्होंने घर पर रहकर ही संस्कृत ,अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया था।जिसके बाद वह लखनऊ और फिर उसके बाद गढकोला उन्नाव आ गए थे। शुरुआत के समय से ही उन्हें रामचरितमानस बहुत अच्छा लगता था। उन्हें  बहुत सारी भाषाओं का निपुण ज्ञान था: हिंदी ,बांग्ला ,अंग्रेजी, संस्कृत। श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रविंद्र नाथ टैगोर से वह अधिक रूप से प्रभावित थे। उन्हें पढ़ाई से ज्यादा मन खेलने ,घूमने, तेरने और कुश्ती लड़ने में लगता था।

विवाह

जब निराला जी की 15 वर्ष की  आयु थी तभी उनका विवाह मनोहरा देवी से हो गया था। मनोरमा देवी रायबरेली जिले के डायमंड के प. राम दयाल की पुत्री थी ,वह बहुत ही शिक्षित थी और उन्होंने संगीत का अभ्यास भी किया था। फिर उन्होंने हिंदी सीखी ,इसके पश्चात बांग्ला के बजाय हिंदी में कविता लिखना शुरू किया। परंतु 20 वर्ष की आयु में ही उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई थी। उनके पुत्री जो विधवा थी फिर उसकी भी मृत्यु हो गई थी।

पारिवारिक विपत्तियां

उनके जीवन में 16 – 17 वर्ष की उम्र से ही विपत्तियां आनी शुरू हो गई थी। उन्हें कई सारी प्रकार की देवी, सामाजिक, साहित्यिक संगोष्ठी से गुजरना पड़ा था ।परंतु आखिर तक उन्होंने अपने लक्ष्य को छोड़ा नहीं था। जब वह 3 साल के थे तब उनकी माता की मृत्यु हो गई थी। और सामाजिक रूप से उनका पिताजी का निधन भी हो गया था साथ ही 20 साल की उम्र में उनकी पत्नी की मृत्यु भी हो गई थी। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली थी उनमें उनकी पत्नी के साथ चाचा ,भाई ,भाभी की भी मृत्यु हो गई थी। पत्नी की मृत्यु के बाद बहुत टूट से गए थे परंतु आखिर तक उन्होंने अपना मार्ग विचलित नहीं किए अपने लक्ष्य को पूरा किए। कुछ समय पश्चात उन्होंने महिषादल के राजा के पास नौकरी शुरू की थोड़े समय बाद उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। उसके बाद उन्होंने रामकृष्ण मिशन के पत्रिका समन्वय के संपादन के कार्य में काम करना शुरू किया।

कार्य क्षेत्र

उन्होंने पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में की थी उसके पश्चात उन्होंने 1918 से 1922 तक यहां पर नौकरी की। इसके पश्चात व संपादन, अनुवाद कार्य और स्वतंत्र लेखन में प्रवृत्त हो गए। इस दौरान उन्होंने कई सारे कार्य किए, 1922 से 1932 के बीच कोलकाता में प्रसिद्ध हुए समन्वय का संपादन किया साथ ही 1923 अगस्त से मतवाला संपादक मंडल में भी कार्य किया था। फिर उन्होंने लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में मासिक पत्रिका सुधा 1934 के मध्य के साथ संबंध में रहे थे। कुछ समय उन्होंने लखनऊ में ही बिताया 1934 से 1940 तक, 1942 से मृत्यु तक इलाहाबाद में रहकर यह उन्होंने अनुवाद कार्य साथ ही स्वतंत्र लेखन का कार्य किया था।

  • उनकी सबसे पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र  1920 जून में प्रकाशित हुई ।
  • इनकी सबसे पहली कविता संग्रह 1923 अनामिका प्रकाशित हुई थी।
  • 1920 अक्टूबर में सबसे पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई थी।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की रचनाएँ

1920 ई के आसपास उन्होंने अपना लेखन कार्य शुरू किया था। उनकी सबसे पहली रचना एक गीत जन्म भूमि पर लिखी गई थी। 1916 ई मैं उनके द्वारा लिखी गई ‘ जूही की कली ‘ बहुत ही लंबे समय तक का प्रसिद्ध रही थी और 1922 ई मैं प्रकाशित हुई थी। 

काव्य संग्रह–

  • अनामिका (1923)
  • परिमल (1930)
  • गीतिका (1936)
  • अनामिका (द्वितीय)
  • तुलसीदास (1939)
  • कुकुरमुत्ता (1942)
  • अणिमा (1943)
  • बेला (1946)
  • नये पत्ते (1946)
  • अर्चना(1950)
  • आराधना (1953)
  • गीत कुंज (1954)
  • सांध्य काकली
  • अपरा (संचयन)

उपन्यास–

  • अप्सरा (1931)
  • अलका (1933)
  • प्रभावती (1936)
  • निरुपमा (1936)
  • कुल्ली भाट (1938-39)
  • बिल्लेसुर बकरिहा (1942)
  • चोटी की पकड़ (1946)
  • काले कारनामे (1950)
  • चमेली
  • इन्दुलेखा
  • कहानी संग्रह
  • लिली (1934)
  • सखी (1935)
  • सुकुल की बीवी (1941)
  • चतुरी चमार (1945)
  • देवी (1948)

निबंध–

  • रवीन्द्र कविता कानन (1929)
  • प्रबंध पद्म (1934)
  • प्रबंध प्रतिमा (1940)
  • चाबुक (1942)
  • चयन (1957)
  • संग्रह (1963)

कहानी संग्रह–

  • लिली (1934)
  • सखी (1935)
  • सुकुल की बीवी (1941)
  • चतुरी चमार (1945)
  • देवी (1948)

अभी न होगा मेरा अन्त

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त
हरे-हरे ये पात
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं

अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त
अभी न होगा मेरा अन्त
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण
इसमें कहाँ मृत्यु
है जीवन ही जीवन

अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे
बालक-मन
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त

तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर|
देखा मैंने उसे
इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन, भर बंधा यौवन
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार

चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गई
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार

देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर

दीन

सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न,
अन्तिम आशा के कानों में
स्पन्दित हम – सबके प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ,
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत की ओर ताककर
दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर,
सह जाते हो।
कह जातेहो-
“यहाँकभी मत आना,
उत्पीड़न का राज्य दुःख ही दुःख
यहाँ है सदा उठाना,
क्रूर यहाँ पर कहलाता है शूर,
और हृदय का शूर सदा ही दुर्बल क्रूर;
स्वार्थ सदा ही रहता परार्थ से दूर,
यहाँ परार्थ वही, जो रहे
स्वार्थ से हो भरपूर,
जगतकी निद्रा, है जागरण,
और जागरण जगत का – इस संसृति का
अन्त – विराम – मरण
अविराम घात – आघात
आह ! उत्पात!
यही जग – जीवन के दिन-रात।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका स्पन्दन,
हास्य से मिला हुआ क्रन्दन।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका जीवन,
दिवस का किरणोज्ज्वल उत्थान,
रात्रि की सुप्ति, पतन;
दिवस की कर्म – कुटिल तम – भ्रान्ति
रात्रि का मोह, स्वप्न भी भ्रान्ति,
सदा अशान्ति!”

मौन

बैठ लें कुछ देर,
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में,
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु सा बह जाए।
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से,
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।

किशोरी, रंग भरी किस अंग भरी हो

रंगभरी किस अंग भरी हो?
गातहरी किस हाथ बरी हो?
जीवन के जागरण-शयन की,
श्याम-अरुण-सित-तरुण-नयन की,
गन्ध-कुसुम-शोभा उपवन की,
मानस-मानस में उतरी हो;
जोबन-जोबन से संवरी हो।\
जैसे मैं बाजार में बिका
कौड़ी मोल; पूर्ण शून्य दिखा;
बाँह पकड़ने की साहसिका,
सागर से उर्त्तीण तरी हो;
अल्पमूल्य की वृद्धिकरी हो।

अनगिनित आ गए शरण में

अनगिनित आ गए शरण में जन, जननि,–
सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि !
      स्नेह से पंक-उर
       हुए पंकज मधुर,
       ऊर्ध्व-दृग गगन में
       देखते मुक्ति-मणि !
      बीत रे गई निशि,
      देश लख हँसी दिशि,
      अखिल के कण्ठ की
       उठी आनन्द-ध्वनि !

भारती वन्दना

भारति, जय, विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे!
लंका पदतल-शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण-युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!
तरु-तण वन-लता-वसन
अंचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल-धार हार लगे!
मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख-शतरव-मुखरे!

दलित जन पर करो करुणा

दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति वरुणा।
हरे तन मन प्रीति पावन,
मधुर हो मुख मनभावन,
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा
देख वैभव न हो नत सिर,
समुद्धत मन सदा हो स्थिर,
पार कर जीवन निरंतर
रहे बहती भक्ति वरूणा।

Suryakant Tripathi Nirala Quotes

  • स्पर्द्धा की एक ही सृष्टि, अपनी ही विद्युत् से चमकती हुई चिर-सौन्दर्य के आकाश-तत्त्व में छिप गई है।
  • विस्मय से आकाश की ओर ताककर रह जाती।
  • तमाम विरोधी गुण उस ध्वनि के तत्त्व में डूब गए।
  • मनुष्य के अज्ञान की मार मनुष्य ही तो सहते हैं।
  • मुक्त जीवन-प्रसंग का प्रांगण छोड़ प्रेम की सीमित, पर दृढ़ बाँहों में सुरक्षित, बँध रहना उसने पसन्द किया।

Suryakant Tripathi Nirala Books

महाभारत Buy Now
आराधना Buy Now
बिलेसुर बकरीहा Buy Now
प्रभावती Buy Now
अप्सरा Buy Now
कुलीभाटी Buy Now
भक्त प्रहलाद Buy Now

Suryakant Tripathi Nirala Awards

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को उनके मरणोपरांत भारत का प्रतिष्ठित सम्मान “पद्मभूषण“ से सम्मानित किया गया|

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की भाषा शैली

शैली मनुष्य का स्वरूप है | वह उसके आन्तरिक भावों का प्रतिरूप है ढांचा है, नमूना है | महाप्राण निराला की शैली के कई रूप हैं | इनकी शैलियों को प्रमुख रूप से पांच भागों में विभक्त किया गया है —

  • समास – प्रधान शैली
  • सरल – व्यावहारिक शैली
  • सुबोध एवं सौष्ठव – प्रधान शैली
  • व्यंग – प्रधान शैली
  • अलंकृत शैली

हिंदी साहित्य में स्थान

निराला जी का हिंदी साहित्य में बहुत ही गौरव पूर्ण स्थान है, साहित्य जगत में मुक्त छंद के प्रणेता वह है। जीवन, साहित्य, समाज के सर्वत्र ,नवीनता, छायावादी प्रगतिवादी, दार्शनिक, अद्वितीय प्रतिभा के महान कवि है। निराला जी ने छंद ,भाषा और भाव ऐसी अन्य प्रकार की नवीनता प्रदान की है। उनके अंदर तत्वज्ञान, रहस्यवादी ,सामाजिक चेतना का विद्यमान पूर्ण रूप से भरा हुआ था।

Suryakant Tripathi Nirala प्रकाशित कृतियां

सन् 1916 ई में ‘ जूही की कली ‘ हिंदी में बहुत  प्रकाशित हुई थी। 

कविता संग्रह

  • अनामिका 
  • परिमल 
  • गीतिका 
  • द्वितीय अनामिका
  • कुकुरमुत्ता 
  • अणिमा
  • बेला 
  • नए पत्ते 
  • अर्चना 
  • आराधना 
  • गीत कुंज 
  • सांध्य काकली 
  • अपरा 
  • दो शरण 
  • रागविराग 

Suryakant Tripathi Nirala लम्बी रचनाएँ

  • राम की शक्ति पूजा 
  • सरोज स्मृति 
  • बादल राग 
  • तुलसीदास 

कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ

  • दीन 
  • मुक्ति 
  • राजे ने अपनी रखवाली की 
  • भिक्षुक 
  • मौन 
  • राजे ने अपनी रखवाली की 
  • संध्या सुन्दरी 
  • तुम हमारे हो 
  • वर दे वीणावादिनी वर दे ! 
  • चुम्बन 
  • प्राप्ति 
  • भारती वन्दना 
  • भर देते हो 
  • ध्वनि 
  • उक्ति 
  • गहन है यह अंधकारा 
  • शरण में जन, जननि 
  • स्नेह-निर्झर बह गया है 
  • मरा हूँ हज़ार मरण 
  • पथ आंगन पर रखकर आई 
  • आज प्रथम गाई पिक 
  • मद भरे ये नलिन 
  • भेद कुल खुल जाए 
  • प्रिय यामिनी जागी 
  • लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो 
  • पत्रोत्कंठित जीवन का विष 
  • तोड़ती पत्थर 
  • खुला आसमान 
  • बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु 
  • प्रियतम 
  • वन बेला 
  • टूटें सकल बन्ध 
  • रँग गई पग-पग धन्य धरा 
  • भिक्षुक 
  • वे किसान की नयी बहू की आँखें 
  •  तुम और मैं 
  • उत्साह 
  • अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं) 
  • अट नहीं रही है 
  • गीत गाने दो मुझे 
  • प्रपात के प्रति 
  • आज प्रथम गाई पिक पंचम 
  • गर्म पकौड़ी 
  • दलित जन पर करो करुणा 
  • कुत्ता भौंकने लगा 
  • मातृ वंदना 
  • बापू, तुम मुर्गी खाते यदि… 
  • नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे 
  • मार दी तुझे पिचकारी 
  • ख़ून की होली जो खेली 
  • खेलूँगी कभी न होली 
  • केशर की कलि की पिचकारी  
  • अभी न होगा मेरा अन्त 
  • जागो फिर एक बार 

Suryakant Tripathi Nirala मृत्यु Death

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन का अंतिम समय अस्वस्थता के कारण प्रयागराज के दारागंज मोहल्ले में एक छोटे से कमरे में बीता तथा इसी कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को कवि निराला जी की मृत्यु हुई।

उम्मीद है आपको सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी (Suryakant Tripathi Nirala) पर आधारित ब्लॉग पसंद आया होगा यदि आप इससे जुड़े कोई भी प्रश्न पूछना चाहते हैं तो आप हमें कमेंट सेक्शन में लिखकर बताएं।आप किसी कोर्स या विदेश में एडमिशन लेना चाहते हैं तो आपके पास बहुत अच्छा मौका है आप आज ही Leverage Edu से संपर्क करे तथा अपने सपनों की उड़ान ले Leverage Edu के एक्सपर्ट के साथ।

कवि ने लंका की उपमा शतदल से क्यों की है?

'शतदल' का अर्थ होता है - कमल। यदि आप भारत का मानचित्र (map) ध्यानपूर्वक देखें तो आप पाएँगे कि भारत के नीचे श्रीलंका देश है। तो कवि को यह देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो भारत माता शतदल अर्थात कमल के ऊपर खड़ी हैं। यानी कवि ने श्रीलंका की तुलना कमल से की है।

भारत वंदना कविता में शतदल का अर्थ क्या है?

शतदल = कमल। क्लेद = पसीना, कष्ट। मुक्त = स्वतन्त्र। श्रेय = श्रेष्ठ, प्रशंसनीय।

भारती वंदना कविता के कवि कौन है?

भारती वन्दना -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

वंदना कविता में रस कौन सा है?

वंदना' कविता में शांत रस है। शांत रस में मोक्ष और अध्यात्म की भावना की उत्पत्ति होती है। शांत रस उस काव्य में होता है।