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JAC Board Class 9 Maths Notes Chapter 7 TrianglesTriangle Types of Triangles → On the basis of sides we have three types of triangles:
→ On the basis of angles we have three types of triangles:
Congruent Figures In the above figures {Fig. (i) and Fig. (ii)} both are equal in length, width and height, so these are congruent figures. Congruent Triangles If two triangles ΔABC and ΔDEF are congruent then there exist a one to one correspondence between their vertices and sides. i.e. we get following six equalities. ∠A = ∠D, ∠B = ∠E, ∠C = ∠F and AB = DE, BC = EF, AC = DF. If ΔABC and ΔDEF are congruent under one to one correspondence A ↔ D, B ↔ E, C ↔ F then we write ΔABC ≅ ΔDEF We cannot write it as ΔABC ≅ ΔDFE or ΔABC ≅ ΔEDF or in other forms because ΔABC ≅ ΔDFE have following one-one correspondence A ↔ D, B ↔ F, C ↔ E. Hence, we can say that ‘two triangles are congruent if and only if there exists a oneone correspondence between their vertices such that the corresponding sides and the corresponding angles of the two triangles are equal. Sufficient Conditions for Congruence of two Triangles Two triangles are congruent if two sides and the included angle of one triangle are equal to the corresponding sides and the included angle of the other triangle. → ASA Congruence Criterion: Two triangles are congruent if two angles and the included side of one triangle are equal to the corresponding two angles and the included side of the other triangle. → AAS Congruence Criterion: → SSS Congruence Criterion: Two triangles are congruent if the three sides of one triangle are equal to the corresponding three sides of the other triangle. → RHS Congruence Criterion: Two right angled triangles are congruent if the hypotenuse and one side of one triangle are respectively equal to the hypotenuse and one side of the other triangle. → Congruence Relation in the Set of all Triangles:
NOTE: If two triangles are congruent then their corresponding sides and angles are also congruent by CPCT (corresponding parts of congruent triangles are also congruent). Theorem 1. Given: ΔABC in which AB = AC To Prove: ∠B = ∠C Construction: We draw the bisector AD of ∠A which meets BC in D. Proof: In ΔABD and ΔACD, we have AB = AC [Given] ∠BAD = ∠CAD [∵ AD is bisector of ∠A] And, AD = AD [Common side] ∴ By SAS criterion of congruence, we have ΔΑΒD ≅ ΔΑCD ⇒ ∠B = ∠C [by CPCT] Hence, proved. Theorem 2. which meets BC in D. Proof: In ΔABD and ΔACD, we have ∠B = ∠C [Given] ∠BAD = ∠CAD [∵ AD is bisector of ∠A] AD = AD [Common side] ∴ By AAS criterion of congruence, we get ΔΑΒD ≅ ΔΑCD ⇒ AB = AC [By CPCT] Hence, proved. Theorem 3. Given: ΔABC in which AD is the bisector of ∠A meeting BC in D such that BD = CD To Prove: ΔABC is an isosceles triangle. Construction: We produce AD to E such that AD = DE and join EC Proof: In ΔADB and ΔEDC, we have AD = DE [By construction] ∠ADB = ∠CDE [Vertically opposite angles] BD = DC [Given] ∴ By SAS criterion of congruence, we get ΔADR ≅ ΔEDC ⇒ AB = EC ……(i) And, ∠BAD = ∠CED [By CPCT] But, ∠BAD = ∠CAD ∴ ∠CAD = ∠CED ⇒ AC = EC [Sides opposite to equal angles are equal] ⇒ AC = AB [By eq. (i)] Hence, proved Some Inequality Relations In A Triangle P is any point not lying on line l, PM ⊥ l then PM < PN. → The difference of any two sides of a triangle is less than the third side, i.e., in any ΔABC, AB – BC < AC, BC – CA < AB and AC – AB < BC. Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 9 संगतकार Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 9 संगतकारJAC Class 10 Hindi संगतकार Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. सबसे पहला योगदान तो उसके माता-पिता और भाई ने दिया। उसके हरियाणा के करनाल में स्थित स्कूल और कॉलेज के शिक्षकों ने उसकी पढ़ाई में योगदान दिया। पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, चंडीगढ़ ने उसकी शिक्षा में योगदान दिया। नासा ने सफलता प्राप्ति के लिए भरपूर योगदान दिया। न जाने कितने लोगों के योगदान को प्राप्त करके ही वह अपनी मंजिल तक पहुंची थी। योगदान फिर भी मिल जाता है, पर आत्मिक बल और परिश्रम की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, तभी प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। प्रश्न 6. प्रश्न 7. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. प्रश्न 9. कार्यक्रम आरंभ होने से पहले ही मंच की साज-सज्जा का दर्शक के मन पर जो स्थाई प्रभाव पड़ता है, उसका सीधा संबंध कार्यक्रम की प्रस्तुति पर होता है। इसलिए मंच सज्जाकार का विशिष्ट महत्व है। ध्वनि व्यवस्था करने वाले इलैक्ट्रीशियन का महत्व भी महत्वपूर्ण है। बिना उचित ध्वनि के कार्यक्रम संभव ही नहीं। पावरकट की स्थिति में जैनरेटर चलाने वाले की उपयोगिता अपने : आप ही दिखाई दे जाती है। किसी नृत्य-कार्यक्रम में मंच के पीछे से भूमिका बाँधने वाले और गायन प्रस्तुत करने वाले सहयोगी की आवश्यकता तो सदा रहती ही है। प्रश्न 10. मंच पर गाते और नृत्य करते कलाकार तो सभी को दिखाई देते हैं और इसलिए उनकी प्रतिभा की पहचान सभी को हो जाती है। लोग उनके लिए वाह-वाह करते हैं; तालियाँ बजाते हैं; उन्हें पुरस्कार देते हैं, पर उनके कार्यक्रम तैयार करने वाले उनके लिए गीत लिखने वाले; उनके संगतकार मंच के अंधेरे में ही छिपे रहते हैं। इसलिए अति प्रतिभावान संगतकार भी लोगों की भीड़ के सामने न आ पाने के कारण मुख्य या शीर्ष स्थान पर नहीं पहुँच पाते। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. नोटिस संगीत क्लब द्वारा शुक्रवार, 14 सितंबर को विद्यालय के सभागार में सायं 6.00 बजे संगीत संध्या का आयोजन किया जा रहा है। देशभर में ख्याति प्राप्त गायिकाएँ अपनी-अपनी स्वर माधुरी से विद्यालय के प्रांगण को सुवासित करने हेतु इसमें पधार रही हैं। आप अपने माता-पिता के साथ इसमें सादर आमंत्रित हैं। निर्धारित समय से पंद्रह मिनट पहले पहुँचकर आप अपना-अपना स्थान ग्रहण करने का कष्ट करें। डॉ० महीप शर्मा (ख) स्वर सम्राज्ञी कविता कृष्णमूर्ति को देशभर में ही ख्याति प्राप्त नहीं है अपितु इन्होंने विश्वभर में अपनी मधुर आवाज़ से सम्मान प्राप्त किया है। इनका नाम संगीत की पहचान बन चुका है। फ़िल्म संगीत में इनकी अपनी पहचान है। गायन में इनका कोई मुकाबला नहीं है। इनके साथ निपुण और कलावंत संगतकारों की पूरी टीम है। इस सभा में तबले पर हरीश शर्मा, सारंगी पर बेजू, हारमोनियम पर गुरविंद्र सिंह, ढोलक पर अविनाश चावला, मृदंगम पर रामानुज और बाँसुरी पर अखिलेश भट्टाचार्य गायिका का साथ देंगे। यह भी जानें – सरगम – संगीत के लिए सात स्वर तय किए गए हैं। वे हैं-षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। इन्हीं नामों के पहले अक्षर लेकर इन्हें सा, रे, गा, म, प, ध और नि कहा गया है। सप्तक – सप्तक का अर्थ है सात का समूह। सात शुद्ध स्वर हैं इसीलिए यह नाम पड़ा। लेकिन ध्वनि की ऊँचाई और निचाई के आधार पर संगीत में तीन तरह के सप्तक माने गए हैं। यदि साधारण ध्वनि है तो उसे ‘मध्य सप्तक’ कहेंगे और ध्वनि मध्य सप्तक से ऊपर है तो उसे ‘तार सप्तक’ कहेंगे तथा यदि ध्वनि मध्य सप्तक से नीचे है तो उसे ‘मंद्र सप्तक’ कहते हैं। JAC Class 10 Hindi संगतकार Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. पठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला (क) मुख्य गायक जब ऊँचे स्वर में गाता है तो क्या होता है? (ख) जब मुख्य गायक निराश हो जाता है तो उसका साथ कौन देता है? (ग) किसकी आवाज़ में हिचक का भाव छिपा रहता है। (घ) संगतकार द्वारा अपनी आवाज़ को ऊँचा न उठाना क्या है? (ङ) ‘तारसप्तक’ कैसा स्वर है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) पैदल चलकर’ से कवि किस ओर संकेत कर रहा है? (ग) मुख्य गायक/गायिका को ढाढ़स कौन बँधाता है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती शब्दार्थ संगतकार – मुख्य गायक के साथ गायन करने वाला या कोई वाद्य बजाने वाला। गरज – ऊँची गंभीर आवाज़। प्राचीनकाल – पुराना समय। अंतरा – स्थायी या टेक को छोड़कर गीत का चरण। जटिल – कठिन। तान – संगीत में स्वर का विस्तार। सरगम – संगीत के सात स्वर-सा, रे, ग, म, प, ध, नि। लाँघकर – पार करके। अनहद – परमात्मा से मिलने से पहले भक्त के कान में आने वाली आवाज़। समेटता – इकट्ठा करता। नौसिखिया – जिसने अभी सीखना आरंभ किया हो। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘संगतकार’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता श्री मंगलेश डबराल हैं। कवि ने मुख्य गायक के साथ गाने वाले संगतकार की विशिष्टता का वर्णन करते हुए उसके महत्व को प्रतिपादित किया है। व्याख्या : कवि कहता है कि मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी-भरकम गाने के स्वर के साथ संगतकार की काँपती हुई-सी सुंदर और कमज़ोर आवाज़ मिल गई थी। शायद वह संगतकार गायक का छोटा भाई है या उसका कोई शिष्य है। हो सकता है कि वह कहीं दूर से पैदल चलकर संगीत की शिक्षा प्राप्त करने वाला गायक का अभावग्रस्त रिश्तेदार हो। वह संगतकार मुख्य गायक की ऊँची गंभीर आवाज़ में अपनी गूंज युगों से मिलाता आया है। अभावग्रस्त, जरूरतमंद और कमज़ोर सदा से ही निपुण और संपन्न की ऊँची आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाता रहा है। मुख्य गायक जब स्वर को लंबा खींच कर अंतरे की जटिल तानों के जंगल में खो जाता है; संगीत के रस में या संगीत के सुरों की अपनी सरगम की सीमा को पार कर ईश्वरीय आनंद की प्राप्ति में डूब जाता है और उसे अनहद का आनंददायक स्वर आलौकिक आनंद देने लगता है, तब संगतकार ही गीत के स्थायी को सँभाल कर अपने साथ रखता है। गीत को बिखरने से वही रोकता है। ऐसा लगता है, जैसे वही मुख्य गायक के पीछे छूट गए सामान को इकट्ठा कर रहा हो। संगतकार ही उस मुख्य गायक को उसका बचपन याद दिलाता है, जब उसने संगीत को नया-नया सीखना आरंभ किया था और उसने संगीत में निपुणता प्राप्त नहीं की थी। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भटके स्वर को संगतकार कब सँभालता है और मुख्य गायक पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? सादव सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. गायक के स्वर को सँभालने में कौन सहायक बनता है? उपमा – रूपक – उत्प्रेक्षा – जैसे समेटता हो ………. हुआ सामान। 2. तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला शब्दार्थ : सप्तक – संगीत के सात शुद्ध स्वर। तारसप्तक – मध्य सप्तक से ऊपर की ध्वनि। उत्साह – जोश। अस्त होना – डूबना, मंद पड़ना। राख जैसा कुछ गिरता हुआ – बुझता हुआ स्वर। ढाढ़स बँधाना – तसल्ली देना, सांत्वना देना। हिचक – झिझक। विफलता – असफलता। मनुष्यता – इंसानियत। प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ (भाग-2) में संकलित कविता ‘संगतकार’ से लिया गया है, जिसके रचयिता श्री मंगलेश डबराल हैं। कवि ने संगतकार के महत्व को प्रस्तुत किया है और माना है कि वह मुख्य गायक के गायन में सहायता ही नहीं देता बल्कि अपनी इंसानियत को भी प्रकट करता है। व्याख्या : कवि कहता है कि मुख्य गायक ऊँचे स्वर में गाता है। तब उसकी आवाज़ मध्य सप्तक से ऊपर उठकर तारसप्तक तक पहुँचती है, तो ध्वनि की उच्चता के कारण उसका गला बैठने लगता है। उसकी प्रेरणा उसका साथ छोड़ने लगती है और उसका उत्साह मंद पड़ने लगता है। उसका स्वर बुझने-सा लगता है और उसे प्रतीत होने लगता है कि वह ठीक प्रकार से गायन नहीं कर पाएगा। वह हतोत्साहित-सा हो जाता है। उसमें जब निराशा का भाव भरने लगता है, तब संगतकार उसे सांत्वना देता है; उसका हौसला बढ़ाता है। इससे मुख्य गायक का स्वर स्वयं ही कहीं से आ जाता है। वह फिर से उच्च स्वर में गाने लगता है। उसकी निराशा समाप्त हो जाती है। कभी-कभी संगतकार वैसे ही मुख्य गायक का साथ दे देता है। वह मुख्य गायक को यह अहसास करवाना चाहता है कि वह अकेला नहीं है। वह उसका साथ देने के लिए उसके साथ है। वह उसे गाकर यह भी बता देता है कि जिस राग को पहले गाया जा चुका है, उसे फिर से गाया जा सकता है। पर उसकी आवाज़ में हिचक का भाव अवश्य छिपा रहता है। उसे यह अवश्य लगता है कि उसे मुख्य गायक से संकेत मिले बिना नहीं गाना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है कि वह अपने स्वर को मुख्य गायक के स्वर से ऊँचा उठाने की कोशिश नहीं करना चाहता। संगतकार के द्वारा अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की कोशिश उसकी असफलता नहीं मानी जानी चाहिए, बल्कि इसे तो उसकी इंसानियत समझना चाहिए। वह मनुष्यता के भावों को सामने रखकर और सोच-विचार कर अपने संगीत-गुरु की आवाज़ से अपनी आवाज़ को ऊँचा नहीं उठाना चाहता। उसमें श्रद्धा का भाव है, जो सराहनीय है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भाव स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण का भाव स्पष्ट कीजिए। पुनरुक्ति प्रकाश – संदेह – संगतकार Summary in Hindiकवि-परिचय : एक पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित श्री मंगलेश डबराल हिंदी जगत के श्रेष्ठ कवि हैं। इनका जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) के काफलपानी गाँव में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई थी। दिल्ली आकर ये पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ गए। इन्होंने हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम किया। बाद में ये भारत भवन, भोपाल से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक के पद पर आसीन हुए। इन्होंने इलाहाबाद और लखनऊ में छपने वाले अमृत प्रभात में भी काम किया। सन 1983 में ये जनसत्ता समाचार-पत्र में साहित्य संपादक के पद पर सुशोभित हुए। इन्होंने कुछ समय तक सहारा समय का संपादन कार्य भी किया। आजकल श्री डबराल नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हुए हैं। रचनाएँ – अब तक श्री मंगलेश डबराल के चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं; वे हैं-‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’ तथा ‘आवाज़ भी एक जगह। भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, स्पानी, जर्मन, पोल्स्की और बल्गारी भाषाओं में भी इनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के अतिरिक्त साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति से संबंधित विभिन्न विषयों पर भी थे। नियमित रूप से लेखन करते रहे हैं। इनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पहल सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। इन्होंने केवल कवि के रूप में ही ख्याति प्राप्त नहीं की है, बल्कि एक अच्छे अनुवादक के रूप में भी नाम अर्जित किया है। विशेषताएँ – श्री मंगलेश की कविता में सामंती बोध और पूँजीवादी छल-छद्म का खुलकर विरोध किया गया है। इनकी विद्रोह भावना एक निश्चित दर्शन के स्तर पर व्यक्त हुई है। आज का मानव अधिक संघर्षशील है। उसे सामाजिक, आर्थिक, नैतिक आदि अनेक मोर्चा पर एक साथ संघर्ष करना पड़ता है। वह नई मर्यादाओं की स्थापना करना चाहता है। कवि ने इनकी आवाज़ को अपनी कविता में विशेष स्थान दिया है। इनकी कविता में अनुभूति और रागात्मकता विद्यमान है। इन्होंने पुरानी परंपराओं का विरोध किसी शोर-शराबे के साथ नहीं किया, बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपना रच कर प्रकट किया है। इनका सौंदर्य बोध सूक्ष्म है। सजग भाषा-दृष्टि इनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। इन्होंने नए शब्दों को नए अर्थों के लिए प्रयुक्त किया है। इन्होंने बोलचाल के शब्दों का भी अधिक प्रयोग किया है। इन्होंने छंद विधान को परंपरागत आधार पर स्वीकार नहीं किया बल्कि उसे अपने इच्छित रूप में प्रस्तुत किया है। इन्होंने लय के बंधन का निर्वाह किया है और कुछ कोमल भावनाएँ इन्होंने अपनी कविता में बाँधी हैं। इन्होंने परंपरागत बिंबों की जगह नए बिंबों का निर्माण किया है। इनकी कविता में नए प्रतीकों की बड़ी संख्या है। सार्वभौम प्रतीकों की अपेक्षा इन्हें नए प्रतीकों के प्रति अधिक मोह है। इनकी भाषा पारदर्शी और सुंदर है। कविता का सार : ‘संगतकार’ कविता मुख्य गायक का साथ देने वाले संगतकार के महत्व और उसकी अनिवार्यता की ओर संकेत करती है। मुख्य गायक की सफलता में वह अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। संगतकार केवल गायन के क्षेत्र में ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि के लिए भी उपयोगी है। जब कोई मुख्य गायक अपने भारी स्वर में गाता है, तब संगतकार अपनी सुंदर कमजोर कॉपती आवाज से उसे और अधिक सुंदर बना देता है। युगों से संगतकार अपनी आवाज़ को मुख्य गायक के स्वर के साथ मिलाते रहे हैं। जब मुख्य गायक अंतरे की जटिल तान में खो चुका होता है या अपनी ही सरगम को लाँघ जाता है, तब संगतकार हो स्थायी को संभाल कर आगे बढ़ाता है। जैसे वह उसे उसका बचपन याद दिला रहा हो। वही मुख्य गायक के गिरते हुए स्वर को ढाढ़स बँधाता है। कभी-कभी वह उसे यह अहसास दिलाता है कि गाने वाला अकेला नहीं है, बल्कि वह उसका साथ दे रहा है जो राग पहले गाया जा चुका है, वह फिर से गाया जा सकता है। वह मुख्य गायक के समान अपने स्वर मनुष्यता समझना चाहिए। वह ऐसा करके मुख्य गायक के प्रति अपने हृदय का सम्मान प्रकट करता है। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 8 कन्यादान Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 8 कन्यादानJAC Class 10 Hindi कन्यादान Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. (ख) माँ ने बेटी को सचेत करना इसलिए ज़रूरी समझा क्योंकि उसे डर था कि कहीं वह भी अन्य बहुओं की तरह किसी की आग में अपना जीवन न खो दे। उसे किसी भी अवस्था में कमजोर नहीं बनना चाहिए। उसे कष्ट देने वालों के सामने उठ कर खड़ा हो जाना चाहिए। कोमलता नारी का शाश्वत गुण है, पर आज की परिस्थितियों में उसे कठोरता का पाठ अवश्य पढ़ लेना चाहिए ताकि किसी प्रकार की कठिनाई आने की स्थिति में उसका सामना कर सके। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 6. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. मैं लौटूंगी नहीं मैं एक जगी हुई स्त्री हूँ शृंगार के लिए पहने गहने उतार दिए हैं। वह जाग चुकी है। उसने अपने देश को आजाद कराने की राह देख ली है। वह अपना सबकुछ छोड़कर आज़ादी की राह पर आगे बढ़ गई है। वह वापस अपने घर नहीं लौटना चाहती। वह आज़ादी प्राप्त करने के लिए अड़ी हुई हैं। इस पंक्ति से स्त्री का क्रोध और मानसिक दृढ़ता का मनोभाव प्रकट हुआ है। उसने ज्ञान की प्राप्ति से ही ऐसा करना सीखा है। JAC Class 10 Hindi कन्यादान Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. पिठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – कितना प्रामाणिक था उसका दुख (क) कवि ऋतुराज ने किसके दुखों को प्रामाणिक माना है? (ख) माँ को अपनी पुत्री कैसी पूँजी लगती है? (ग) पुत्री स्वभाव से कैसी थी? (घ) पुत्री को क्या पढ़ना नहीं आता था? (ङ) पाठिका किसे कहा गया है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (ख) किसके प्रति नारी का आकर्षण स्वाभाविक होता है? (ग) ‘लड़की होने से क्या तार्य है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर कितना प्रामाणिक था उसका दुख शब्दार्थ : वक्त – समय। अंतिम पूँजी – आखिरी संपत्ति। सयानी – समझदार। बांचना – पढ़ना। प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘कन्यादान’ से लिया गया है, जिसके रचयिता ऋतुराज हैं। वर्तमान समय में जीवन-मूल्य बदल गए हैं। माँ अपनी बेटी के लिए केवल भावुकता को महत्वपूर्ण नहीं मानती बल्कि अपने संचित अनुभवों की पीड़ा का ज्ञान भी उसे देना चाहती है। वह उसे भावी जीवन का यथार्थ पाठ पढ़ाना चाहती है। व्याख्या : कवि कहता है कि माँ ने अपना जीवन जीते हुए जिन दुखों को भोगा था; सहा था, कन्यादान के समय अपनी बेटी को वह सब समझाना और उसे इसकी जानकारी देना उसके लिए बहुत अधिक आवश्यक था। उसकी बेटी ही उसकी अंतिम संपत्ति थी। जीवन के सारे सुख-दुख वह अपनी बेटी के साथ ही बाँटती थी। चाहे वह बेटी का विवाह कर रही थी, पर अभी उसकी बेटी अधिक समझदार नहीं थी; उसने दुनियादारी को नहीं समझा था। वह अभी बहुत भोली और सीधी-सादी थी। वह दुखों की उपस्थिति को महसूस तो करती थी, लेकिन अभी उसे दुखों को भली-भाँति समझना और पढ़ना नहीं आता था। ऐसा लगता था कि अभी वह धुंधले प्रकाश में जीवन रूपी कविता की कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों को पढ़ना ही जानती थी, पर उनके अर्थ समझना उसे नहीं आता था अर्थात वह दुनियादारी की ऊँच-नीच को अभी भली-भाँति नहीं समझती थी। उसमें इतनी समझदारी नहीं आई थी कि वह दुनिया के भेदभावों को समझ कर स्वयं निर्णय कर सके। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोतर – 1. अवतरण में निहित भावार्थ स्पष्ट कीजिए। सदिय-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण के भाव को स्पष्ट कीजिए। 2. माँ ने कहा पानी में झाँककर शब्दार्थ : रीझना – आकृष्ट होना। आभूषण – गहने। भ्रमों – धोखों। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘कन्यादान’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता ऋतुराज हैं। कवि ने आधुनिक युग में समाज में आए परिवर्तनों के आधार पर विवाह के समय माँ की ओर से बेटी को शिक्षा दी है; उसे सचेत किया है। आज के बदलते समाज में कोरे आदर्शों की कमजोरी का कोई महत्व शेष नहीं बचा है। व्याख्या : कवि के अनुसार माँ कन्यादान के समय अपनी लड़की को समझाते हुए कहती है कि पानी में झाँककर अपने चेहरे की सुंदरता की ओर केवल निहारते न रहना। केवल अपनी सुंदरता और बनाव-श्रृंगार की ओर ध्यान देना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि परछाई दिखाने वाले उस पानी की गहराई के बारे में जान लेना आवश्यक है। जो पानी परछाई दिखाता है और सुंदरता के प्रति तुम्हें आकर्षित करता है, वह डूबने पर मृत्यु का कारण भी बन सकता है; उससे सावधान रहना। आग केवल रोटियाँ सेंकने के लिए होती है। वह जलने और जलकर मर जाने के लिए नहीं होती, इसलिए उसका शिकार न बनना। नारी जीवन को भ्रम में डालने वाले तरह-तरह के वस्त्र और गहने हैं। ये शाब्दिक धोखे हैं, जो स्त्री को जीवन में बाँध देने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। माँ ने अपनी लड़की को समझाते हुए कहा कि तुम लड़की बने रहना, पर कभी भी लड़की की तरह दिखाई न देना; सजग और सचेत रहना। समाज में व्याप्त परिवर्तनों को भली-भाँति समझना। यह संसार निर्मम है, इसलिए उसे भली-भाँति समझना। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. कवि ने नारी को किनके प्रति सचेत किया है ? कन्यादान Summary in Hindiकवि-परिचय : आधुनिक युगबोध और यथार्थ के कवि ऋतुराज की नई कविता के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान है। इनका जन्म सन 1940 में राजस्थान के भरतपुर में हुआ था। इन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इन्होंने अध्ययन-अध्यापन को ही आजीविका का साधन बनाया था। चालीस वर्ष तक अंग्रेजी साहित्य पढ़ने-पढ़ाने के बाद अब ये सेवा-निवृत्त होकर जयपुर में रहते हैं। इन्होंने हिंदी कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है और अब तक इनकी आठ रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें से प्रमुख हैं – एक मरणधर्मा और अन्य, पुल पर पानी, सुरत निरत, लीला मुखारविंद। साहित्य सेवा के लिए इन्हें सोमदत्त परिमल सम्मान, मीरा पुरस्कार, पहल सम्मान और बिहारी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। साहित्यिक विशेषताएँ – ऋतुराज ने अपनी कविता में आज के मानव की दशा को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। इनकी कविता आधुनिकता, सामाजिक दायित्व, स्वाभिमान और विश्व-बंधुत्व की प्राप्ति से आलोकित है। इन्होंने न तो किसी को धूल बनाने की कोशिश की है और न ही हवा में ऊपर उठाने की। कवि अत्यंत सहज भाव से अन्याय, दमन, शोषण और रूढ़िग्रस्त जर्जर संस्कारों से जूझना चाहता है। कहीं-कहीं कवि की विद्रोह- भावना व्यक्त हुई है। कवि ने आज के मानव के संघर्ष को कविता में स्थान दिया है। वह नई मर्यादाओं की स्थापना के लिए आगे बढ़ने में विश्वास रखता है। उसने उन लोगों को अपनी कविता का आधार बनाया है, जिन्हें समाज में अधिक महत्व प्राप्त नहीं हुआ। ऋतुराज ने बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातों को कहने की जगह दैनिक जीवन के अनुभव का यथार्थ प्रकट किया है। वे अपने आस-पास रोजमर्रा में घटित होने वाले सामाजिक शोषण और विडंबनाओं पर दृष्टि डालते हैं। इन्होंने परंपराओं से हटकर नए मूल्यों की स्थापना करने का प्रयत्न किया है। इनकी कविताओं में कोरी भावुकता नहीं है, बल्कि ये यथार्थ का दर्शन करने में सक्षम हैं – माँ ने कहा पानी में झाँककर कवि ने कृत्रिम भाषा का प्रयोग नहीं किया है। इनकी भाषा अपने वातावरण और लोक जीवन से जुड़ी हुई है। इन्होंने बिंबों का सजीव चित्रण किया है। इनकी भाषा में तत्सम और तद्भव शब्दावली का सहज समन्वित प्रयोग दिखाई देता है। कविता का सार : कवि ने ‘कन्यादान कविता में माँ-बेटी के आपसी संबंधों की घनिष्ठता को प्रतिपादित करते हुए नए सामाजिक मूल्यों को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। माँ अपनी युवा होती बेटी के लिए पहले कुछ और सोचती थी, पर सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के कारण अब कुछ और सोचती है। पहले उसके मन में कुछ अलग तरह के डर के भाव छिपे हुए थे, पर अब उनकी दिशा और मात्रा बदल गई है। इसलिए वह अपनी बेटी को परंपरागत उपदेश नहीं देना चाहती। उसके आदर्शों में भी परिवर्तन आ गया है। बेटी ही माँ की अंतिम पूँजी होती है, क्योंकि वह उसके दुख-सुख की साथी होती है। बेटी अभी पूरी तरह से बड़ी नहीं हुई। वह भोली-भाली और सरल है। उसे सुखों का आभास तो होता है, पर उसे जीवन के दुखों की ठीक से पहचान नहीं है। वह धुंधले प्रकाश में कुछ तुक और लयबद्ध पंक्तियों को पढ़ने का प्रयास मात्र करती है। माँ ने उसे समझाते हुए कहा कि उसे जीवन में संभलकर रहना पड़ेगा। वह अपनी बेटी को पानी में झाँककर अपने ही चेहरे पर न रीझने और आग से बचकर रहने की सलाह देती है। आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है, न कि जलने के लिए। वस्त्रों और आभूषणों का लालच उसे जीवन के बंधन में डालने का कार्य करता है। माँ ने कहा कि उसे लड़की की तरह दिखाई नहीं देना चाहिए। उसे सजग, सचेत और दृढ होना चाहिए। जीवन की हर स्थिति का निर्भयतापूर्वक डटकर सामना करना आना चाहिए। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 7 छाया मत छूना Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 7 छाया मत छूनाJAC Class 10 Hindi छाया मत छूना Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. उपहार भी एक से बढ़कर एक थे। मैं खुशी से झूम उठा। आज भी मुझे वह घटना ऐसी लगती है, जैसे उसे घटित हुए कुछ ही देर हुई हो। मैं इस घटना को कभी नहीं भूल सकता। एक बार मैं पैदल स्कूल जा रहा था। एक नन्हा-सा पिल्ला मेरे पीछे-पीछे चलने लगा। मुझे उसका अपने पीछे आना अच्छा लगा। जब मैं स्कूल पहुँच गया, तो स्कूल के चौकीदार ने उसे भगा दिया। छुट्टी के बाद जैसे ही मैं बाहर निकला, वैसे ही न जाने कहाँ से वह भागता हुआ आया और फिर मेरे पीछे-पीछे मेरे घर तक आया। यह क्रम अगले दिन भी चला। इसके बाद महीना भर मेरा और उसका स्कूल जाना-आना एक साथ हुआ। इसके बाद मुझे नहीं पता कि अचानक वह पिल्ला कहाँ चला गया। मैंने उसे ढूँढ़ने की कोशिश की, पर फिर वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। इस घटना को अनेक वर्ष बीत चुके हैं, पर मुझे उसकी मधुर स्मृति कभी नहीं भूलती। प्रश्न 9. ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ प्राय: माना जाता है कि धन सबसे कीमती वस्तु है, पर यदि ध्यान से सोचा जाए तो समय धन से भी अधिक उपयोगी और मूल्यवान है। धन से हर वस्तु खरीदी जा सकती है, पर समय नहीं खरीदा जा सकता। यह घड़ी की टिक-टिक के साथ भागता जाता है। यदि किसी बीमार व्यक्ति को समय पर उपचार न मिले, तो उसका जीवन नहीं बचाया जा सकता। यदि समय पर विद्यार्थी पढ़ाई न करें, तो वे परीक्षा में पास नहीं हो सकते। यदि किसान समय पर अपने खेत की सिंचाई न करे, तो उसे उपज प्राप्त नहीं हो सकती। रेलगाड़ी, बस, वायुयान आदि किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करते। समय चूक जाने पर वे अपने गंतव्य की ओर चले जाते हैं। यदि किसी उपलब्धि की हमें समय के बाद प्राप्ति हो भी जाती है, तो उसका कोई उपयोग नहीं रहता। फ़सल के सूख जाने के बाद वर्षा हो भी जाए तो उसका क्या लाभ? हमें चाहिए कि हम हर कार्य उचित समय पर ही करें, ताकि इससे समय की उपलब्धि की उपादेयता बनी रहे। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. तुम्हें याद होगा कि मैंने अपने एक मित्र से तुम्हारा परिचय करवाया था, जब तुम पिछली छुट्टियों में घर आए थे। उसका नाम कपिल था। वह मेरी ही कक्षा में पढ़ता था और प्रायः मेरे घर आया करता था। वह होस्टल में रहता था। उसके माता-पिता किसी दूर के गाँव मम्मी-पापा उसे अपने बेटे के समान ही प्यार करते थे। यदि मेरे लिए वे बाजार से कुछ लाते थे, तो उसके लिए लाना नहीं भूलते थे। कहते थे कि कितना होनहार बच्चा है! होशियार है, मीठा बोलता है, भोला-भाला है। पिछले सप्ताह उसने अपने गाँव के कुछ लोगों के साथ मिलकर हमारे घर में चोरी कर ली। हमारा लगभग पाँच लाख रुपये का नुकसान हो गया है। उसे हमारे घर की एक-एक चीज़ पता थी। लगभग हर रोज़ वह हमारे घर आता था। अगले महीने रीमा दीदी की शादी है, इसलिए घर में उसके दहेज का नया सामान था; नकदी थी। वह सब चोरी चला गया। हमें तो विश्वास ही नहीं हुआ, जब पुलिस ने उसे उसके गाँव से पकड़कर हमारे सामने खड़ा कर दिया। उसने अपना अपराध कबूल कर लिया है, पर न तो उसके साथी पुलिस की पकड़ में आए हैं और न ही हमारा सामान बरामद हुआ। शायद हमारा सामान हमें वापस मिल जाए। उसकी शक्ल कितनी भोली थी, पर वह मन का कितना काला निकला! सच है कि हम लोगों के बारे में सोचते कुछ हैं, वे निकलते कुछ हैं। अच्छा, बाकी बातें अगली बार। प्रश्न 2. यह भी जानें – प्रसिद्ध गीत ‘We shall overcome’ का हिंदी अनुवाद ‘हम होंगे कामयाब’ शीर्षक से कवि गिरिजाकुमार माथुर ने किया है। सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. छाया मत छूना शब्दार्थ : छाया – भ्रम, दुविधा, पुरानी सुखद बातें। दूना – दोगुना। सुरंग – रंग-बिरंगी। सुधियाँ – यादें। सुहावनी – सुंदर। छवियों की चित्रगंध – चित्र की स्मृति के साथ उसके आस-पास की गंध का अनुभव। मनभावनी – मन को अच्छी लगने वाली। तन-सुगंध – शरीर की सुगंध। शेष – बाकी, पीछे। यामिनी – तारों भरी चाँदनी रात। कुंतल – लंबे बाल। छुअन – स्पर्श। प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य–पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता छाया मत छूना से लिया गया है, जिसके रचयिता गिरिजाकुमार माथुर हैं। कवि ने पुरानी सुखद बातों को बार-बार याद करने को उचित नहीं माना, क्योंकि ऐसा करने से जीवन में आए दुख दोगुने हो जाते हैं। व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेरे मन! तू पुरानी सुख भरी यादों को बार-बार अपने मन में मत ला; उन्हें याद मत कर। ऐसा करने से मन में छिपा दुख बढ़कर दोगुना हो जाएगा। हम मनुष्यों के जीवन में न जाने कितनी सुख भरी यादें होती हैं। वे सुखद रंग-बिरंगी छवियों की झलक और उनके आस-पास मधुर यादों की गंध सदा मन को मोहती हैं। वे सदा अच्छी लगती हैं। जब सुखद समय बीत जाता है, तब केवल शरीर की मादक-मोहक सुगंध ही यादों में शेष रह जाती है। जब तारों से भरी सुखद चाँदनी रात बीत जाती है, तब यादें शेष रह जाती हैं। लंबे सुंदर बालों में लगे फूलों की याद ही चाँदनी के समान मन में छाई रहती हैं। सुख भरे समय में भूल से किया गया एक स्पर्श भी जीवित क्षण के समान सुंदर और मादक प्रतीत होता है। उसे भुलाने की बात मन में कभी नहीं आती। वही सुखद पल जीवन के लिए सुखदायी बनकर मन में छिपा रहता है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भावार्थ को स्पष्ट कीजिए। बोर्ड परीक्षा में पूछे गए प्रश्नोत्तर – (क) ‘छाया मत छूना’-कवि ने ऐसा क्यों कहा? सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भाव स्पष्ट कीजिए। उपमा – 2. छाया मत छूना शब्दार्थ : वैभव – संपदा, धन-दौलत, संपत्ति। सरमाया – पूँजी। प्रभुता का शरणे बिंब – बड़प्पन का अहसास। भरमाया – भ्रम में पड़ना। मृगतृष्णा – भ्रम, धोखा। चंद्रिका – चाँदनी। कृष्णा – काली, अमावस्या। यथार्थ – वास्तविक। कठिन – मुश्किल। पूजन – पूजा। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘छाया मत छूना’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता श्री गिरिजाकुमार माथुर हैं। कवि का मानना है कि जीवन में दुख और सुख तो आते रहते हैं, पर दुख की घड़ियों में सुखों को याद नहीं करना चाहिए। व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेरे मन! जीवन में आने वाले दुखों के समय छायारूपी सुख को मत छूना, क्योंकि इससे दुख कम नहीं होता बल्कि वह दोगुना बढ़ जाता है। मेरे जीवन में न तो शान-शौकत है और न ही धन-दौलत; न तो मान-सम्मान है और न ही किसी प्रकार की पूँजी। श्रेष्ठता और प्रभुता की प्राप्ति की इच्छा केवल धोखे के पीछे भागना है। जो नहीं है, उसे प्राप्त करने की इच्छा है। हर सुख के पीछे दुख छिपा होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे चाँदनी रात के पीछे अमावस्या की अंधेरी रात छिपी रहती है। हे मेरे मन! जो अति कठिन सच्चाई है; वास्तविकता है, तू उसकी पूजा कर। उसे प्राप्त करने का प्रयत्न कर। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भावार्थ स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भाव व्यक्त कीजिए। तद्भव – 9. छायावादी। 10. अनुप्रास – 11. (i) रात कृष्णा – (ii) छाया – (ii) चंद्रिका – (iv) मृगतृष्णा – (v) दौड़ना – (vi) कृष्णा – 3. छाया मत छूना शब्दार्थ : दुविधा-हत साहस – साहस होते हुए भी दुविधा-ग्रस्त रहना। पंथ – रास्ता। शरद-रात – सर्दियों की रात। भविष्य वरण – आने वाले समय के सुखों का चुनाव। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘छाया मत छूना’ से ली गई हैं, जिसके रचयिता श्री गिरिजाकुमार, माथुर हैं। कवि ने प्रेरणा दी है कि पुराने सुखों की याद में हर पल डूबे रहना उचित नहीं है। इससे जीवन में दुखों की छाया बढ़ती है। परिश्रम करते हुए भविष्य को सँवारने की चेष्टा करना ही सदा अच्छा होता है। व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेरे मन ! दुख और निराशा की घड़ियों में बीते हुए सुखों को याद मत कर। ऐसा करने से वर्तमान के दुख बढ़ जाते हैं। हम अपने जीवन में अकारण ही निराशा के भावों से भरे रहते हैं। साहस होते हुए भी दुविधा से ग्रस्त रहते हैं। हमें अपने जीवन की राह दिखाई नहीं देती। भौतिक धन-दौलत से हम शारीरिक सुख-उपभोग तो प्राप्त कर लेते हैं, पर हमारे मन में व्याप्त दुखों का अंत नहीं होता। हमारे मन में दुख के भाव इतने अधिक हैं कि सुखों के आने का पता ही नहीं चलता। शरद् ऋतु के साफ़-स्वच्छ आकाश में रात के समय चाँदरूपी सुख की चाँदनी दिखाई ही नहीं देती। मन की निराशा उसे प्रकट नहीं होने देती। बसंत ऋतु बीत जाने पर यदि फूल खिला भी, तो उसका क्या लाभ। भाव है कि किसी सुख के बीत जाने पर यदि उसका आभास हुआ भी, तो उसका कोई लाभ नहीं है। हे मन! तुम्हें जो जीवन में अभी तक नहीं मिला उसे भविष्य में प्राप्त कर; परिश्रम कर और सुख-दुख से दूर होकर मनचाहा प्राप्त कर। तू दुख की घड़ियों में सुख के क्षणों को याद मत कर। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. अवतरण में निहित भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. भाव स्पष्ट कीजिए। तद्भव – 10. चाँद, शरद-रात, फूल, बसंत, छाया। प्रश्न – JAC Class 10 Hindi छाया मत छूना Important Questions and Answersप्रश्न 1. जीवन में सुख दुख आते हैं, लेकिन दुख की घड़ियों में हम सुखों को याद करके अपनी पीड़ा को बढ़ा लेते हैं। जीवन में केवल मधुर सपने नहीं हैं, इसमें कठोरता भी बसती है। हमें पुरानी बातों को भुलाकर मज़बूत कदमों से भविष्य की ओर बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर? जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने लक्ष्य की ओर दृष्टि जमाए रखें और आगे बढ़ते जाएँ, न कि पिछले सुखों को याद कर आँसू बहाते रहे। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. पिठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. छाया मत छूना (क) दुख के समय में किन यादों से मन और दुखी हो जाता है? (ख) कवि का जीवन कैसा है? (ग) प्रभुता की इच्छा क्या है? (घ) ‘हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है’ से कवि का क्या तात्पर्य है? (ङ) कवि किसकी पूजा के लिए प्रेरित करता है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) ‘छाया’ से कवि का क्या तात्पर्य है? (ख) ‘चाँदनी’ किसका प्रतीक है? (ग) ‘यामिनी बीतने’ से कवि का क्या तात्पर्य है? (घ) कवि को क्या नहीं दिखाई देता? छाया मत छूना Summary in Hindiकवि-परिचय : गिरिजाकुमार माथुर आधुनिक युग के प्रतिभा-संपन्न रचनाकार थे। ये प्रमुख रूप से प्रयोगवादी कवि माने जाते हैं, लेकिन इनकी कविताएँ मात्र प्रयोग के लिए न होकर जीवन की यथार्थ अनुभूति के चित्रण के लिए हैं। कोमलता एवं मधुरता के प्रति आकर्षक होने के कारण माथुर जी की कविता में छायावादी शैली का सौंदर्य भी प्राप्त होता है। माथुर जी का जन्म मध्यप्रदेश राज्य के गुना नामक स्थान पर सन 1918 ई० में हुआ था। इनके पिता ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। परिवार का स्तर साधारण था। यही कारण है कि इनकी कविताओं एवं नाटकों में प्रायः सामान्य स्तर के जीवन का ही चित्रण रहता है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई। इन्होंने एम०ए०, एल०एल०बी० तक शिक्षा प्राप्त की। माथुर जी ने झाँसी में रहकर आकाशवाणी में भी कार्य किया। वे दूरदर्शन से भी संबंधित रहे। सन 1994 ई० में इनका निधन हो गया। माथुर जी में कविता लिखने की प्रतिभा जन्मजात थी। पहले यह प्रतिभा कविता पढ़ने की अत्यधिक रुचि के रूप में प्रकट हुई। बाद में इन्होंने केवल 13 वर्ष की आयु में ही कविता लिखनी आरंभ कर दी। इनकी प्रमुख रचनाएँ मंजीर, नाश और निर्माण, धूप के दान, भीतरी नदी की यात्रा, शिलापंख चमकीले हैं। ‘पृथ्वी-कल्प’ इनका प्रतीकात्मक नाट्य-काव्य, जन्म कैद नाटक तथा नई कविता सीमाएँ और संभावनाएँ इनके द्वारा लिखित आलोचनात्मक रचनाएँ हैं। माथुर जी ने रेडियो फ़ीचर, गीति नाट्य और प्रतीकात्मक नाटकों की भी रचना की है। माथुर जी एक भावुक कलाकार हैं। इनकी रचनाओं में व्यक्तिगत अनुभूतियों की बहुलता है। सरसता, मधुरता, सौंदर्य और प्रेम के प्रति आकर्षण इनकी कविताओं की अन्य प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनकी कुछ कविताओं में यथार्थपरक दृष्टि का भी उन्मेष है। जीवन के कटु और मधुर रूप का भी चित्रण है। इनकी कविता पर छायावाद का स्पष्ट प्रभाव है। इन्होंने रोमांस और संताप के भावों को अपनी कविता में स्थान दिया है। इन्होंने संवेदना और पीड़ा के भावों को महत्वपूर्ण माना है। इनमें प्रकृति के प्रति विशेष लगाव-सा है। मानवीकरण करते हुए इन्होंने प्रकृति से संबंधित अनेक चित्र बनाए हैं कंटकित बेरी करौंदे, महकते हैं झाब झोरे। सुन्न हैं, सागौन वन के, कान जैसे पात चौड़े॥ दूह, टीले टौरियों पर, धूप-सूखी घास भूरी। हाड़ टूटे देह कुबड़ी, चुप पड़ी है गैल बूढ़ी॥ कवि ने अपनी कविता में स्थान-स्थान पर आँचलिक शब्दावली का सहज-स्वाभाविक प्रयोग किया है। इन्होंने विषय की मौलिकता को बनाए रखने के लिए विशेष वातावरण की सृष्टि की है। इन्होंने मुक्त छंद में ध्वनि साम्य के प्रयोग के कारण तुक के बिना भी कविता में संगीतात्मकता को उत्पन्न किया है। उनकी कविताओं में भाषा के दो रंग विद्यमान हैं। जहाँ रोमानी कविताओं में ये छोटी-छोटी ध्वनि वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं, वहाँ क्लासिक स्वभाव वाली कविताओं में लंबी और गंभीर ध्वनि वाले शब्दों को महत्व देते हैं। इनकी भाषा प्रयोगवादी कविता के लिए अनुकूल है। इन्होंने नए प्रतीकों, बिंबों और उपमानों का प्रयोग किया है। इन्होंने देशी-विदेशी शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया है हाँडियाँ, मचिया, कठौते, लट्ठ, गूदड़, बैल, बक्खर। राख, गोबर, चरी, औंगन, लेज, रस्सी, हल, कुल्हाड़ी। सूत की मोटी फताई, चका, हंसिया और गाड़ी। कवि की भाषा सहज और सरल है। उसमें सरसता विद्यमान है। कवि ने जहाँ भी अलंकारों का प्रयोग किया है, वे अति स्वाभाविक है। वर्णनात्मक शैली से इन्हें विशेष लगाव है। कविता का सार : छाया मत छूना कविता मानव-जीवन के संदर्भो से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन में सुख आते हैं, तो दुख भी अपने रंग दिखाते हैं। मनुष्य को सुख अच्छे लगते हैं, तो दुख परेशान करने वाले। व्यक्ति पुराने सुखों को याद करके वर्तमान के दुखों को और अधिक बढ़ा लेते हैं। कवि की दृष्टि में ऐसा करना उचित नहीं है। इससे दुखों की मात्रा बढ़ जाती है। सुख हमें सदा अच्छे लगते हैं। उनके द्वारा मिली प्रसन्नताएँ मन पर देर तक छायी रहती हैं। प्रेम भरे क्षण भुलाने की कोशिश करने पर भी भूलते नहीं हैं। लेकिन मनुष्य सुखों के पीछे जितना अधिक भागता है, उतना ही अधिक भ्रम के जाल में उलझता जाता है। हर सुख के बाद दुख अवश्य आता है। हर चाँदनी के बाद अमावस्या भी छिपी होती है। मनुष्य को जीवन की वास्तविकता को समझना चाहिए; उसे स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य के मन में छिपा साहस का भाव जब छिप जाता है, तो उसे जीवन की राह दिखाई नहीं देती। मानव मन में छिपे दुखों की सीमा का तो पता ही नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में सबकुछ नहीं मिलता। जो हमें वर्तमान में प्राप्त हो गया है, हमें इसी में संतुष्ट होना चाहिए। जो अभी प्राप्त नहीं हुआ, उसे भविष्य में प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन पुरानी यादों से स्वयं को चिपकाए रखने का कोई लाभ नहीं है। उनसे दुख बढ़ते हैं, घटते नहीं। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 6 यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 6 यह दंतुरहित मुस्कान और फसलJAC Class 10 Hindi यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Textbook Questions and Answers1. यह दंतुरित मुसकान प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. वह उसकी मोहक ‘दंतुरित मुसकान’ पर मंत्र-मुग्ध है। बच्चा उसे पहचानना चाहता है, पर पहचान नहीं पाता। उसने कवि को पहली बार देखा है, इसलिए वह कनखियों से अतिथि को देखकर मुस्कराता है। कवि को लगता है कि इस बच्चे की मुसकान पत्थर को भी पिघला देने की क्षमता रखती है। कठोर-से-कठोर व्यक्ति भी इसकी मोहक मुसकान पर स्वयं को न्योछावर कर सकता है। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. वह मुस्कराई अवश्य, पर वहाँ से आगे नहीं बढ़ी। मैं अपनी जगह से उठकर जैसे ही उसकी तरफ़ बढ़ी, वह झट से भीतर भाग गई। मैं वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गई। कुछ देर बाद मैंने फिर उधर देखा, तो वह वहीं खड़ी थी। मेरी सहेली ने उसे बुलाया, तो वह हमारे पास आ गई। मैंने उसे पुचकारा; उसका नाम पूछा। वह चुप रही; बस धीरे-धीरे मुस्काती रही। मैंने उससे पूछा कि क्या उसे गाना आता है, तो उसने हाँ में सिर हिलाया और फिर धीरे से पूछा कि क्या वह गाना सुनाए? मेरे हाँ कहने के बाद उसने गाना शुरू किया और एक के बाद एक न जाने कितनी देर तक वह आधे-अधूरे गाने गाती रही; ठुमकती रही। उसकी झिझक दूर हो गई थी। जब मैं चलने लगी, तो वह मेरी उँगली थाम कर मेरे साथ चलने को तैयार थी। कुछ देर पहले मुझसे शर्माने और झिझकने वाली सलोनी अब मेरे साथ थी। उसके चेहरे पर झिझक के भाव नहीं थे; उसके व्यवहार में भय नहीं था। वह बहुत मीठा और अच्छा बोलती थी। प्रश्न 2. 2. फसल प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. रचमा और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. (ख) वर्तमान जीवन-शैली मिट्टी को प्रदूषित कर रही है। जाने-अनजाने तरह-तरह के रासायनिक पदार्थ इसमें मिलाए जाते हैं, जिस कारण इसके गुण बदल जाते हैं। उद्योग-धंधे और प्रदूषित जल इसे बिगाड़ रहे हैं । तरह-तरह के कीटनाशक इसे खराब कर रहे हैं। इनके प्रयोग से भले ही हमें फसल कुछ अधिक प्राप्त हो जाती है, पर इससे मिट्टी की प्रकृति बदल रही है। (ग) मिट्टी के अपने स्वाभाविक गुण-धर्म को छोड़ देने से जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि मिट्टी फसल उगाने का गुण-धर्म त्याग दे, तो हमारा जीवन असंभव-सा हो जाएगा क्योंकि सभी प्राणियों का जीवन फसल पर ही निर्भर करता है। (घ) मिट्टी के गुण-धर्म को पोषित करने में हमारी भूमिका अति महत्वपूर्ण हो सकती है। हम इसे प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। इसमें मिलाए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवार नाशियों के स्थान पर हम प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें मिलने वाले औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों की रोकथाम कर सकते हैं। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. विषय : सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था हेतु सुझाव मान्यवर, सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था के लिए खेती योग्य अधिकतर भूमि पर हमें फसल उगाने की योजनाएँ बनानी चाहिए। परंपरागत पद्धति को त्यागकर वैज्ञानिक आधार पर खेती करनी चाहिए। हमें समझना होगा कि हर खेत की मिट्टी एक-सी फसल उगाने योग्य नहीं होती। इसलिए कृषि-संस्थानों से मिट्टी की परख करवाकर हमें जान लेना चाहिए कि वह किस प्रकार की फसल के लिए अधिक उपयोगी है। यदि उसमें किसी विशेष तत्व की कमी है, तो उसे रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से पूरा करना चाहिए। हमें फसल के लिए उन्नत और संकरण से प्राप्त बीज ही बोने चाहिए, जो कृषि-संस्थानों से प्राप्त हो जाते हैं। समय-समय पर मान्यता प्राप्त खरपतवार नाशियों और कीटनाशियों का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई के लिए परंपरागत तरीके छोड़कर स्पिंरकरज़ का प्रयोग करना चाहिए। इससे सारे खेत की सिंचाई एक समान होती है। उर्वरकों के साथ-साथ कंपोस्ट और वर्मीकंपोस्ट का प्रयोग करना चाहिए। इससे फसल की प्राप्ति अच्छी होती है। सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था के अंतर्गत फूलों की खेती की ओर भी ध्यान देना चाहिए। वर्षभर में केवल दो फसलों पर निर्भर न रहकर तीन-चार अंतराफसलें प्राप्त करनी चाहिए। कीटनाशियों के उचित प्रयोग से भी हम अपनी फसलों को नष्ट होने से बचा सकते हैं। आशा है कि आप अपने प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में इन सुझावों को अवश्य स्थान देंगे। प्रश्न 2. JAC Class 10 Hindi यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12 प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. पठित धनाश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान (क) प्रस्तुत काव्यांश में कवि किसे संबोधित कर रहा है? (ख) बच्चे का अंग-प्रत्यंग कैसा है? (ग) बच्चे की मुसकान किसका संदेश देती है? (घ) कवि के अनुसार कठिन पाषाण किस प्रकार पिघला होगा? (ङ) बच्चे के स्पर्श से कौन-से फूल झड़ने लगेंगे? 2. हजार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म फसल क्या है? (ख) फसल किसका जादू है? (ग) फसल किसके स्पर्श की महिमा है? (घ) कवि ने मिट्टी की किन विशेषताओं को प्रकट किया है? (ङ) फसल किसका रूपांतर है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) कवि और बच्चे के बीच का माध्यम कौन है? (ख) ‘मधुपर्क’ किसका प्रतीक है? (ग) कवि के अनुसार फसल क्या है? (घ) फसल को थिरकना कौन सिखाता है? यह दंतुरहित मुस्कान और फसल Summary in Hindiकवि-परिचय : वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ जो ‘नागार्जुन’ के नाम से विख्यात हुए, हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध प्रगतिशील कवि एवं कथाकार हैं। आधनिक कबीर के रूप में विख्यात नागार्जन घुमंत व्यक्ति थे। इनका जन्म 1911 में बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई थी। बाद में ये संस्कृत अध्ययन के लिए बनारस और कोलकाता भी गए। सन 1936 में नागार्जुन अध्ययन के लिए श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। वर्ष 1938 में वे स्वदेश वापस आ गए। नागार्जुन अपने घुमक्कड़पन और फक्कड़पन के लिए प्रसिद्ध रहे। शिक्षा-प्राप्ति के दौरान उनकी भेंट मैथिली के प्रकांड पंडित सीताराम झा से हुई और उन्होंने उनसे भाषा, छंद, अलंकार आदि का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। बनारस में रहते हुए नागार्जुन संस्कृत के साथ-साथ मैथिली में भी साहित्य-रचना करने लगे। बीस वर्ष की अवस्था में नागार्जुन का विवाह हुआ। लेकिन अध्ययन, घुमक्कड़ी और राजनीति में रुचि होने के कारण ये परिवार की देख-रेख नहीं कर सके। नागार्जुन के चार पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। मैथिल समाज में उन्हें समुचित आदर नहीं मिला; क्योंकि एक तो वे समुद्र पार की यात्रा कर आए थे, दूसरे संन्यास भ्रष्ट थे और तीसरे बौद्ध होने के कारण उनकी खान-पान की पवित्रता नष्ट हो गई थी। वर्ष 1941 में नागार्जुन पुनः घर लौटे। लगभग पाँच दशक तक इन्होंने अनेक हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बाद 5 नवंबर, 1998 को नागार्जुन का देहांत हुआ। साहित्य-रचना-नागार्जुन ने वर्ष 1935 में हिंदी मासिक ‘दीपक’ में काम किया तथा वर्ष 1942-43 में ‘विश्व बंधु’ साप्ताहिक का संपादन किया। ये अपनी मातृभाषा मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से रचना करते थे। इनके कविता-संग्रह ‘चित्रा’ से मैथिली में नवीन भाव बौद्ध का प्रारंभ माना जाता है। संस्कृत में चाणक्य उपनाम से इन्होंने अनेक कविताएँ लिखीं। वर्ष 1930 से विधिवत लेखन करते हुए नागार्जुन ने हिंदी को महत्वपूर्ण रचनाएँ दीं…’ सतरंगे पंखों वाली’, ‘प्यासी पथराई आँखें’, ‘युगधारा’, ‘तालाब की मछलियाँ’, ‘हज़ार-हजार बाहों वाली’, ‘तुमने कहा था’, ‘पुरानी जूतियों का कोरस’, ‘आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने’, ‘रत्नगर्भा’, ‘ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम क्या’, ‘पका है कटहल’, ‘मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा’ तथा ‘भस्मांकुर’। नागार्जुन के उपन्यासों में ‘बलचनमा’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘कुंभीपाक’, ‘उग्रतारा’, ‘जमनिया का बाबा’ तथा ‘उग्रतारा’ प्रमुख है। नागार्जुन का संपूर्ण साहित्य सात खंडों में प्रकाशित हो चुका है। सन 1956 में प्रकाशित ‘युगधारा’ में कवि ने अपना परिचय निम्न शब्दों में दिया है – ‘पैदा हुआ था मैं दीन-हीन अपठित किसी कृषक-कुल में काव्य-सौंदर्य – नागार्जुन की कविता राष्ट्रीय-चेतना की कविता है, जिसमें राष्ट्रीय आंदोलनों की धड़कन सुनाई पड़ती है। व्यंग्यात्मकता उनकी कविता का अभिन्न अंग है। ‘प्यासी पथराई आँखें’, ‘हिम कसमों का चंचरीक’ तथा ‘फाहियान के वंशधर’ आदि कविताएँ राष्ट्रीय भावों से ओत-प्रोत हैं। मातृभूमि के प्रति उनका प्रेम निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त हुआ – है ‘भारत माता के गालों पर कसकर पड़ा तमाचा है। नागार्जुन अपनी कविता में वामपंथी विचारधारा को लेकर आए। वे प्रगतिशील जनवादी कवि थे। उन्होंने जनता के सुख-दुख; उसके संघर्ष और कष्ट; उसकी आस्था और जिजीविषा को अपने काव्य में व्यक्त किया है। सामाजिक अन्याय, शोषण, जड़ता, अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड आदि के विरोध में नागार्जुन ने बहुत लिखा। नागार्जुन ने ‘पोस्टर कविता’ के रूप में व्यंग्यात्मक राजनीतिक कविताएँ वर्ष 1965 के आपातकाल में लिखीं। राजनीतिक आंदोलनों के कारण ये अनेक बार जेल भी गए। नागार्जुन की कविताओं में गहन राजनीतिक समझ दिखाई देती है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर इन्होंने अनेक रचनाएँ लिखी हैं। मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े होने पर भी इनके काव्य में वैचारिक कट्टरता नहीं है। कवि का ग्रामीण संस्कार भी इनकी कविताओं में व्यक्त हुआ है। नागार्जुन घुमक्कड़ थे, इसलिए देश-विदेश के अनेक सुंदर स्थानों के शब्द-चित्र इनकी कविताओं में हैं। प्रकृति से जुड़ी इनकी कविताएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। ‘बादल को घिरते देखा है’ तथा ‘घन कुरंग’ जैसी कविताएँ बहुत सुंदर हैं। नागार्जुन के काव्य-विषय जीवन से लिए गए हैं, इसलिए रिक्शा खींचते गरीब के पाँवों में फटी बिवाइयाँ भी वहाँ हैं; फटी बनियान और टपकता कटहल भी उनका काव्य विषय बना है। काव्य-भाषा – नागार्जुन की काव्य-भाषा भावों का अनुसरण करती है। तत्सम शब्दावली के साथ तद्भव और देशी-विदेशी शब्द आवश्यकतानुसार प्रयुक्त हुए हैं। मुहावरों का सटीक प्रयोग इनके काव्य की विशेषता है; यथा – वतन बेचकर पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं। नागार्जुन की कविता बिंबात्मक है। हिरण की तरह उछलते-कूदते बादल का बिंब देखिए – ‘नभ में चौकड़ियाँ भरे भले नागार्जुन ने मधुर गीत भी लिखे हैं और मुक्त छंद में काव्य-रचना भी की है। इन्होंने प्रणय, प्रकृति, राजनीति और देश-प्रेम पर कविताएँ लिखी। हैं। इनकी कविताओं का स्वर मानवतावादी है। प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा के शब्दों में-“इनकी कविताएँ दिल पर चोट करने वाली हैं; कर्तव्य की याद दिलाने वाली हैं और राह दिखाने वाली भी हैं।” नागार्जुन मित्रों के लिए नागा बाबा थे। समाज, राजनीति, धर्म तथा साहित्य में एक साथ संघर्ष करने वाला हिंदी का यह कवि अद्भुत था, क्योंकि कवि के विवेक पर यह किसी तरह का बंधन स्वीकार नहीं करता था। नागार्जुन मानते थे कि पार्टी देश और समाज से बड़ी नहीं होती, इसलिए वामपंथियों ने इन्हें अंततः ठुकरा दिया। वर्ष 1962 में इन्होंने ० चीन विरोधी कविताएँ लिखीं और वर्ष 1965 में आपातकाल विरोधी कविताएँ लिखीं। इन्होंने जय प्रकाश आंदोलन का भी खुलकर साथ दिया था। नागार्जुन कोमल भावनाओं के कवि भी थे। जब संन्यासी जीवन काटकर बरसों बाद गृहस्थ बने, पत्नी की उम्र ढल चुकी थी। उसकी पीड़ा पर कविता लिखी ‘प्रत्यावर्तन’ अर्थात लौटना। इसमें पत्नी की दशा पर लिखा – ‘हृदय में पीड़ा दृगों में लिए पानी। 1. यह दंतुरित मुसकान कविता का सार : कवि किसी ऐसे छोटे बच्चे की मुसकान को देखकर अपार प्रसन्न है, जिसके मुंह में अभी छोटे-छोटे दाँत निकले हैं। कवि को उसकी मुसकान जीवन का संदेश प्रतीत होती है। उस मुसकान के सामने कठोर-से-कठोर मन भी पिघल सकता है। उसकी मुसकान तो किसी मृतक में भी नई जान फूंक सकती है। धूल-मिट्टी से सना हुआ नन्हा-सा बच्चा ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कमल का सुंदर-कोमल फूल तालाब छोड़कर झोंपड़ी में खिल उठा हो। उसे छूकर पत्थर भी जल बन जाता है; उसे छूकर शेफालिका के फूल झड़ने लगते हैं। नन्हा-सा बच्चा कवि को नहीं पहचान पाया, इसलिए एकटक उसकी तरफ देखता रहा। कवि मानता है कि उस बच्चे की मोहिनी छवि और उसके संदर दांतों को वह उसकी मां के कारण देख पाया था। वह मां धन्य है और बच्चे की मुसकान भी धन्य है। वह स्वयं इधर-उधर जाने वाला प्रवासी । था, इसलिए उसकी पहचान नन्हे बच्चे के साथ नहीं हो सकी। जब उसकी माँ कहती, तब वह कनखियों से कवि की ओर देखता और उसकी छोटे-छोटे दाँतों से सजी मसकान कवि के मन को मोह लेती। सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – जात शब्दार्थ : दंतुरित – बच्चों के नए-नए दाँत। मृतक – मरा हुआ। धूलि-धूसर – धूल-मिट्टी। गात – शरीर के अंग-प्रत्यंग। जलजात – कमल का फूल। परस – स्पर्श। पाषाण – चट्टान, पत्थर। अनिमेष – बिना पलक झपकाए लगातार देखना। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से ली गई हैं। इसके रचयिता कवि नागार्जुन हैं ! घुमक्कड़ स्वभाव का होने के कारण कवि जगह-जगह घूमता रहता था। उसने जब अपने छोटे-से बच्चे के मुँह में छोटे-छोटे दाँत देखे तो उसे अपार प्रसन्नता हुई। उसने अपने भावों को अनेक बिंबों के माध्यम से प्रकट किया। व्याख्या : कवि छोटे-से बच्चे को संबोधित करता हुआ कहता है कि तुम्हारे छोटे-छोटे दाँतों से सजे मुँह की मुसकान इतनी आकर्षक है कि वह मृतकों में भी जान डालने की क्षमता रखती है। वह जीवन का संदेश देती है। तुम्हारे शरीर का अंग-प्रत्यंग धूल-मिट्टी से सना हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि तुम तालाब को छोड़कर मेरी निर्धन की झोपड़ी में खिलने वाले कमल हो। वह तालाब भी पहले पत्थर होगा, पर तुम्हारे प्राणों का स्पर्श पाकर वह पिघल गया होगा और जल बन गया होगा। चाहे वह बाँस हो या बबूल, पर तुम से छूकर उससे भी शेफालिका के कोमल फूल झड़ने लगते हैं। कवि उस बच्चे से पूछता है कि क्या उसने उसे पहचाना है या नहीं। क्या तुम बिना पलकें झपकाए हैरानी से लगातार मेरी ओर देखते ही रहोगे? क्या तुम थक गए हो? कवि कहता है कि यदि वह उसे पहले पहचान नहीं पाया तो भी कोई बात नहीं। भाव है कि वह अभी बहुत छोटा है, पर वह बहुत भोला-भाला और सुंदर है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
11. चाक्षुक बिंब।
2. यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज शब्दार्थ : चिर प्रवासी – लंबे समय तक बाहर रहने वाला। इतर – दूसरा ! मधुपर्क – दही, घी, शहद, जल और दूध का मिश्रण, जो देवता और अतिथि के सामने रखा जाता है। इसे पंचामृत भी कहते हैं। बच्चे को जीवन देने वाला आत्मीयता की मिठास से युक्त माँ का प्यार। कनखी – तिरछी निगाह से देखना। अतिथि – मेहमान। संपर्क – संबंध: छविमान – सुंदर। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) से ली गई हैं। ये पंक्तियाँ नागार्जुन के द्वारा रचित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ में निहित हैं। कवि लंबे समय तक कहीं बाहर रहने के पश्चात वापस अपने घर लौटा था और उसने अपने बच्चे के छोटे-छोटे दाँतों की सुंदर चमक से शोभायमान मुसकान को देखा था। इससे उसे अपार प्रसन्नता हुई थी। व्याख्या : कवि कहता है कि हे सुंदर दाँतों वाले बच्चे ! यदि तुम्हारी माँ तुम्हारे और मेरे बीच माध्यम न बनी होती, तो मैं कभी भी तुम्हें और तुम्हारी सुंदर मुसकान को देख न पाता और न ही तुम्हें जान पाता। तुम धन्य हो और तुम्हारो माँ भी धन्य है। मैं तुम दोनों का आभारी हूँ। मैं लंबे समय से बाहर था, इसलिए मैं तुम्हारे लिए कोई दूसरा हूँ। मेरे प्यारे बच्चे ! मैं तुम्हारे लिए मेहमान की तरह हूँ, इसलिए तुम्हारा मेरे साथ कोई संबंध नहीं रहा; तुम्हारे लिए मैं अनजाना-सा हूँ। मेरी अनुपस्थिति में तुम्हारी माँ ही आत्मीयतापूर्वक तुम्हारा पालन-पोषण करती रही। तुम्हें अपना प्यार प्रदान करती रही। वही तुम्हारा पंचामृत से पालन-पोषण करती रही। तुम मुझे देखकर हैरान से थे और मेरी ओर कनखियों से देख रहे थे। जब कभी अचानक तुम्हारी और मेरी दृष्टि मिल जाती थी, तो मुझे तुम्हारे मुँह में तुम्हारे चमकते हुए सुंदर दाँतों से युक्त मुसकान दिखाई दे जाती है। सच ही मुझे तुम्हारी दूधिया दाँतों से सजी मुसकान बहुत सुंदर लगती है। मैं तुम्हारी मुसकान पर मुग्ध हूँ। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. फसल किविता का सार : फसलें हमारे जीवन की आधार हैं। ‘फसल’ शब्द सुनते ही हमारी आँखों के सामने खेतीं में लहलहाती फसलें आ जाती हैं। फसल को पैदा करने के लिए न जाने कितने तत्व और कितने हाथों का परिश्रम लगता है। फसल प्रकृति और मनुष्य के आपसी सहयोग से ही संभव होती है। न जाने कितनी नदियों का पानी और लाखों-करोड़ों हाथों का परिश्रम इसे उत्पन्न करता है। खेतों की उपजाऊ मिट्टी इसे शक्ति देती है; सूर्य की किरणें इसे जीवन देती हैं और हवा इसे धिरकना सिखाती है। फसल अनेक दुश्य-अदृश्य शक्तियों के मिले-जुले बल के कारण उत्पन्न होती है। सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य सराहना से बंधी प्रश्नोत्तर – 1. एक के नहीं, शब्दार्थ : ढेर – बहुत-सी। कोटि – करोड़ों। स्पर्श – छूना। गरिमा – गौरव। गुण धर्म – विशेषताएँ। संदली – चंदन की। रूपांतर – परिवर्तन। व्याख्या : कवि कहता है कि फसल को उत्पन्न करने के लिए एक-दो नहीं बल्कि अनेक नदियों से प्राप्त होने वाला पानी अपना जादुई प्रभाव दिखाता है। उसी पानी के कारण यह पनपती है; बढ़ती है। इसे उगाने के लिए किसी एक या दो व्यक्ति के नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों हाथों के द्वारा छूने की गरिमा छिपी हुई है। यह लाखों-करोड़ों इनसानों के परिश्रम का परिणाम है। इसमें एक-दो खेतों की मिट्टी नहीं प्रयुक्त हुई। इसमें हजारों खेतों की उपजाऊ मिट्टी की विशेषताएँ छिपी हुई हैं। मिट्टी का गुण-धर्म इसमें छिपा हुआ है। फसल क्या है ? यह तो नदियों के द्वारा लाए गए पानी का जादू है, जिसने इसे उपजाने में सहायता दी। इसमें न जाने कितने लोगों के हाथों का परिश्रम छिपा है। यह उन हाथों की महिमा का परिणाम है। भूरी-काली-संदली मिट्टी की विशेषताएँ इसमें विद्यमान हैं। यह सूर्य की किरणों का फसल के रूप में पनी किरणों से उसे बढ़ाया है। जीवन दिया है। हवा ने इसे थिरकने और इधर-उधर डोलने का गुण प्रदान किया है। भाव यह है कि फसल प्रकृति और मनुष्य के सामूहिक प्रयत्नों का परिणाम है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : तद्भव – 10. नदियों के पानी का जादू है वह।
प्रश्न – अनुप्रास –
Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 5 उत्साह और अट नहीं रही Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 5 उत्साह और अट नहीं रहीJAC Class 10 Hindi उत्साह और अट नहीं रही Textbook Questions and Answers1. उत्साह प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4.
रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 5. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. 2. अट नहीं रही है। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रकृति ही कवि को कल्पना की ऊँची उड़ान भरने के लिए प्रेरित करती है और उसकी रचनाओं में सर्वत्र दिखाई देती है। प्रकृति की व्यापकता ही कवि के मन में तरह-तरह की कल्पनाओं को जन्म देती है। वन का प्रत्येक पेड़-पौधा इसी सुंदरता से भरकर शोभा देता है। प्रकृति की व्यापकता नैसर्गिक सौंदर्य का मूल आधार है। प्रश्न 4. प्रश्न 5. 1. भाषागत कोमलता – उनकी भाषा में एकरसता की कमी है। उन्होंने सरल, व्यावहारिक, सुबोध, सौष्ठव प्रधान और अलंकृत भाषा का प्रयोग : विकल विकल, उन्मन थे उन्मन शीतल कर दो – 2. कोमलता-निराला की कविताओं में कोमलता है। उन्होंने विशिष्ट शब्दों के प्रयोग से कोमलता को उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है – घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ! 3. शब्दों की मधुर योजना – निराला ने अन्य छायावादी कवियों की तरह भाषा को भाषानुसारिणी बनाने के लिए शब्दों की मधुर योजना की है। यथा – शिशु पाते हैं माताओं के 4. लाक्षणिक प्रयोग – निराला की भाषा में लाक्षणिक प्रयोग भरे पड़े हैं। उन्होंने परंपरा के प्रति अपने विरोध-भाव को प्रकट करते समय भी लाक्षणिकता का प्रयोग किया था – कठिन श्रंखला बज-बजाकर 5. संगीतात्मकता – छायावादी कवियों की तरह निराला ने भी प्रायः तुक के संगीत का प्रयोग नहीं किया था और उसके स्थान पर लय-संगीत को अपनाया था। उन्हें संगीत का अच्छा ज्ञान था। कविता में उनकी यह विशेषता स्थान-स्थान पर दिखाई देती है – कहीं पड़ी है उर में 6. चित्रात्मकता – निराला ने शब्दों के बल पर भाव चित्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने बादलों का ऐसा शब्द चित्र खींचा है कि वे काले घुघराले बालों के समान आँखों के सामने झूमते-गरजते-चमकते से प्रतीत होने लगते हैं। 7. लोकगीतों जैसी भाषा – निराला ने अनेक गीतों की भाषा लोकगीतों के समान प्रयुक्त की है। कहीं-कहीं उन्होंने कजली और गज़ल भी लिखी हैं। इसमें कवि ने देशज शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है। 8. मुक्त छंद – निराला ने मुख्य रूप से अपनी भावनाओं को मुक्त छंद में प्रकट किया है। उन्होंने छंद से मुक्त रहकर अपने काव्य की रचना की है। इनके मुक्त छंद को अनेक लोगों ने खंड छंद, केंचुआ छंद, रबड़ छंद, कंगारू छंद आदि नाम दिए हैं। 9. अलंकार योजना – कवि ने समान रूप से शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का प्रयोग किया है। इससे इनके काव्य में सुंदरता की वृद्धि हुई है। वास्तव में निराला ने मौलिक-शिल्प योजना को महत्व दिया है, जिस कारण साहित्य में उनकी अपनी ही पहचान है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 6. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. फूटे हैं आमों में बौर – भर गये मोती के झाग, JAC Class 10 Hindi उत्साह और अट नहीं रही Important Questions and Answersप्रश्न 1. शिशु पाते हैं माताओं के कवि ने बादलों के माध्यम से विद्रोह के स्वर को ऊँचा उठाया है। वे समझते थे कि इसी रास्ते पर चलकर समाज का कल्याण किया जा सकता है – विकल विकल, उन्मन थे उन्मन, वास्तव में निराला जीवनपर्यंत कविता के माध्यम से विद्रोह और संघर्ष के स्वर को प्रकट करते रहे थे। प्रश्न 2. प्रश्न 3. कहीं साँस लेते हो, कवि निराला को प्रकृति के कण-कण में ईश्वरीय सत्ता की छवि के दर्शन होते हैं। उन्हें प्रकृति के आँचल में छिपे उसी परमात्मा का रूप दिखाई देता है। प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. तप्त धरा, जब से फिर सामाजिक विषमताओं को देखकर कवि निराला का मन खिन्न हो जाता है। उसके मन में वेदना और निराशा के भाव भर जाते हैं। प्रश्न 8. बादल, गरजो! प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. पठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. विकल विकल, उन्मन थे उन्मन (क) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने किसका आह्वान किया है? (ख) विकल और उन्मन कौन थे? (ग) बादल किसका प्रतीक हैं? (घ) प्रस्तुत काव्यांश किस कविता से लिया गया है? (ङ) कवि ने ‘निदाघ’ से किस ओर संकेत किया है? 2. कहीं साँस लेते हो, (क) कविता में किस माह के सौंदर्य का चित्रण है? (ख) पत्तों से लदी डाल पर किन रंगों की छटा बिखरी हुई है? (ग) कवि का साँस लेने से क्या तात्पर्य है? (घ) कवि की आँख कहाँ से हट नहीं रही? (ङ) प्रस्तुत कविता के कवि कौन हैं? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) बादलों को किसके समान सुंदर कहा गया है? (ख) कवि ने बादलों के माध्यम से किसका आह्वान किया है? (ग) ‘अट नहीं रही है’ कविता में पाट-पाट पर क्या बिखरा है? (घ) कवि ने बादल को क्या कहा है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. उत्साह बादल, गरजो! शब्दार्थ : गगन – आकाश। धाराधर – मूसलाधार, लगातार। ललित – सुंदर। विद्युत-छवि – बिजली की चमक (शोभा)। उर – हृदय, भीतर। कवि – स्रष्टा। विकल – व्याकुल। उन्मन – अनमना, उदास। निदाघ – गरमी का ताप। तप्त – गर्म। धरा – पृथ्वी! अनंत – आकाश। प्रसंग : प्रस्तुत कविता ‘उत्साह’ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित की गई है, जिसके रचयिता सप्रसिदध छायावादी कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। कवि ने अपनी कविता में बादलों का आह्वान किया है कि वे पीड़ित-प्यासे लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करें। उन्होंने बादलों को नए अंकुर के लिए विध्वंस और क्रांति चेतना को संभव करने वाला भी माना है। व्याख्या : कवि बादलों से गरज-बरस कर सारे संसार को नया जीवन देने की प्रेरणा देते हुए कहता है कि बादलो! तुम गरजो। तुम सारे आकाश को घेरकर मूसलाधार वर्षा करो; घनघोर बरसो। हे बादलो! तुम अत्यंत सुंदर हो। तुम्हारा स्वरूप सुंदर काले घुघराले बालों के समान है तथा तुम अबोध बालकों की मधुर कल्पना के समान पाले गए हो। तुम हृदय में बिजली की शोभा धारण करते हो। तुम नवीन सृष्टि करने वाले हो। तुम जलरूपी नया जीवन देने वाले हो और तुम्हारे भीतर वज्रपात करने की अपार शक्ति छिपी हुई है। तुम इस संसार को नवीन प्रेरणा और जीवन प्रदान कर दो। बादलो! तुम गरजो और सबमें नया जीवन भर दो। गरमी के तेज ताप के कारण धरती के सारे लोग बहुत ल्याकुल और बेचैन हैं, वे उदास हो रहे हैं। अरे बादलो! तुम सीमाहीन आकाश में पता नहीं किस ओर से आकर सब तरफ़ फैल गए हो। तुम इस गरमी के ताप से तपी हुई धरती को बरसकर शीतलता प्रदान करो। हे बादलो! तुम गरज-गरज कर बरसो और फिर धरती को शीतल करो! अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
मानवीकरण –
पुनरुक्ति प्रकाश – उपमा – 2. अट नहीं रही है। अट नहीं रही है शब्दार्थ : अट – समाना, प्रविष्ट। आभा – चमक, सौंदर्य। नभ – आकाश। उर – हृदय। मंद – धीमी। पुष्प-माल – फूलों की माला। पाट-पाट -जगह-जगह। शोभा-श्री – सौंदर्य से भरपूर। पट – समा नहीं रही है। प्रसंग : प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित है, जिसके रचयिता छायावादी काव्यधारा के प्रमुख कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। इसे मूल रूप से उनकी काव्य-रचना ‘राग-विराग’ में संकलित किया गया है। कवि ने इसमें फागुन की मादकता को प्रकट किया है, जिसकी सुंदरता और उल्लास सभी दिशाओं में फैला हुआ है। व्याख्या : कवि कहता है कि फागुन की यह सुंदरता शरीर में किसी भी से प्रकार समा नहीं पा रही है। वह प्रकृति के कण-कण से फूट रही है। अपने रहस्यवादी भावों को प्रकट करते हुए कवि कहता है कि हे प्रिय! पता नहीं तुम कहाँ बैठकर अपनी साँस के द्वारा प्रकृति के कोने-कोने को सुगंध से भर रहे हो। तुम कल्पना के आकाश में ऊँचा उड़ने तुम्हारी के लिए मन को पंख प्रदान करते हो। तुम मन में तरह-तरह की कल्पनाओं को जन्म देते हो। सब तरफ़ तुम्हारी सुंदरता ही व्याप्त है। वह अत्यधिक आकर्षक और सुंदर है। कवि कहता है कि मैं उसकी ओर से अपनी आँख हटाना चाहता हूँ, पर वह वहाँ से हट नहीं पा रही। इस सुंदरता में मन बँधकर रह गया है। पेड़ों की सभी डालियाँ पत्तों से पूरी तरह से लद गई हैं। कहीं तो पत्ते हरे हैं और कहीं कोंपलों में लाली छाई है। उनके बीच सुंदर-सुगंधित फूल खिल रहे हैं। ऐसा लगता है कि उनके कंठों में सुगंध से भरे फूलों की मालाएँ पड़ी हैं। हे प्रिय! तुम जगह-जगह शोभा के वैभव को कूट-कूटकर भर रहे हो पर वह अपनी पुष्पलता के कारण उसमें समा नहीं पा रही और चारों ओर बिखरी पड़ी है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सिौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
विशेषोक्ति –
पुनरुक्ति प्रकाश – मानवीकरण –
उत्साह और अट नहीं रही Summary in Hindiकवि-परिचय : हिंदी साहित्य जगत में ‘महाप्राण निराला’ नाम से प्रसिद्ध सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म सन 1899 ई० में बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता रामसहाय त्रिपाठी उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के गाँव गढ़ाकोला के निवासी थे। वे तत्कालीन महिषादल रियासत में कोषाध्यक्ष थे। जब निराला जी तीन वर्ष के थे, तो इनकी माता का देहावसान हो गया था। इनकी अधिकांश शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने बाँग्ला, संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी आदि में रचित साहित्य का गहन अध्ययन किया था। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को वहन करने के लिए इन्होंने महिषादल रियासत में नौकरी प्रारंभ की, किंतु कुछ कारणों से त्याग-पत्र देकर वहाँ से चले आए। कुछ समय तक वे रामकृष्ण मिशन कलकत्ता (कोलकाता) के पत्र ‘समन्वय’ का संपादन करते रहे। बाद में इन्होंने ‘मतवाला’ पत्रिका का संपादन भी किया। 15 अगस्त 1961 ई० को इनका देहावसान हो गया। निराला जी अत्यंत उदार, स्वाभिमानी, अध्ययनशील, प्रकृति-प्रेमी तथा त्यागी व्यक्ति थे। वे स्वयं संगीत-प्रेमी थे। अतिथि-सत्कार करने में वे अत्यंत संतोष का अनुभव करते थे। वे विद्रोही प्रवृत्ति तथा पुरातन में नवीनता का समावेश करने वाले साहित्यकार थे। रचनाएँ – निराला जी बहमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। इन्होंने गद्य और पद्य दोनों में लिखा। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं – काव्य रचनाएँ-अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अपरा, अराधना, अर्चना, तुलसीदास, सरोज स्मृति, राम की शक्ति-पूजा, राग-विराग, वर्षा गीत आदि। अनुवाद – आनंदपाठ, कपाल कुंडला, चंद्रशेखर, दुर्गेश नंदिगी, कृष्णकांत का विल, युगलांगुलीय, रजनी, देवी चौधरानी, राधा रानी, विष वृक्ष, राजसिंह, महाभारत आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-निराला जी हिंदी की छायावादी कविता के आधार-स्तंभ माने जाते हैं, किंतु इनकी कविता में छायावाद के अतिरिक्त प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी कविता की विशेषताएँ भी परिलक्षित होती हैं। इनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं – 1. वैयक्तिकता – छायावादी कवियों के समान निराला के काव्य में भी वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति है। जूही की कली, हिंदी के सुमनों के प्रति, मैं अकेला, राम की शक्ति-पूजा, विफल वासना, स्नेह निर्झर बह गया है, सरोज-स्मृति आदि अनेक कविताओं में हमें निराला की वैयक्तिक भावना की सफल अभिव्यक्ति मिलती है। 2. निराशा, वेदना, दुखवाद एवं करुणा की विवृत्ति-छायावादी कवि वेदना एवं दुख को जीवन का सर्वस्व मानते हैं। निराला जी ने वेदना एवं दुखवाद को कई प्रकार से प्रकट किया है। इसका मूल हेतु जीवन की निराशा है – “दिए हैं मैंने जगत को फूल फल, किया है अपनी प्रभा से चकित-चल, सामाजिक विषमताओं को देखकर कवि निराला का मन खिन्न हो जाता है। उनके मन में वेदना और निराशा के भाव भर जाते हैं। 3. प्रकृति-चित्रण-निराला ने प्रकृति पर सर्वत्र चेतना का आरोप किया है। उनकी दृष्टि में बादल, प्रपात, यमुना-सभी कुछ चेतना है। वे यमुना से पूछते हैं – “तू किस विस्मृत की वीणा से, उठ उठ कर कातर झंकार। 4. मानवतावादी जीवन-दर्शन – निराला के काव्य में मानवतावादी जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति हुई है। बादल राग’ में कवि समाज की विषमता से पीड़ित होकर कहता है – “विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते। ‘तोड़ती पत्थर’ तथा ‘भिक्षुक’ जैसी कविताओं में निराला जी ने मानव में छिपे हुए देवता का दर्शन किया है। यथा – “ठहरो अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूंगा 5. नारी का विविध एवं नवीन रूपों में चित्रण – नारी के प्रति उनके हृदय में गहरी सहानुभूति है। कहीं वह जीवन की सहचरी एवं प्रेयसी है और कहीं उन्हें वह प्रकृति में व्याप्त होकर अलौकिक भावों से अभिभूत करती हुई दिखाई देती है। कहीं वे उसके दिव्यदर्शन की झलक पाते हैं और कहीं नारी को लक्ष्य करके वे कवि प्रेमोन्माद की अस्फुट मनोवृत्ति का चित्रण करते हैं। ‘तोड़ती पत्थर’ कविता में ‘मज़दूरिनी’ के प्रति गहरी सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए निराला यह लिखना नहीं भूलते हैं कि – “श्याम तन, भर बंधा यौवन…, 6. सामाजिक चेतना – निराला जी चाहते हैं कि समाज का प्रत्येक प्राणी सुखी हो। निराला ने अपने प्रसिद्ध वंदना गीत ‘वीणा वादिनी वर दे’ में प्रार्थना की है कि मानव-समाज में नवीन शक्तियों का आविर्भाव हो, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन कर सके। निराला ने अपनी पैनी दृष्टि से समाज के सच्चे रूप को देखा था और अपने गरीब जीवन को सहा था। 7. देश-प्रेम की अभिव्यक्ति – देश के सांस्कृतिक पतन की ओर निराला जी ने बड़ी ओजस्विनी भाषा में इंगित किए हैं। इनका कहना है कि देश के भाग्याकाश को विदेशी शासक के राहू ने ग्रस रखा है। वे चाहते हैं कि किस प्रकार देश का भाग्योदय हो और भारतीय जन-मन आनंद-विभोर हो उठे। भारती वंदना, जागो फिर एक बार, तुलसीदास, छत्रपति शिवाजी का पत्र आदि कविताओं में निराला जी ने देश-भक्ति के भाव प्रकट किए हैं। 8. विद्रोह का स्वर एवं स्वच्छंदता – अन्य छायावादी कवियों की अपेक्षा निराला जी कहीं अधिक विद्रोही एवं स्वच्छंदता के प्रेमी थे। वस्तुतः वे जीवनपर्यंत विद्रोह एवं संघर्ष ही करते रहे। अपनी संस्कृति का दंभ भरने वालों को ललकारते हुए निराला जी ने लिखा है-‘हज़ार वर्ष से सलाम ठोकते-ठोकते नाक में दम हो गया, अपनी संस्कृति लिए फिरते हैं। ऐसे लोग संसार की तरफ़ से आँखें बंदकर अपने ही विवर में व्याघ्र बन बैठे रहते हैं। अपनी ही दिशा में ऊँट बनकर चलते हैं।’ 9. कला पक्ष-निराला जी ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए जिस छंद को चुना है, उसे मुक्त छंद कहा जाता है। काव्य के कला पक्ष के अंतर्गत हम मुक्तक छंद को निराला की सबसे बड़ी देन कह सकते हैं। निराला की भाषा की प्रमुख विशेषताएँ कोमलता, शब्दों की मधुर योजना, भाषा का लाक्षणिक प्रयोग, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता, प्रकृतिजन्य प्रतीकों की प्रचुरता आदि हैं। निराला को संगीत शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। वे स्वयं भी अच्छे गायक थे। उनकी कविता में संगीतात्मकता का सुंदर निर्वाह मिलता है। कविता का सार : करते हुए निराला जी ने बादलों के माध्यम से अपने भावों को प्रकट किया है। कविता में बादल एक ओर भूखे-प्यासे और पीड़ित लोगों की इच्छाओं-आकांक्षाओं को पूरा करते दिखाए गए हैं, तो दूसरी ओर उसे नए अंकुर के लिए विध्वंस, विप्लव और क्रांति की चेतना को वाले तत्व के रूप में प्रस्तुत किया है। कवि ने जीवन को व्यापक और समग्र दृष्टि से देखते हुए अपने मन की कल्पना और क्रांति चेतना की ओर ध्यान दिया है। साहित्य की सामाजिक परिवर्तन में सदा ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। कवि बादलों से गरज-गरजकर : बरसने की बात कहता है। सुंदर और काले बादल अबोध बालकों की कल्पना के समान हैं। वे नई सृष्टि की रचना करते हैं। उनके भीतर वज्रपात की शक्ति छिपी हुई है। कवि बादलों का आह्वान करता है कि वे बरसकर गरमी के ताप से तपी हुई धरती को शीतलता प्रदान करें। अट नहीं रही है-निराला जी ने अपनी इस रहस्यवादी कविता में फागुन मास की मादकता का सुंदर चित्रण किया है। जब व्यक्ति के मन में प्रसन्नता हो, तो हर तरफ़ फागुन की सुंदरता और उल्लास भरा रूप ही दिखाई देता है। कवि को सारी प्रकृति में सुंदरता फूटती-सी प्रतीत होतो है; उसके कोने-कोने में सुगंध प्रतीत होती है। इससे मन में तरह-तरह की लेती हैं। वनों के सभी पेड़ नए-नए पत्तों से लद गए हैं। वे पत्ते कहीं हरे हैं, तो कहीं केवल कोंपलों के रूप में लाल हैं। उनके बीच में सुगंधित फूल खिल रहे हैं। सारे वन का वैभव अति आकर्षक और मधुर है। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 4 आत्मकथ्य Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 4 आत्मकथ्यJAC Class 10 Hindi आत्मकथ्य Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. (ख) कवि का प्रियतम अति सुंदर था। उसकी गालों पर मस्ती भरी लाली छाई हुई थी। उसकी सुंदर छाया में प्रेमभरी भोर भी अपने सुहाग की मधुरिमा प्राप्त करती थी। प्रश्न 5. प्रश्न 6. जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में। कवि ने तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग किया है, जिससे शब्दों पर उनकी पकड़ का पता चलता है। 2. भाषा की लाक्षणिकता-लाक्षणिकता प्रसाद जी के काव्य की महत्वपूर्ण विशेषता है। इसके द्वारा कवि ने अपने सूक्ष्म भावों को सहजता से प्रकट किया है – सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा? 3. भाषा की प्रतीकात्मकता-कवि ने अपनी कविता में प्रतीकात्मकता का भी अधिक प्रयोग किया है। उन्होंने प्रकृति-जगत से अपने अधिकांश प्रतीकों का प्रयोग किया है – मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी, ‘मधुप’ मनरूपी भँवरा है, जो ‘गुनगुना’ कर भावों को प्रकट करता है। मुरझाकर गिरती ‘पत्तियाँ’ नश्वरता की प्रतीक हैं। कवि ने अपनी इस कविता में ‘अनंत-नीलिमा’, ‘गागर रीति’, ‘उज्ज्वल गाथा’, ‘चाँदनी रातों की’, ‘अनुरागिनी उषा’, ‘स्मृति पाथेय’, ‘थके पथिक’, ‘सीवन को उधेड़’, ‘कंथा’ आदि प्रतीकात्मक शब्दों का सहज-सुंदर प्रयोग किया है। -भाषा की चित्रमयता-प्रसाद की इस कविता की एक अनुपम विशेषता है-‘चित्रमयता’। कवि ने इसके द्वारा पाठक के सामने एक चित्र-सा प्रस्तुत किया है। इससे कविता में बिंब उपस्थित करने में सफलता मिली है। 5. भाषा की संगीतात्मकता – इस कविता में संगीतात्मकता का तत्व निश्चित रूप से विद्यमान है। इसका कारण यह है कि कवि को नाद, लय और छंद तीनों का अच्छा ज्ञान था। स्वरमैत्री ने संगीतात्मकता को उत्पन्न करने में सहायता प्रदान की है – छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ? 6. भाषा की आलंकारिकता – भाषा को सजाने और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए प्रसाद ने अपनी कविता में जगह-जगह अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है – 7. मधुर-शब्द योजना – कवि को शब्दों की अंतरात्मा की सूक्ष्म पहचान है। जो शब्द जहाँ ठीक लगता है, कवि ने इसका वहीं प्रयोग किया है – उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की। इन पंक्तियों में ‘पाथेय’, ‘पथिक’, ‘पंथा’, ‘सीवन’, ‘कंथा’ आदि अत्यंत सटीक और सार्थक शब्द हैं, जो विशेष भावों को व्यक्त करते हैं। प्रश्न 7. प्रिय की हँसी का स्रोत उसके जीवन के कण-कण को सराबोर किए रहता था, पर वह कल्पना मात्र था। जब तक सपना आँखों के सामने छाया रहा, तब तक वह प्रसन्नता से भरा रहा; पर स्वप्न के समाप्त होते ही जीवन की वास्तविकता उसके सामने आ गई। उसकी आनंद-कल्पना अधूरी रह गई। उसका प्रिय अपार सौंदर्य का स्वामी था। उसके गालों की सौंदर्य-लालिमा के सामने उषा की लालिमा भी फीकी थी, पर अब वह दृश्य ही बदल गया है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 8. तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती। वे प्रेमी-हृदय थे। उन्हें किसी से प्रेम था, पर वे उसके प्रेम को पा नहीं सके। वे स्वभाव से ऐसे थे कि न तो अपनी पीड़ा दूसरों के सामने प्रकट करना चाहते थे और न ही किसी की हँसी उड़ाना चाहते थे। वे दूसरों को अपने छोटे-से जीवन की कहानियाँ नहीं सुनाना चाहते थे। वे अपनी पीड़ा को अपने हृदय में समेटकर रखना चाहते थे। प्रश्न 9. इसे पढ़ने से देश-विदेश में घूमने और स्थान-स्थान के ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिलेगी, विभिन्न क्षेत्रों के जीवन और रीति-रिवाजों को समझने की क्षमता मिलेगी। इसके अतिरिक्त मैं हरिवंशराय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ और ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ पढ़ना चाहूँगा। इनसे एक महान लेखक और कवि के जीवन को निकट से जानने का अवसर मिलेगा। प्रश्न 10. मेरे कारण मेरे नगर और मेरे देश का नाम ख्याति प्राप्त करे। कल्पना चावला इस संसार में आईं और चली गईं। उनका धरती पर आना तो सामान्य था, पर यहाँ से जाना सामान्य नहीं था। आज उन्हें हमारा देश ही नहीं सारा संसार जानता है। उनके कारण उनके पैतृक शहर करनाल का नाम अब सभी की जुबान पर है। मैं भी चाहती हूँ कि अपने जीवन में मैं इतना परिश्रम करूँ कि मुझे विशेष पहचान मिले। मैं अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने देश की कीर्ति का कारण बनूँ। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. यह भी जानें – प्रगतिशील चेतना की साहित्यिक मासिक पत्रिका हंस प्रेमचंद ने सन 1930 से 1936 तक निकाली थी। पुनः सन 1956 से यह साहित्यिक पत्रिका निकल रही है और इसके संपादक राजेंद्र यादव हैं। बनारसीदास जैन कृत अर्धकथानक हिंदी की पहली आत्मकथा मानी जाती है। इसकी रचना सन 1641 में हुई और यह पद्यात्मक है। आत्मकथ्य का एक अन्य रूप यह भी देखें – मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ। – कवि बच्चन की आत्म-परिचय सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी, शब्दार्थ : मधुप – भँवरा, मनरूपी भँवरा। घनी – अत्यधिक। अनंत नीलिमा – अंतहीन विस्तार। असंख्य – अनगिनत; जिसकी गणना न की जा सके। मलिन – मैला। उपहास – मज़ाक। दुर्बलता – कमज़ोरी। गागर रीति – खाली घड़ा, ऐसा मन जिसमें कोई भाव नहीं। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई है। जिसके रचयिता छायावादी काव्य के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद हैं। इसके माध्यम से कवि ने कहा है कि उनके जीवन में ऐसा कुछ भी विशेष नहीं है जो औरों को कुछ सरस दे पाए। व्याख्या : कवि कहता है कि जीवनरूपी उपवन में उसका मनरूपी भँवरा गुनगुना कर न जाने अपनी कौन-सी कहानी कह जाता है। उस कहानी से किसी को सुख मिलता है या दुख, वह नहीं जानता। लेकिन इतना अवश्य है कि आज उपवन में कितनी अधिक पत्तियाँ मुरझाकर झड़ रही हैं। कवि का स्वर निराशा के भावों से भरा है। उसे केवल दुख और पीड़ारूपी मुरझाई पत्तियाँ ही दिखाई देती हैं। उसकी न जाने कितनी इच्छाएँ पूरी हुए बिना ही मन में घुटकर रह गईं। उचित परिस्थितियों और वातावरण को न पाकर वे समय से पहले ही पीले-सूखे पत्तों की तरह मुरझाकर मिट गईं। जीवन के अंतहीन गंभीर विस्तार में जीवन के असंख्य इतिहास रचे जाते हैं। वे बीती हुई निराशा भरी बातें कवि की स्थिति और पीड़ा पर व्यंग्य करती हैं; उसका उपहास उड़ाती हैं और कवि चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। वह अपने जीवन की विवशताओं के सामने असहाय है; हताश है। उसकी पीड़ा भरी जिंदगी के बारे में जानने की इच्छा रखने वालों से वह दुख भरे स्वर में पूछता है कि उसकी पीड़ा और विवशता को देखकर भी क्या वे चाहते हैं कि कवि अपनी पीड़ा, दुर्बलता और अपने पर बीती दुखभरी कहानी को फिर से सुनाए; फिर से दोहराए ? क्या उसकी पीड़ा देखकर नहीं समझी जा सकती? जब तुम उसकी जीवनरूपी खाली गागर को देखोगे, तो क्या तुम्हें उसे देख-सुनकर सुख प्राप्त होगा? मेरे हताश और निराशा से भरे अभावपूर्ण मन में कोई ऐसा भाव नहीं है, जिसे दूसरों को सुनाया जा सके। अर्धग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तरी – प्रश्न : रूपकातिशयोक्ति – 2. किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले शब्दार्थ : विडंबना – निराश करना, उपहास का विषय। प्रवंचना – धोखा। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई है। जिसके रचयिता छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद हैं। उन्हें ‘हंस’ नामक पत्रिका के लिए आत्मकथा लिखने के लिए कहा गया था, लेकिन कवि को ऐसा प्रतीत होता है कि वे अति साधारण हैं और उनके जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे पढ़-सुनकर लोग वाह-वाह कर उठे। कवि ने यथार्थ के साथ-साथ अपने विनम्र भावों को प्रकट किया है। व्याख्या : जो लोग कवि की दुखपूर्ण कथा को सुनना चाहते हैं, कवि उनसे कहता है कि उसकी कथा सुनकर कहीं वे यह न समझने लगे कि वही उसकी जीवनरूपी गागर को खाली करने वाले थे। वे सब अपने आपको समझें; स्वयं को पहचानें। वे उसके भावों के रस को प्राप्त कर अपने आप को भरने वाले थे। अरे सरल मन वालो! यह उपहास और निराशा का विषय है कि मैं तुम्हारी हँसी उड़ाऊँ। मैं अपने दवारा की गई गलतियों या दूसरों के द्वारा दिए गए धोखों को क्यों प्रकट करूँ ? आत्मकथा के नाम से मुझे अपनी या औरों की बातें जग-जाहिर नहीं करनी। कवि कहता है कि उसके जीवन में पूर्ण रूप से पीड़ा और निराशा की कालिमा नहीं है; उसमें मधुर चाँदनी रातों की मीठी स्मृतियाँ भी हैं, पर वह उन उज्ज्वल गाथाओं को कैसे गाए और वह उन्हें क्यों प्रकट करे? वह अपने जीवन के कोमल पक्षों में सभी को भागीदार नहीं बनाना चाहता, क्योंकि वे उसकी निजी यादें हैं। वह अपनी मधुर स्मृतियों में सबकी साझेदारी नहीं चाहता। वह कभी अपनों के साथ खिलखिलाकर हँसा था; मीठी बातों में डूबा था और उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा था-उन क्षणों को वह औरों को क्यों बताए? अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : अनुप्रास – 3. मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया। शब्दार्थ : स्वप्न – सपना। मुसक्या कर – मुस्कुराकर। अरुण-कपोलों – लाल गालों। मतवाली – मस्ती भरी। अनुरागिनी उषा – प्रेमभरी भोर । निज – अपना। स्मृति पाथेय – स्मृति रूपी सहारा। पथिक – मुसाफ़िर; यात्री। पंथा – रास्ता, राह। सीवन – सिलाई। कंथा – गुदड़ी, अंतर्मन। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी कवि श्री जयशंकर प्रसाद के द्वारा रचित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई हैं। कवि ने अपने जीवन की कहानी किसी को न सुनाने के बारे में सोचा था, क्योंकि उसे लगता था कि उसके जीवन में कुछ भी ऐसा सुखद नहीं था, जो किसी को सुख दे सके। उसके पास केवल सुखद यादें अवश्य थीं। व्याख्या : कवि कहता है कि उसे अपने जीवन में कभी किसी सुख की प्राप्ति नहीं हुई। सपने में जिस सुख को अनुभव कर वह नींद से जाग गया था, वह भी उसे प्राप्त नहीं हुआ। वह सुख देने वाला उसके आलिंगन में आते-आते धीरे से मुस्कुराकर उससे दूर हो गया; उसे प्राप्त नहीं हुआ। जो सपने में सुख और प्रेम का आधार बना था, वह अपार सुंदर और मोहक था। उसके लाल-गुलाबी गालों की मस्ती भरी छाया में प्रेम भरी भोर अपने सुहाग की मिठास भरी मनोहरता को लेकर प्रकट हो गई थी। भाव यह है कि उसके गालों में प्रात:कालीन लाली और शोभा विद्यमान थी। जीवन की लंबी राह पर थककर चूर हुए कविरूपी यात्री की स्मृतियों में केवल वही एक सहारा थी। उसकी यादें ही उसकी थकान को कुछ कम करती थीं। कवि नहीं चाहता कि उसकी मधुर यादों के आधार को कोई जाने। वह पूछता है कि क्या उसके अंतर्मन रूपी गुदड़ी की सिलाई को उधेड़कर उस छिपे रहस्य को आप देखना चाहेंगे? भाव यह है कि कवि उस रहस्य को अपने भीतर सँभालकर रखना चाहता है; उसे व्यक्त नहीं करना चाहता। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : पुनरुक्ति प्रकाश – आलिंगन में आते-आते अनुप्रास 4. छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ? शब्दार्थ : कथाएँ – कहानियाँ। मौन – चुप। आत्मकथा – अपनी कहानी। व्यथा – पीड़ा। प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद के द्वारा रचित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई हैं। कवि से कहा गया था कि वह अपनी आत्मकथा लिखे, ताकि सभी उससे परिचित हो सकें। लेकिन कवि को लगता है कि उसकी जीवनी में कुछ भी ऐसा विशेष नहीं है, जिससे दूसरों को सुख प्राप्त हो सके। व्याख्या : कवि कहता है कि उसका जीवन छोटा-सा है; सुखों से रहित है, इसलिए वह उससे संबंधित बड़ी-बड़ी कहानियाँ किस प्रकार सुनाए? वह अपनी कहानी सुनाने की अपेक्षा चुप रहकर औरों की कहानियों को सुनना अधिक अच्छा मानता है। वह उनकी कहानियों से कुछ पाना चाहता है। वह पूछता है कि लोग उसकी कहानी को सुनकर क्या करेंगे? उसकी जीवन कहानी सीधी-सादी और भोली-भाली थी, जिसमें कोई भी विशेष आकर्षण नहीं था। उसे लगता है कि अभी अपनी कहानी सुनाने का अवसर भी अनुकूल नहीं है। उसकी मौन पीड़ा अभी थकी-हारी सो रही है; उसके मन में छिपी हुई है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : JAC Class 10 Hindi आत्मकथ्य Important Questions and Answersप्रश्न 1. स्वयं पुराना और घिसा-पिटा कपड़ा पहनकर भी हमें नए कपड़े लेकर देने का प्रयत्न करते हैं। उन्होंने हमें अच्छे संस्कार दिए हैं और कभी किसी के सामने हाथ न फैलाने की शिक्षा दी है। पढ़ाई-लिखाई के साथ मुझे व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने का शौक है। मैं अपने स्कूल की ओर से कई बार कुश्ती प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुका हूँ और मैंने स्कूल के लिए कई पुरस्कार जीते हैं। पढ़ाई में भी मैं अच्छा हूँ। कक्षा में पहला या दूसरा स्थान प्राप्त कर लेता हूँ, जिस कारण माता-पिता के साथ-साथ अपने अध्यापकों की आँखों का भी तारा हूँ। मेरे सहपाठियों और मेरे मोहल्ले के लड़कों को मेरे साथ खेलना और बातें करना अच्छा लगता है। ईश्वर के प्रति मेरी अटूट आस्था है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. आत्मकथ्य Summary in Hindiकवि-परिचय : जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रतिभावान कवि माने जाते हैं। ये छायावाद के प्रवर्तक थे। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, आलोचना आदि हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई। इनका जन्म सन 1889 ई० में काशी के सुंघनी साहू नामक प्रसिद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता देवी प्रसाद साहू काव्य-प्रेमी थे। जब उनका देहांत हुआ, तब प्रसाद की आयु केवल आठ वर्ष की थी। परिवारजन की मृत्यु, आत्म-संकट, पत्नी वियोग आदि कष्टों को झेलते हुए भी ये काव्य-साधना में लीन रहे। तपेदिक के कारण इनका देहांत 15 नवंबर 1937 में हुआ। 1. स्वदेश-प्रेम – प्रसाद का स्वदेश-प्रेम सौंदर्य के अछूते चित्रों के रूप में व्यक्त हुआ है। संपूर्ण भारत उनके लिए सौंदर्य का भंडार है। 2. प्रकृति-चित्रण छायावादी कवियों का मनचाहा शरणस्थल प्रकृति ही रही है। प्रकृति को मानवीय रूप में देखना और उससे प्यार करना उनके काव्य में मुख्य रूप से अंकित है। प्रकृति को प्रसाद ने अपने काव्य की पृष्ठभूमि न मानकर सहचरी माना है और उसका सजीव चित्रण किया है। कोलाहल में भरी इस दुनिया से भागकर कवि प्रकृति की गोद में शरण लेना चाहता है, इसलिए वह लिखता है – ‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे। 3. रहस्यवाद – छायावादी कवि रहस्यवादी हैं और प्रकृति में प्रभु के दर्शन करते हैं। प्रसाद के काव्य में रहस्यवादी तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। जिज्ञासा, प्रेम, विरह तथा मिलन की सीढ़ियों से गुजरने वाली ईश्वर-प्रेम की भावना का कवि ने वर्णन किया है। ईश्वर के अस्तित्व के विषय में जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ कवि कहता है – ‘हे अनंत रमणीय! कौन तुम? प्रेम के सौंदर्य के साथ-साथ प्रसाद के काव्य में विश्व-बंधुत्व, सर्व जन हिताय तथा व्यापक मानवतावाद से ओत-प्रोत रचनाएँ भी हैं ! प्रसाद मूलत: आंतरिक अनुभूतियों के कवि हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनका काव्य समकालीन हलचलों को अनदेखा करता है। प्रसाद की कविता मानव में ईश्वर और ईश्वर में मानव को देखती है। 4. भाषा-शैली – प्रसाद की भाषा-शैली परिष्कृत, स्वाभाविक, तत्सम शब्दावली प्रधान एवं सरस है। छोटे-छोटे पदों में गंभीर भाव भर देना और उनमें संगीत लय का विधान करना प्रसाद की शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। देश-प्रेम की रचनाओं में ओज गुण प्रधान शब्दावली, शृंगार रस प्रधान रचनाओं में माधुर्य-गुण से युक्त शब्दावली तथा सामान्यतः प्रसाद गुणयुक्त शब्दावली का प्रयोग किया गया है। शब्द-चित्रों की सुंदर योजना प्रसाद की रचनाओं में रहती है। इनकी रचनाओं में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। प्रसाद की कविताओं में शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रामाणिक रूप मिलता है। इनकी काव्य-भाषा कहीं पर सरल तथा कहीं पर क्लिष्ट एवं तत्सम शब्दावली प्रधान है। स्वाभाविकता एवं प्रवाह उनकी भाषा की विशेषता है। भाषा भावानुकल है, इसलिए तत्सम शब्द भी स्वाभाविक लगते हैं। उनकी रचनाओं में मुहावरे बहुत कम हैं। 5. संगीतात्मकता – संगीतात्मकता उनके काव्य का प्रमुख स्वर है ! संगीत की स्वर-लहरी पद-पद पर झलकती है। ‘कामायनी’, ‘आँस’, ‘लहर’, ‘झरना’ सभी कविताएँ गेय हैं। कविता का सार : मुंशी प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका ‘हंस’ में छापने के लिए श्री जयशंकर प्रसाद से आत्मकथा लिखने का आग्रह किया था, पर उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने आत्मकथा न लिखकर ‘आत्मकथ्य’ कविता लिखी थी, जो सन 1932 में ‘हंस’ में छपी। कवि ने इस कविता में जीवन के यथार्थ को प्रकट करने के साथ-साथ उन अनेक अभावों को भी लिखा था, जिन्हें उन्होंने झेला था। उनका कहना था कि उनका जीवन किसी भी सामान्य व्यक्ति के जीवन की तरह सरल और सीधा था जिसमें कुछ भी विशेष नहीं था, वह लोगों की वाहवाही लूटने और उन्हें रोचक लगने वाला नहीं था। जीवनरूपी उपवन में मनरूपी भँवरा गुनगुना कर चाहे अपनी कहानी कहता हो, पर उसके आसपास पेड़-पौधों की न जाने कितनी पत्तियाँ मुरझाकर बिखरती रहती हैं। इस नीले आकाश के नीचे न जाने कितने जीवन-इतिहास रचे जाते हैं, पर ये व्यंग्य से भरे होने के कारण पीड़ा को प्रकट करते हैं। क्या इन्हें सुनकर सुख पाया जा सकता है? मेरा जीवन तो खाली गागर के समान व्यर्थ है, अभावग्रस्त है। इस संसार में व्यक्ति स्वार्थ भरा जीवन जीते हैं। वे दूसरों के सुखों को छीनकर स्वयं सुखी होना चाहते हैं। यह जीवन की विडंबना है। कवि दूसरों के धोखे और अपनी पीड़ा की कहानी नहीं सुनाना चाहता। वह नहीं समझता कि उसके पास दूसरों को सुनाने के लिए मीठी बातें हैं। उसे अपने जीवन में सुख प्रदान करने वाली मीठी-अच्छी बातें दिखाई नहीं देतीं। उसे प्राप्त होने वाले सुख आधे रास्ते से ही दूर हो जाते हैं। उसकी यादें थके हुए यात्री के समान हैं, जिसमें कहीं सुखद यादें नहीं हैं। कोई भी उसके मन में छिपी दुखभरी बातों को क्यों जानना चाहेगा! उसके छोटे-से जीवन में बड़ी उपलब्धियाँ नहीं हैं। इसलिए कवि अपनी कहानियाँ न सुनाकर केवल दूसरों की बातें सुनना चाहता है। वह चुप रहना चाहता है। कवि को अपनी आत्मकथा भोली-भाली और सीधी-सादी प्रतीत होती है। उसके हृदय में छिपी हुई पीड़ाएँ मौन-भाव से थककर सो गई थीं, जिन्हें कवि जगाना उचित नहीं समझता। वह नहीं चाहता कि कोई उसके जीवन के कष्टों को जाने। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 सवैया और कवित्त Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 सवैया और कवित्तJAC Class 10 Hindi सवैया और कवित्त Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. (ख) रूपक – प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति, 2. भक्ति-भाव – देव चाहे शृंगारिक कवि थे, पर भारतीय संस्कारों में बँधने के कारण वे कभी नास्तिक नहीं रहे। उन्होंने अपनी कविता में बार-बार वैराग्य भावना और आस्तिकता को प्रकट किया है। वे वैष्णव थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति अपने भक्ति-भाव को प्रकट किया है – माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई, 3. प्रकृति-चित्रण – देव ने अपनी कविताओं में प्रकृति-चित्रण अति सुंदर ढंग से किया है। उनके काव्य में प्रकृति साध्य नहीं है, बल्कि साधन है। उन्होंने प्रकृति वर्णन में ऋतु वर्णन की परंपरा का पालन किया। उनकी प्रकृति संबंधी मौलिक दृष्टि की वहाँ सराहना करनी पड़ती है, जहाँ उन्होंने बसंत का अति भावपूर्ण चित्रण किया है। उन्होंने बसंत का परंपरागत वर्णन न कर उसे कामदेव के बालक के रूप में प्रकट किया है, जिसकी सेवा में सारी प्रकृति लीन हो जाती है – डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, 4. कला-पक्ष-देव ने अपने काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए शब्द शक्तियों का अच्छा प्रयोग किया है। उनके अमिधा के प्रयोग में सहजता है। उन्होंने माधुर्य और प्रसाद गुण का अच्छा प्रयोग किया है। उन्हें अनुप्रास अलंकार के प्रति विशेष मोह है- इन्होंने उपमा का भी अच्छा प्रयोग किया है। ब्रजभाषा की कोमलकांत शब्दावली का इन्होंने सार्थक और सुंदर प्रयोग किया है। इनके काव्य में तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 10. पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. इस तापमान वृद्धि का परिणाम ही है कि ध्रुवों पर जमी बर्फ की परत पिघलने लगी है। जिस ग्लेशियर से गंगा नदी निकलती है, वह तेजी से पिघलने लगा है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि आने वाले समय में धरती के वातावरण का तापमान बढ़ने के साथ-साथ जल-स्रोतों में कमी आने लगेगी। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ अर्थात ‘वैश्विक तापन’ पूरी पृथ्वी के लिए खतरे की घंटी है, जो हमारे भविष्य के लिए अति खतरनाक सिद्ध होगी। इससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने लगेगा, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र तटों पर बसे नगर डूबने लगेंगे। द्वीप पूरी तरह समुद्र में समा जाएँगे। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए कोई एक व्यक्ति या कोई एक देश कुछ नहीं कर सकता। इस समस्या से निपटने के लिए विश्व भर के देशों को एक साथ मिलकर प्रयत्न करना होगा। हमें ऐसी नीतियाँ बनाकर कठोरता से लागू करनी होंगी कि कोयले और पेट्रोल के दहन को नियंत्रित किया जाए। सौर ऊर्जा, जलीय ऊर्जा, पवन ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा, सागरीय ऊर्जा आदि का अधिकसे-अधिक प्रयोग किया जाए ताकि हवा में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन गैसें न बढ़ें। वाहनों के लिए सौर ऊर्जा या विद्युत का प्रयोग किया जाए। इस समस्या से निपटने के लिए हमारी भूमिका यह हो सकती है कि हम योजना-बद्ध तरीके से जन जागृति में सहायक बनें। जिन लोगों को इस समस्या का अभी पता नहीं है, उन्हें सचेत करें। अपने स्कूल में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करें, जिनसे बच्चे-बच्चे को इस समस्या की जानकारी मिले। आज का बच्चा ही आने वाले कल के उद्योगपति और नेता होंगे। उचित जानकारी होने पर वे : इस समस्या पर नियंत्रण पा सकेंगे। यह भी जानें – कवित्त – कवित्त वार्णिक छंद है, उसके प्रत्येक चरण में 31-31 वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के सोलहवें या फिर पंद्रहवें वर्ण पर यति रहती है। सामान्यतः चरण का अंतिम वर्ण गुरु होता है। ‘पाँयनि नूपुर’ के आलोक में भाव साम्य के लिए पढ़ें – सीस मुकुट कटि काछनि, कर मुरली उर माल। रीतिकालीन कविता की वसंत ऋतु का एक चित्रण यह भी देखिए – कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में, JAC Class 10 Hindi सवैया और कवित्त Important Questions and Answersप्रश्न 1. पाँयनि नूपुर मंजु बज, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई। कवि के पास अक्षय शब्द-भंडार है। भिन्न-भिन्न पर्याय और विशेषणों द्वारा देव ने भावों की विभिन्न छवियों को उतारा है। उन्होंने अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है – आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै, कवि के शब्दों में तत्सम की अधिकता है। तद्भव शब्दावली का उन्होंने सुंदर प्रयोग किया है। प्रश्न 2. (i) साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई। देव के बिंब विधान में संवेदनात्मक, अलंकरण और क्रमबद्धता के अतिरिक्त भावात्मक संबंध स्थापित करने की शक्ति है। प्रश्न 3. प्रश्न 4. उन्होंने श्रीकृष्ण की सुंदरता सामंती प्रवृत्ति के आधार पर की है। पाँयनि नूपुर मंजु बसें, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई। राधा अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी है। उसके सौंदर्य के सामने सारे नर-नारी पानी भरते हैं। चाँद भी उसकी सुंदरता का बिंब मात्र है – आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै, चाँदनी के रंग वाली वह स्फटिक के महल में छिपी-सी रहती है। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – सवैया – 1. पाँयनि नूपुर मंजु बसें, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई। शब्दार्थ : पाँयनि – पाँवों में। नूपुर – पायल, पाजेब। मंजु – सुंदर। कटि – कमर। किंकिनि – करधनि। लसै – शोभा देता है। पट – वस्त्र। पीत – पीला। हिये – छाती, हृदय। हुलसै – आनंदित होना। बनमाल – फूलों की माला। सुहाई – शोभा देती है। किरीट – मुकुट। दृग – आँखें। मंद – धीमी। मुखचंद – चंद्र के समान मुख। जुन्हाई – चाँदनी। प्रसंग : प्रस्तुत सवैया रीतिकालीन कवि देव के द्वारा रचित है और इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित किया गया है। इसमें कवि ने श्रीकृष्ण के बालरूप की अद्भुत सुंदरता का वर्णन किया है। व्याख्या : कवि कहता है कि श्रीकृष्ण के पाँव में पाजेब है, जो उनके चलने पर अत्यंत सुंदर ध्वनि उत्पन्न करती है। उनकी कमर में करधनी है, जो मीठी धुन पैदा करती है। उनके साँवले-सलोने अंगों पर पीले रंग के वस्त्र शोभा दे रहे हैं। उनकी छाती पर फूलों की माला शोभा देती हुई मन में प्रसन्नता उत्पन्न करती है। उनके माथे पर मुकुट है और उनकी बड़ी-बड़ी आँखें हैं, जो चंचलता से भरी हैं। उनकी मंद-मंद हँसी उनके चाँद जैसे सुंदर चेहरे पर चाँदनी की तरह फैली हुई है। संसाररूपी इस मंदिर में दीपक के समान जगमगाते हुए अति सुंदर श्रीकृष्ण की जय-जयकार हो। कवि कहता है कि जीवन में सदा श्रीकृष्ण सहायता करते रहे। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न :
अनुप्रास –
2. डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, शब्दार्थ : डार – डाली, टहनी, डालकर। द्रुम – पेड़। पलना – बच्चों का झूला। नव पल्लव – नए पत्ते। सुमन – फूल। झिंगूला – झबला, ढीला-ढाला – वस्त्र। तन – शरीर। छबि – शोभा। पवन – हवा। केकी – मोर। कीर – तोता। कोकिल – कोयल। हलावे – हिलाती है। हुलसावै – खुश करती है। कर – हाथ। तारी – ताली। उतारो करै राई नोन – जिस बच्चे को नज़र लगी हो उसके सिर के चारों ओर राई-नमक घुमाकर आग में जलाने का टोटका। कंजकली – कमल की कली। लतान – बेलें। सारी – साड़ी। मदन – कामदेव। महीप – राजा। प्रातहि – सुबह-सुबह। चटकारी – चुटकी। प्रसंग : प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ (भाग-2) में संकलित ‘कवित्त’ से लिया गया है, जिसके रचयिता रीतिकालीन कवि देव हैं। कवि ने ऋतुराज बसंत को एक बालक के रूप में प्रस्तुत किया है और प्रकृति के प्रति अपने प्रेम-भाव को प्रकट किया है। व्याख्या : कवि कहता है कि बसंत एक नन्हे बालक की तरह पेड़ की डाली पर नए-नए पत्तों के पलने रूपी बिछौने पर झूलने लगा है। फूलों का ढीला-ढाला झबला उसके शरीर पर अत्यधिक शोभा दे रहा है। बसंत के आते ही पेड़-पौधे नए-नए पत्तों और फूलों से सज-धजकर शोभा देने लगे हैं। हवा उसके पलने को झुलाती है। कवि कहता है कि मोर और तोते अपनी-अपनी आवाज़ों में उससे बातें करते हैं। कोयल उसके पलने को झुलाती है और तालियाँ बजा-बजाकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करती है। कमल की कलीरूपी नायिका सिर पर लतारूपी साड़ी से सिर ढाँपकर अपने पराग कणों से बालक बसंत की नज़र उतार रही है। बालक बसंत को दूसरों की बुरी नज़र से बचाने के लिए वह वैसा ही टोटका कर रही है, जैसा सामान्य नारियाँ बच्चे की नज़र उतारने के लिए उसके सिर के चारों ओर राई-नमक घुमाकर आग में डालने का टोटका करती हैं। यह बसंत कामदेव महाराज का बालक है, जिसे प्रातः होते ही गुलाब चुटकियाँ बजाकर जगाते हैं। गुलाब की कली फूल में बदलने से पहले जब चटकती है, तो बसंत को जगाने के लिए ही ऐसा करती है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 3. फटिक सिलानि सौं सुधार्यो सुधा मंदिर, शब्दार्थ : फटिक – स्फटिक। सिलानि – शिलाएँ, चट्टानें। सुधा – अमृत। उदधि – समुद्र। दधि – दही। अमंद – जो कम न हो, बहुत अधिक। उमगे – उमड़ना। फेन – झाग। आँगन – अहाता। फरस बंद – फ़र्श के रूप में बना हुआ ऊँचा स्थान। तरुनि – युवती। तामें – उसमें। ठाढ़ी – खड़ी। भीति – दीवार। मल्लिका – बेले की जाति का एक सफ़ेद फूल। मकरंद – पराग, फूलों का रस। आरसी – दर्पण, आईना। अंबर – आकाश। प्रतिबिंब – परछाईं। लगत – लगता है। प्रसंग : प्रस्तुत पद रीतिकालीन कवि देव के द्वारा रचित है, जो हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ (भाग-2) में संकलित है। इसमें कवि ने चाँदनी रात की आभा को अति सुंदर ढंग से प्रकट किया है। कवि ने इसके माध्यम से राधा के रूप-सौंदर्य को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। व्याख्या : कवि कहता है कि अमृत की धवलता और उज्ज्वलता वाले भवन को स्फटिक की शिलाओं से इस प्रकार बनाया गया है कि उसमें दही के समुद्र की तरंगों-सा अपार आनंद उमड़ रहा है। भवन बाहर से भीतर तक चाँदनी उज्ज्वलता से इस प्रकार भरा हुआ है कि उसकी दीवारें भी दिखाई नहीं दे रहीं। दूध के झाग जैसी उज्ज्वलता सारे आँगन और फ़र्श के रूप में बने ऊँचे स्थान पर फैली हुई है। इस भवन में तारे की तरह झिलमिलाती युवती राधा ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे मोतियों की आभा और जूही की सुगंध हो। राधा की रूप छवि ऐसी ही है। आईने जैसे साफ़-स्वच्छ आकाश में राधा का गोरा रंग ऐसे फैला हुआ है कि इसी के कारण चंद्रमा राधा का प्रतिबिंब-सा लगता है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : अनुप्रास –
उत्प्रेक्षा – व्यतिरेक – उपमा –
सवैया और कवित्त Summary in Hindiकवि-परिचय : देव रीतिकाल के कवि थे। इनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा में सन 1673 में हुआ था। यह देवसरिया ब्राह्मण थे। इन्होंने स्वयं अपने बारे में लिखा है-‘योसरिया कवि देव को, नगर इटावौ वास’। इन्हें अपने जीवनकाल में आश्रय के लिए अनेक आश्रयदाताओं के पास भटकना पड़ा। ये कुछ समय के लिए औरंगज़ेब के पुत्र आजमशाह के दरबार में भी रहे थे, पर इन्हें जितना संतोष और सुख भोगीलाल नामक आश्रयदाता से प्राप्त हुआ, उतना किसी और से नहीं मिल सका। इनका देहांत सन 1767 में हुआ था। रचनाएँ-देव के द्वारा रचित ग्रंथों की निश्चित संख्या अभी तक ज्ञात नहीं है। कुछ विद्वानों ने इनके ग्रंथों की संख्या 52 मानी है, तो किसी ने 72 तक स्वीकार की है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनकी संख्या 25 मानी है। इनके ग्रंथों की संख्या की अनिश्चितता का कारण यह है कि ये अपनी पुरानी रचनाओं में ही थोड़ा-बहुत हेर-फेर करके नया ग्रंथ तैयार कर देते थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-भावविलास, रसविलास, काव्यरसायन, भवानीविलास, अष्टयाम, प्रेम तरंग, सुखसागर-तरंग, देव चरित्र, देव माया प्रपंच, शिवाष्टक, शब्द रसायन, देव शतक, प्रेम चंद्रिका आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-देव की कविता का प्रमुख विषय शृंगार था। इन्होंने प्रायः राधा-कृष्ण के माध्यम से शृंगारिक भावनाओं को प्रकट किया है। इन्होंने संयोग श्रृंगार की रचना अधिक की है। वियोग श्रृंगार में इन्होंने विभिन्न भाव दशाओं का वर्णन किया है। देव ने वैराग्य और भक्ति-भावना का सुंदर वर्णन किया है। ये शरीर और शारीरिक क्रियाओं को माया का बंधन मानते थे। इस संसार में कोई भी मौत से बच नहीं सकता, इसलिए इसकी क्षणभंगुरता देखकर इनके हृदय में इसके प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है। देव ने आचार्य-कर्म को पूरा किया था और ‘शब्द रसायन’ के द्वारा काव्य की विभिन्न विशेषताओं का चित्रण किया था। इनके काव्य में दार्शनिकता के बार-बार दर्शन होते हैं। ये ब्रह्म को एक और सर्वव्यापक मानते हैं। उसका न तो आरंभ है और न ही अंत; वह निर्गुण भी है और सगुण भी; वह अनंत, नित्य, सत्य और शाश्वत है। उसका वर्णन वेद भी नहीं कर सकते – पै अपने ही गुन बंधे, माया को उपजाइ। देव के काव्य में प्रकृति का सुंदर चित्रण है। इनकी कविता में दरबारी संस्कृति का अधिक चित्रण हुआ है। इनकी कविता में दरबारों, आश्रयदाताओं की प्रशंसा भी की गई है। इन्होंने प्रेम और सौंदर्य के सहज चित्र खींचे हैं। देव ने अपनी कविता ब्रजभाषा में रची थी। इन्हें अनुप्रास अलंकार के प्रति विशेष मोह था। इन्होंने शब्द-शक्तियों का अच्छा प्रयोग किया है। छंद-योजना में लय और तुक का उन्होंने विशेष ध्यान रखा है। इनकी कविता में तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है। देव वास्तव में बहुत अच्छे भाषा शिल्पी थे। कवित्त-सवैयों का सार : देव के द्वारा रचित कवित्त-सवैयों में जहाँ एक ओर रूप-सुंदरता का अलंकारिक चित्रण किया गया है, वहीं दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति मनोरम भाव अभिव्यक्त किए गए हैं। पहले सवैये में श्रीकृष्ण के सौंदर्य का चित्रण किया गया है। इसमें उनका लौकिक रूप नहीं, बल्कि सामंती वैभव दिखाया गया है। उनके पाँवों में नूपुर मधुर ध्वनि उत्पन्न करते हैं और कमर में बँधी करधनी मीठी धुन-सी पैदा करती है। उनके साँवले रंग पर पीले वस्त्र और गले में फूलों की माला शोभा देती है। उनके माथे पर सुंदर मुकुट है और चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान चाँदनी के समान बिखरी हुई है। इस संसाररूपी मंदिर में उनकी शोभा दीपक के समान फैली हुई है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक के रूप में दिखाकर प्रकृति के साथ उसका संबंध जोड़ा गया है। बालकरूपी बसंत पेड़ों के नए-नए पत्तों के पलने पर झूलता है और तरह- : तरह के फूल उनके शरीर पर ढीले-ढाले वस्त्रों के रूप में सजे हुए हैं। हवा उन्हें झुलाती है, तो मोर और तोते उससे बातें करते हैं। कोयल उसे बहलाती है। कमल की कलीरूपी नायिका उसकी नज़र उतारती है। कामदेव के बालक बसंत को सुबह-सवेरे गुलाब चुटकी दे-देकर जगाते है। तीसरे कवित्त में पूर्णिमा की रात में चाँद तारों से भरे आकाश की शोभा का वर्णन किया गया है। चाँदनी रात की शोभा को दर्शाने के लिए कवि ने दूध में फेन जैसे पारदर्शी बिंबों का प्रयोग किया है। चाँदनी बाहर से भीतर तक सर्वत्र फैली है। तारे की तरह झिलमिलाती । राधा अनूठी दिखाई देती है। उसके शरीर का अंग-प्रत्यंग अद्भुत छटा से युक्त है। चाँदनी जैसे रंग वाली राधा चाँदनी रात में स्फटिक के महल में छिपी-सी रहती है। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवादJAC Class 10 Hindi राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. राम ने परशुराम के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया, तो लक्ष्मण ने अपनी व्यंग्यपूर्ण वाणी से उन्हें उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परशुराम के क्रोध करने पर राम शांत भाव से बैठे थे, पर लक्ष्मण उन पर व्यंग्य करते हुए उन्हें उकसाते रहे। राम ऋषि-मुनियों का आदर-सम्मान करने वाले थे, पर लक्ष्मण का स्वभाव ऐसा नहीं था। लक्ष्मण की वाणी परशुरामरूपी यज्ञ की अग्नि में आहुति के समान थी, तो राम की वाणी शीतल जल के समान उस अग्नि को शांत करने वाली थी। प्रश्न 3. लक्ष्मण-ब्राहमण देवता! यदि आप मुझे मारेंगे, तो भी मैं आपके पैरों में ही पड़ेगा। मुनिवर! आपकी बात ही अनूठी है। परशराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए? बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥ भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही। सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।। मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर। गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥ परशुराम ने अपने विषय में कहा कि वे बाल ब्रह्मचारी हैं; स्वभाव के अति क्रोधी हैं। सारा संसार जानता है कि वे क्षत्रिय वंश के नाशक हैं। उन्होंने पृथ्वी से क्षत्रिय राजाओं को समाप्त कर देने की प्रतिज्ञा कर रखी है। न जाने उन्होंने कितनी बार अपने बाहुबल से पृथ्वी के क्षत्रिय राजाओं का वध कर उनके राज्य ब्राहमणों को सौंप दिए हैं। वे सहस्रबाहु जैसे अपार बलशाली की भुजाओं को काट देने वाले पराक्रमी वीर हैं। उन्होंने अपने फरसे से लक्ष्मण को डराने के लिए कहा कि अरे राजा के बालक ! तू मेरे द्वारा मारा जाएगा। क्यों अपने माता-पिता को चिंता में डालता है? वे मानते थे कि उनका फ़रसा बड़ा भयानक है, जो गर्भ में ही बच्चों का नाश कर देने वाला है। गुस्सा आने पर वे छोटे-बड़े में कोई अंतर नहीं करते; वे किसी का भी वध कर देते हैं। प्रश्न 5. प्रश्न 6. साहस और धैर्य ‘असमय के सखा’ हैं, जिन्हें शक्ति की सहायता से बनाकर रखा जाना चाहिए पर उसके साथ विनम्रता का बना रहना आवश्यक है। बिनम्न व्यक्ति ही किसी के साथ होने : वाले अन्याय के विरोध में खड़ा हो सकने का साहस करता है। भगवान विष्णु को जब भृगु ने ठोकर मारी थी और उन्होंने साहस व शक्ति होने के बावजूद विनम्नता का प्रदर्शन किया था, तभी उन्हें देवों में से सबसे बड़ा मान लिया गया था। समाज में सदा से माना गया है कि अशक्त और असहाय की याचनापूर्ण करुण दृष्टि से जिसका हृदय नहीं पसीजा, भूखे व्यक्ति को अपने खाली पेट पर हाथ फिराते देखकर जिसने अपने सामने रखा भोजन उसे नहीं दे दिया, अपने पड़ोसी के घर में लगी आग को देखकर उसे बुझाने के लिए वह उसमें कूद नहीं पड़ा-बह मनुष्य न होकर पशु है, क्योंकि साहस और शक्ति होते हुए अन्याय का प्रतिकार न करना कायरता है। साहस और शक्ति के साथ विनम्रता मानव का सदा हित करती है। गुरु नानक देव ने कहा भी है – जो प्राणी ममता तजे, लोभ, मोह, अहंकार साहस और शक्ति अनेक प्राणियों में होती है, पर विनम्रता के अभाव के कारण वे कभी भी समाज में प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाते। जब हमारे हृदय में विनम्रता का भाव होता है, तभी हम स्वयं को भुलाकर दूसरों के कष्टों को कम करने की बात सोचते हैं। सच्ची मनुष्यता इसी बात में छिपी हुई है कि मनुष्य साहस और शक्ति होने के साथ विनम्रता को हमेशा महत्त्व दें। भगवान शिव इसलिए पूजनीय है कि उन्होंने साहस और शक्ति से संपन्न होते हुए विनम्रता का परिचय दिया था। उन्होंने विषपान कर देवताओं और दानवों की रक्षा की थी। भर्तृहरि ने राक्षस और मनुष्य का अंतर विनम्रता के आधार पर ही किया है। जो विनम्र है, वही महापुरुष है और जो अपने साहस व शक्ति को स्वार्थ के लिए प्रयोग करता है, वहीं राक्षस है। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है – यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे। वास्तव में साहस और शक्ति के साथ विनम्नता ही मानव को मानव बनाती है। प्रश्न 7. आप स्वयं को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं और बार-बार कुल्हाड़ी दिखाकर डराना चाहते हैं। आप फूंक मारकर पहाड़ उड़ाने का कार्य करना चाहते हैं। भाब है कि राम और लक्ष्मण ऐसे क्षत्रिय बीर नहीं थे, जो सरलता और सहजता से परशुराम से हार जाते। (ख) कवि ने यहाँ परशुराम के झूठे अभिमान को काव्य रूनि के माध्यम से स्पष्ट किया है। समाज में पुरानी उक्ति है कि कुम्हड़े के छोटे कच्चे फल की ओर तर्जनी का संकेत करने से बह मर जाता है। लक्ष्मण कुम्हड़े के कच्चे फल जैसे कमजोर नहीं थे, जो परशुराम की धमकी मात्र से भयभीत हो जाते। लक्ष्मण ने यदि उनसे अभिमानपूर्वक कुछ कहा था तो वह उनके अस्त्र-शास्त्र और फरसे को देखकर कहा था। विश्वामित्र ने परशुराम की अभिमानपूर्वक प्रकट कहीं जाने वाली उनकी वीरता संबंधी बातों को सुनकर मन-ही-मन कहा था कि मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है। वे सामान्य क्षत्रियों को युद्ध में हराते रहे हैं, इसलिए उन्हें लगने लगा है कि वे राम-लक्ष्मण को भी युद्ध में आसानी से हरा देंगे। पर वे यह नहीं समझ पा रहे, कि ये दोनों साधारण क्षत्रिय नहीं हैं। ये गन्ने से बनी खाँड के समान नहीं, बल्कि फौलाद के बने खाँडे के समान हैं। मुनि व्यर्थ में बेसमझ बने हुए हैं और इनके प्रभाव को नहीं समझ पा रहे। प्रश्न 8. गोस्वामी जी ने प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। रस की अनुकूलता के अतिरिक्त उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए। उनकी भाषा सर्वत्र भावों और विचारों की सफल अभिव्यक्ति में समर्थ दिखाई देती है। गुण के सहारे रस की अभिव्यक्ति करने में उन्होंने सफलता पाई है। उनकी भाषा की वर्ण मैत्री दर्शनीय है। उन्होंने नाद सौंदर्य का पूरा ध्यान रखा है। बास्तब में भाषा पर जैसा अधिकार तुलसीदास का है, वैसा किसी और हिंदी कवि का नहीं है। प्रश्न 9. (i) बिहसि लखनु बोले मदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी। (ii) इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥ लक्ष्मण ने व्यंग्य करते हुए परशुराम से कहा कि वे जो चाहते हैं, वह कह देना चाहिए। उन्हें क्रोध रोककर असह्य दुख नहीं सहना : चाहिए। परशुराम तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार बुलाते थे। भला इस संसार में ऐसा कौन था, जो उनके शील को नहीं जानता था। वे संसार में प्रसिद्ध थे। लक्ष्मण कहते हैं कि वे अपने माता-पिता के ऋण से मुक्त हो चुके थे; अब उन्हें अपने गुरु के ऋण से : भी मुक्त हो जाना चाहिए। सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गये व्याज बड़ बाढ़ा। वास्तव में तुलसीदास ने परशुराम के स्वभाव और उनके कश्चन के ढंग पर व्यंग्य कर अनूठे सौंदर्य की प्रस्तुति की है। प्रश्न 10. रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 11. जो व्यक्ति कभी क्रोध नहीं करता और जीवन में सकारात्मकता हूँढना चाहता है, लोग उसे कमजोर और कायर मानने लगते हैं। छोटे बच्चे भी क्रोध को रोकर या दुख प्रकर कर व्यक्त करते हैं। बिना दुखा के क्रोध उत्पन्न हो नहीं होता। क्रोध में सदा बदले की भावना छिपी हुई नहीं होती, बल्कि इसमें स्वरक्षा की भावना भी मिली होती है। यदि कोई हमें दो-चार टेढ़ी बातें कह जाए, तो उस दुख से बचने के लिए आवश्यक है कि क्रोध करके उसे बतला दिया जाए कि उसका स्थान कौन-सा है और कहाँ है? क्रोध दूसरों में भय को उत्पन्न करता है। जिस पर क्रोध प्रकट किया जाता है, यदि वह डर जाता है तो नम्र होकर पश्चात्ताप करने लगता है। इससे क्षमा का अवसर सामने आता है। विपक्ष में – क्रोध एक मनोविकार है, जो दुख के कारण उत्पन्न होता है। प्रायः लोग अपनों पर अधिक क्रोध करते हैं। एक शिशु अपनी माता की आकृति से परिचित हो जाने के बाद जान जाता है कि उसे भोजन उसी से प्राप्त होगा। तब भूखा होने पर वह उसे देखते ही रोने लगता है और अपने क्रोध का आभास दे देता है। क्रोध चिड़चिड़ाहट को उत्पन्न करता है। प्रायः क्रोध करने वाला उस तरफ़ देखता है, जिधर वह क्रोध करता है। क्रोध से क्रोध ही उत्पन्न होता है। क्रोध न करने वाला व्यक्ति अपनी बुद्धि या विवेक पर नियंत्रण रखता है, जिस कारण वह अनेक अनर्थों से बच जाता है। महात्मा बुद्ध, गुरु नानक देव, महात्मा गांधी आदि जैसे महापुरुषों ने अपने क्रोध पर विजय पाकर संसार भर में अपना नाम अमर कर लिया। क्रोध से बचकर हम अपना आत्मिक बल बढ़ा सकते हैं और आंतरिक शक्तियों को अनुकूल कार्यों की ओर लगा सकते हैं। बाल्मीकि ने क्रोध पर विजय प्राप्त कर आदिकवि होने का यश प्राप्त कर लिया था। क्रोध पर नियंत्रण पाकर वैर से बचा जा सकता है। अतः जहाँ तक संभव हो सके, मनुष्य को क्रोध से बचकर जीवन जीना चाहिए। प्रश्न 12. प्रश्न 13. चमचमाते फर्श, साफ-सुथरी दीवारें चुस्त कर्मचारी उनके नर्सिंग होम की पहचान है, जिसमें डॉ. सिंगला के स्वभाव की पहचान साफ़ झलकती है। वे मृदुभाषी हैं। उनके रोगियों का आधा रोग तो उनसे बातचीत करके ही दूर हो जाता है। उन्हें पेड़-पौधे लगाने का शौक है। रंग-बिरंगे फूल, झाड़ियाँ और बेलें उनके घर में महकती रहती हैं। अपने व्यस्त समय में से वे कुछ घड़ियाँ इनके लिए निकाल लेते हैं। वे बहुत मिलनसार हैं। नगर के बहुत कम लोग ही ऐसे होंगे, जो उन्हें जानते-पहचानते न हों। वे अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर समाज-सेवा के कार्यों में सहयोग दे रहे हैं। वे सभी के सुख-दुख में सहायता करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। उनका व्यक्तित्व उन्हें जानने-पहचानने वाले सभी लोगों को एक उत्साह-सा प्रदान करता है। प्रश्न 14. प्रश्न 15. मैं चुपचाप वहाँ से चला आया। मैं स्कूल के प्राचार्य के पर गाया और उनसे बात की। उन्होंने मुझे समझाया और कहा कि वे स्कूल में इंचार्ज से बात करके मुझे बताएँगे। मैं नहीं जानता कि प्राचार्य महोदय की सर से क्या बात हुई, पर सातवें पीरियड में स्कूल का चपरासी एक नोटिस लाया कि शाम को मुझे खेलने के लिए पहले की तरह ही पहुँचना है। दुसरी घटना- मेरे घर के बाहर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। मैं उन्हें खेलता हुआ देख रहा था। जैसे ही एक लड़के ने बॉल को हिट किया, तो वह उछलकर खिड़की से टकराई और शीशा टूट गया। बच्चों ने शीशा टूटता देखा और वहाँ से भागे। एक छोटा लड़का वहाँ खड़ा था। वह खेल नहीं रहा था, बस खेल देख रहा था। मेरा बड़ा भाई साइकिल पर कहीं बाहर से आ रहा था। उसने लड़कों को भागते और खिड़को के टूटे शीशे को देखा। उसने झपटकर उस छोटे लड़के को पकड़ लिया। इससे पहले कि वह उस पर हाथ उठा पाता, मैंने उसे ऐसा करने से रोका क्योंकि शीशा तोड़ने में लड़के का कोई हाथ नहीं था। प्रश्न 16. पाठेतर सक्रियता – 1. तुलसी की रचनाएँ पुस्तकालय से लेकर पढ़ें। यह भी जानें – दोहा : दोहा एक लोकप्रिय मात्रिक छंद है जिसकी पहली और तीसरी पंक्ति में 13-13 मात्राएँ होती है और दूसरी और चौथी पंक्ति में 11-11 मात्राएँ। चौपाई : मात्रिक छंद चौपाई चार पंक्तियों का होता है और इसकी प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ होती हैं। परशुराम और सहस्रबाहु की कथा पाठ में ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ का उल्लेख आया है। परशुराम और सहसबाहु के बैर की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। महाभारत के अनुसार यह कथा इस प्रकार है – इस पर क्रोधित होकर परशुराम ने सहसबाहु का वध कर दिया। इस कार्य की ऋषि जमदग्नि ने घोर निंदा की थी और परशुराम को प्रायश्चित करने के लिए कहा था। क्रोध में भर कर सहसबाहु के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी थी। इस पर पुनः क्रोधित होकर परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय बिहीन करने की प्रतिज्ञा की। JAC Class 10 Hindi राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Important Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. पठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा। (क) श्रीराम ने परशुराम के लिए किस शब्द का संबोधन किया? (ख) भंजनिहारा का अर्थ है – (ग) धनुष था (घ) परशुराम शिव-धनुष तोड़ने वाले को किसके समान अपना शत्रु मानते हैं? (ङ) किसने शिव-धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई? 2. बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी। (क) लखनु कौन है? (ख) परशुराम किस प्रकार लक्ष्मण को डरा रहे हैं? (ग) ‘कुम्हड़ बतिया’ का यहाँ क्या भाव है? (घ) कुम्हड़ बतिया किसको देखकर मर जाती है? (ङ) लक्ष्मण की मृदु वाणी सुनकर परशुराम कैसी प्रतिक्रिया कर रहे हैं? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) ‘राम-लक्ष्मण’ का संवाद किससे हुआ? (ख) राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद में किस भाषा का प्रयोग किया गया है? (ग) तुलसीदास जी ने प्रस्तुत पद में किन छंदों का प्रयोग किया है? (घ) तुलसीदास ने ‘भृगुकुल केतु’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त किया है। (अ) ‘अपमय खाँड न अखमय’ में अपमय’ का क्या अर्थ है? सप्रसंग व्याख्या, अर्थगता संबंधो एवं सौंयँ-सरहुना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥ शब्दार्थ : नाथ – स्वामी। संभुधनु – शिवजी का धनुष। भंजनिहारा – तोड़ने वाला। आयेसु – आज्ञा। रिसाइ – क्रोध करना। कोही – क्रोधी। सो – वह। सेवकाई – सेवा। अरि – शत्रु। जेहि – जिसने। रिपु – शत्रु। बिलगाउ – अलग होना। लरिकाई – बचपन में। अवमाने – अपमान करना। रिस – गुस्सा करना। भृगुकुलकेतू – ब्राह्मण कुल के केतु, परशुराम। सम – समान। तिपुरारि – भगवान, शिव। प्रसंग : प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संबाद’ से लिया गया है। मूल रूप से यह गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड में निहित है। गुरु विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण सीता स्वयंवर के अवसर पर राजा जनक की सभा में गए थे। राम ने वहाँ शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था। परशुराम ने क्रोध में भरकर इसका विरोध किया था। तब राम ने उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया था। व्याख्या : श्रीराम ने परशुराम को संबोधित करते हुए कहा कि ‘हे नाथ! भगवान शिव के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई दास ही होगा। क्या आज्ञा है, आप मुझसे क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर क्रोधी मुनि गुस्से में भरकर बोले-“सेवक वह होता है, जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करने वाले से लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! जिसने भगवान शिव के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान ही मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो इस सभा में उपस्थित सभी राजा मारे जाएंगे।” मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराए और परशुराम का अपमान करते हुए बोले-‘हे स्वामी! अपने बचपन में हमने बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ डाली थी। किंतु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। आपको इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है?” यह सुनकर भृगु वंश की ध्वजा के रूप में परशुराम गुस्से में भरकर कहने लगे-“अरे राजपुत्र! अमराज के वश में होने के कारण तुझे बोलने में कुछ होश नहीं है। सारे संसार में प्रसिद्ध भगवान शिव का धनुष क्या धनुही के समान है? तुम्हारे द्वारा शिवजी के धनुष को धनुही कहना तुम्हारा दुस्साहस है।” अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर : 1. पद में निहित भावों को स्पष्ट कीजिए। सौदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. कवि ने किस प्रकार पद में नाटकीयता उत्पन्न की है? 2. लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। शब्दार्थं : छति – हानि। लाभु – लाभ। नयन – नया। भोरे – धोखे। दोसू – दोष। रोसू – क्रोध। सठ – दुष्ट। सुभाउ – स्वभाव। जड़ – मूर्ख। मोही – मुझे। बिस्व – संसार, विश्व। विदित – विख्यात। महिदेव – ब्राह्मण। बिलोकु – देखकर। महीपकुमार – राजकुमार। अर्भक – बच्चा। दलन – नाश। प्रसंग : प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड से लिया गया है। ‘सीता स्वयंवर’ के समय श्रीराम ने शिव का धनुष तोड़ दिया था, जिस कारण परशुराम क्रोध में भर गए। लक्ष्मण के द्वारा व्यंग्य करने पर परशुराम का गुस्सा भड़क गया, पर उनके गुस्से का लक्ष्मण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। व्याख्या : लक्ष्मण ने हंसकर कहा कि ‘हे देव ! सुनिए ! हमारे लिए तो सभी धनुष एक-से ही हैं। पुराने धनुष को तोड़ने में क्या लाभ और क्या हानि! श्री रामचंद्र ने इसे नया समझ कर धोखे से देखा था। फिर यह छुते ही टूट गया। इसमें रघुकुल के स्वामी श्रीराम का कोई दोष नहीं है। हे मुनि! आप बिना किसी कारण के क्रोध क्यों करते हैं?’ परशुराम ने अपने फ़रसे की ओर देखकर कहा-“अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना? मैं तुम्हें बालक समझकर नहीं मार रहा हूँ। अरे मूर्ख ! क्या तू मुझे निरा मुनि हो समझता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी स्वभाव का हूँ। मैं क्षत्रिय कुल का शत्रु विश्व भर में प्रसिद्ध हूँ। आपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और कई बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काट देने वाले मेरे इस फरसे को देख ! अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को चिंता के वश में न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है। यह गर्भ के बच्चों का भी नाश करने वाला है। यह छोटे-बड़े किसी की भी परवाह नहीं करता।” अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. पद में निहित भाव स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. पद की भाषा कौन-सी है?
अतिशयोक्ति –
3. बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी॥ शब्दार्थ : बिहसि – हँस कर। मृदु बानी – कोमल वाणी। महाभट – महायोद्धा। मानी – समझते हैं। कुठारु – कुल्हाड़ी। कुम्हड़बतिआ – बहुत कमजोर, निर्बल व्यक्ति, काशीफल या कुम्हड़े का बहुत छोटा फल। तरजनी – अँगूठे के पास की उँगली। सरासन – धनुष। जनेउ – यज्ञोपवीत। बिलोकी – देखकर। रिस – गुस्सा। सुर – देवता। महिसुर – ब्राह्मण। हरिजन – भागवान के भक्त। अपकीरति – अपयश। मारतहू — आप मारें तो भी। पा – पैर। कोटि – करोड़ों। कुलिस – बज। बिलोकि – देखकर। गिरा – वाणी। प्रसंग : प्रस्तुत पद तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीना-स्वयंबर के समय श्रीराम ने शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था, जिस कारण परशुराम क्रोधित हो गए थे। लक्ष्मण ने उन पर व्यंग्य किया था, जिससे परशुराम का गुस्सा भड़क उठा था। व्याख्या : लक्ष्मण ने हँस कर कोमल वाणी में कहा-“अहो ! मुनीश्वर तो अपने आप को बड़ा वीर योद्धा समझते हैं। मुझे देखकर ये बार-बार अपनी कुल्हाड़ी दिखाते हैं। ये तो फैंक से पहाड़ उड़ा देना चाहते हैं। यहाँ कोई काशीफल या कुम्हड़े के फूल से बना छोटा-सा फल नहीं है, जो आपके अंगूठे के साथ वाली उँगली को देखकर ही मर जाए। मैंने जो कुछ कहा है, वह आपके कुल्हाड़े और धनुष-बाण को देखकर ही अभिमान सहित कहा है। भृगुवंशी समझकर और आपका यज्ञोपवीत देखकर आप जो कुछ कहते हैं, उसे मैं अपना गुस्सा रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गौ-इन पर हमारे कुल में अपनी वीरता का प्रदर्शन नहीं किया जाता, क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है। इसलिए यदि आप मारे, तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वजों के समान है। धनुष-बाण और कुल्हाड़ा तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। आपके इस धनुष-बाण और कुल्हाड़े को देखकर मैंने कुछ अनुचिता कहा हो, तो हे धौर महामुनि। आप क्षमा कीजिए।” यह सुनकर भृगु वंशमणि परशुराम क्रोध के साथ गंभीर वाणी में बोले। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर। 1. पद में निहित भाव स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. कवि के द्वारा किस भाषा का प्रयोग किया गया है? 4. कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल्ल घालकु॥ शब्दार्थ : कौसिक – विश्वामित्र। भानु बंस – सूर्यवंशी। राकेस – चंद्र। निपट – बिलकुल। निरंकुसु – उदंड। अवधु – मूर्ख। कालकवलु – काल का ग्रास। खोरि – दोष। मोहि – मेरा। हटकहु – मना करो, रोको। उबारा – बचाना। रोषु – क्रोध। बरनी – वर्णन। दुसह – असह्य। सूर – शूरवीर। समर = बुद्ध। रन – युद्ध। रिपु – शत्रु। प्रसंग : प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है. मूल रूप से यह तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड में निहित है। सीता स्वयंवर के समय राम ने शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था, जिस कारण परशुराम क्रोध से भर गए थे। लक्ष्मण ने उन पर व्यंग्य किया था, जिस कारण उनका क्रोध और अधिक बढ़ गया था। व्याख्या : परशुराम ने राम और लक्ष्मण के गुरु विश्वामित्र को संबोधित करते हुए कहा कि ‘हे विश्वामित्र! सुनो! यह बालक बड़ा कुबुद्धिपूर्ण और कुटिल है। काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशरूपी चंद्रमा का कलंक है। यह बिलकुल उदंड, मूर्ख और निडर है। अभी क्षण भर बाद यह मौत के देवता काल का ग्रास बन जाएगा। मैं पुकार कर कहे देता हूँ कि इसके मर जाने के बाद फिर मुझे दोष नहीं देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो इसे हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर ऐसा करने से रोक दो?’ लक्ष्मण ने तब कहा-‘हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते और कौन वर्णन कर सकता है ? आपने पहले ही अनेक बार अपने मुँह से अपनी करनी का कई तरह से वर्णन किया है। यदि इतने पर भी आपको संतोष न हुआ हो, तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुख मत सहो। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और ओभ रहित हैं। गाली देते हुए आप शोभा नहीं देते। शूरवीर तो युद्ध में अपनी शूरवीरता का कार्य करते हैं। वे बातें कहकर अपनी वीरता को प्रकट नहीं करते। शत्रु को युद्ध में पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींगें हाँका करते हैं। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. पद में निहित भाव स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. तुलसीदास ने लक्ष्मण और परशुराम के स्वभाव के किन गुणों/ अवगुणों को प्रकट किया है? मानवीकरण – रूपक – 5. तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।। शब्दार्थ : मोहि लागि- मेरे लिए। परसु – फ़रसा। कर – हाथ। बधजोगू – वध के योग्य। कटुबादी – कड़वा बोलने वाला। बिलोकि – देखकर। बाँचा – बचाया। मरनिहार – मरने को। साँचा – सचमुच। कौसिक – विश्वामित्र। खर कुठार – तीखी धार का कुठार। गाधिसून – विश्वामित्र। हरियो – हरा ही हरा। प्रसंग : प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड से लिया गया है। सौता-स्वयंवर के अवसर पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच शिव-धनुष के भंग होने के कारण विवाद हुआ था। व्याख्या : लक्ष्मण ने कहा कि ‘हे मुनिवर परशुराम ! आप तो मानो काल को बार-बार हाँक लगाकर उसे मेरे लिए बुलाते हैं लक्ष्मण के कठोर वचन सुनते ही परशुराम ने अपने फ़रसे को सुधार कर हाथ में ले लिया और कहा कि “अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़वा बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। बालक समझकर मैंने इसे बहुत देर तक बचाया, लेकिन अब यह सचमुच मरने को आ गया है। तब गुरु विश्वामित्र ने कहा-“अपराध क्षमा कीजिए मुनिवर ! बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते।” परशुराम बोले-“मेरा तीखी धार का फरसा, मैं दयारहित और क्रोधी हूँ। मेरे सामने यह गुरुद्रोही और अपराधी उत्तर दे रहा है। इतने पर ही मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। हे ऋषिवर! मैं इसे केवल आपके शोल और प्रेम के कारण बिना मारे छोड़ रहा हूँ। नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े से परिश्रम से ही गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता।” विश्वामित्र ने मन-ही-मन हैसकर कहा-“मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है। अन्य सभी जगह पर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। पर वे लोहे से बनी हुई खाँड (खाँडा-खड्ग) हैं; गन्ने की खाँड नहीं, जो मुँह में डालते ही गल जाती है। मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं और इनके प्रभाव को समझ नहीं पा रहे।” अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. पद में निहित भाव को स्पष्ट कीजिए। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. तुलसीदास ने किस-किसके स्वभाव का सटीक वर्णन किया है? उत्प्रेक्षा – पुनरुक्तिप्रकाश – रूपकातिशयोक्ति – अनुप्रास –
6. कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।। शब्दार्थ : कहेउ – कहा। विदित – जानता। उरिन – ऋण से मुक्त। व्यवहारिआ – हिसाब करने वाला। कटु – कड़वा। मोही – मुझे। बिन – ब्राह्मण। नृपद्रोही – राजाओं के शत्रु। सुभट – अच्छे बलवान वीर। रन – युद्ध। द्विज – ब्राह्मण। सयनहि – संकेत से; इशारे से। नेवारे – रोक दिया। सरिस – समान। कोपु – क्रोध। कृसानु – आग। रघुकुलभानु – रघुकुल के सूर्य। प्रसंग : प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘ रामचरितमानस’ के ‘बालकांड” से लिया गया है। सीता स्वयंवर के समय शिवजी के धनुष टूट जाने पर लक्ष्मण और परशुराम में विवाद हुआ था, जिसे राम ने अधिक बढ़ने से पहले ही रोक दिया था। व्याख्या : लक्ष्मण ने कहा-‘हे मुनि! आपके शोल को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता के ऋण से तो भली-भाँति मुक्त हो चुके हैं। अब आप पर गुरु का ऋण रह गया है, जिसका आपके मन पर बड़ा बोझ है। आपको उसकी चिंता सता रही है। वह ऋण मानो हमारे ही माथे निकाला था। बहुत दिन बीत गए। इसमें व्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर उधार चुका हूँ।” लक्ष्मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने अपना फ़रसा संभाला। सारी सभा हाय ! हाय ! करके पुकार उठी। लक्ष्मण ने कहा-‘”हे भृगु श्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं आपको ब्राह्मण समझकर अब तक बचा रहा है। लगता है कि आपको कभी रणधीर, बलवान वोर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता! आप घर ही में बड़े हैं।” यह सुनते ही सभी लोग पुकार उठे कि ‘यह अनुचित है ! अनुचित है!’ तब रघुकुलपति श्रीराम ने संकेत से लक्ष्मण को रोक दिया। आहुति के समान लक्ष्मण के उत्तर से परशुराम को क्रोधरूपी आग को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीराम ने जल के समान शीतल वचन कहे। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. लक्ष्मण ने परशुराम पर क्या व्यंग्य किया? सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – 1. कवि ने किम भाषा का प्रयोग किया है? उपमा – अनुप्रास – व्याज बड़ बाढ़ा, बिन बिचारि बचौं राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Summary in Hindiकवि-परिचय : तुलसीदास राममार्गीं शाखा के प्रतिनिधि कवि, हिंदी सहित्य के गौरव तथा भारतीय संस्कृति के रक्षक माने जाते हैं। इनकी रचनाएँ भारतीय धर्म एवं आस्था की प्रतीक बन गई हैं। तुलसीदास का जन्म सन 1532 ई० में उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िले के राजापुर ग्राम में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्मस्थान सोरों (ज़िला एटा) भी मानते हैं। वे जाति से सरयूपारी ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का बचपन बड़ी कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। इनके पिता ने इन्हें मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण त्याग दिया था। बाद में नरहरि बाबा ने इनका पालन-पोषण किया। उनकी कृपा से तुलसीदास ने पुराण, वेद, इतिहास एवं दर्शन का खूब अध्ययन किया। कहते हैं कि तुलसीदास यौवनकाल में अपनी पली पर विशेष अनुरक्त थे। लेकिन पल्नी की फटकार ने इनकी जीवन-दिशा को बदल दिया। इन्होंने अपना जीवन राम के चरणों में अर्पित कर दिया। भगवान राम के प्रति इनके मन में अगाध श्रद्धा थी। इन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा राम-काव्य को उत्कर्ष प्रदान किया। सन 1623 ई० में काशी में इनका देहांत हो गया। इनके निधन के विषय में निम्नलिखित दोहा प्रचलित है- संबत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर। तुलसीदास ने अपना सारा जीवन राम की आराधना में लगा दिया। इनके द्वारा रचित बारह रचनाएँ हैं, जिनमें रामचरितमानस तथा विनय-पत्रिका इसके अतिरिक्त तुलसीदास ने हनुमान-चालीसा, दोहावली, कवितावली, गीतावली आदि की रचना भी की। तुलसीदास के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता समन्वय की भावना है। इनके काव्य को समन्वय की विराट चेष्टा कहा गया हैं। अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण ही तुलसीदास लोकनायक के आसन पर आसीन हुए। लोकसंग्रह का भाव तुलसी की भक्ति का अभिन्न अंग था। इसलिए इनकी भक्ति कृष्णभक्त कवियों के समान एकांगी न होकर सवांगपूर्ण हैं। तुलसीदास का भाव-जगत पर पूर्ण अधिकार था। वे अपनी रचनाओं में; विशेषकर ‘मानस’ में; मार्मिक स्थलों के चयन में विशेष सफल रहे हैं। तुलसीदास ने श्रृंगार-रस का चित्रण मर्यदा के भीतर रहकर किया है। वात्सल्य-रस के चित्रण में भी इन्हें पूर्ण सफलता मिली है।तुलसी-काव्य में शांत-रस एवं करुण-रस की प्रधानता रही है। अन्य रसों का भी प्रसंगानुकूल वर्णन मिलता है। तुलसीदास ने धर्म का स्वस्थ रूप सामने रखकर अपने काव्य की रचना की हैं। विनय-पत्रिका में तुलसीदास की दास्य भाव की भक्ति का आदर्श निहित है। भाषा, अर्थ-गौरव एवं पांडित्य तीनों दृष्टियों से विनय-पत्रिका अपना विशिष्ट स्थान रखती है। तुलसी की विनय की अभिव्यक्ति उनके भक्त-हृदय की परिचायक है – ऐसो को उदार जग माहीं। तुलसीदास ने अपने पात्रों में आदर्श को प्रतिष्ठा दिखाकर उनके चरित्र को अनुकरण का विषय बना दिया है। इन्होंने पात्रों के माध्यम से अनेक आदर्श हमारे सामने रखे। सामाजिक मर्यादाओं के प्रकाश में इन्होंने धर्म को नवीन रूप प्रदान किया। इन्होंने मानस में व्यक्ति-धर्म, समाज-धर्म तथा साष्ट्र-धर्म की स्थापना की। राम के चरित में विविध आदर्शो की स्थापना की। रमम एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श शत्रु तथा आदर्श राजा के रूप में हमारे सामने आते हैं। तुलसीदास ने तस्कालीन समय में प्रचलित अवधी तथा ब्रज-दोनों भाषाओं को अपनाया है। रामचरितमानस में अवधी भाषा का प्रयोग हैं, जबकि कवितावली तथा विनय-पत्रिका में ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है। तुलसीदास ने सभी काव्य-शैलियों को अपनाया है जिनमें छप्पय, कवित्त, सवैया पद्धति विशेष उल्लेखनीय हैं। तुलसीदास ने अलंकारों का भी समुचित प्रयोग किया है। उनके काव्य में रूपक, निदर्शना, उपमा, व्यतिरेक, अप्रस्तुत प्रशंसा आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग है। काविता का सार : रामचरितमानस के बालकांड से लिए गए ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संबाद’ में सोता-स्वयंवर के समय राम के द्वारा शिव कें धनुष-भंग करने के बाद मुने पष्युराम के क्रोध और राम-लक्मूण से उनके संवादों का वर्णन किया गया है। परशुराम को जब यह समाचार मिला कि शिब-धनुष खंडंडित कर दिया गया है, तो वे बहुत क्रोधित हुए। उनके क्रोध को देख्रकर राम ने विनयपूर्वक मुनि से कहा कि शिवजी के धनुष को तोड़ने बाला कोई उनका दास ही होगा। मुनि ने गुस्से में भरकर कहा कि सेवक वह होता है, जो सेवा का कान करे। जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, बह सहसजाहु की तरह उनका शत्तु है। यदि उसने स्वयं को यहाँ उपस्थित राज समाज से अलग नहीं किया, तो सभी राजा मारे आाएंग। यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा कि उन्हौंने लड़कपन में अनेक धनुहियाँ सोड़ दी थीं, पर तब तो उन्होंने ऐसा गुस्सा नहीं किया था। यह सुलकर युनि ने क्रोध में लक्षण को दुलकारते हुए पूला कि क्या उन्हें शिव-धनुष एक धनुहि के समान प्रतीत होता है ? लक्षण ने हैंपते हुए कहा कि धनुष तो सरे एक-से ही होते हैं। पुराने धनुष को तोड़ने से क्या लाभ और क्या ह्नानि ? त्रीराम ने तो उस युराने धनुप को बह छुआ ही था कि वह टूट गया। गुस्से में भरकर परशुणाम ने कहा कि वे उसे बालक समझकर नहीं मार रहे। वे केबल भुनि ही नहीं है, बलिक बाल-ब्रहमचारी और अल्यंत क्रोधी हैं। से क्षत्रिय कुल के शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका फ़रसा बड़ा भयातक है। लक्षण ने हाँसते हुए युनि का मज़ाक उड़ाया और कहा कि कमजोर तो वे भी नहीं हैं। वे उन्हें व्राहमण समझकर व अज्ञोपवीत देखकर अपने क्रांध को रोक उन्हें सहारते हैं, क्योंकि उनके कुल सें ब्राहुमण, भक्त और गो पर बीरता नहीं दिखाई जाती। इन्हें मारने से पाप लगता है और इससे हार जाने पर अपयश मिलता है। वैसे आपका एक-एक शन्द ही करोड़ों वज्रों के समान है। आपको किसी अस्न-शख्र को धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सुन परखुराम ने गुरु चिरबमित्र से कहा कि लधमण बड़ा कुदुद्धि और दुए हैं। यह सूर्यंश का कलंक है, जिसे वे क्षणभर बाद अपने कुल्हाड़े से काट डालेंगे। यदि वे उसे इचाना चहते है, तो उसे समझा-बुझा कर ऐसा बोलने से रोकें। बिश्वाभित्र तो नहीं सोले, पर लक्ष्मण ने कहा कि यदि परगुराम को अपने यारे में और कुछ भी कहना है, तो वे कह लें 1 वैसे वे अपना यश पहले ही काफ़ी बसान कर चुके हैं। क्रोध को रोकार व्यर्थ दुख नहीं उठाना चाहिए। वैसे गाली देना उन्हें शोभा नहीं देता। शूरखीर तो अपना वल युद्ध-भुम में दिखाते हैं, वे ब्यर्ध में डींग चर्ति हैंका करते। यह सुन परशुराम ने गुस्से से भरकर अपना परशु सुधार कर हाथ में ले लिया। सब विश्वामित्र ने उनसे कहा कि वे उसके प्रपराध को क्षमा कर दें। बालकों के दोष और गुण को साधु नहीं गिनते। तब परशुराम ने अहसान जताते हुए कहा कि वे विखायित्र के शील के कारण लक्क्रण को बिना मारे छोड़ रहे हैं, नहीं तो अपने फ़रसे से उसे काटकर अपने गुरु के और जो गुरु का ऋण शेष बचा है, उसे भी पूरी कर लें। यह सुनते ही परशुरान ने अपना कुल्हाड़ा संभाल लिया। सारी सभा में हाहाकार संच गया। लक्ष्सण की वाणी ने परशुरम की क्रोधरूपी अरिन में आहुति का काम किया। तब श्रीराम ने जल के समान शांत करने वाले झा्द कहे। Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 1 सूरदास के पद Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 1 सूरदास के पदJAC Class 10 Hindi सूरदास के पद Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. गोपियों के अनुसार उद्धव का योग कड़वी ककड़ी के समान व्यर्थ था। वह उन्हें योगरूपी बीमारी देने वाला था। गोपियों ने जिन उदाहरणों के माध्यम से वाक्चातुरी का परिचय दिया है और उद्धव को उलाहने दिए हैं, वह उनके प्रेम का आंदोलन है। उनसे गोपियों के पक्ष की श्रेष्ठता और उद्धव के निर्गुण की हीनता का प्रतिपादन हुआ है। प्रश्न 4. उन्होंने श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे जाने वाले ऐसे योग संदेश की कभी कल्पना नहीं की थी। इससे उनका विश्वास टूट गया था। विरह-अग्नि में जलता हुआ उनका हृदय योग के वचनों से दहक उठा। योग के संदेश ने गोपियों की विरह अग्नि में घी का काम किया था। इसलिए उन्होंने उद्धव और श्रीकृष्ण को मनचाही जली-कटी सुनाई थी। प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. योग के संदेश विरह में जलने वालों को और अधिक जला देते हैं। योग-साधना मानसिक रोग के समान है, जिसे गोपियों ने न कभी पहले सुना था और न देखा था। कड़वी ककड़ी के समान व्यर्थ योग गोपियों के लिए नहीं बल्कि चंचल स्वभाव वालों के लिए उपयुक्त है। गोपियों को योग संदेश भिजवाना किसी भी अवस्था में बुद्धिमत्ता का कार्य नहीं है। प्रेम की रीति को छोड़कर योग-साधना का मार्ग अपनाना मूर्खता है। प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. 1. निर्भीकता – गोपियाँ अपनी बात कहने में पूर्ण रूप से निडर और निर्भीक हैं। किसी भी बात को कहने में वे झिझकती नहीं हैं। योग-साधना को ‘कड़वी ककड़ी’ और ‘व्याधि’ कहना उनकी निर्भीकता का परिचायक है – सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यों करुई ककरी। 2. व्यंग्यात्मकता-वाणी में छिपा हुआ गोपियों का व्यंग्य बहुत प्रभावशाली है। उद्धव से मज़ाक करते हुए वे उसे ‘बड़भागी’ कहती हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी वह उनके प्रेम से दूर ही रहा – प्रीति-नदी मैं पाउँ बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। व्यंग्य का सहारा लेकर वे श्रीकृष्ण को राजनीति शास्त्र का ज्ञाता कहती हैं – इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।’ 3. स्पष्टता – गोपियों को अपनी बात साफ़-साफ़ शब्दों में कहनी आती है। यदि वे बात को घुमा-फिरा कर कहना जानती हैं, तो उन्हें साफ़-स्पष्ट रूप में कहना भी आता है – अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। वे साफ़ स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करती हैं कि वे सोते-जागते केवल श्रीकृष्ण का नाम रटती रहती हैं – जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री। पर वे क्या करें? वे अपने मुँह से अपने प्रेम का वर्णन नहीं करना चाहतीं। उनकी बात उनके हृदय में ही अनकही रह गई है। मन की मन ही माँझ रही। 4. भावुकता और सहृदयता-गोपियाँ भावुकता और सहृदयता से परिपूर्ण हैं, जो उनकी बातों से सहज ही प्रकट हो जाती हैं। जब उनकी भावुकता बढ़ जाती है, तब वे अपने हृदय की वेदना पर नियंत्रण नहीं रख सकती। उन्हें जिस पर सबसे अधिक विश्वास था; जिसके कारण उन्होंने सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं की भी परवाह नहीं की, जब वही उन्हें दुख देने के लिए तैयार था तब बेचारी गोपियाँ क्या कर सकती थीं – अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। सहृदयता के कारण ही वे श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार मानती हैं। वे स्वयं को मन-वचन-कर्म से श्रीकृष्ण का ही मानती हैं – हमारे हरि हारिल की लकरी। वास्तव में गोपियाँ सहृदय और भावुक थीं, लेकिन समय और परिस्थितियों ने उन्हें चतुर और वाग्विदग्ध बना दिया। वाक्चातुर्य के आधार पर ही उन्होंने ज्ञानवान उद्धव को परास्त कर दिया था। प्रश्न 12. 1. गोपियों का एकनिष्ठ प्रेम – गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ गहरा प्रेम था। वे उन्हें पलभर भी भुला नहीं पातीं। उन्हें लगता था कि श्रीकृष्ण ही उनके जीवन के आधार हैं, जिनके बिना वे पलभर जीवित नहीं रह सकतीं। वे उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान थे, जो उन्हें जीने के लिए मानसिक सहारा देते थे – हमारे हरि हारिल की लकरी। गोपियाँ सोते-जागते श्रीकृष्ण की ओर अपना ध्यान लगाए रहती थीं। उन्हें लगता था कि उनका हृदय उनके पास था ही नहीं। उसे श्रीकृष्ण चुराकर ले गए थे। इसलिए वे अपने मन को योग की तरफ़ नहीं लगा सकती थीं।। 2. वियोग श्रृंगार – गोपियाँ हर समय श्रीकृष्ण के वियोग में तड़पती रहती थीं। वे उनकी सुंदर छवि को अपने मन से दूर नहीं कर पाती थीं। श्रीकृष्ण मथुरा चले गए थे, पर गोपियाँ रात-दिन उन्हीं की यादों में डूबकर उन्हें रटती रहती थीं – जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री। वे अपने हृदय की वियोग पीड़ा को अपने मन में छिपाकर रखना चाहती थीं। वे उसे दूसरों के सामने कहना भी नहीं चाहती थीं। उन्हें पूरा विश्वास था कि वे कभी-न-कभी अवश्य वापस आएँगे। श्रीकृष्ण के प्रेम के कारण उन्होंने अपने जीवन में मर्यादाओं की भी परवाह नहीं की थी। 3. व्यंग्यात्मकता – गोपियाँ भले ही श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं, पर उन्हें सदा यही लगता था कि श्रीकृष्ण ने उनसे चालाकी की है; उन्हें धोखा दिया है। वे मथुरा में रहकर उनसे चालाकियाँ कर रहे हैं; राजनीति के खेल से उन्हें मूर्ख बना रहे हैं। इसलिए व्यंग्य करते हुए वे कहती हैं – हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। उद्धव पर व्यंग्य करते हुए वे उसे ‘बड़भागी’ कहती हैं, जो प्रेम के स्वरूप श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी प्रेम से दूर रहा। उसने कभी प्रेम की नदी में अपने पैर तक डुबोने का प्रयत्न नहीं किया। वे श्रीकृष्ण को बड़ी बुद्धि वाला मानती हैं, जिन्होंने उन्हें योग का पाठ भिजवाया था। 4. स्पष्टवादिता – गोपियाँ बीच-बीच में अपनी स्पष्टवादिता से प्रभावित करती हैं। वे योग-साधना को ऐसी ‘व्याधि’ कहती हैं, जिसके बारे में कभी देखा या सुना न गया हो। उनके अनुसार योग केवल उनके लिए ही उपयोगी हो सकता था, जिनके मन में चकरी हो; जो अस्थिर और चंचल हों। 5. भावुकता – गोपियाँ स्वभाव से ही भावुक और सरल हृदय वाली थीं। उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम किया था और उसी प्रेम में डूबी रहना चाहती थीं। वे प्रेम में उसी प्रकार से मर-मिटना चाहती थीं, जिस प्रकार से चींटी गुड़ से चिपट जाती है और उससे अलग न होकर अपना जीवन गँवा देना चाहती है। भावुक होने के कारण वे योग के संदेश को सुनकर दुखी हो जाती हैं। अधिक भावुकता ही उनकी पीड़ा का बड़ा कारण बनती है। 6. सहज ज्ञान – गोपियाँ भले ही गाँव में रहती थीं, पर उन्हें अपने वातावरण और समाज का पूरा ज्ञान था। वे जानती थीं कि राजा के अपनी प्रजा के प्रति क्या कर्तव्य है और उसे क्या करना चाहिए ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए। 7. संगीतात्मकता-सूरदास का भ्रमरगीत संगीतमय है। कवि ने विभिन्न राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर भ्रमरगीत की रचना की है। उनमें गेयता है, जिस कारण सूरदास के भ्रमरगीत का साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान है। रचना और अभिव्यक्ति – प्रश्न 13. यदि गोपियों की जगह हमें तर्क देने होते, तो हम उद्धव से पूछते कि श्रीकृष्ण ने उनसे प्रेम करके फिर उन्हें योग की शिक्षा देने का कपट क्यों किया? उन्होंने मथुरा में रहने वाली कुब्जा को निर्गुण ब्रह्म का संदेश क्यों नहीं दिया? प्रेम सदा दो पक्षों में होता है। यदि गोपियों ने प्रेम की पीडा झेली थी, तो श्रीकृष्ण ने उस पीडा का अनुभव क्यों नहीं किया? यदि पीडा का अनुभव किया था, तो वे स्वयं ही योग-साधना क्यों नहीं करने लगे? यदि गोपियों के भाग्य में वियोग की पीड़ा लिखी थी, तो श्रीकृष्ण ने उनके भाग्य को बदलने के लिए उद्धव को वहाँ क्यों भेजा? किसी का भाग्य बदलने का अधिकार किसी के पास नहीं है। यदि श्रीकृष्ण ने गोपियों को योग-साधना का संदेश भिजवाया था, तो अन्य सभी ब्रजवासियों, यशोदा माता, नंद बाबा आदि को भी वैसा ही संदेश क्यों नहीं भिजवाया? वे सब भी तो श्रीकृष्ण से प्रेम करते थे। प्रश्न 14. उन्हें वह झेलना पड़ा था, जिसकी उन्होंने कभी उम्मीद नहीं की थी। उनके विश्वास को गहरा झटका लगा था, जिस कारण उनकी आहत भावनाएँ फूट पड़ी थीं। उद्धव चाहे ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे; पर वे गोपियों के हृदय में छिपे प्रेम, विश्वास और आत्मिक बल का सामना नहीं कर पाए। गोपियों के वाक्चातुर्य के सामने वे किसी भी प्रकार टिक नहीं पाए। प्रश्न 15. गोपियों का यह कथन आज की राजनीति में साफ़-साफ़ दिखाई देता है। नेता जनता से कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। वे धर्म, अपराध, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में दोहरी चालें चलकर जनता को मूर्ख बनाते हैं और अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उनकी करनी-कथनी में सदा अंतर दिखाई देता है। पाठेतर सक्रियता – प्रश्न 1. प्रश्न 2. JAC Class 10 Hindi सूरदास के पद Important Questions and Answersपरीक्षोपयोगी अन्य प्रश्नोत्तर – प्रश्न 1. गोपियों को उद्धव की बातें कड़वी लगी थीं। वे उसे बुरा-भला कहना चाहती थीं, पर मर्यादावश श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए उद्धव को वे ऐसा कह नहीं पातीं। संयोगवश एक भँवरा उड़ता हुआ वहाँ से गुजरा। गोपियों ने झट से भँवरे को आधार बनाकर अपने हृदय में व्याप्त क्रोध को सुनाना आरंभ कर दिया। उद्धव का रंग भी भँवरे के समान काला था। इस प्रकार भ्रमरगीत का अर्थ है-‘उद्धव को लक्ष्य करके लिखा गया गान’। कहीं-कहीं गोपियों ने श्रीकृष्ण को भी ‘भ्रमर’ कहा है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. पठित काव्यांश पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्न – दिए गए काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए बहुविकल्पी प्रश्नों के उचित विकल्प चुनकर लिखिए – 1. हमारे हरि हारिल की लकरी। (क) श्रीकृष्ण गोपियों के लिए किस पक्षी की लकड़ी के समान हैं? (ख) गोपियाँ सोते-जागते किस नाम का जाप करती रहती हैं? (ग) योग का संदेश गोपियों को किसके समान लगता है? (घ) ‘सु तौ व्याधि हमकौं ले आए’-पंक्ति में व्याधि का क्या अर्थ है? (ङ) योग संदेश को गोपियाँ कैसे लोगों के लिए उपयुक्त मानती है? 2. मन की मन ही माँझ रही। (क) गोपियों के मन में किसके दर्शन की इच्छा अधूरी रह गई? (ख) गोपियाँ किससे संदेश प्राप्त करती हैं? (ग) किसने प्रेम की मर्यादा का उल्लंघन किया है? (घ) उद्धव कृष्ण का कौन-सा संदेश लेकर आए थे? (ङ) गोपियाँ तन-मन की व्यथा क्यों सहन कर रही थीं? 3. ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। (क) बड़भागी का संबोधन किसके लिए किया गया है? (ख) गोपियों ने अपनी तुलना किससे की है? (ग) गोपियों द्वारा उद्धव की तुलना किससे की गई है? (घ) उद्धव किनके संग रहकर भी उनके प्रेम से वंचित रहे? (ङ) ‘अपराध रहत सनेह तगा तें’-पंक्ति में ‘तगा’ का क्या भाव निहित है? काव्यबोध संबंधी बहुविकल्पी प्रश्न – काव्य पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नों के उत्तर वाले विकल्प चुनिए – (क) सूरदास के पद किस भाषा में रचित हैं? (ख) सूरदास किस रस के महान कवि हैं? (ग) ‘अवधि आधार आस आवन की’ पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार है – (घ) ‘मधुकर’ का संबोधन किसके लिए किया गया है? सिप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण संबंधी एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – पद : 1. ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। शब्दार्थ बड़भागी – भाग्यवान। अपरस – अलिप्त; नीरस, अछूता। तगा – धागा; डोरा; बंधन। पुरइनि पात – कमल का पत्ता। रस – जल। न दागी – दाग तक नहीं लगता। माहँ – में। प्रीति-नदी – प्रेम की नदी। पाउँ – पैर। बोरयौ – डुबोया परागी – मुग्ध होना। भोरी – भोली। गुर चाँटी ज्यौं पागी – जिस प्रकार चौंटी गुड़ में लिपटती है, उसी प्रकार हम भी कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त हैं। प्रसंग – प्रस्तुत पद कृष्ण-भक्ति के प्रमुख कवि सूरदास के द्वारा रचित ‘भ्रमर गीत’ से लिया गया है। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित किया गया है। गोपियाँ सगुण प्रेमपथ के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करती हैं और मानती हैं कि वे किसी भी प्रकार स्वयं को श्रीकृष्ण के प्रेम से दूर नहीं कर सकतीं। व्याख्या – गोपियाँ उद्धव की प्रेमहीनता पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! तुम सचमुच बड़े भाग्यशाली हो, क्योंकि तुम प्रेम के बंधन से पूरी तरह मुक्त हो; अनासक्त हो और तुम्हारा मन किसी के प्रेम में डूबता नहीं । तुम श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रेम बंधन से उसी तरह मुक्त हो, जैसे कमल का पत्ता सदा पानी में रहता है पर फिर भी उस पर जल का एक दाग भी नहीं लग पाता; उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती। तेल की मटकी को जल में डुबोने से उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती। इसी प्रकार तुम भी श्रीकृष्ण के निकट रहते हुए भी उनसे प्रेम नहीं करते और उनके प्रभाव से सदा मुक्त बने रहते हो। तुमने आज तक कभी भी प्रेमरूपी नदी में अपना पैर नहीं डुबोया और तुम्हारी दृष्टि किसी के रूप को देखकर भी उसमें उलझी नहीं। पर हम तो भोली-भाली अबलाएँ हैं, जो अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के प्रेम में उसी प्रकार उलझ गई हैं जैसे चींटी गुड़ पर आसक्त हो उस पर चिपट जाती है और फिर कभी छूट नहीं पाती; वह वहीं प्राण त्याग देती है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम-भाव को प्रकट किया है। उनकी अनन्यता श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के प्रति है। 3. गोपियों के द्वारा प्रयुक्त ‘अति बड़भागी’ शब्द व्यंग्य के भाव को अपने भीतर छिपाए हुए है। मज़ाक में गोपियाँ उद्धव को बड़ा भाग्यशाली मानती हैं, क्योंकि वह श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रति प्रेम-भाव में नहीं बँधा। 4. उद्धव निर्गुण ब्रह्म के प्रति विश्वास रखता था। उसका ब्रह्म रूप आकार से परे था, इसलिए वह स्वयं को श्रीकृष्ण के साकार रूप के प्रति नहीं बाँध पाया। उसके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति का बंधन भाव नहीं था। 5. सूरदास ने उद्धव को अनासक्त और श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव से सर्वथा मुक्त माना है। सूरदास कहते हैं कि जिस प्रकार कमल का पत्ता सदा जल में रहता है, पर फिर भी उस पर जल की एक बूंद तक नहीं ठहर पाती; उसी प्रकार उद्धव श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रति भक्ति भावों से रहित था। तेल की किसी मटकी को जल के भीतर डुबोने पर उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती, उसी प्रकार उद्धव के हृदय पर श्रीकृष्ण की भक्ति थोड़ा-सा भी प्रभाव नहीं डाल सकी थी। 6. सूरदास के द्वारा रचित पद ‘राग मलार’ पर आधारित है। इसमें स्वर-मैत्री का सफल प्रयोग और ब्रज–भाषा की कोमलकांत शब्दावली गेयता के आधार बने हैं। 7. गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम भरा मन चाहकर भी कहीं और नहीं टिकता। वे पूरी तरह से अपने प्रियतम की रूप-माधुरी पर आसक्त थीं; उनके प्रेम में पगी हुई थीं। जिस प्रकार चींटी गुड़ पर आसक्त होकर उससे चिपट जाती है और फिर छूट नहीं पाती; वह वहीं अपने प्राण दे देती है। इसी तरह गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भाव में डूबी रहना चाहती हैं और कभी उनसे दूर नहीं होना चाहतीं। 8. गोपियों ने स्वयं को ‘भोरी’ कहा है। वे छल-कपट और चतुराई से दूर थीं, इसलिए वे अपने प्रियतम की रूप-माधुरी पर शीघ्रता से आसक्त हो गईं। वे स्वयं को श्रीकृष्ण से किसी भी प्रकार से दूर करने में असमर्थ मानती थीं। वे चाहकर भी उन्हें प्राप्त नहीं कर सकतीं, इसलिए उन्होंने स्वयं को अबला कहा है। 9. श्रीकृष्ण के साथ रहकर भी उद्धव के मन में प्रेम-भाव नहीं है। इस कारण उसे विरह-भाव का अनुभव नहीं होता; उसे वियोग की पीड़ा नहीं उठानी पड़ती। इसलिए गोपियों ने उद्धव को बड़भागी कहा है। 10. उद्धव के व्यवहार की तुलना पानो पर तैरते कमल के पत्ते और जल में पड़ी तेल की मटकी से की गई है। दोनों पर जल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी तरह उद्धव भी सब प्रकार से अनासक्त था। 11. इस पद में उद्धव को समझाया गया है कि वह ज्ञानवान है: नीतिवान है, प्रेम से विरक्त है, इसलिए उसका प्रेम-संदेश गोपियों के लिए निरर्थक है। श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न गोपियों पर उसके उपदेश का कोई असर नहीं होने वाला था। 12. उद्धव को बड़भागी व्यंग्य में कहा गया है, क्योंकि वह श्रीकृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में नहीं डब पाया। 13. गोपियों ने उधव से कहा है कि वह अभागा है, क्योंकि वह श्रीकृष्ण के साथ रहकर भी उनके प्रेम से दूर रहा, गोपियाँ स्पष्ट कहती हैं कि वे कृष्ण के प्रति प्रेम-भाव से समर्पित हैं। वे किसी भी अवस्था में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भाव को नहीं त्याग सकती। 14. ‘पुरइनि पात’ के माध्यम कवि ने उन लोगों पर कटाक्ष किया है, जो संसार में रहकर भी प्रेम-मार्ग पर नहीं चल पाते; जो श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रति विरक्त बने रहते हैं। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न 3. अनुप्रास – उपमा – उदाहरण – दृष्टांत – 4. सूरदास के इस पद में गोपियों की निश्छल प्रेम-भावना की अभिव्यक्ति हुई है। वे कृष्ण के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। उनके प्रेम को ठेस लगाने वाला कोई भी विचार उन्हें क्रोधित कर देता है। क्रोध-प्रेरित व्यंग्य उनके प्रेम-भाव की विशिष्टता है। 5. नीति काव्य। 2. मन की मन ही माँझ रही। शब्दार्थ : माँझ – में। अधार – आधार; सहारा। आवन – आगमन; आने की। बिथा – व्यथा। सँदेसनि – संदेश। बिरहिनि – वियोग में जीने वाली। बिरह दही – विरह की आग में जल रही। हुती – थी। गुहारि – रक्षा के लिए पुकारना। जितहिं तें – जहाँ से। उत – उधर; वहाँ। धार – धारा; लहर। धीर – धैर्य। मरजादा – मर्यादा; प्रतिष्ठा। लही – नहीं रही; नहीं रखी। प्रसंग – प्रस्तुत पद भक्त सूरदास के द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के भ्रमरगीत से लिया गया है, जो हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित है। श्रीकृष्ण के द्वारा ब्रज भेजे गए उद्धव ने गोपियों को ज्ञान का उपदेश दिया था, जिसे सुनकर वे हताश हो गई थीं। वे श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र सहारा मानती थीं, पर उन्हीं के द्वारा भेजा हुआ हृदय-विदारक संदेश सुनकर वे पीड़ा और निराशा से भर उठीं। उन्होंने कातर स्वर में उद्धव के समक्ष अपनी व्यथा सुनाई थी। व्याख्या – गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे मन में छिपी बात तो मन में ही रह गई। हम सोचती थीं कि जब श्रीकृष्ण वापिस आएँगे, तब हम उन्हें विरह-वियोग में झेले सारे कष्टों की बातें सुनाएँगी। परंतु उन्होंने निराकार ब्रह्म को प्राप्त करने का संदेश भेज दिया है। उनके द्वारा त्याग दिए जाने पर अब हम अपनी असहनीय विरह-पीड़ा की कहानी किसे जाकर सुनाएँ? हमसे यह और अधिक कही भी नहीं जाती। अब तक हम उनके वापस लौटने की उम्मीद के सहारे अपने तन और मन से इस विरह-पीड़ा को सहती आ रही थीं। अब इन योग के संदेशों को सुनकर हम विरहिनियाँ वियोग में जलने लगी हैं। विरह के सागर में डूबती हुई हम गोपियों को जहाँ से सहायता मिलने की आशा थी; जहाँ हम अपनी रक्षा के लिए पुकार लगाना चाहती थीं, अब उसी स्थान से योग संदेशरूपी जल की ऐसी प्रबल धारा बही है कि यह हमारे प्राण लेकर ही रुकेगी अर्थात श्रीकृष्ण ने हमें योग-साधना करने का संदेश भेजकर हमारे प्राण ले लेने का कार्य किया है। हे उद्धव! तुम्हीं बताओ कि अब हम धैर्य धारण कैसे करें? जिन श्रीकृष्ण के लिए हमने अपनी सभी मर्यादाओं को त्याग दिया था, उन्हीं श्रीकृष्ण के द्वारा हमें त्याग देने से हमारी संपूर्ण मर्यादा नष्ट हो गई है। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. गोपियाँ अपने हृदय की पीड़ा श्रीकृष्ण को सुनाना चाहती थीं, लेकिन निर्गुण ज्ञान के संदेश को सुनकर वे कुछ न कर पाईं। उनके वियोग से उत्पन्न पीड़ा संबंधी बात उनके मन में ही रह गई। 3. गोपियाँ अब श्रीकृष्ण के पास जाकर अपनी वियोग से उत्पन्न पीड़ा को कहने का साहस नहीं कर सकती थीं। गोपियों को पहले विश्वास था कि जब कभी श्रीकृष्ण मिलेंगे, तब वे उन्हें अपनी पीड़ा सुनाएँगी। लेकिन अब श्रीकृष्ण ने स्वयं उद्धव द्वारा निर्गुण भक्ति का ज्ञान उन्हें संदेश रूप में भेज दिया था। 4. गोपियाँ अब तक विरह-वियोग को इस आधार पर सहती आ रही थीं कि वे श्रीकृष्ण से प्रेम करती है और श्रीकृष्ण भी उनसे उतना ही प्रेम करते हैं। परिस्थितियों के कारण उन्हें अलग होना पड़ा है। वे श्रीकृष्ण के प्रेम के आधार पर विरह-वियोग को सहती आ रही थीं। 5. योग के संदेशों ने गोपियों के हृदय को अपार दुख से भर दिया था। उन संदेशों ने उनके प्राण लेने का काम कर दिया था। 6. गोपियाँ उन श्रीकृष्ण से गुहार लगाना चाहती थीं, जिनके प्रेम के प्रति उन्हें अपार विश्वास था। उन्हें लगता था कि श्रीकृष्ण ने उद्धव के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म का संदेश भिजवाकर उनके प्रेम को धोखा दिया था। 7. ‘धार बही’ लाक्षणिक प्रयोग है। गोपियों को प्रतीत होता है कि निर्गुण भक्ति की धारा श्रीकृष्ण की ओर से बहकर उन तक पहुँचती है। उन्होंने ही उद्धव को उनके पास निर्गुण ज्ञान की धारा ले जाने के लिए भेजा है। 8. गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम को ही अपनी मर्यादा मानती थीं। लेकिन जब स्वयं श्रीकृष्ण ने निर्गुण भक्ति का ज्ञान उन्हें भिजवा दिया, तो उनकी उस प्रेम संबंधी मर्यादा का कोई अर्थ ही नहीं रहा। ‘मरजादा न लही’ से तात्पर्य उनके प्रेम भाव के प्रति श्रीकृष्ण का वह संदेश था, जिसके कारण गोपियों ने अपने जीवन की सभी सामाजिक-धार्मिक मर्यादाओं की भी परवाह नहीं की थी। 9. गोपियाँ अपने प्रति श्रीकृष्ण के प्रेम को ही अपनी मर्यादा समझती थीं। 10. गोपियों के लिए कृष्ण का प्रेम प्रिय और योग का संदेश अप्रिय है। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न रूपकातिशयोक्ति – पुनरुक्ति प्रकाश – 3. हमारे हरि हारिल की लकरी। शब्दार्थ हरि – श्रीकृष्ण। हारिल की लकरी – एक पक्षी, जो अपने पंजों में सदा कोई-न-कोई लकड़ी का टुकड़ा या तिनका पकड़े रहता है। क्रम – कर्म। नंद-नंदन – श्रीकृष्ण। उर – हृदय। पकरी – पकड़ना। कान्ह – कृष्ण। जकरी – रटती रहती है। करुई – कड़वी। ककरी – ककड़ी। व्याधि – बीमारी, पीड़ा पहुँचाने वाली वस्तु। तिनहिं – उनको। मन चकरी – जिनका मन स्थिर नहीं होता। प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से लिया गया है। गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अपार प्रेम था। मथुरा आने के बाद श्रीकृष्ण ने अपने सखा उद्धव के निर्गुण ज्ञान पर सगुण भक्ति की विजय के लिए उन्हें गोपियों के पास भेजा था। गोपियों ने उद्धव के निर्गुण ज्ञान को अस्वीकार कर दिया और स्पष्ट किया कि उनका प्रेम केवल श्रीकृष्ण के लिए है। उनका प्रेम अस्थिर नहीं है। व्याख्या – श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की दृढ़ता को प्रकट करते हुए गोपियों ने उद्धव से कहा कि श्रीकृष्ण हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। जैसे हारिल पक्षी सदा अपने पंजों में लकड़ी पकड़े रहता है, वैसे हम भी सदा श्रीकृष्ण का ध्यान करती हैं ! हमने मन, द के नंदन श्रीकृष्ण के रूप और उनकी स्मृति को कसकर पकड़ लिया है। अब कोई भी उसे हमसे छुड़ा नहीं सकता। हमारा मन जागते, सोते, स्वप्न या प्रत्यक्ष में सदा कृष्ण-कृष्ण की रट लगाए है; वह सदा उन्हीं का स्मरण करता है। हे उद्धव! तुम्हारी योग की बातें सुनकर हमें ऐसा लगता है, मानो कड़वी ककड़ी खा ली हो! तुम्हारी योग की बातें हमें बिलकुल अरुचिकर लगती हैं। तुम हमारे लिए योगरूपी ऐसी बीमारी लेकर आए हो, जिसे हमने न तो कभी देखा, न सुना और न कभी भोगा है। हम तुम्हारी योगरूपी बीमारी से पूरी तरह अपरिचित हैं। तुम इस बीमारी को उन लोगों को दो, जिनके मन सदा चकई के समान चंचल रहते हैं। भाव है कि हमारा मन श्रीकृष्ण के प्रेम में दृढ और स्थिर है। जिनका मन चंचल है, वही योग की बातें स्वीकार कर सकते हैं। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न 1. सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 10. रूपक – अनुप्रास – स-निसि, उपमा – रूपकातिशयोक्ति – स्वरमैत्री – पुनरुक्तिप्रकाश – 4. हरि है राजनीति पढ़ि आए। शब्दार्थ : मधुकर – भँवरा, उद्धव के लिए गोपियों द्वारा प्रयुक्त संबोधन। हुते – थे। पठाए – भेजा। आगे के – पहले के। पर हित – दूसरों के कल्याण के लिए। डोलत धाए – घूमते-फिरते थे। फेर – फिर से। पाइहैं – पा लेंगी। अनीति – अन्याय। प्रसंग – प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग से लिया गया है, जोकि हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित है। गोपियों ने उद्धव से निर्गुण-भक्ति संबंधी जिस ज्ञान को पाया था, उससे वे बहुत व्यथित हुईं। उन्होंने कृष्ण को कुटिल राजनीति का पोषक, अन्यायी और धोखेबाज़ सिद्ध करने का प्रयास किया है। व्याख्या – गोपियाँ श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए योग संदेश को उनका अन्याय और अत्याचार मानते हुए कहती हैं कि हे सखी! अब तो श्रीकृष्ण ने राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली है। वे राजनीति में पूरी तरह निपुण हो गए हैं। यह भँवरा हमसे जो बात कह रहा है, वह क्या तुम्हें समझ आई ? क्या तुम्हें कुछ समाचार प्राप्त हुआ? एक तो श्रीकृष्ण पहले ही बहुत चतुर-चालाक थे और अब गुरु ने उन्हें ग्रंथ भी पढ़ा दिए हैं। उनकी बुद्धि कितनी विशाल है, इसका अनुमान इसी बात से हो गया है कि वे युवतियों के लिए योग-साधना का संदेश भेज रहे हैं। यह सिद्ध हो गया है कि वे बुद्धिमान नहीं हैं, क्योंकि कोई भी युवतियों के लिए योग-साधना को उचित नहीं मान सकता। हे उद्धव! पुराने ज़माने के सज्जन दूसरों का भला करने के लिए इधर-उधर भागते-फिरते थे, पर आजकल के सज्जन दूसरों को दुख देने और सताने के लिए ही यहाँ तक दौड़े चले आए हैं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि हमें हमारा मन मिल जाए, जिसे श्रीकृष्ण यहाँ से जाते समय चुपचाप चुराकर अपने साथ ले गए थे। पर उनसे ऐसे न्यायपूर्ण काम की आशा कैसे की जा सकती है! वे तो दूसरों के द्वारा अपनाई जाने वाली रीतियों को छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं। भाव यह है कि हम श्रीकृष्ण से प्रेम करने की रीति अपना रहे थे, पर वे चाहते हैं कि हम प्रेम की रीति को छोड़कर योग-साधना के मार्ग को अपना लें। यह अन्याय है। सच्चा राजधर्म उसी को माना जाता है, जिसमें प्रजाजन को कभी न सताया जाए। श्रीकृष्ण अपने स्वार्थ के लिए हमारे सारे सुख-चैन को छीनकर हमें दुखी करने की कोशिश कर रहे हैं। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 2. गोपियों के अनुसार श्रीकृष्ण राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं, क्योंकि अब वे प्रेम के संबंध में राजनीति के क्षेत्र में अपनायी जाने वाली कुटिलता और छल-कपट से काम लेने लगे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए गोपियों का सुख-चैन छीनकर उन्हें दुखी करने का प्रयत्न कर रहे हैं। 3. गोपियों ने ‘जानी बुद्धि बड़ी’ में व्यंजना का प्रयोग किया है। श्रीकृष्ण की बुद्धि कितनी बड़ी थी- इसका अनुमान इसी बात से हो गया कि वे युवतियों के लिए योग-साधना करने का संदेश भेज रहे हैं। इससे तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान श्रीकृष्ण ने अच्छा कार्य नहीं किया। कोई मूर्ख ही युवतियों के लिए योग-साधना को उचित मान सकता था, बुद्धिमान नहीं। 4. पुराने जमाने में लोग दूसरों का उपकार करने के लिए इधर-उधर भागते फिरते थे। 5. गोपियों के अनुसार आजकल के सज्जन दूसरों को दुख देने और सताने के लिए उन तक दौड़े चले आते हैं। 6. गोपियाँ केवल अपना-अपना मन वापस पाना चाहती थीं, जिन्हें श्रीकृष्ण चुराकर अपने साथ मथुरा ले गए थे। 7. श्रीकृष्ण ब्रज से मथुरा जाते समय अपने साथ गोपियों का मन चुराकर ले गए थे। 8. श्रीकृष्ण का व्यवहार गोपियों की अपेक्षा भिन्न था। गोपियाँ प्रेम की राह पर चलना चाहती थीं, परंतु कृष्ण चाहते थे कि गोपियाँ प्रेम की राह छोड़कर योग-साधना पर चलना आरंभ कर दें। 9. सच्चा राजधर्म प्रजा को सदा सुखी रखना कहा गया है। सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर – प्रश्न : 10. अनुप्रास –
वक्रोक्ति –
सूरदास के पद Summary in Hindiकवि-परिचय : हिंदी में कृष्ण-काव्य की श्रेष्ठता का प्रमुख श्रेय महात्मा सूरदास को जाता है। वे साहित्याकाश के देदीप्यमान सूर्य थे, जिन्होंने भक्ति, काव्य और संगीत की त्रिवेणी बहाकर भक्तों, संगीतकारों और साधारणजन के मन को रससिक्त कर दिया था। सूरदास का जन्म सन 1478 ई० की वैशाख पंचमी को वल्लभगढ़ के निकट सीही नामक गाँव में हुआ था। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ था। वे सारस्वत ब्राह्मण थे। इसके अतिरिक्त उनकी पारिवारिक स्थिति का कुछ और ज्ञान नहीं है। सूरदास नेत्रहीन थे परंतु यह अब तक निश्चित नहीं हो पाया कि वे जन्मांध थे अथवा बाद में अंधे हुए। उनके काव्य में दृश्य जगत के सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृश्यों का सजीव अंकन देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे जन्मांध हों। चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार वे संन्यासी वेष में मथुरा और वृंदावन के बीच गऊघाट पर रहते थे। यहीं उनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई थी। उन्होंने सूरदास को अपने संप्रदाय में दीक्षित कर उन्हें भागवत के आधार पर लीलापद रचने को कहा। गुरु आज्ञा से वे श्रीनाथ के मंदिर में कीर्तन और स्व-रचित पदों का गायन करने लगे। उन्होंने तैंतीस वर्ष की अवस्था में श्रीनाथ के मंदिर में कीर्तन करना आरंभ किया था और सन 1583 ई० तक मृत्युपर्यंत र नियमित रूप से यह कार्य करते रहे। उनका देहांत पारसौली में हुआ था। मान्यता है कि अपने 105 वर्ष के जीवन में उन्होंने लगभग सवा लाख पदों की रचना की। सूरदास ने भागवत के आधार पर कृष्णलीला संबंधी पदों की रचना की, जो बाद में संगृहीत होकर ‘सूरसागर’ कहलाने लगा। अब इसमें मात्र चार-पाँच हजार पद हैं। इसके अतिरिक्त सूर-कृत लगभग चौबीस ग्रंथों का उल्लेख किया जाता है, पर उनकी प्रामाणिकता विवादास्पद है। उनके तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं – ‘सूरसागर’, ‘सूर सारावली’ और ‘साहित्य लहरी’। ‘सूर सारावली’ एक प्रकार से सूरसागर की विषय-सूची सी है और ‘साहित्य लहरी’ में सूरसागर से लिए गए कूट पदों का संग्रह है। इस प्रकार ‘सूरसागर’ ही उनकी कीर्ति का आधार स्तंभ बन जाता है। इसमें भागवत की तरह बारह स्कंध हैं, पर यह भागवत का अनुवाद नहीं है और न ही इसमें भागवत जैसी वर्णनात्मकता है। यह एक गेय मुक्तक काव्य है, जिसमें श्रीकृष्ण के संपूर्ण जीवन का चित्रण न करके उनकी लीलाओं का विस्तारपूर्वक फुटकर पदों में वर्णन किया है। सूरदास को ‘वात्सल्य’ और ‘शृंगार’ का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। इन्होंने मानव-जीवन की सहज-स्वाभाविक विशेषताओं को अति सुंदर ढंग से कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया। राधा और कृष्ण के प्रेम की प्रतिष्ठा करने में इन्होंने अपार सफलता प्राप्त की। इनकी कविता 3 में कोमलकांत ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग हुआ है। इन्होंने गीति काव्य का सुंदर रूप प्रस्तुत किया है। पदों का सार : सूरदास के द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में संकलित ‘भ्रमरगीत’ से लिए गए चार पदों में गोपियों के विरह-भाव को प्रकट किया गया है। : ब्रजक्षेत्र से मथुरा जाने के बाद श्रीकृष्ण ने गोपियों को कभी कोई संदेश नहीं भेजा और न ही स्वयं वहाँ गए। जिस कारण गोपियों पीड़ा बढ़ गई थी। श्रीकृष्ण ने ज्ञान-मार्ग पर चलने वाले उद्धव को ब्रज भेजा ताकि वे गोपियों को संदेश देकर उनकी वियोग-पीड़ा को कुछ कम कर सकें, पर उद्धव ने निर्गुण ब्रह्म और योग का उपदेश देकर गोपियों की पीड़ा को घटाने के स्थान पर बढ़ा दिया। गोपियों को उद्धव के द्वारा दिया जाने वाला शुष्क निर्गुण संदेश बिलकुल भी पसंद नहीं आया। उन्होंने अन्योक्ति के द्वारा उद्धव पर व्यंग्य बाण छोड़े। उन्होंने उसके द्वारा ग्रहण किए गए निर्गुण-मार्ग को उचित नहीं माना। सूरदास ने इन भ्रमरगीतों के द्वारा निर्गुण भक्ति की पराजय और सगुण भक्ति की विजय दिखाने का सफल प्रयत्न किया है। गोपियाँ मानती हैं कि उद्धव बड़े भाग्यशाली हैं, जिनके हृदय में कभी किसी के लिए प्रेम का भाव जागृत ही नहीं हुआ। वे तो श्रीकृष्ण के पास रहते हुए भी उनके प्रेम-बंधन में नहीं बँधे। जैसे कमल का पत्ता सदा पानी में रहता है, पर फिर भी उस पर जल की बूंद नहीं ठहर पाती तथा तेल की मटकी को जल के भीतर डुबोने पर भी उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती। उद्धव ने प्रेम-नदी में कभी अपना पैर तक नहीं डुबोया, पर वे बेचारी भोली-भाली गोपियाँ श्रीकृष्ण के रूप-माधुर्य के प्रति रीझ गई थीं। वे उनके प्रेम में डूब चुकी हैं। उनके हृदय की सारी अभिलाषाएँ मन में ही रह गईं। वे मन ही मन वियोग की पीड़ा को झेलती रहीं। योग के संदेशों ने उन्हें और भी अधिक पीड़ित कर दिया है। श्रीकृष्ण का प्रेम उनके लिए हारिल की लकड़ी के समान है, जिसे वे कदापि नहीं छोड़ सकती। उन्हें सोते-जागते केवल श्रीकृष्ण का ही ध्यान रहता है। योग-साधना का नाम ही उन्हें कड़वी ककड़ी-सा लगता है। वह उनके लिए किसी मानसिक बीमारी से कम नहीं है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को ताना मारती हैं कि उन्होंने अब राजनीति पढ़ ली है। एक तो वे पहले ही बहुत चतुर थे और अब गुरु के ज्ञान को भी उन्होंने प्राप्त कर लिया है। गोपियाँ उद्धव को याद दिलाती हैं कि राजा को कभी भी अपनी प्रजा को नहीं सताना चाहिए: यही राजधर्म है। गोपियों ने किस पर व्यंग्य किया है और क्यों?व्यंग्यात्मकता-गोपियाँ व्यंग्य करने में प्रवीण हैं। उनकी भाग्यहीनता को भाग्यवान कहकर व्यंग्य करती हैं कि तुमसे बढ़कर और कौन भाग्यवान होगा जो कृष्ण के समीप रहकर उनके अनुराग से वंचित रहे। सहृदयता-उनकी सहृदयता उनकी बातों में स्पष्ट झलकती है।
गोपियों ने बड़भागी कहकर उद्धव के व्यवहार पर कौन सा व्यंग्य किया है?प्रश्न (क)-गोपियों ने 'बड़भागी' कहकर उद्धव के व्यवहार पर कौन-सा व्यंग्य किया है? उत्तर: गोपियों द्वारा व्यंग्य-उद्धव का इतना ज्ञानी होना कि कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम से न बँध सकना।
गोपियों ने श्रीकृष्ण प्रेम में दृढ़ विश्वास कैसे व्यक्त किया?तीसरे पद में गोपियों ने योग साधना के संदेश को कड़वी ककड़ी के समान बताकर श्री कृष्ण के प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट किया है . गोपियां हारिल की लकड़ी की तरह श्री कृष्ण को छोड़ने में अपने आप को असमर्थ बताती हैं . वे कहती हैं कि श्रीकृष्ण के बिना जिया नहीं जा सकता.
गोपियों के अनुसार योग की आवश्यकता कैसे लोगों को होती है?Answer: गोपियों के अनुसार योग की शिक्षा उन्हीं लोगों को देनी चाहिए जिनकी इन्द्रियाँ व मन उनके बस में नहीं होते। जिस तरह से चक्री घूमती रहती है उसी तरह उनका मन एक स्थान पर न रहकर भटकता रहता है। परन्तु गोपियों को योग की आवश्यकता है ही नहीं क्योंकि वह अपने मन व इन्द्रियों को श्री कृष्ण के प्रेम के रस में डूबो चुकी हैं।
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