हिंदू विवाह का उद्देश्य क्या है? - hindoo vivaah ka uddeshy kya hai?

3. हिंदू विवाह में अर्द्ध नारीश्वर की कल्पना की गयी है। जिसके अंतर्गत स्त्री और पुरुष के शरीर व आत्मा का इस प्रकार समन्वय होता है कि वो एकाकार हो जाते हैं। अर्थात् एक ही शरीर मगर स्त्री व पुरुष में विभाजित (अर्द्धनारीश्वर)।


4. वैवाहिक संबंध की प्रकृति स्थायी होने के कारण सुदृढ़ पारिवारिक व सामाजिक जीवन का विकास होता है।


5. हिंदू विवाह को मानवीय व्यक्तित्व के विकास का साधन माना गया है।


6. हिंदू विवाह जन्म-जन्मांतर का संबंध माना गया है।


7. हिंदू विवाह का उद्देश्य धर्म का पालन करते हुए प्रजाति की निरंतरता को बनाए रखना है।


हिंदू विवाह के उद्देश्य (Alms of Hindu Marriage ) 


इसके तीन मुख्य उद्देश्य होते हैं-


(1) enfira anret aftuff (Performance of Religious Duties):


धार्मिक कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए जीवन साथी प्राप्त करने हेतु विवाह किया जाता है। विवाह के अभाव में एक हिंदू अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकता और हिंदू धर्म में विभिन्न कर्तव्यों की पूर्ति पर विशेष जोर दिया गया है ये धार्मिक कर्तव्य “यज्ञ" कहे गए हैं। इन यज्ञों को संपन्न करने के लिए पत्नी का होना आवश्यक है।

हिंदू समाज में प्रत्येक गृहस्थ के लिए पाँच महायज्ञ ब्रह्मयज्ञ, देव यज्ञ. भूतयज्ञ, पितृयज्ञ तथा नृयज्ञ करना आवश्यक बताया गया है। अविवाहित व्यक्ति इन कार्यों की पूर्ति नहीं कर सकता है। और इस प्रकार उसका कर्म पूर्ण नहीं होगा। डॉ. सम्पूर्णानंद ने हिंदू विवाह के इस उद्देश्य के संबंध में कहा है कि तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार पत्नीहीन मनुष्य यज्ञ का अधिकारी नहीं होता है। यज्ञ केवल उस कृत्य को नहीं कहते जिसमें मंत्र पढ़कर अग्नि में आहुति डाली जाती है, जो कोई भी काम शुरू विवेक से किया जाए वह सभी कृत्य यज्ञ हो सकता है परंतु उत्कृष्ट यज्ञ वह है जो परमार्थ के लिए किया जाए।


(2) प्रज्ञा या पुत्र प्राप्ति (Progeny):- हिंदू विवाह का दूसरा उद्देश्य संतानोत्पत्ति माना गया है और पुत्र प्राप्ति को विशेष महत्व दिया गया है। इसका कारण यह है कि पुत्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुत्र जब स तक अपने पितरों को तर्पण और पिंडदान प्रदान नहीं करता, तब तक उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर पुत्र की कामना की गयी है। पाणिग्रहण के अवसर पर मंत्रों के माध्यम से यही सिद्ध किया जाता है कि वैवाहिक संबंध उत्तम पुत्र प्राप्ति के लिए बनाया जा रहा है। मनुसंहिता और महाभारत में भी पुत्र शब्द की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि पुत्र वह है जो अपने माता-पिता को नर्क में जाने से बचाए। इस प्रकार पितृ यज्ञ को संपन्न करने और पितृ ऋण से उऋण होने के लिए पुत्र की उत्पत्ति आवश्यक मानी गयी है। परिवार और समाज की निरंतरता को ध्यान में रखकर ही संभवतः हिंदू शास्त्रकारों ने विवाह के इस लक्ष्य को इतनी महत्व दी है। 


( 3 ) रति (Sex Pleasure):- रति का तात्पर्य समाज द्वारा स्वीकृत तरीकों से यौन इच्छाओं की पूर्ति करना। साधारणतः “काम” अथवा यौन इच्छाओं की पूर्ति सभी समाजों में विवाह के रूप में मान्य है

परंतु इस सुख को धार्मिक रूप से उपनिषदों में सबसे बड़े आनंद के रूप में महत्ता प्रदान की गयीं है। रति का तात्पर्य धर्मानुसार "काम" से है न कि व्यभिचार या वासना से है। हिंदू धर्म शास्त्रों ने जहाँ मनुष्य में यौन, इच्छाओं की तृप्ति आवश्यक बताया गया है वहीं साथ ही यह प्रतिबंध भी लगाया गया है कि उसे केवल अपनी पत्नी के साथ इस प्रकार का संबंध बनाना चाहिए और वह भी उत्तम पुत्र की प्राप्ति की कामना के साथ हिंदू विवाह में तीन उद्देश्यों में महत्व की दृष्टि से इसे निम्न अर्थात् तृतीय स्थान दिया गया है।


इस संबंध में डॉ. कपाड़िया का यह कथन उल्लेखनीय है कि यद्यपि काम विवाह का एक उद्देश्य अवश्य है किंतु इसे निम्न स्थान इसलिए दिया गया है जिससे स्पष्ट हो कि यह विवाह का अत्यंत ही कम वांछनीय उद्देश्य है।"

क्या मसीही विश्‍वासी को विवाह करना आवश्यक है? विवाह का उद्देश्य क्या है? इस विषय के बारे में बाइबल में कहने के लिए बहुत कुछ कहना है। चूंकि पहला विवाह पहले पुरूष और पहली स्त्री के बीच में था, यह माना जाता है कि अधिकांश लोगों के लिए विवाह परमेश्‍वर की इच्छा है। यह निर्दोषता को बनाए रखने के लिए स्थापित किया गया था और इसलिए एक पवित्र संस्था है। विवाह के अस्तित्व के लिए बाइबल जिस पहले कारण को देती है: वह आदम का अकेला होना था और उसे एक सहायक की आवश्यकता थी (उत्पत्ति 2:18)। विवाह-संगति, सहयोग, और आपसी सहायता और सांत्वना का प्राथमिक उद्देश्य है।

विवाह का एक उद्देश्य एक स्थिर घर को बनाना है, जिसमें बच्चे आगे बढ़ और उन्नति कर सकते हैं। सबसे अच्छा विवाह दो विश्‍वासियों के बीच होता है (2 कुरिन्थियों 6:14) जो धर्म परायण सन्तान को उत्पन्न कर सकते हैं (मलाकी 2:13-15)। मलाकी में, परमेश्‍वर इस्राएलियों से कहता है कि वह उनकी भेंटों को इसलिए स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि उनके युवक अपनी पत्नियाँ के प्रति अविश्‍वासी हैं। इससे पता चलता है कि परमेश्‍वर विवाह के बारे में कितना अधिक ध्यान रखता है। इतना ही नहीं, परन्तु वह उन्हें कहता है कि वह "परमेश्‍वर के योग्य सन्तान" की खोज में है। यह एक उलझन में डाले देने वाला सन्दर्भ है, और इसका अर्थ इस व्याख्या के लिए दिया गया है कि अ) धर्म परायण सन्तान ही विवाह का उद्देश्य है; ब) कि दो धर्म परायण लोगों के बीच एक अच्छे विवाह का अर्थ यह होगा कि उनसे उत्पन्न होने वाला कोई भी बच्चा धर्म परायण होगा; स) परमेश्‍वर चाहता था कि इस्राएली विदेशी पत्नियों को छोड़कर अपनी पत्नियों के प्रति विश्‍वासयोग्य रहें जो उन जातियों की मूर्तिपूजा की कारण अभक्ति वाली सन्तान को उत्पन्न करेगी; और द) परमेश्‍वर स्वयं अपने लिए सन्तान (लोगों) से अपने प्रति विश्‍वासयोग्यता से भरी हुई भक्ति को प्रदर्शित करने की मांग कर रहा था। इनमें से किसी भी व्याख्या में, हम एक सामान्य विषय: विश्‍वासयोग्य लोगों के बच्चे भी विश्‍वासयोग्य रहेंगे, को देखते हैं।

विवाह बच्चों को विश्‍वासयोग्य होने की शिक्षा देता है और उन्हें एक स्थिर वातावरण प्रदान करता है, जिसमें उन्हें सीखना और आगे बढ़ना होता है, जब वे परमेश्‍वर की व्यवस्था के प्रति अधीन होते है, जिस से विवाह में एक हुए दोनों साथियों के ऊपर इसका पवित्र प्रभाव पड़ता है (इफिसियों 5)। प्रत्येक विवाह में कठिन क्षण या कठिन गतिशीलता पाई जाती है। जब दो पापी लोग एक साथ जीवन निर्मित करने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें एक दूसरे से प्रेम करने के लिए परमेश्‍वर के आदेश के प्रति समर्पित होना होगा ठीक वैसे ही जैसे परमेश्‍वर ने — निःस्वार्थ रूप में हम से प्रेम किया है (1 यूहन्ना 3:16)। अपनी सामर्थ्य में होकर परमेश्‍वर के आदेशों का पालन करने के हमारे प्रयास विफलता में ही जाकर समाप्त होते हैं, और यह विफलता विश्‍वासी को परमेश्‍वर के ऊपर निर्भरता के बारे में अधिक जागरूक करती है और आत्मा में उसके काम के होने के लिए अधिक उदार रहती है, जिसके परिणामस्वरूप भक्ति उत्पन्न होती है। और भक्ति हमें परमेश्‍वर के आदेशों का पालन करने में सहायता करती है। इसलिए, एक धर्म परायण जीवन को यापन करने का प्रयास करने वाले व्यक्ति के लिए विवाह बहुत ही अधिक उपयोगी है; यह स्वार्थ और अन्य अशुद्धियों के मन से साफ करने में सहायता प्रदान करता है।

विवाह लोगों को यौन अनैतिकता से भी बचाता है (1 कुरिन्थियों 7:2)। जिस संसार में हम रहते हैं, वह यौन चित्रों, कामुकता से भरे हुए ज्ञान और परीक्षा से भरा हुआ है। यहाँ तक कि यदि कोई व्यक्ति यौन पाप का अनुसरण नहीं करता है, तौभी ये उसका अनुसरण करती हैं, और इस से बचाना बहुत ही अधिक कठिन होता है। विवाह एक यौन सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए स्वस्थ स्थान प्रदान करता है, यह कामुकता, गैर-समर्पण वाले यौन सम्बन्धों के कारण होने वाली गम्भीर भावनात्मक (और कई बार शारीरिक) क्षति की ओर लिए जाने बिना इस कार्य को करता है। यह स्पष्ट है कि परमेश्‍वर ने हमें आनन्दित रहने के लिए, एक स्वस्थ समाज को बढ़ावा देने और हमारे जीवन में पवित्रता को उत्पन्न करने के लिए, हमारे अच्छे (नीतिवचन 18:22) के लिए विवाह की स्थापना की है।

अन्त में, विवाह मसीह और उसकी कलीसिया के बीच सम्बन्धों का एक सुन्दर चित्र है। कलीसिया बनाने वाले विश्‍वासियों की देह सामूहिक रूप से मसीह की दुल्हन कहलाती है। दुल्हे के रूप में, यीशु ने अपनी दुल्हन के लिए अपना जीवन दिया, "कि उसको वचन के द्वारा जल के स्‍नान से शुद्ध करके पवित्र बनाए" (इफिसियों 5:25-26), और उसका निःस्वार्थ कार्य सभी पतियों के लिए एक उदाहरण प्रदान करता है। मसीह के दूसरे आगमन पर, कलीसिया दुल्हन के साथ एक हो जाएगी, आधिकारिक "विवाह समारोह" होगा, और इसके साथ ही मसीह और उसकी दुल्हन शाश्‍वतकाल के लिए वास्तविक रूप से एक हो जाएंगे (प्रकाशितवाक्य 19:7-9; 21:1-2)।

हिंदुओं में विवाह का मुख्य उद्देश्य क्या है?

विवाह स्त्री - पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है। मरडॉक के अनुसार सभी समाजों में विवाह के तीन उद्देश्य हैं - यौन संतुष्टि, आर्थिक सहयोग, संतानों का समाजीकरण एवं लालन-पालन। हिन्दू धर्म में विवाह को एक संस्कार माना गया है

हिंदू विवाह के तीन उद्देश्य क्या है?

i- धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन - प्रभु के अनुसार हिन्दू विवाह के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं – (4) धर्म, (2) प्रजा और (3) रति । अर्थात् धर्म, विवाह का मुख्य उद्देश्य है ।

शादी का उद्देश्य क्या है?

विवाह-संगति, सहयोग, और आपसी सहायता और सांत्वना का प्राथमिक उद्देश्य है। समाज में व्यवस्था बनाए रखने में शादी का महत्वपूर्ण योगदान है। एक पुरुष को एक स्त्री और उस स्त्री को वह पुरुष शादी द्वारा समस्त समाज के सामने नामित कर दिए जाने से उनके अंतरंग संबंधो से उत्पन्न संतान व उनके उत्तराधिकार मान्य होजाते है।

हिंदू विवाह से आप क्या समझते हैं?

पश्चिमी समाजों से भिन्न हिंदू समाज में विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। विवाह के पश्चात् ही कोई हिंदू धार्मिक क्रियाओं को करने का अधिकारी होता है। इसलिए हिंदू विवाह का मुख्य उद्देश्य धार्मिक है।