कवि के अनुसार व्यक्ति पंडित कैसे बन सकता है - kavi ke anusaar vyakti pandit kaise ban sakata hai

उत्तर: कबीर दास जी के आराध्य निर्गुण निराकार राम थे। कबीरदास के अनुसार वे संसार के रोम-रोम में बसे हैं। जो भी व्यक्ति सच्चे मन और पवित्र हृदय से उन्हें ढूंढता है उसे पल भर में वह मिल जाते हैं।


(ख) कबीरदास जी की काव्य भाषा किन गुणों से युक्त है?

उत्तर: कबीरदास जी की काव्य भाषा बिल्कुल सरल सहज बोध गम्य एवं स्वाभाविक अलंकारों से सजी हुई है। उनकी काव्य भाषा वस्तुतः तत्कालीन हिंदुस्तानी थी। जिसे विद्वानों ने सघुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी आदि कहा है। उनकी रचनाओं में ज्ञान, भक्ति आत्मा परमात्मा, माया, प्रेम आदि गंभीर विषयों से युक्त है।


(ग) 'तेरा साईं तुझ में, ज्यों पुहुपन में बास' का आशय क्या है?

उत्तर: 'तेरा साईं तुझ में, ज्यों पुहुपन में बास' का आशय है कि जिस प्रकार फूलों की खुशबू उसके अंदर ही समाई होती है। उसी प्रकार हमारे हृदय में ही ईश्वर समाये होते हैं। इसीलिए कवि का मानना है कि हमें धार्मिक स्थलों में प्रभु को ढूंढने की बजाए अपने हृदय में ईश्वर को खोजना चाहिए। अर्थात ईश्वर तो चारों ओर व्याप्त है।


(घ) 'सत गुरु' की महिमा के बारे में कवि ने क्या कहा है?

उत्तर: सतगुरु की महिमा के बारे में कवि ने कहा है कि गुरु की महिमा अनंत व अपार है। शिष्य जिस बात से अनजान थे, जिस असत्य को सत्य मानकर अंधेरे में जी रहे थे उस अंधेरे को हटाकर ज्ञान का प्रकाश दिलाना ही गुरु का दायित्व है। अर्थात शिष्यो को सही मार्ग और ज्ञानी बनाना गुरु का कर्तव्य है।


(ङ) 'अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट' का तात्पर्य बताओ।

उत्तर: 'अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट' का अर्थ है कि जिस प्रकार कुम्हार एक घड़ा गढ़ते वक्त अपने कोमल हाथों से अंदर के भाग को सहारा देता है, तो कभी बाहरी भाग को ठीक करने के लिए अपने दूसरे हाथ को कठोर कर प्रहार भी करता है। ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को उनके दोष बताकर उनकी भलाई के लिए नरम स्वभाव से कठोर भी होना पड़ता है।



5 संक्षेप में उत्तर दो:


(क) बुराई खोजने के संदर्भ में कवि ने क्या कहा है?

उत्तर: बुराई खोजने के संदर्भ में कवि ने कहा है कि जो व्यक्ति दूसरों की बुराइयांँ देखा करते हैं असल में वह भूल जाते हैं कि उन से बुरा कोई है ही नहीं। कवि का मानना है कि अगर हम दूसरों के बुराइयों को देखने से पहले खुद के हृदय में झांक कर देखे, तो हमारे अंदर ही वह बुराइयांँ दिखने लगेगी। इसीलिए कवि कहते हैं कि जो व्यक्ति दूसरे में बुराई देखता है असल में वही बुरा व्यक्ति है।


(ख) कबीरदास जी ने किसलिए मन का मनका फेरने का उपदेश दिया है?

उत्तर: मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवान का नाम जपते हुए हाथ में माला लिए सदियों बीत गए पर उंगलियों से माला फेरने से कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ। असल में ह्रदय परिवर्तन के लिए हमें अपने मन को बदलना होगा। मन में बसे मोह-माया, वासनाओं को त्यागना होगा। मन के अंदर बसे मैल को दूर करना है तो हमें अच्छाइयों की और मन को मोड़ना पड़ेगा। 


(ग) गुरु शिष्य को किस प्रकार गढ़ते हैं।

उत्तर: कबीरदास गुरु और शिष्य का संबंध कुम्हार और घड़े से करते हैं। गुरु अपने शिष्य को एक कुम्हार की तरह गढ़ते हैं, जिस प्रकार एक कुम्हार अपने घड़े को बनाते वक्त उसकी कमियों को ढूंढ अपने हाथों से ठोकने लगता है, तो दूसरी ओर घड़े के अंदर अपने कोमल हाथों से सहारा भी देता है। ठीक उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को उसके दोष के लिए कड़ा शब्द का प्रयोग करता है तो साथ ही साथ ह्रदय से सहारा भी देता हैं। अर्थात शिष्य को कुशल बनाने हेतु गुरु को कभी कठोर तो कभी कोमल भाव से शिक्षा देनी पड़ती है।



6.वाख्या


(क) "जाति न पूछो साधु की..... पड़ा रहन दो म्यान।।"

उत्तर: 

संदर्भ-प्रस्तुत पंक्तियांँ हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक आलोक भाग-2 के अंतर्गत कबीरदास जी द्वारा रचित 'साखी' नामक कविता से लिया गया है।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में साधु का ज्ञान उसके धर्म या जाति से नहीं होता उसका वर्णन किया गया है।

वाख्या-इन पंक्तियों के जरिए कबीरदास संदेश देना चाहते हैं कि ज्ञान देने वाले साधु को कभी जाति नहीं पूछना चाहिए। चाहे वह किसी जाति का हो या किसी भी धर्म का। अगर उसमे सार्थक ज्ञान देने योग्य ज्ञान है तो उस ज्ञान को बटोर लेना चाहिए। अर्थात ज्ञान का महत्व प्रदान करने वाले से नहीं होती बल्कि उसके अंदर के सर से होती है। ठीक उसी प्रकार जैसे तलवार का मोल उसकी धार से होता है ना की उसकी म्यान से। म्यान कैसी भी हो आखिर तलवार की धार से ही उसकी कीमत देखी जाती है।


(ख) "जिन ढूंँढा तिन पाइयांँ..... रहा किनारे बैठ।।"

उत्तर:

संदर्भ:-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक आलोक भाग-2 के अंतर्गत कबीरदास जी द्वारा रचित 'साखी' कविता से लिया गया है।

प्रसंग:-इस पंक्ति में सच्चे मन और निडर होकर किस प्रकार गहरी साधना से अपने परमेश्वर तक पहुंचा जा सकता है उसका वर्णन है।

वाख्या:-कबीरदास कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति अगर सच्चे मन और निडर भाव से अपने लक्ष्य एवं भगवान को पाने के लिए भक्ति रूपी सागर में गहरी डुबकी लगाता है तो उसे अवश्य ही लक्ष्य की प्राप्ति होगी। परंतु जो व्यक्ति परमेश्वर की खोज में भक्ति एवं साधना में अपने आपको विलीन नहीं कर पाता, वह कभी भी ईश्वर तक नहीं पहुंच पाता। अर्थात जो व्यक्ति सागर में डुबकी लगाने से डर जाता है उसे कुछ हासिल नहीं होता और वह उसी किनारे बैठा रहता है। अगर हमें परमेश्वर को पाना है तो हमें अपने आप को भक्ति में लीन करना होगा। अर्थात गहरी साधना से ही परमेश्वर को पाया जा सकता है।

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कवि के अनुसार व्यक्ति पंडित कैसे बनता है?

उत्तर : कबीर दास के अनुसार पुस्तकीय ज्ञान के जरिए कोई लोग पंडित नहीं बन सकता। पण्डित बनने के लिए लोगों को प्रेम के बारे में जानना जरूरी है। जो लोग प्रेम के ढाई प्रकार का ज्ञान जानते हो वे ही पंडित बन सकते है ।

कवि के अनुसार व्यक्ति पंडित ज्ञानी कब बनता है?

इन पंक्तियों द्वारा कवि ने प्रेम की महत्ता को बताया है। ईश्वर को पाने के लिए एक अक्षर प्रेम का अर्थात ईश्वर को पढ़ लेना ही पर्याप्त है। बड़े-बड़े पोथे या ग्रन्थ पढ़ कर भी हर कोई पंडित नहीं बन जाता। केवल परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही सच्चा ज्ञानी बना जा सकता है।

कवि के अनुसार व्यक्ति का जीवन कैसे सफल हो सकता है?

कवि कहना चाहता है कि हमें ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए जो दूसरों के काम आए। मनुष्य को अपने स्वार्थ का त्याग करके परहित के लिए जीना चाहिए। दया, करुणा, परोपकार का भाव रखना चाहिए, घमंड नहीं करना चाहिए। यदि हम दूसरों के लिए जिएँ तो हमारी मृत्यु भी सुमृत्यु बन सकती है।

मनुष्य ईश्वर को कब नहीं देख पाता?

ईश्वर संसार के कण-कण में व्याप्त है परंतु हम उसे देख नहीं पाते, क्योंकि हमारा अस्थिर मन सांसारिक विषय-वासनाओं, अज्ञानता, अहंकार और अविश्वास से घिरा रहता है। अज्ञान के कारण हम ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर पाते।