मध्य प्रदेश की लोक कलाएं कौन कौन से हैं? - madhy pradesh kee lok kalaen kaun kaun se hain?

Craft Arts of Madhya Pradesh
मध्य प्रदेश की रुपंकर कलाएँ

मध्य प्रदेश शिल्प कला के क्षेत्र बहुत पहले से अग्रणी था Madhya Pradesh Ki shilp Kalaye  यहां की पुरानी परंपरा गत कला है जो कि मुख्य रूप से यहां के जनजाति समुदाय के लोगों का मुख्य व्यवसाय था।  यहां के लोग अपने-अपने शिल्प कला के क्षेत्रों में बहुत निपुण थे और इन्ही कलाओ से अपना जीवन यापन करते थे। मध्य प्रदेश में शिल्पकला की समृद्धि के कारण इस प्रदेश को कलाओं का प्रदेश कहा जाता है। मध्य प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में समृद्ध लोक कला और जनजातीय कला का इतिहास बहुत पुराना रहा है।

मिट्टी शिल्प
मनुष्य ने सबसे पहले मिट्टी के बरतन बनाए। मिट्टी से ही खिलौने और मूर्तियाँ बनाने की प्राचीन परंपरा है। मिट्टी का कार्य करने वाले कुम्हार होते हैं। मध्यप्रदेश के प्रत्येक अंचल में कुम्हार मिट्टी-शिल्प का काम करते हैं।

लोक और आदिवासी दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं के साथ कुम्हार परम्परागत कलात्मक रूपाकारों का निर्माण करते हैं। धार-झाबुआ, मंडला-बैतूल, रीवा-शहडोल आदि के मिट्टीशिल्प अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश के विभिन्न लोकांचलों की पारम्परिक मिट्टी शिल्पकला का वैभव पर्व-त्योहारों पर देखा जा सकता है।

काष्ठ शिल्प
काष्ठ शिल्प की परंपरा बहुत प्राचीन और समृद्ध है। जब से मानव ने मकान में रहना सीखा तब से काष्ठ कला की प्रतिष्ठा हुई, इसलिए काष्ठ से निर्मित मनुष्य के आस्था केन्द्र मंदिर और उसके निवास स्थापत्य कला के चरम कहे जा सकते हैं। अलंकरण से लेकर मूर्ति-शिल्प तक की समृद्धि इन केन्द्रों में देखी जा सकती है।

आदिम समूहों में सभी काष्ठ में विभिन्न रूपाकार उकेरने की प्रवृत्ति सहज रूप से देखी जाती है। गाड़ी के पहियों, देवी-देवताओं की मूर्तियों, घरों के दरवाजों, पाटों, तिपाही पायों और मुखौटों आदि वस्तुओं में काष्ठ कला का उत्कर्ष प्राचीन समय से देखा जा सकता है।

खराद कला
मध्यप्रदेश में खराद पर लकड़ी को सुडौल रूप देने की कला अति प्राचीन है। जिसमें खिलौनों और सजावट की सामग्री तैयार करने की अनंत संभावनाएँ होती हैं। श्योपुरकलाँ, बुदनीघाट, रीवा, मुरैना की खराद कला ने प्रदेश ही नहीं, बल्कि प्रदेश के बाहर भी प्रसिद्धि पाई है। लकड़ी पर चढ़ाए जाने वाले रंगों का निर्माण इन कलाकारों द्वारा अपने ठेठ रूप में आज भी मौजूद है। खराद सागवान, दूधी, कदम्ब, सलई, गुरजैल, मेहला, खैर आदि की लकड़ी पर की जाती है। लाख चपड़ी, राजन बेरजा, सरेस, गोंद, जिंक पाउडर से रंग बनाए जाते हैं। केवड़े के पत्ते से रंगों में चमक पैदा की जाती है। श्योपुरकलाँ, रीवा और बुदनीघाट खराद कला के पारम्परिक केन्द्र हैं।

कंघी कला
सम्पूर्ण भारत के ग्रामीण समाज और आदिवासी समाज में खासतौर पर अनेक प्रकार की कंघियों का प्राचीनकाल से ही प्रचलन चला आ रहा है। आदिवासियों में कंघियाँ प्रेम का प्रतीक हैं। कंघी बनाने का श्रेय बंजारा जनजाति को है। मालवा में कंघी बनाने का कार्य उज्जैन, रतलाम, नीमच में होता है।

बाँस शिल्प
बाँस से बनी कलात्मक वस्तुएँ सौन्दर्यपरक और जीवनोपयोगी होती है। बैतूल, मंडला आदि लोकांचल में विभिन्न जातियों के लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग के लिए बाँस की बनी कलात्मक चीजों का स्वयं अपने हाथों से निर्माण करते हैं। बाँस का कार्य करने वाली कई जातियों में कई सिद्धहस्त कलाकार हैं।

धातु शिल्प
मध्यप्रदेश के विभिन्न अंचलों में धातु शिल्प की सुदीर्घ परम्परा है। प्रदेश के लगभग सभी आदिवासी और लोकांचलों के कलाकार पारम्परिक रूप से धातु की ढलाई का कार्य करते हैं। टीकमगढ़ के स्वर्णकार और बैतूल के भरेवा कलाकारों ने आज तक अपनी परम्परा को अक्षुण्य रखा है। टीकमगढ़ की धातु कला की तकनीक का इतिहास अत्यन्त प्राचीन और पारम्परिक है। आजकल विशेषकर मूर्तियों का काम टीकमगढ़ के क्षेत्र में होता है।

पत्ता शिल्प
पत्ता शिल्प के कलाकार मूलतः झाडू बनाने वाले होते हैं । छिन्द पेड़ के पत्तों से कलात्मक खिलौने, चटाई, आसन, दूल्हा-दुल्हन के मोढ़ आदि बनाए जाते हैं। पत्तों की कोमलता के अनुरूप कलात्मक वस्तुएँ बनाने में कलाकार परम्परा से लगे हैं।

कठपुतली
कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं को नाटकीय अंदाज में व्यक्त करने की मनोरंजक विधा कठपुतली है। जिसमें मानवीय विचारों और भावों को अभिव्यक्त करने वाले कठपुतली के प्रसिद्ध पात्र अनारकली, बीरबल, बादशाह अकबर, पुंगीवाला, घुड़सवार, साँप और जोगी होते हैं।

कठपुतली लकड़ी और कपड़े से निर्मित होती है। उसमें चमकीली गोटें लगाकर उसे सजाया जाता है। इसे नचाने का कार्य मुख्यतः नट जाति के लोग करते हैं । कठपुतली कला मध्यप्रदेश में राजस्थान और उत्तरप्रदेश से आई है।

गुड़िया शिल्प
नयी पुरानी रंगीन चिन्दियों और कागजों से गुड़ियाएँ बनाने की परंपरा लोक में देखी जा सकती है। खिलौनों में गुड़िया बनाने की प्रथा बहुत पुरानी है, परंतु कुछ गुड़ियाएँ पर्व त्योहारों से जुड़कर मांगलिक अनुष्ठानपरक भी होती है, जिनका निर्माण और बिक्री उसी अवसर पर होता है।

ग्वालियर अंचल में कपड़े, लकड़ी और कागज से बनाई जाने वाली गुड़ियों की परंपरा विवाह-अनुष्ठान से जुड़ी होती है। उनके नाम से व्रत पूजा की जाती है। ग्वालियर अंचल की गुड़ियाएँ प्रसिद्ध हैं।

छीपा शिल्प
कपड़ों पर लकड़ी के छापों से छापे जाने वाले शिल्प को छीपा शिल्प कहते हैं । यह कार्य छीपा जाति के लोग करते हैं। उसमें वनस्पति रंगों का उपयोग किया जाता है। इसके मुख्य रंग लाल, गेरूवा, कत्थई, पीला, काला होते हैं। बाग, कुक्षी, मनावर, बदनावर, गोगांवा, खिराला और उज्जैन इसके मुख्य केन्द्र हैं।

पिथौरा भित्तिचित्र
पिथौरा भित्तिचित्र झाबुआ का अनुष्ठानिक चित्रकर्म है। इसके लिखने वाले कलाकार लिखिन्दरा कहलाते हैं, जो परम्परागत श्रेष्ठ कलाकार होते हैं। लिखिन्दरा के परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिथौरा बनाने की कला चलती है। पिथौरा में घोड़ों का चित्रांकन मुख्य रूप से होता है।

महेश्वरी साड़ी
महेश्वरी साड़ी अपनी बनावट, सजावट, रंग और कलात्मकता के लिए भारत ही नहीं बल्कि सारे विश्व में प्रसिद्ध है। महेश्वरी साड़ी की मुख्य विशेषता छोटी चौखाना-चौकड़ी और कलात्मक किनारी पल्लू है। जिसमें जरी रेशम से हथकरघा पर कढ़ाई की जाती है। महेश्वरी साड़ी उद्योग-कला में स्थापित करने का श्रेय देवी अहिल्याबाई को है।

चंदेरी साड़ी
चंदेरी में बनने के कारण इस साड़ी का नाम ‘चंदेरी साड़ी’ पड़ा। चंदेरी साड़ी सूती और रेशमी दोनों तरह की बनाई जाती है। चंदेरी साड़ी की मुख्य विशेषता उसके हल्के और गहरे रंग, कलात्मक चौड़ी बार्डर, मोर बतख की आकृतियाँ उकेरना है। चंदेरी साड़ी की लोकप्रियता देश और देश से बाहर तक पहुँची है।

प्रस्तर शिल्प
मंदसौर, रतलाम, जबलपुर, ग्वालियर, सागर आदि इस शिल्प के केन्द्र माने जाते हैं। पत्थर से मूर्ति गढ़ने वाले प्रदेश में कई शिल्पकार-जातियाँ हैं। ये शिल्पकार, गूजर, गायरी, जाट, सिलावट, लाट आदि होते हैं, जो विभिन्न देवी-देवताओं, नंदी आदि की मूर्तियाँ गढ़ते हैं। इसके अलावा वे कुछ मूर्तियाँ तथा शिल्प ऐसे भी गढ़ते हैं, जिनका महत्व सौन्दर्यात्मक अथवा दैनिक उपयोग की वस्तुओं का है। भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियाँ और ग्वालियर पौराणिक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाने का केन्द्र है।

लाख शिल्प
वृक्ष के गोंद या रस से लाख बनाई जाती है। लाख को गरम करके उसमें विभिन्न रंगों को मिलाकर अलगअलग रंगों के चूड़े बनाए जाते हैं। लाख का काम करने वाली एक जाति का नाम ही लखेरा है। लखेरा जाति के स्त्री-पुरुष दोनों पारम्परिक रूप से लाखकर्म में दक्ष होते हैं। लाख के चूड़े, कलात्मक खिलौने, शृंगारपेटी, डिब्बियाँ, लाख के अलंकृत पशु-पक्षी आदि वस्तुएँ बनाई जाती हैं। उज्जैन, इंदौर, रतलाम, मंदसौर, महेश्वर लाख-शिल्प के परम्परागत केन्द्रों में से हैं।

बुन्देलखण्ड की लोक कलाएं 

मध्य प्रदेश की लोक कलाएं कौन कौन सी हैं?

आदिवासियों द्वारा कंघियों पर अलंकरण गोदना भित्ति चित्रों का निर्माण किया जाता है। प्रदेश के श्योपुर कला ,बुधनी घाट, रीवा, मुरैना की खराद कला प्रसिद्ध है। खराद सागवान ,दूधी कदम्ब, गुरजेल, मेडला,सलाई खैर आदि वृक्षों की लकड़ी पर की जाती है। खराद कला में खिलौने एवं सजावट की सामग्री बनाई जाती है।

मध्य प्रदेश की लोक कलाएं कितने भागों में बांटा गया है?

मध्यप्रदेश के लोकसाहित्य को हम मालवा के लोकसाहित्य, निमाड़ का लोकसाहित्य, बुँदेलखंड का लोकसाहित्य के रूप में अध्ययन करेंगे।

लोक कला कितने प्रकार की होती है?

भारत की लोक चित्रकला.
मधुबनी चित्रकला.
पट्टचित्र कला.
पिथोरा चित्रकला.
कलमकारी चित्रकला.
कालीघाट चित्रकला.
फर्श चित्रकला (पट चित्रकला).
वर्ली चित्रकला.
थांका चित्रकला.

लोक कला का क्या नाम है?

कलमकारी, कांगड़ा, गोंड, चित्तर, तंजावुर, थंगक, पातचित्र, पिछवई, पिथोरा चित्रकला, फड़, बाटिक, मधुबनी, यमुनाघाट तथा वरली आदि भारत की प्रमुख लोक कलाएँ हैं।