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वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भविष्य की रुपरेखा तैयार करने के लिए आवश्यक क्रियाकलापों के बारे में चिन्तन करना आयोजन या नियोजन (Planning) कहलाता है। यह प्रबन्धन का प्रमुख घटक है। आज जिस प्रकार के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक माहौल में हम हैं, उसमें नियोजन उपक्रम एक अभीष्ट जीवन-साथी बन चुका है। यदि समूहि के प्रयासों को प्रभावशाली बनाना है तो कार्यरत व्यक्तियों को यह जानना आवश्यक है कि उनसे क्या अपेक्षित है और इसे केवल नियोजन की मदद से ही जाना जा सकता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि प्रभावशाली प्रबन्ध के लिए नियोजन उपक्रम की समस्त क्रियाओं में आवश्यक है। लक्ष्य निर्धारण तथा उस तक पहुँ चने तक का मार्ग निश्चित किये बिना संगठन, अभिप्रेरण, समन्वय तथा नियन्त्रण का कोई भी महत्व नहीं रह पायेगा। जब नियोजन के अभाव में क्रियाओं का पूर्वनिर्धारण नहीं होगा तो न तो कुछ कार्य संगठन को करने को ही होगा, न समन्वय को और न ही अभिप्रेरणा और नियन्त्रण को। इसीलिए ही विद्वानों ने नियोजन को प्रबन्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य माना है। नियोजन की प्रक्रिया मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मौजूद है, क्योंकि यह मानव का स्वभाव रहा है कि उसे आगे क्या करना है? इसकी वह पूर्व में कल्पना करता है। आज इसका सुधरा हुआ स्वरूप हमारे सामने है। नियोजन के उद्देश्य[संपादित करें]
नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा[संपादित करें]नियोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा भावी उद्देश्यों तथा उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले कार्यों को निर्धारित किया जाता है। इसके अतिरिक्त उन सभी परिस्थितियों की जाँच की जाती जिनसे इसका सरोकार हो। इस प्रक्रिया में किये जाने वाले कार्यों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी निर्धारित किये जाते हैं ये कार्य कब, कहाँ, किस प्रकार, किनके द्वारा, किन संसाधनों से, किस नियम एवं प्रक्रिया के अनुसार पूरे किये जायेंगे। नियोजन को अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुखपरिभाषाएं निम्नानुसार हैं- मोन्डे एवं फ्लिपो (mondy and flippo) के अनुसार लक्ष्यों तथा इनकी प्राप्ति के लिए कार्य-पथ के निर्धारण की प्रक्रिया को नियोजन कहा जाता है। क्लॉड एस. जार्ज (claude S. Georgh) के अनुसार नियोजन आगे देखना है, भावी घटनाओं की संकल्पना करना है तथा वर्तमान में भविष्य को प्रभावित करने वाले निर्णय लेना है। कूट्ज एवं ओ’ डोनेल (koontz and O'Donnell) अनुसार, नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है, कार्यविधि का सचेत निर्धारण है, निर्णयों को उद्देश्यों, तथा पूर्व-विचारित अनुमानों पर आधारित करना है। एम. ई. हले (M.E.Hurley) के शब्दों में, ' 'क्या करना है, इसका पूर्व निर्धारण नियोजन है। इसमें विभिन्न वैकल्पिक उद्देश्यों, नीतियों, पद्धतियों एवं कार्यक्रमों में से चयन करना निहित है। हार्ट (Hart) के शब्दों में, नियोजन कार्यों की श्रृंखला का अग्रिम निर्धारण है जिसके द्वारा निश्चित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। मेरी कुशिंग नाइल्स (Marry cushing Niles) के शब्दों में, नियोजन किसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु क्रिया-विधि या कार्य-पथ का चयन एवं विकास करने की प्रक्रिया है। यह वह आधार है जिसमें भावी प्रबन्धकीय कार्यों का उद्गम होता है। क्रीटनर (Kreitner) के शब्दों में, नियोजन विनिर्दिष्ट परिणाम प्राप्त करने हेतु भावी कार्य-पथों का निर्धारण करके अनिश्चितता का सामना करने की प्रक्रिया है। है मन (Haiman) के शब्दों में, क्या किया जाना है इसका पूर्व-निर्धारण ही नियोजन है। जार्ज आर. टेरी (George R.Terry) के शब्दों में, नियोजन भविष्य में देखने की विधि अथवा कला है। इसमें भविष्य की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाया जाता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए जाने वाले वर्तमान प्रयासों को उनके अनुरूप डाला जा सके। । नियोजन का महत्व या प्रभाव[संपादित करें]व्यावसायिक क्षेत्र में अनेक परिवर्तन आते रहते है जो उपक्रम के लिए विकास एवं प्रगति का मार्ग ही नहीं खोलते हैं, वरन् अनेक जोखिमों एवं अनिश्चितताओं को भी उत्पन्न कर देते हैं। प्रतिस्पर्द्धा, प्रौद्योगिकी, सरकारी नीति, आर्थिक क्रियाओं, श्रम पूर्ति, कच्चा माल तथा सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं में होने वाले परिवर्तनों के कारण आधुनिक व्यवसाय का स्वरूप अत्यन्त जटिल हो गया है। ऐसे परिवर्तनशील वातावरण में नियोजन के आधार पर ही व्यावसायिक सफलता की आशा की जा सकती हैं। आज के युग में नियोजन का विकास प्रत्येक उपक्रम की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। व्यावसायिक बर्बादी, दुरूपयोग व, जोखिमों को नियोजन के द्वारा ही कम किया जा सकता है। नियोजन की आवश्यकता एवं महत्व को निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है :
नियोजन की कठिनाइयाँ, सीमाएँ एवं आलोचनाएँ[संपादित करें]नियोजन का उपर्युक्त महत्व होते हुए भी कुछ विद्वान इसे 'समय एवं धन की बर्बादी अथवा 'बरसाती ओले' कहकर इसका विरोध करते हैं। उनका कहना हैं कि व्यावसायिक योजनाएँ अनिश्चित एवं अस्थिर परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में तैयार की जाती हैं। जब इनका आधार ही अनिश्चित है तो फिर यह कै से माना जा सकता है कि नियोजन द्वारा निर्धारित बातें सदैव शत्-प्रतिशत सत्य ही होंगी। इस विरोध का मूल कारण नियोजन में उत्पन्न विभिन्न कठिनाइयों एवं सीमाओं का होना है जिनके कारण इसकी कटु शब्दों में आलोचनाएँ की जाती है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
नियोजन के प्रकार[संपादित करें]नियोजन कई प्रकार के हो सकते हैं। सामान्यतया नियोजन को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है : अवधि के आधार पर[संपादित करें]अवधि के आधार पर नियोजन तीन प्रकार का हो सकता है :
दीर्धकालीन नियोजन संस्थान के इरादों एवं अपेक्षाओं का वास्तविक प्रतिनिधि कहा जा सकता है। इसमें वातावरण में आये परिवर्तनों का समायोजन किया जाना आसान है और यह उपक्रम के विकास में तीव्रता लाता है। इसके अलावा यह शोध एवं अनुसंधान को प्रोत्साहन देगा। इसके दोष है- लम्बी अवधि का पूर्वानुमान करना कठिन, खर्चीली व्यवस्था तथा सभी तत्वों के प्रभावों का विश्लेषण करना कठिन। प्रकृति के आधार पर[संपादित करें]प्रकृति के आधार पर नियोजन को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
ये दीर्घकाल तक उपयोगी बने रहते हैं। इनका निर्धारण पूर्व में कर लिया जाता है, ताकि संगठन के क्रियाकलापों को व्यवस्था प्रदान करने के आधार के रूप में काम लिया जा सके। इनसे फर्म की विश्वसनीयता बढती हैं।
स्तर के आधार पर[संपादित करें]स्तर के आधार पर नियोजन को तीन भागों में बॉटा जा सकता है :
महत्व के आधार पर[संपादित करें]महत्व के आधार पर नियोजन को तीन भागों में बॉटा जा सकता है :
नियोजन की तकनीक या प्रक्रिया[संपादित करें]नियोजन प्रक्रिया से आशय ऐसी प्रक्रिया से है जिसके अनुसरण करने से एक प्रभावशाली नियोजन का निर्माण सम्भव है। यद्यपि सभी प्रकार के उपक्रमों के लिए नियोजन की एक सामान्य प्रक्रिया निश्चित नहीं की जा सकती, लेकिन फिर भी एक तर्कसंगत व्यावसायिक नियोजन में निम्न प्रक्रिया का अनुसरण किया जा सकता है :
उद्देश्य संस्था के साधनों को ध्यान में रखकर निश्चित किये जाने चाहिए तथा वेबोधगम्य एवं वास्तविक होने चाहिए। उद्देश्य किये जाने वाले कार्यों के लक्ष्य बिन्दुहोते है तथा इच्छित परिणामों के मार्ग का निर्धारण करते हैं। निर्धारण के बाद इन उद्देश्यों की जानकारी संबंधित विभागों एवं कर्मचारियों को दी जानी चाहिए ताकि वेयोजना निर्माण में सहयोग दे सकें।
नियोजन के सिद्धान्त[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें][1][2][3]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
नियोजन की आवश्यकता क्यों होती है?वास्तव में नियोजन की आवश्यकता उस समय पड़ती है जब किसी एक क्रिया को पूरा करने के लिए अनेक विकल्प विद्यमान हों। - चित्र 4.1 - नियोजन - उद्देश्यों को विचार में रखना और उनको कार्य रूप देना । रखा जाए तो वातावरण की अवस्थाओं में परिवर्तनों के कारण सारी व्यावसायिक योजनाएँ व्यर्थ हो जाती हैं।
नियोजन की परिभाषा क्या है?वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भविष्य की रुपरेखा तैयार करने के लिए आवश्यक क्रियाकलापों के बारे में चिन्तन करना आयोजन या नियोजन (Planning) कहलाता है। यह प्रबन्धन का प्रमुख घटक है।
किसी देश के विकास के लिए नियोजन क्यों आवश्यक है?आर्थिक नियोजन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय हित तथा सामाजिक हित को ध्यान में रखकर इनका कुशलतम प्रयोग करना है। इस कमी को नियोजन से ही पूरा किया जा सकता है । (iii) उत्पादन के सन्तुलित ढांचे के लिए (Balanced Structure of Production) :- देश में उत्पादन का ढांचा असन्तुलित है। कृषि का महत्व अधिक है।
भारत में नियोजन की आवश्यकता क्यों है?आत्मनिर्भरता प्राप्त करना एवं उद्योग के आयात एवं निर्यात की आवश्यकताओं को पूरा करना तथा कृषि उत्पादन को बढ़ाना। देश की श्रमशक्ति का अधिकतम प्रयोग करना तथा रोजगार उपलब्ध कराना। अवसर की समानता को अधिकतम करना तथा आय वितरण की असामनता को कम करना एवं आर्थिक शक्ति का समान वितरण करना।
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