पर्यावरण संतुलन को स्थापित करने के लिए कौन कौन से प्रयास आवश्यक है? - paryaavaran santulan ko sthaapit karane ke lie kaun kaun se prayaas aavashyak hai?

पर्यावरण संतुलन को स्थापित करने के लिए कौन कौन से प्रयास आवश्यक है? - paryaavaran santulan ko sthaapit karane ke lie kaun kaun se prayaas aavashyak hai?
विकास के दौर में वनों के अंधा-धुंध कटान से पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हुआ। ऐसी स्थिति में वृहद स्तर पर वृक्षारोपण का कार्य सीधे तौर पर तो किसी को व्यक्तिगत लाभ नहीं देती परंतु भविष्य के लिए समूचे क्षेत्र को एक बेहतर पर्यावरण के साथ आजीविका भी प्रदान करने में सक्षम है।

परिचय

शहरी विस्तार एवं विकास ने जो पहला काम किया वह यह कि वनों का विनाश तेजी से होने लगा। एक तरफ तो शहर के विस्तार हेतु वन काटे जाने लगे, दूसरी तरफ सजावटी सामानों के लिए भी वनों का कटान तेजी से होने लगा। इस कटान ने कालांतर में अपना प्रभाव दिखाया और प्रतिकूल मौसम की मार हम सभी झेलने लगे।

सोनभद्र जिले के दक्षिणांचल के विकास खंड-दुद्धी के ग्राम पंचायत नगवा की स्थिति भी कुछ यही रही। आदिवासी बहुल इस गांव के 512 परिवारों के 4675 लोगों की आजीविका एवं जीवनयापन वनोपज पर ही आधारित था। ये आदिवासी परिवार अति निर्धन तथा भूमिहीन होने के कारण आस-पास के जंगलों से ही अपना जीवनयापन करते थे पर वर्ष 1978 से 83 के बीच जंगल का कटान जोरों से हुआ। इसमें वन विभाग, स्थानीय प्रशासन, ठेकेदार, ग्रामीण सभी शामिल रहे। नतीजतन गांव वालों को चूल्हे जलाने के लिए भी लकड़ी मिलनी मुश्किल हो गई। साथ ही जंगल कटने के दूरगामी परिणाम भी सामने आने लगे, जब लोगों को अनियमित मौसमों का सामना करना पड़ा। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए लोगों को पुनः जंगलों की याद आई और उन्होंने इसे पुनर्स्थापित करने की दिशा में प्रयास करना शुरू किया।

प्रक्रिया

वर्ष 1989 के दशक में नगवा के लोगों ने यह महसूस किया कि वन न होने से बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 1989 के जनवरी माह में नगवा गांव के कौलेसर, रामवृक्ष, हरिचरन, सोमारू आदि अलाव ताप रहे थे और स्थानीय परिस्थितियों पर भी चर्चा कर रहे थे। उसी समय लकड़ियों के अभाव संबंधी विषय सामने आया। इन लोगों ने अभाव से उत्पन्न परिणामों पर चर्चा तो किया ही इस विषय पर भी गहन विमर्श किया कि जंगल नव निर्माण किस प्रकार हो, ताकि हमारी तत्कालीन समस्याओं के साथ पर्यावरणीय समस्याओं को भी कम करने में सहायता मिले। चूंकि यह विषय पूरे गांव से जुड़ा हुआ था। अतः सब ने इसे पूरी गंभीरता से लिया और अगले ही दिन गांव के प्रमुख श्री मोहन सिंह व ईश्वरी प्रसाद से मिलकर पूरे विषयक्रम पर अपने विचारों से उन्हें अवगत कराते हुए सहयोग की मांग की।

खुली बैठक व समिति का गठन

उपरोक्त प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की गरज से वर्ष 1989 के मई माह में ग्राम सभा की खुली बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में पूरे परिवार को आने का न्यौता दिया गया। 70 प्रतिशत जनसंख्या इस बैठक में शामिल हुई। बैठक का मुख्य उद्देश्य समस्या से लोगों को अवगत कराना, समस्या के समाधान पर चर्चा करना एवं समाधान के विकल्पों पर लोगों के विचार लेना था।

श्री ईश्वरी प्रसाद ने जंगल खत्म होने से हो रही समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यानाकर्षण करते हुए कहा कि जंगल खत्म होने से जलौनी लकड़ी का अभाव, शवदाह आदि की समस्या हम सभी झेल रहे हैं। ध्यान देने वाली बात है कि ये समस्याएं तो ऐसी हैं, जिनका विकल्प भी हम ढूंढ सकते हैं कुछ ऐसी समस्याएं भी हमारे सामने आ रही हैं, जिनका हमारे भविष्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ने वाला है। मसलन हमें कम बारिश, अनियमित मौसम, पर्यावरण प्रदूषण की गंभीर समस्याओं से दो-चार होना पड़ सकता है और यह अवश्यम्भावी है। अतः इसके विकल्प एवं समाधान के लिए हमें अभी से चेतना होना और तब इसके लिए उन्होंने अपने स्तर पर गांव वालों के लिए एक अधिसूचना जारी की कि – “अब से गांव का कोई भी व्यक्ति जंगल नहीं काटेगा। जंगल की सुरक्षा करना सबकी ज़िम्मेदारी होगी साथ ही पेड़ से नये कल्ले निकलने के दौरान विशेष देख-भाल एवं सुरक्षा की जाएगी। अब जो भी व्यक्ति पेड़ काटता हुआ अथवा पेड़ काटने में सहयोग करता हुआ मिल जाएगा उसे 50 रु. के आर्थिक दंड के साथ ही पंचायत के बीच में कान पकड़कर 50 बार उठक-बैठक करने की सजा दी जाएगी।” हालांकि कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया, परंतु बहुसंख्य लोगों द्वारा इस अधिसूचना का स्वागत एवं समर्थन ही किया गया। तत्पश्चात् जंगल की मानिटरिंग के लिए सर्वसम्मति से समिति का गठन किया गया। चार बीट की निगरानी एवं देख-भाल के लिए चार निगरानी समिति बनाई गई और उनके पदाधिकारियों का चयन किया गया। ये समितियां निम्नवत् हैं-

भौरहवां पहाड़ टोला समिति
अध्यक्ष-मोहन सिंह, कोषाध्यक्ष-कौलेश्वर, सदस्य – सोमारू, हरिकिशुन, वित्तन, शीतला प्रसाद, जानकी प्रसाद, रामवृक्ष, राम प्रसाद, वंश, तेलू, मनराज, मनीजर, पांचू।

नगीनिया पहाड़ टोला समिति
अध्यक्ष – देव कुमार, कोषाध्यक्ष – राजकेश्वर पुत्र श्री रामप्रसाद, सदस्य – राजकेश्वर पुत्र श्री कुंजन, दसई, बीरप्रसाद, जलमन, धनराज, रामफल, रामवृक्ष, राजेंद्र लोहार।

झुनकहवा झलखड़िया पहाड़ टोला समिति
अध्यक्ष – तिलेश्वर, कोषाध्यक्ष-रामपाल, सदस्य रामबालक, बीरप्रसाद, रामसिंह, राजनारायण, रामकेश्वर, कुबेर सिंह, फुलेश्वर।

रोक्सो टोला
अध्यक्ष – धर्मजीत, कोषाध्यक्ष-राजेश्वर पनिका, सदस्य – सोनू पनिका, राधेशंकर, बद्री प्रसाद, छोटे लाल, जलजीत, बाबूलाल, ईश्वर सोमारू।

इन सभी समितियों का संचालन श्री ईश्वरी प्रसाद को सौंपा गया। इन समितियों को मुख्यतः अपने-अपने बीट की देख-भाल, सुरक्षा एवं विकास की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी।

निरीक्षित बीटों का क्षेत्रफल

भौरहवां पहाड़ टोला
30 हेक्टेयर, 1 किमी. लम्बाई, 600 मीटर चौड़ाई

नगीनिया पहाड़ टोला
40 हेक्टेयर जिसकी लम्बाई 1.5 किमी. 800 मीटर चौड़ाई

झुनकहवा झलखड़िया पहाड़ टोला
ये दो फाट में स्थिति है। प्रथम फाट का क्षेत्रफल है-3.2 हेक्टेयर में 500 मीटर लम्बाई तथा 300 मीटर चौड़ाई। जबकि द्वितीय फाट का क्षेत्रफल है – 4.8 हेक्टेयर बीघा में 600 मीटर लम्बाई तथा 400 मीटर चौड़ाई।

रोक्सो टोला
अमवार ग्राम सभा के बॉर्डर से टेढ़ा ग्राम सभा तक जिसकी लम्बाई 7 किमी. है। जंगल का यह बीट 400 मीटर चौड़ी तथा 30 मीटर गहराई की कनहर नदी के समीप स्थित है। नदी में अनुमान के मुताबिक 1 से डेढ़ लाख तक जामुन के पेड़ हैं, जिसे लोग कठ-जामून के नाम से पुकारते हैं।

जंगल नव निर्माण की प्रक्रिया

समिति के लोगों ने पूरी तन्मयता के साथ अपने-अपने क्षेत्र में जंगल नव निर्माण की प्रक्रिया में अपनी सहभागिता की। इसके लिए इन्होंने पहला काम यह किया कि जितने भी पेड़ कटे थे, उनका चिन्हीकरण कर उनके कल्ले निकालने के लिए मई व जून माह में स्थानीय स्तर पर मिलने वाली जड़ी-बूटी का लेप लगाकर बोरों से बांध दिया। इस तरह की प्रक्रिया पूरे 200 पेड़ों के साथ अपनाई गई। पूरे चार माह तक बोरे बंधे रहने के बाद इन पेड़ों में से नये कल्ले निकलने शुरू हो गए। यह कार्य दो- तीन वर्षों तक कर कटे पेड़ों की रक्षा की गई और जिन पेड़ों पर लेप लगाकर बोरे बांधे गए, एक वर्ष के भीतर वे 2 फीट लम्बे, 6 इंच मोटे हो गए। तीन वर्ष के पश्चात पेड़ की लम्बाई 12 फीट व मोटाई 12 इंच हो गई। ग्राम सभा नगवा के लोग 6 वर्षों तक उपरोक्त विधि से पेड़ों की रक्षा करने में जुटे रहे। इन्होंने अधिकांशतः सीधी लम्बाई में बढ़ने वाली प्रजाति के पौधों पर ही यह उपचार अपनाया और सफल भी रहा। परिणामतः आज 20 वर्ष बीत जाने के बाद ये पेड़ 30-35 फीट लम्बाई तथा डेढ़ से तीन फीट मोटाई वाले हो गए हैं।

लाभ

जामुन का उपयोग एवं उससे होने वाली आय
कठ जामुन का स्वाद खट्टापन लिए हुए तथा पूरे तौर पर पक जाने पर मीठा हो जाता है। यह आकार में चोटा होता है। एक पेड़ से लगभग 50 किग्रा. तक फल निकलता है। जबकि पेड़ अधिक बड़े होने की स्थिति में 100 से 200 किग्रा. तक भी फल निकलते हैं। जिसका बाजार भाव 10 से 15 रु. प्रतिकिग्रा. होता है। जबकि इसमें लागत के तौर पर सिवाए फल तोड़ने में लगे श्रम के अतिरिक्त और कुछ भी व्यय नहीं होता है। जामुन के एक पेड़ से होने वाले लाभ को इस प्रकार देखा जा सकता है – 50 किग्रा. X10.00 प्रति किग्रा. = 500.00 रु. X एक लाख पेड़ = 5 करोड़ रुपए जामुन तोड़ने एवं बिक्री की स्वतंत्रता होने के नाते औसतन प्रति व्यक्ति रु. 2000.00 का लाभ जामुन के पेड़ से लेता है। यह पूर्णतया उनकी मेहनत पर आधारित होता है।

बीटवार पेड़ों की संख्या व प्राप्त आय को इस प्रकार देख सकते हैं –
इस प्रकार इन आदिवासियों ने अपनी सोच एवं कार्य व्यवहार में परिवर्तन लाकर 5 लाख वृक्षों से परिपूर्ण जंगल का निर्माण करते हुए शुद्ध आबो-हवा बनाए रखने में पर्यावरणीय मदद की है। साथ ही –

यदि किसी परिवार में घर मकान आदि बनाने के लिए बल्ली आदि की आवश्यकता पड़ती है, तो वह उसे संबंधित समिति के सामने रखता है। समिति मांग की प्राथमिकता व उपयुक्तता को निर्धारित करते हुए उसे बल्ली आदि उपलब्ध कराती है।

अब लोगों को जलावनी लकड़ी की समस्या भी नहीं है। क्योंकि स्वतः सूख कर गिरने वाली टहनियां व शाखाएं ही इतनी अधिक होती हैं कि लोगों की समस्या का समाधान हो जाता है।

वर्तमान परिदृश्य

लगभग 20 वर्ष पूर्व बनाए गए समिति के नियम आज भी लागू हैं। उनमें इतना संशोधन अवश्य कर दिया गया है कि जुर्माना की राशि काटे गए पेड़ की लम्बाई व मोटाई के आधार पर निर्धारित होती है और अब यह रु. 1000.00 से 2000.00 तक हो जाती है। इसके साथ ही पंचायत के बीच में उठक-बैठक करने की संख्या भी बढ़कर 100 हो गई है।

कठिनाईयां

हालांकि यह सभी कार्य बहुत आसान नहीं था। कई बार वन विभाग के अधिकारी, कर्मचारी आए। इन गाँवों वालों को डराया धमकाया गया। इन्हें गिरफ्तार करने तक की धमकियां दी गईं। फिर भी इन्होंने अपना साहस व संकल्प नहीं छोड़ा और आज इनके पास 5 लाख पेड़ों की अकूत सम्पत्ति खड़ी है, जो इन्हें पर्यावरणीय दृष्टि से अन्य लोगों की अपेक्षा उन्नत व प्रगतिशील साबित करती है।

पर्यावरण संतुलन को स्थापित करने के लिए कौन कौन से प्रयास आवश्यक है? - paryaavaran santulan ko sthaapit karane ke lie kaun kaun se prayaas aavashyak hai?

पर्यावरण संतुलन के लिए आप क्या प्रयास कर सकते हैं?

वृक्षों की अंधाधुंध कटाई है जारी। और कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। अगर मानव को करना है अपना जीवन सुरक्षित, तो पहले करना होगा पर्यावरण को संरक्षित।

पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए क्या क्या करना पड़ेगा?

-बोतल के पानी का कम से कम इस्तेमाल करें।

पर्यावरण संतुलन रखने के लिए कौन सी क्रिया करती है?

हरे पौधे सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर लेते हैं। प्रकाश संश्लेषण की इस प्रक्रिया के द्वारा हरे पौधे भोजन बनाते हैं। मानव और सभी जीव-जंतु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में भोजन के लिए पौधों पर निर्भर करते हैं। हरे पौधे प्रकृति में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड में संतुलन बनाए रखने में भी सहायता करते हैं।

पर्यावरण संतुलन के लिए क्यों आवश्यक है?

पर्यावरण विद कहती हैं कि यदि हम पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को जारी रखना चाहते हैं तो प्रकृति का संतुलन सुनिश्चित करना होगा। आज हमारा संतुलन बिगड़ रहा है। हवा जो हम सांस लेते है, पानी जो हम इस्तेमाल करते हैं। पौधे जानवर और अन्य जीवित चीजें सब पर्यावरण के तहत आती हैं।