पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का पहला महाकाव्य है। इसके रचयिता कवि चन्द वरदाई हैं। कहा जाता है कि इस काव्य के नायक पृथ्वीराज चौहान और कवि चन्द वरदाई का जन्म और मृत्यु एक ही दिन हुई थी। जो भी सच हो, पर रचना से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों बालन सखा थे। चन्द वरदाई का सम्बन्ध पृथ्वीराज के राजदरबार से था। वे दरबारी कवि थे। Show आज पृथ्वीराज रासो जिस रूप में उपलब्ध है, यह प्रमाणित हो चुका है कि वह इस रचना का मूल पाठ नहीं है। रासो के मूल पाठ के निर्धारण के लिए विद्वानों ने तरह-तरह के प्रयास किए हैं। आज रासो के कई संस्करण उपलब्ध हैं- जिनमें श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित नागरीप्रचारिणी सभा काशी का संस्करण, माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित ‘पृथ्वीराज रासो’ और हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रास’ प्रमुख हैं। पृथ्वीराज रासो की भाषा “पृथ्वीराज रासो” उस काल की रचना है जब हिंदी का व्यवस्थित रूप नहीं था। उस समय तद्भव शब्दों का रूप स्थिर नहीं हो सका था। एक शब्द के अनेक रूप प्रचल्लित थे। उस काल में संस्कृत और प्राकृत के साथ-साथ अपभ्रश में भी काव्य रचना हो रही थी। एक ओर जैन कवि अपभ्रंश में रचना कर रहे थे तो दूसरी ओर नाथ और सिद्ध संत एक ऐसी भाषा का निर्माण कर रहे थे जो साहित्यिक भाषा अपभ्रंश से भिन्न और बोलचाल की सामान्य भाषा के निकट थी। यह सामान्य भाषा राजस्थान में राजस्थानी की विशेषताओं को, ब्रज प्रदेश में ब्रज भाषा की विशेषताओं को, अवध प्रान्त में अवधी की विशेषताओं को तथा मिथिला प्रदेश में मैथिली की विशेषताओं को लेकर पनप रही थी। यही कारण है कि इस युग की भाषा पर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और तत्कालीन लोकभाषाओं की छाप मिलती है। जिस तरह रासो के सन्दर्भ में अन्य विवाद हैं, उसी तरह इसकी भाषा को लेकर भी तरह-तरह के मत मिलते हैं। यह तो स्पष्ट है कि इसकी भाषा पर तत्कालीन लोकभाषा के साथ-साथ सोलहवीं शताब्दी में विकसित ब्रजभाषा का स्पष्ट प्रभाव है। यह जरूर है कि भाषा का यह रूप रासो में सर्वत्र नहीं मिलता पर अधिकता अवश्य है। कुछ विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि रासो की रचना मूल रूप से अपभ्रंश में हुई थी। विकासशील काव्य होने के कारण इसकी भाषा में पर्याप्त परिवर्तन हो गया। इसी तरह कुछ विद्वान इसे डिंगल (राजस्थानी) और कुछ इसे ब्रजभाषा (पिंगल) की रचना मानते हैं। रासो की भाषा के सम्बन्ध में चार प्रकार के मत पाए जाते हैं- रासो की भाषा के सम्बन्ध में किसी निश्चित राय पर पहुँचने से पूर्व उपर्युक्त मतों का अलग-अलग सम्यक विवेचन कर लेना आवश्यक होगा। इसी विवेचन के आधार रासो की भाषा का निर्धारण करना सम्भव होगा। (1) अपभ्रंश भाषा सम्बन्धी मत (2) डिंगल या राजस्थानी भाषा सम्बन्धी मत (3) पिंगल या ब्रजभाषा सम्बन्धी मत (4) मिश्रित भाषा सम्बन्धी मत बात-बात, बत्त, बत, वत भाषा की यह अनेकरूपता रासो में स्था-स्थान पर मिलेगी। इस ग्रन्थ में शब्दों की अनोखी खिचड़ी तैयार होने का एक बड़ा कारण इसे माना जा सकता है। रासो बहुत दिनों तक अनेक लोगों द्वारा लिखा जाता रहा, हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की जाती रहीं, ऐसी दशा में कितने शब्द अपनी वास्तविकता खोए होंगे या कितने नए शब्दों का प्रवेश हुआ होगा, कहा नहीं जा सकता। उपर्युक्त मतों की समीक्षा ‘षटभाषा पुराणम् च कुराणम् कथित मया’ षटभाषाएँ कौन-कौन सी हैं, इसे भी देख लीजिए- संस्कृत, प्राकृत चैव, अपभ्रंश पिशाचिका। रासोकार के इस कथन को कुछ विद्वान लेकर उड़ चले और उनमें षटभाषाओं के साथ-साथ पुराण और कुरान के सिद्धान्तों का भी अन्वेषण करने लगे। ऊपर लिखी हुई पंक्तियाँ रासो के लगभग प्रत्येक संस्करण में मिलती हैं। ऐसा लिखकर कविचन्द अपने को षटभाषाओं का ज्ञाता कहना चाहता था या कुछ और, इसे नामवर सिंह के शब्दों में देखिए- “ ‘षटभाषा’ वाला पदय निश्चय ही किसी न किसी रूप में सभी प्रकार के रूपांतरों में प्राप्त होता है, लेकिन मध्ययुग में संस्कृत आलन्कारिकों, प्राकृत व्याकरणों तथा कवियों में ‘षटभाषा’ शब्द रूढ़ हो चला था। इसके अतिरिक्त रासो के उक्त छंद में भाषा वैविध्य की ओर संकेत नहीं है, बल्कि षटभाषा में रचित साहित्य के सार ग्रहण करने की घोषणा है। कुरान के उल्लेख भी यही प्रयोजन है… वस्तुतः पृथ्वीराज रासो में शैली भेद है, भाषा भेद नहीं।” जहाँ ऐसी भाषा का व्यवहार हुआ है, वहाँ यह माना जा सकता है कि कई भाषाओं का समावेश है, पर ऐसे स्थल कम हैं। रासो में एक ओर संस्कृत के दुष्ट, पत्र, ब्रह्म, तरैल्लोक्य, श्रृंगार, अनंग आदि शब्द आये हैं, तो दूसरी ओर प्राकृत और अपभ्रंश में प्रयुक्त होने वाले लज्जि, सव्वय, सत्त, भष्षन, दष्षिन, सद्द,मनुच्छ आदि शब्द भी मिलते हैं। इसी तरह रासो की भाषा में राजस्थानी के असरण, णन्गर,चौसट्टी आदि शब्द, पंजाबी के सुहंदी, हनंदे, आवदा, हसाइ़यां आदि शब्द, ब्रजभाषा के सुराजै, विराजै, चितवै, चहै, धरियो, कियों, भई आदि शब्द तथा अरबी-फारसी के सरम, सुरतान, साहिब, तंदूर, कमान, असवार, हुजूर, अहक आदि शब्द मिल्रते हैं। ऐसे ही प्रयोगों के आधार पर विद्वानों के एक वर्ग ने रासो की भाषा को मिश्रित भाषा कहा है। यह सही है कि रासो की भाषा पर्याप्त प्राचीन है, इसमें एकरूपता नहीं है तथा अनेक प्रकार के शब्दों की भरमार है। जहाँ पर युद्ध वर्णन है वहाँ पर भाषा ओजस्वी है तथा जहाँ पर प्रेम श्रृंगार वर्णन है वहाँ पर भाषा कोमल और कल्पनायुकत है। यद्यपि इस काव्य मैं अनेक भाषाओं के शब्दों का मिश्रण मित्रता है, शब्दों को मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा गया है, पर इसके आधार पर हम रासो की भाषा को मिश्रित तथा पंचमेल की खिचड़ी नहीं कह सकते। पृथ्वीराज रासो कौन से काल की रचना है?पृथ्वीराज रासो आदिकाल की रचना है, आदिकाल 650 ई. से 1350 ई. तक माना जाता है। आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो है, पृथ्वीराज रासो के रचयिता चंदबरदाई है।
पृथ्वीराज रासो का सबसे बड़ा समय कौन सा है?इसका रचना काल 1343 ईस्वी माना जाता है । कथानक रूढियों का सबसे सुंदर प्रयोग पृथ्वीराज रासो में देखा जा सकता है। यह ग्रंथ डिंगल पिंगल शैली में लिखा गया है ।
पृथ्वीराज रासो कौन सा काव्या है?'पृथ्वीराज रासो' वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा गया एक महाकाव्य है, जिसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन-चरित्र का वर्णन किया गया है। यह कवि चंदबरदाई की रचना है, जो पृथ्वीराज के अभिन्न मित्र तथा राजकवि थे।
पृथ्वीराज रासो की कौन सी भाषा है?ब्रजपृथ्वीराज रासो / मूल भाषाnull
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