प्रत्याहार:- अण्, अण्, इण्, यण्, अक्, इक्, उक्, एङ्, अच्, इच्, एच्, ऐच्, अट्, अम्, अल्, यम्, ङम्, ञम्, यञ्, झष्, भष्, अश्, हश्, वश्, झश्, जश्, बश्, छव्, यय्, मय्, झय्, खय्, चय्, यर्, झर्, चर्, शर्, हल्, वल्, रल्, झल्। इनमें कुछ प्रमुख इसप्रकार हैं- Show संस्कृत व्याकरण (Sanskrit Vyakaran)- संस्कृत व्याकरण को *माहेश्वर शास्त्र* भी कहा जाता है। 👉 माहेश्वर का अर्थ है-- *शिव जी* (1) वर्ण 🌸👉 *संस्कृत में स्वर*--: ( *अच्*)तीन प्रकार के होते है-----: 2=■ *दीर्घ स्वर* (आठ)---: इसमें दो मात्रा ईआ समय लगता है। आ , ई , ऊ , ऋ , ए ,ऐ ,ओ , औ 3= ■ *प्लुत स्वर* --: इसमे तीन मात्रा का समय लगता है। 🌸👉 *सस्कृत में व्यञ्जन* (हल् ) ----: व्यञ्जन चार प्रकार के होते है---- 2= 👉अन्तःस्थ व्यञ्जन ---: *य , र , ल , व*= 4 वर्ण 3= 👉 ऊष्म व्यञ्जन --: *श , ष , स , ह* = 4 वर्ण 4= 👉 संयुक्त व्यञ्जन --: *क्ष , त्र , ज्ञ* = 3 वर्ण ○○○○○○○○○○○○○○○○○○○○○○○ 🌸 *प्रत्याहारों की संख्या* = 42 (3) *प्रयत्न*--- 👉 " *वर्णों के उच्चारण करने की चेष्टा को ' प्रयत्न ' कहते है।* ☆ *4*= विवृत ----: ☆ *संवृत----: (1=विवार 2= संवार 3= श्वास 4= नाद 5= घोष 6=:अघोष 7= अल्पप्राण 8= महाप्राण 9= उदात्त 10= अनुदात्त 11= त्वरित ) माहेश्वर सूत्र (संस्कृत: शिवसूत्राणि या महेश्वर सूत्राणि) अष्टाध्यायी में आए १४ सूत्र (अक्षरों के समूह) हैं जिनका उपयोग करके व्याकरण के नियमों को अत्यन्त लघु रूप देने में पाणिनि ने सफलता पायी है। शिवसूत्रों को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, आख्यात, क्रिया, उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है। अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभक्त हैं व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० सूत्रों में किया है , जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं। तत्कालीन समाज मे लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को ध्यान में रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। पुनः, विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं। माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शिव) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है। नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपंच (चौदह) बार डमरू बजाया। इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।" डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का आधार बना। माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या १४ है जो निम्नलिखित हैं: १. अइउण्।२. ऋऌक्।३. एओङ्।४. ऐऔच्।५. हयवरट्।६. लण्।७. ञमङणनम्।८. झभञ्।९. घढधष्।१०. जबगडदश्।११. खफछठथचटतव्।१२. कपय्।१३. शषसर्।१४. हल्माहेश्वर सूत्र की व्याख्या[संपादित करें]उपर्युक्त्त १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है। इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १० सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं। प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है। आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है। इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् ङ् च् आदि) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। इन १४ माहेश्वर सूत्रों से कुल २९१ प्रत्याहार बनाए जा सकते हैं : १४*३ + १३*२ + १२*२ + ११*२ + १०*४ + ९*१ + ८*५ + ७*२ + ६*३ + ५*५ + ४*८ + ३*२ + २*३ + १*१ - १४ (पाणिनि एक अक्षर वाले प्रत्याहार को नहीं मानते) -१० (सूत्रों में दो बार 'ह' आया है, जिससे १० कृत्रिम प्रत्याहार बनते हैं) । किन्तु पाणिनि ने केवल ४१ प्रत्याहारों का ही उपयोग किया है, जो निम्नलिखित हैं- संस्कृत में प्रत्याहार की संख्या कितनी है?इन सूत्रों से कुल 41 प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र (१.११४) से “ञमन्ताड्डः” से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से “चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः” (८.४.४७) से बनता है। इस प्रकार कुल 43 प्रत्याहार हो जाते हैं।
प्रत्याहार में कितने वर्ण हैं?पाणिनि के १४ माहेश्वर सूत्रों से ४१ प्रत्याहार बने हैं। उनमेसे 'अक्' प्रत्याहार के अंतर्गत 'अ, इ, उ, ऋ, लृ' वर्ण आते हैं।
अच् प्रत्याहार में कितने वर्ण होते हैं?अतः स्पष्ट है कि हल् प्रत्याहार में 34 वर्ण होते हैं। पहले चार सूत्रों में स्वरों की गणना की गयी है। इसे अच् प्रत्याहार कहते है। हयवरट् सूत्र से लेकर हल् अन्तिम सूत्र तक व्यंजनों की गणना की गयी है।
संस्कृत में प्रत्याहार क्या है?इंद्रियों को अंतर्मुखी करके उनके संबंधित विषयों से विमुख करना प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार का सामान्य कार्य होता है, इन्द्रियों का संयम, दूसरे अर्थ में प्रत्याहार का अर्थ है पीछे हटना, उल्टा होना, विषयों से विमुख होना।
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