शंकरदेव ने कौन सी पद्धति चलाई - shankaradev ne kaun see paddhati chalaee

चूने की डिबिया में ‘हाथी’ भर कर लाना या मगध के मल्ल ‘अजिंक्य’ को ‘परास्त’ कर देना वैष्णव संत शंकर देव के लिए सामान्य सी बात थी। कूचबिहार दरबार की ये दोनों कथाएं रंजक और उपदेशक दोनों हैं।

पूर्वोत्तर भारत के बारे में अधिक      जानकारी न होने के कारण हम लोगों को वहां के संत महात्माओं के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। परंतु शेष भारत की तरह ही पूर्वोत्तर भारत में भी कई ऐसे संत महात्मा हुए जिन्होंने समय-समय पर पूर्वोत्तर में जन जागृति का कार्य किया। जिस तरह शेष भारत में कबीर, तुलसीदास, वाल्मिकि, संत ज्ञानेश्वर आदि संतों ने समय-समय समाज को अपने ज्ञान और साहित्य के माध्यम तत्कालीन समाज की बुराइयों पर प्रहार किया और उनको दूर करने का प्रयत्न किया, उसी तरह शंकरदेव ने भी पूर्वोत्तर समाज में जागृति फैलाई थी। वे केवल संत के रूप में प्रचलित नहीं थे वरन अपनी बुद्धिमत्ता, चातुर्य और हाजिरजवाबी के लिए भी जाने जाते थे। उनकी बुद्दिमत्ता के कई किस्से पूर्वोत्तर में प्रचलित हैं।

श्रीमंत शंकरदेव का जन्म असम के नौगांव जिले की बरदौवा के समीप अलिपुखुरी में हुआ। इनकी जन्मतिथि अब भी विवादास्पद है, यद्यपि प्राय: यह १३७१ शक मानी जाती है। जन्म के कुछ दिन पश्चात इनकी माता सत्यसंध्या का निधन हो गया। २१ वर्ष की उम्र में सूर्यवती के साथ इनका विवाह हुआ। मनु कन्या के जन्म के पश्चात सूर्यवती परलोकगामिनी हुई।

शंकरदेव ने ३२ वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थयात्रा आरंभ की और उत्तर भारत के समस्त तीर्थों का दर्शन किया। रूप और सनातन गोस्वामी से भी शंकर का साक्षात्कार हुआ था। तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात शंकरदेव ने ५४ वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। तिरहुतिया ब्राह्मण जगदीश मिश्र ने बरदौवा जाकर शंकरदेव को भागवत सुनाई तथा यह ग्रंथ उन्हें भेंट किया। शंकरदेव ने जगदीश मिश्र के स्वागतार्थ महानाट के अभिनय का आयोजन किया। इसके पूर्व चिह्लयात्रा की प्रशंसा हो चुकी थी। शंकरदेव ने १४३८ शक में भुइयां राज्य का त्याग कर अहोम राज्य में प्रवेश किया। कर्मकांडी विप्रों ने शंकरदेव के भक्ति प्रचार का घोर विरोध किया। दिहिगिया राजा से ब्राह्मणों ने प्रार्थना की कि शंकर वेदविरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। कतिपय प्रश्नोत्तर के पश्चात राजा ने इन्हें निर्दोष घोषित किया। हाथीधरा कांड के पश्चात शंकरदेव ने अहोम राज्य को भी छोड़ दिया। पाटवाउसी में १८ वर्ष निवास करके इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ६७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। ९७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्रा आरंभ की। उन्होंने कबीर के मठ का दर्शन किया तथा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इस यात्रा के पश्चात वे बरपेटा वापस चले आए। कोच राजा नरनारायण ने शंकरदेव को आमंत्रित किया। कूचबिहार में १४९० शक में वे वैकुंठगामी हुए।

कूचबिहार के नरनारायण के दरबार में कुछ दिनों से एक सुदृढ़ शरीरयष्टी और चेहरे पर तपश्चर्या का तेज धारण करने वाला आकर्षक व्यक्तित्व, धीरगंभीर, प्रसन्न वदन ॠषितुल्य तपस्वी रोज आ रहा था। राजा स्वतः उनका आदर सत्कार कर उन्हें आसनस्थ कराते थे। परंतु इन सब के कारण दरबार के पंडित उनसे जलते थे एवं उनका तिरस्कार करते थे।

वे आपस में बात करते हुए कहते थे कि यह कामरूप से आया हुआ पंडित जादूटोना करने में माहिर होगा और इसी जादूटोने के कारण उसने महाराज को वश में किया होगा। किसी ने कहा, अरे ऐसा नहीं है। वे असम राज्य के प्रख्यात वैष्णव पंडित संत हैं। वे असम के अहोम और कछारी राजाओं के पंडितों में सें एक है। उन्होंने अपने राजा के यहां राजाश्रय लिया है। परंतु फिर भी अन्य पंडित मत्सर के कारण उनके बारे में निंदात्मक बातें करते रहते थे।

एक दिन राजसभा में प्रमुख ब्राह्मण पंडित ने राजा से निवेदन किया कि आजकल हमारी राजसभा में जो कामरूप के विद्वान पंडित आ रहे हैं उनकी विद्वता की यदि परीक्षा हो जाए तो हमें भी उसका लाभ मिलेगा। राजा ने ताड़ लिया कि ये पंडित लोग द्वेषवश इस तरह की बातें कर रहे हैं। परंतु राजा ने उनका प्र्रस्ताव मान लिया। थोड़ी देर में शंकरदेव भी आ गए। उनके आगमन के पश्चात राजा ने कहा कि मेरी राजसभा में कई विद्वान पंडित हैं और इसी कारण मेरी राजसभा संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। शंकरदेव भी असम से आए हुए प्रसिद्ध विद्वान वैष्णव संत हैं। आप सभी से निवेदन है कि कल सभा में आते समय सभी हाथी को चुने की डिब्बी (असमी भाषा में चूने की डिब्बी को ‘भरूका‘ कहते हैं) में बंद कर के लाएं।

राजा की बात सुन कर सभी पंडित अवाक् रह गए। एक ने साहस कर राजा सें पूछा कि आप हमसे मजाक तो नहीं कर रहे हैं। इतना बड़ा विशालकाल हाथी चूने की डिब्बी में कैसे लाया जा सकता है?

महाराज नरनारायण ने शंकर देव की ओर प्रश्नार्थक मुद्रा में देखा। शंकर देव नें अपने आसन से ही उत्तर दिया कि पंडितों ने जो कहा है वह बराबर है; परंतु यदि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हो तो आज जो कह रहे हैं वह भी संभव हो सकता है। थोड़ी देर में राजसभा समाप्त हो गई एवं शंकर देव भी अपने निवास स्थान चले गए। सभा के बाद एक पंडित बोला कि गप्प मारकर राजा पर प्रभाव डालने का यह शंकर देव का प्रयत्न है; तो दूसरा बोला कि ‘हाथ कंगन को आरसी क्या‘ कल राजसभा में सब पता चल ही जाएगा।

दूसरे दिन दरबार प्रारंभ होने पर राजा ने देखा कि शंकर देव को छोड़ कर सभी पंडित आसनस्थ हैं। सभी पंडित आनंदित थे कि इस असंभव काम में असफल होने पर शंकर देव स्वयं ही भाग जाएंगे। परंतु उन्होंने देखा कि शंकर देव थोड़ी ही देर में सभा में उपस्थित हुए। उनके हाथ में बांस से बनी हुई पेटी थी।

महाराज नरनारायण ने सभा में उपस्थित पंडितों से प्रश्न किया कि क्या चूने की डिब्बी में कोई हाथी भरकर लाया है? पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। एक ने साहस कर कहा, महाराज यह तो आकाश से तारे तोड़ कर लाने वाली बात है। क्या हाथी चूने की डिब्बी में भर कर लाया जा सकता है?

महाराज ने शंकर देव की ओर दृष्टि डाल कर पूछा कि वैष्णव पंडित आपको क्या कहता है? शंकर देव उठे एवं उन्होंने आगे जाकर वह पेटी महाराज के सामने रखी। महाराज ने कहा यह क्या है? शंकर देव ने उत्तर दिया कि महाराज स्वयं देखें। महाराज ने जिज्ञासावश वह पेटी खोली। उसके अंदर केले के पत्तों में बांधा हुआ एक पात्र था। पात्र खोलने पर उसमें उन्हें एक ‘भुरुका‘ अर्थात चूने की डिब्बी दिखाई दी। वह विचित्र रंगों से रंगी थी। ढक्कन खोलने पर उसमें से बांस की नली निकली। उस नली पर लाल-काले रंग से हाथी का एक सुंदर चित्र बना था। महाराज ने वह नली भी खोली। उसके अंदर एक छोटी सी पुस्तिका थी। उस पर भी हाथी का चित्र था। पुस्तिका पर ‘‘गुणमाला‘‘ यह नाम लिखा था। वैसे देखा जाए तो भागवत यह बहुत बड़ा ग्रंथ है। उसे पढ़ने में कई दिन लगते हैं। परंतु इस हाथी की तरह ही इस भागवत ग्रंथ का सारांश ‘‘गुणमाला‘‘ इस पुस्तिका में अतिशय सरल भाषा में काव्यबद्ध किया था। ‘‘गुणमाला‘‘ पुस्तिका इतनी छोटी थी कि चावल पकने में जितनी देर लगती है उतनी देर में पुस्तिका का वाचन पूर्ण होता था।

अपनी मधुर आवाज में शंकर देव ने सभा में ‘‘गुणमाला‘‘ का वाचन किया। सभी सभास्यदों ऐवं महाराज नरनारायण ने शंकर देव की स्तुति की। उनके विरोधक बिना कुछ कहे वहां से गायब हो गए।

महाराज नरनारायण स्वयं तो गुणवान थे ही परंतु दूसरे के गुणों की कद्र करना भी जानते थे। इसलिए देशविदेश के गुणवान लोग उनके दरबार में आते थे या महाराज को यदि किसी विद्वान के बारे में पता चलता तो वे स्वयं ही आदरसहित उसे बुलाते थे।

एक दिन एक सशक्त तरूण महाराज के दरबार में आया एवं उसने एक पत्र नम्रतापूर्वक महाराज को दिया। महाराज ने पूछा, इसमें क्या लिखा है? एवं आपका परिचय क्या है? युवक ने उत्तर दिया कि पत्र मे सब कुछ लिखा है।

राजा ने मंत्री को पत्र पढ़ने को कहा। मगध के राजा ने वह पत्र भेजा था।

कुशलक्षेम के पश्चात पत्र में लिखा था कि यह तरूण मगध का प्रसिद्ध पहलवान है। मल्लविद्या में उसकी कोई सानी नहीं है। उसकी इच्छा से उसे पश्चिम, दक्षिण एवं उत्तर दिशाओं में स्थित राज्यों में भेजा था। वहां सभी ने उसका लोहा माना एवं वह ‘अजिंक्य‘ है ऐसा पत्र सभी राजाओं ने दिया। अब उसे पूर्व दिशा के पहलवानों से मल्लयुध्द करने की इच्छा है। सुना है आपके राज्य में एक से एक मल्ल हैं। कृपया उसे उनके साथ कुश्ती का मौका दें। अन्यथा ‘अजिंक्य‘ को प्रमाणप्रत्र दें। यदि कोई पहलवान उसे पराजित करता है तो वह उसका दास बन कर रहेगा।

महाराज नरनरायण चिंतामग्न हो गए। उन्हें अपने राज्य का कोई पहलवान ऐसा नहीं लगा जो उसका मुकाबला कर सके। महाराज के लिए एक तरफ कुआं तो एक तरफ खाई। यदि लड़ाते हैं एवं हार जाते हैं तो भी राज्य की बदनामी एवं नहीं लड़ाते तो बिना लड़ाके ही ‘अजिंक्य’ प्रमाणपत्र दें। राजा ने अपनी चिंता छिपाते हुए कहा कि हमारे दरबार में आपसे युध्द करने वाले अनेक  वीर हैं, परंतु आप अभी ही आए हैं,अतः थोड़ा विश्राम कर लें, कल मल्लयुद्ध के बारे में विचार करेंगे।

सभा विसर्जन के बाद महाराज ने अपने अंतरंग सभासदों से चर्चा की। सभी को ऐसा लग रहा था कि ‘अजिंक्य’ प्रमाणप्रत्र देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। अनेक उपायों पर विचार हुआ परंतु निष्कर्ष नहीं निकला। अंतत: बैठक समाप्त कर राजा अकेले ही निकल गए।

सायंकाल की बेला थी। राजा सीधे शंकर देव के निवास स्थान पहुंचे। वहां भजन का कार्यक्रम हो रहा था। भजन के बाद प्रसाद वितरण के साथ वह कार्यक्रम समाप्त हुआ। राजा को आया देख शंकरदेव ने विनम्र निवेदन किया एवं कहा कि राजा को स्वयं यहां आने की क्या आवश्यकता थी। वे राजा के बुलावे पर स्वयं ही वहां चले जाते। उन्होंने राजा के आने का कारण जानना चाहा। राजा ने मल्ल एवं उसके साथ मल्लयुध्द विषयक सारी बात विस्तार से शंकर देव को बताई एवं अपनी दुविधा भी बताई। शंकर देव ने अपने बलिष्ठ शरीर पर नजर डाली परंतु अब उम्र के १००वें साल में उन्हें महसूस हुआ कि अब उनमें न उतनी शक्ति ही है न ही फुर्ती। उन्होंने राजा से कहा कि वे निश्चिंत रहे। उन्हें वे एक उपाय बता रहे हैं जिससे राजा की चिंता दूर होगी। शंकर देव की सलाह से राजा प्रसन्न होकर राजमहल लौट गए।

सूर्यास्त के बाद एक प्रहर होकर दूसरा प्रहर भी समाप्त होने को था फिर भी मगध के पहलवान की भोजन व्यवस्था नहीं हुई थी। वह भूख से व्याकुल हो रहा था। तभी उसे दूर से कुछ राजसेवक थाली लेकर आते हुए दिखे। राजसेवकों ने पहलवान के सामने वे थाल रखे। प्रत्येक थाली पर वस्त्र का आवरण था। पहलवान ने अधीर होकर थाली पर के वस्त्र बाजू किए तो उनमें रखी चीजें देखकर वह आगबबूला हो गया।

यह क्या मजाक है? गुस्से में पहलवान बोला। पहली थाली में धान, दूसरी थाली में मोटा बांस, तीसरी में राई रखी थी। साथ में एक हरिण का बच्चा लाया गया था।

पहलवान ने पूछा यह  क्या है? सेवकों ने उत्तर दिया कि  कूचबिहार के मल्लों को दिया जाने वाला यह आहार है। हमारे महाराज की आज्ञा थी कि जो आहार कूचबिहार में मल्लों को दिया जाता है वही आपको दिया जाए।

पहलवान ने पूछा कि क्या कूचबिहार के मल्ल साबूत धान का भात  खाते हैं?

सेवकों ने उत्तर दिया नहीं महाराज। कूचबिहार के मल्ल धान को अपने हाथों से घिसकर उसके छिलके अलग करते हैं। राई को मुट्ठी में दबाकर उससे तेल निकालते हैं। बांस को हाथों से फाड़कर उससे अग्नि तयार करते हैं। हाथ के मुक्के से हरिण को मार कर नाखूनों से उसकी चमड़ी निकाल कर मांस को चावल व तेल के साथ आग में पका कर खाते हैं।

यह सब सुन कर मगध का पहलवान भयभीत हो गया। उसने सोचा ये क्या कूचबिहार के पहलवान हैं। ये तो साक्षात् राक्षस लगते हैं। इनके साथ मल्लयुध्द करना याने मौत आमंत्रण देना है। मगध का मल्ल डर से थरथर कांपने लगा। रात्रि के अंधकार में एक घोड़ा लेकर वह अजिंक्य मल्ल किसी को कुछ भी न बताते हुए भाग गया।

शंकर देव की प्रमुख शिक्षाएं क्या थी?

शंकरदेव का धर्म उपनिषद की शिक्षाओं पर सबसे ज्यादा जोर देता है। उनकी धार्मिक शिक्षाएं सभी सांसारिक कष्टों से मुक्ति के लिए मूल नैतिक संहिता पर बल देती हैं। श्रीमंत शंकरदेव का असम वैष्णववाद प्रमुख उपनिषदों के मुख्य सिद्धांतों और भागवत-पुराण और कुछ अन्य वेद ग्रंथों की शिक्षाओं को समाहित करता है।

शंकरदेव किसकी भक्ति में लीन रहते थे?

असम के शंकरदेव ( परवर्त्ती 15वीं शताब्दी ) जो इन्हीं के समकालीन थे, ने विष्णु की भक्ति पर बल दिया और असमिया भाषा में कविताएँ तथा नाटक लिखे।

शंकर देव का जन्म स्थान कौन सा है?

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शंकर देव के गुरु कौन थे?

शंकरदेव ने गुरु नानक, नामदेव, रामानंद, कबीर, बसव और चैतन्य महाप्रभु की तरह ही असम में भक्ति आंदोलन को प्रेरित किया।