श्रृंगार की सही वर्तनी क्या है? - shrrngaar kee sahee vartanee kya hai?

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seema agrawal

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Oct 12, 2012, 9:10:05 PM10/12/12

to

श्रृंगार शब्द को  हमेशा से इसी रूप में लिखा देख रहीं हूँ जो गलत है पर अंतर्जाल पर भी इस शब्द को उचित रूप में लिखने का कोई और तरीका यदि है तो बस इस प्रकार है शृंगार  दोनों में अधिक उचित क्या होगा ?

Vinod Sharma

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Oct 12, 2012, 9:14:03 PM10/12/12

to

यह कंप्यूटर पर फॉंट की कमी है कि हम सही अक्षर नहीं लिख पाते।
सही वर्तनी शृंगार है।

eg

unread,

Oct 12, 2012, 9:14:43 PM10/12/12

to

उच्चारण की दृष्टि से 'शृंगार' ठीक है। यूनिकोड में वह रेफ है ही नहीं जो कि बिल्कुल ठीक हो। 'श्रृंगार' ठीक नहीं है क्यों कि यह श्+र+ऋ को दर्शाता है। 
2012/10/12 seema agrawal <>

श्रृंगार शब्द को  हमेशा से इसी रूप में लिखा देख रहीं हूँ जो गलत है पर अंतर्जाल पर भी इस शब्द को उचित रूप में लिखने का कोई और तरीका यदि है तो बस इस प्रकार है शृंगार  दोनों में अधिक उचित क्या होगा ?


lalit sati

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Oct 12, 2012, 9:16:24 PM10/12/12

to

संजय | sanjay

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Oct 12, 2012, 9:16:32 PM10/12/12

to

समझ नहीं आया कि 'श्रृंगार' क्यों ठीक नहीं है?


उच्चारण की दृष्टि से 'शृंगार' ठीक है। यूनिकोड में वह रेफ है ही नहीं जो कि बिल्कुल ठीक हो। 'श्रृंगार' ठीक नहीं है क्यों कि यह श्+र+ऋ को दर्शाता है। 

2012/10/12 seema agrawal <>

श्रृंगार शब्द को  हमेशा से इसी रूप में लिखा देख रहीं हूँ जो गलत है पर अंतर्जाल पर भी इस शब्द को उचित रूप में लिखने का कोई और तरीका यदि है तो बस इस प्रकार है शृंगार  दोनों में अधिक उचित क्या होगा ?


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संजय बेंगाणी | sanjay bengani
छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन
ए-507, स्मिता टावर, गुरूकुल रोड़,
मेमनगर , अहमदाबाद, गुजरात.


eg

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Oct 12, 2012, 9:20:23 PM10/12/12

to

 'श्रृंगार' ठीक नहीं है क्यों कि यह 'श्+र+ऋ' को दर्शाता है जब कि आप केवल 'श्+ऋ' चाहते हैं। अतिरिक्त 'र' के कारण यह दोषपूर्ण है।  

संजय | sanjay

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Oct 12, 2012, 9:26:12 PM10/12/12

to

मुझे लगता है दोनो शब्द अलग अलग अर्थों के साथ सही है.

eg

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Oct 12, 2012, 9:28:39 PM10/12/12

to

भाई! मुझे जो पता था, बता दिया। आगे जनता जनार्दन की मर्जी :)

lalit sati

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Oct 12, 2012, 9:34:10 PM10/12/12

to

श्रृंगार क्यों सही नहीं है, संक्षिप्त जानकारी के लिए यहां देखें

Pratik Pandey

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Oct 12, 2012, 9:35:02 PM10/12/12

to

शायद इस चित्र से बात स्पष्ट हो -

श्रृंगार की सही वर्तनी क्या है? - shrrngaar kee sahee vartanee kya hai?

दरअस्ल, आधे "श" को लिखने के तरीक़े में परिवर्तन आया है। इसलिए ऊपर लिखे दोनों तरीक़े ठीक हैं। लेकिन "श्रृंगार" ग़लत है। ऊपर लिखे तरीक़े इस प्रकार हैं - श् + ऋ, जबकि "श्रृंगार" इस तर है - श् + र + ऋ, जोकि अशुद्ध है।

Ravikant

unread,

Oct 12, 2012, 9:40:51 PM10/12/12

to

बिल्कुल सही. और ग़लती युनिकोड में नहीं है, कुछ विशिष्ट फ़ॉन्टों की है, जो युनिकोड के भी हैं, और ग़ैर-युनिकूटित वाले भी।लिखनेवाले तो ये ग़लती करते ही हैं।
रविकान्त

Abhay Tiwari

unread,

Oct 12, 2012, 9:55:05 PM10/12/12

to

श्रंगार - ऐसे भी तो लिखा जा सकता है..

eg

unread,

Oct 12, 2012, 9:57:41 PM10/12/12

to

नहीं। य तो 'श्+र' हुआ जब कि आप को 'श+ऋ' चाहिये।

Pratik Pandey

unread,

Oct 12, 2012, 9:58:15 PM10/12/12

to

यह तो ऐसी बात है कि "कृष्ण" को "क्रष्ण" भी लिखा जा सकता है।  :-)

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 9:58:37 PM10/12/12

to

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 10:02:06 PM10/12/12

to

गौर करें शृंगार के देशी रूप सिंगार पर ।
यह में अर्थात स्वर की वजह से बना है ।

जिसे हम भूलवश श्रंगार लिखते हैं, उसके पेट से संगार जन्मता न कि सिंगार

Pratik Pandey

unread,

Oct 12, 2012, 10:08:58 PM10/12/12

to

"ऋ" के उच्चारण में पुराना मतभेद है। उत्तर-भारत में जहाँ "इ" की तरफ़ झुकाव है, वहीं कई जगहों पर "उ" की तरह उच्चारण किया जाता है, विशेषतः महाराष्ट्र में। एक संस्कृत के विद्वान की किताब में (नाम याद नहीं) इन दोनों को ग़लत बताया गया है। लेखक का कहना है कि "ऋ" का सही उच्चारण आधा र = "र्" है। कृपया विद्वज्जन और प्रकाश डालें।

Vinod Sharma

unread,

Oct 12, 2012, 10:14:40 PM10/12/12

to

उच्चारण-भेद तो बहुत लंबे समय से चले आते रहे हैं। प्रयाग, महाराष्ट्र और दक्षिण-भारत, हिंदी/संस्कृत विद्वानों के ये तीन केंद्र रहे हैं और तीनों के ही उच्चारण के संबंध में अलग दृष्टिकोण भी रहे हैं। अतः उत्तर भारत में जो उच्चारण प्रचलित हैं वे उनके लिए ठीक हैं और महाराष्ट्र वालों के लिए वहाँ प्रचलित उच्चारण।

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 10:16:12 PM10/12/12

to

यहाँ ऋ के उच्चार को आसानी से समझाने के लिए इ स्वर बताया है ।
पुराना मामला है ।

किसी ज़माने में पश्चिमोत्तर में भी ऋ की जगह रु ही उच्चार था । दक्षिणापथ को गए जत्थों के साथ यह प्रवृत्ति भी साथ रही ।
ऋतु का फ़ारसी रूप रुत है जिसमें इस उकार को स्पष्ट पहचाना जा सकता है ।
आकृति का हिन्दी रूप आक्रिति जैसा होता है जबकि मराठी में इसका उच्चार आक्रुति सुनाई पड़ता है । 
प्राचीनकाल में ये दोनो रूप प्रचलित थे ।

eg

unread,

Oct 12, 2012, 10:20:55 PM10/12/12

to

य, र, ल  और व अर्द्धस्वर कहे जाते हैं जिनके पूर्ण क्रमश: अ, ऋ, लृ, और ओ हैं। स्वरों के उच्चारण में केवल  काकल (glotis) अवरोध होता है और मुँह से वायु बिनबाधा निकलती है। इस दृष्टि से 'रि', 'रु' या 'र्' सभी उच्चारण मिश्रित या अशुद्ध हैं।  'ऋ' का स्वतंत्र उच्चारण है जो हिन्दी में बहुत कुछ साधारणीकृत हो गया है। इसके उच्चारण की एक ऑडियो फाइल मेरे पास थी जो कि किसी विदेशी संस्कृत साइट से डाउनलोड किया था। मिल नहीं रहा। आप थोड़ा सर्च कीजिये, मिल जायेगा।

Pratik Pandey

unread,

Oct 12, 2012, 10:20:56 PM10/12/12

to

अच्छी जानकारी है। हालाँकि मुझे लगता है संस्कृत में इसके लिए कोई मानक उच्चारण भी होना चाहिए, ख़ासतौर पर वैदिक संस्कृत में। वैदिक ऋचाओं के उच्चारण में एक-एक मात्रा और आवाज़ के उतार-चढ़ाव तक का ख़्याल रखा जाता है, ऐसा न होने पर शब्दशः सही ऋचा को भी ग़लत माना जाता है।  ऐसे में वैदिक स्वर "ऋ" के लिए भी कोई-न-कोई मानक उच्चारण तो होगा ही।

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 10:21:31 PM10/12/12

to

शब्दचर्चा के एक पुराने चर्चासूत्र में भी इसका उल्लेख किया था -

वैदिक साहित्य में भी विभिन्न शब्दों और ध्वनियों के अलग अलग उच्चारणों की ओर विद्वानों ने ध्यानाकर्षित किया है। जहाँ तक ऋ के रि-री उच्चारण का सवाल है, इसका रु उच्चारण भी पूर्ववैदिक दौर में मान्य था। डॉ रामविलास शर्मा ने लिखा है कि इसका सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्री समाज है जो ऋ का उच्चारण रु की तरह करता है। पश्चिमोत्तर क्षेत्रों से जो आर्यभाषी जत्थे दक्षिणापथ की ओर गए उनके साथ यह उच्चारण सुरक्षित रहा। फारसी में ऋतु को रुत बोला जाता है। वहाँ भी यह इसी वजह से है।    
उनके अनुसार मगध तथा उत्तर पश्चिमी सीमान्त पर जिन लोगों की भाषा में ल ध्वनि प्रधान थी, वे ऋ के समकक्ष लृ स्वर गढ़ने में पीछे न रह सकते थे। ऋ के समकक्ष लृ की कल्पना की गई। सैकड़ों साल तक यह तथाकथित स्वर वर्णमाला का अभिन्न अंग बना रहा। जिन शब्दो में इसका व्यवहार होता हो, उनकी संख्या नगण्य है। बहुत ढूंढने पर एक क्रिया मिली क्लृप् (व्यवस्थित होना)। इसी से कल्प रूप भी बनता है। ऐसा लगता है कि शब्दमूल कल्प् में जब वर्ण संकोच की प्रवृत्ति ने काम किया, तब क्लृप जैसे रूप की कल्पना की गई। पाश्चात्य ऐतिहासिक भाषा विज्ञान में इसे विशुद्ध ल् स्वर माना जाता है। भारतीय परम्परा में उसके अन्दर र् तत्व विद्यमान है। वास्तव में इस तरह का कोई स्वर नहीं था और लृ की कल्पना उत्तर पश्चिमी अथवा मागध लकार बाहुल्य के प्रभाव का परिणाम है। इसका दीर्घ स्वर रूप भी होता था, ऐततिहासिक भाषा विज्ञान में इसका उल्लेख नहीं है।    
मुझे लगता है, वैदिक या वेदोत्तर व्याकरणिकों में विभिन्न प्राकृतों के प्रभाव से प्रचलित संस्कृत-सम भाषाओं में शब्दों के सही रूप निश्चित करने की सोच रही होगी। इसी रूप में देशज शब्दों की धातुएं भी तय की गईं। भाषाओं में धातु रूप इस्तेमाल नहीं होते, निरुक्ति के जरिए इन तक पहुंचा जाता है। इसी क्रम में ध्वनितंत्र पर विचार करते हुए प्राचीन विद्वानों नें लृ की कल्पना की होगी।

Pratik Pandey

unread,

Oct 12, 2012, 10:34:01 PM10/12/12

to

जहाँ intonation में थोड़े बदलाव तक से शास्त्रार्थ की नौबत आती हो, तो मानक उच्चारण होने की सम्भावना प्रबल होती है। मुमकिन है कि दोनों तरीक़े के उच्चारण प्रचलित रहे हों, लेकिन क्या किसी को सही या मानक माना जाता रहा है? कृपया पाणिनी की इस बारे राय पर भी चर्चा करें।

Vinod Sharma

unread,

Oct 12, 2012, 10:43:36 PM10/12/12

to

जैसा कि अजित भाई ने कहा है, पूर्व वैदिक काल में भी उच्चारण-भेद विद्यमान था, तो फिर सर्वमान्य मानक उच्चारण
उपलब्ध होने की कल्पना नहीं की जा सकती।

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 10:43:56 PM10/12/12

to

भाषा के क्षेत्र में मानक जैसी बात कभी सिरे नहीं चढ़ती । शास्त्रीय बहसों को छोड़ कर ।
व्यवहार में मानकीकरण लगभग असम्भव है । लिखत-पढ़त दोनों में ही ।

abhishek singhal

unread,

Oct 12, 2012, 10:46:55 PM10/12/12

to

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 10:47:39 PM10/12/12

to

चर्चित विषय में ही देख लीजिए । शृंगार को श्रंगार भी लिखा जाए तो आसमान नहीं टूट पड़ता । बड़े बड़े साहित्यकार यह चूक करते रहे हैं और उनका क़द इससे छोटा नहीं हो जाता । सिर्फ़ समझने-समझाने के लिए शब्दों की विकासयात्रा की जानकारी विद्यार्थियों को स्कूल से ही देनी चाहिए ।

Abhay Tiwari

unread,

Oct 12, 2012, 10:48:24 PM10/12/12

to

जब मानक उच्चारण नहीं हो सकता तो लिपि में भी मानक रूप कैसे सम्भव है.. ?

हंसराज सुज्ञ

unread,

Oct 12, 2012, 10:51:04 PM10/12/12

to शब्द चर्चा

आराधना चतुर्वेदी

unread,

Oct 12, 2012, 10:58:09 PM10/12/12

to

मैं इसे इस तरह से समझा सकती हूँ कि संस्कृत में 'श्रंगार' वैसे ही लिखा जाता है, जैसा गिरिजेश जी ने बताया और प्रतीक जी ने दिखाया, लेकिन हिंदी में इसे कई तरह से लिखते हैं क्योंकि हिन्दी के बहुत से शब्द जो कि संस्कृत से निकले हैं, अलग ढंग से लिखे जाते हैं. बहुत से शब्द तो संस्कृत में मिलेंगे ही नहीं जबकी उनकी मूल धातु संस्कृत की ही है, पर प्रत्यय और उपसर्ग आदि हिन्दी के हैं. 
तो मेरे विचार से संस्कृत में शुद्ध लिखा जाय, हिन्दी पर उसे थोपा न जाय, यही सही होगा. संस्कृत का अनुशासन अपनी जगह है और हिन्दी का प्रवाह अपनी जगह.

--
http://feministpoems.blogspot.com
http://feminist-poems-articles.blogspot.com
http://draradhana.wordpress.com

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 11:00:50 PM10/12/12

to

अभय भाई,
लिपिचिह्न तो ऋ ही है । इसके उच्चार वाले दो सम्प्रदाय थे । अर्थात ऋ का ही रि या रु उच्चारण होता रहा है । श्रंगार में न तो इ है न ही उ इसलिए शुद्धतावादियों को यह खटकता है । न महाराष्ट्र में और न ही  उत्तर भारत में ऋ का उ उच्चार उ स्वर के जरिये व्यक्त किया जाता है । सिर्फ ऋ वर्ण अपने आप में स्वर है । या तो इ धारा के लिए इ और उ धारा वालों के लिए उ ।

Pratik Pandey

unread,

Oct 12, 2012, 11:04:43 PM10/12/12

to

जहाँ तक ऋ के रि-री उच्चारण का सवाल है, इसका रु उच्चारण भी पूर्ववैदिक दौर में मान्य था।

यह तथ्य काफ़ी दिलचस्प है। यह पूर्ववैदिक काल कौन-सा है जहाँ दोनों उच्चारण चलते थे? अगर इसका कोई सन्दर्भ उपलब्ध हो, तो कृपया दें।

आराधना चतुर्वेदी

unread,

Oct 12, 2012, 11:11:44 PM10/12/12

to

मेरे विचार से ऋ के उच्चारण के सम्बन्ध में प्रतीक की बात सही है. अभी JNU में संस्कृत सप्ताह के दौरान एक भाषाशास्त्री ने भी यही बताया था कि ऋ का उच्चारण न रि है और न रु . यह बहुत कुछ र् जैसा ही है, जो कि कालान्तर में बदलता गया.

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 11:23:39 PM10/12/12

to

वेदों की भाषा वैदिकी कही जाएगी संस्कृत नहीं ।  भारत खण्ड के सबसे पुराने इतिहास की जानकारी वैदिक ग्रन्थों से ही होती है । इन ग्रन्थों में वर्णित विवरणों से जिस समाज-संस्कृति का परिचय मिलता है उसके आधार पर उस युग को सुविधा के लिए वैदिक युग कहा है । चूँकि भाषा लगातार परिवर्तित होती रही है इसलिए संस्कृत और वेदों की भाषा के स्वरूप में अन्तर को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस काल में वेद रचे गए उस काल से भी पहले उस भाषा (छांदस या वैदिकी) का स्वरूप रहा होगा । विद्वानों ने इसे पूर्ववैदिक काल कहा है । जिस तरह वैदिक युग में भी कोई न कोई प्राकृत रही होगी । उसी तरह पूर्ववैदिक युग में भी प्राकृतें रही होंगी । संस्कृत में एक ही शब्द के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं । कुटी भी सही कुटि भी सही । कोटि भी सही कोटी भी सही ।
आप देखें कि परिनिष्ठित बोली के उच्छवास के संस्कृत रूप उच्छ्वास (उच्छ्वस) में जो "छ्वस" है, वह वैदिक रूप है और श्वस का प्रतिरूप है । गौर करें तो श्वस का छ्वस रूप प्राकृत जान पड़ता है । इससे उसास भी बनता है और उसाँस भी । ज्यादा प्रयुक्त उसाँस है । छ्वस या श्वस में नासिक्य ध्वनि नहीं है किन्तु श्वस के साँस प्रतिरूप में यह आ जाती है । इसी आधार पर उच्छ्वास से बने उसास का एक रूप उसाँस भी बनता है । शब्दकोशों में दोनो को सही बताया गया है । मैं उसाँस लिखता हूँ । हिन्दी शब्दसागर कोश में उसास को उसाँस की तुलना में ज्यादा तरजीह दी गई है । गलत नहीं बताया गया है । इस विषय पर मुझे एक स्थान पर कोई जानकारी नहीं मिली । मैं भी विभिन्न स्रोतों के आधार पर ही मैं आगे बढ़ रहा हूँ ।

Abhay Tiwari

unread,

Oct 12, 2012, 11:29:52 PM10/12/12

to

अजित भाई, ये तो सही बात है कि संस्कृत में शृंगार ही है ( उसका वास्तविक स्वरूप जो आप्टे आदि कोशों में मिलता है, वो लैपटॉप की सीमाओं के कारण नहीं लिखा जा सकता) मगर हिन्दी में तो  दोनों रूप (शृंगार और श्रंगार) चलते हैं.. जैसे कि सच्चाई और सचाई..

और ऋ के उच्चारण पर हम और आप पहले भी लिख चुके हैं.. 

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 12, 2012, 11:51:00 PM10/12/12

to

हिन्दी में तो  दोनों रूप (शृंगार और श्रंगार) चलते हैं,
इससे असहमत होने का प्रश्न ही नहीं है ...

Pratik Pandey

unread,

Oct 12, 2012, 11:56:08 PM10/12/12

to

जहाँ तक मेरा अनुमान है, वैदिक संस्कृत ख़ुद प्राकृत ही है। लौकिक संस्कृत उसी का परिशोधन है। न सिर्फ़ संस्कृत में, लेकिन वैदिक संस्कृत में भी एक ही शब्द के अलग-अलग रूप देखे जा सकते हैं। लेकिन "ऋ" को लेकर थोड़ा सन्देह होता है। "ऋ" वैदिक काल के प्रमुख अक्षरों में से एक था। आर्यों के शुरुआती छन्द "ऋ" से शुरू होने वाला ऋग्वेद है। उसमें भी पहली ही ऋचा में "ऋ" है। उसके मंत्रों को "ऋचा" कहते हैं। वैदिक काल में आर्य छोटे-से सप्तसिन्धु प्रदेश में थे, उसके बाद वे उत्तर में काफ़ी फैले। अनुमानतः पूर्व-वैदिक काल में वे और भी छोटे क्षेत्र में होंगे। पूर्व-वैदिक काल के इतने छोटे क्षेत्र में "ऋ" जैसे एक प्रमुख अक्षर के इतने विविध उच्चारण चकित करते हैं।

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 13, 2012, 12:14:35 AM10/13/12

to

वैदिक संस्कृत ख़ुद प्राकृत ही है

यह थोड़ा सरलीकरण है प्रतीकभाई । वेदरचना भी लम्बे कालखण्ड में हुई है । मुझे लगता है वेदों की भाषा उस काल के पुरोहितों की भाषा कहना ज्यादा ठीक होगा । पाणिनी ने प्राकृत का नहीं, वैदिक युग की काफ़ी हद तक परिनिष्ठित भाषा का संस्कार किया था जिसे उस वक्त के कुलीन समाज में विविध अनुष्ठान पूर्ण कराने का माध्यम रही होगी । पुरोहित समाज की भाषा भी यही थी । उससे हट कर वैदिक युग में भी जो लोकभाषा थी, वही उस युग की प्राकृत थी । वैदिक भाषा में भी प्राकृत के शब्द नज़र आते हैं । ठीक वैसे ही जैसे खड़ी बोली में हम संस्कृत शब्दों की शिनाख़्त तत्सम शब्दों की तरह करते हैं ।

eg

unread,

Oct 13, 2012, 1:04:24 AM10/13/12

to

बेकार की ज़िद है।
 मुझे तो कहीं भी शुद्ध लिखित प्रयोग में 'श्रंगार' लिखा नहीं दिखा। ऋ के उच्चारण के बारे में बता ही चुका हूँ कि इसका ऑडियो संस्कृत किसी विदेशी साइट से डाउनलोड किया था जो खो गया है। यह बात भी है कि मैं बहुत प्रयास करने के बाद भी सही उच्चारण नहीं कर सका। :(  ऐसा ही एक वर्ण 'ष' है जिसका सही उच्चारण करने वाले अभी हैं लेकिन पंडी जी लोग पूषा को पूखा पढ़ते हैं। उससे यह प्रयोग सही नहीं हो जाता। ऐसा ही ऋ के साथ हुआ होगा - रि, रु और बाद में सही उच्चारण करने वाले बहुत कम बचे होंगे। मैं तो ळ का भी उच्चारण नहीं कर पाता।  
प्रयाग के एक माघ मेले में विश्व हिन्दू परिषद ने एक बार वेद सम्मेलन कराया था जिसमें दक्षिण भारत से इक्के दुक्के ऐसे अग्निहोत्री ब्राह्मण भी आये थे जिनके यहाँ पुरातन अग्नि परम्परा से तब भी जीवित थी । जहाँ तक मुझे याद आता है उस समय एक होता ने ऋ, लृ जैसी ध्वनियों के उच्चारण दिखाये थे। वाणी प्रकाशन से लिंग्विस्टिक की एक पुस्तक में भी इस पर चर्चा थी।

... यह चर्चा ऐसे समय में उठी है जब मेरे स्रोत बिला गये हैं। क्या बताऊँ :(

हिन्दी में तो  दोनों रूप (शृंगार और श्रंगार) चलते हैं,

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 13, 2012, 1:10:04 AM10/13/12

to

"बेकार की ज़िद है"

मुझे नहीं लगता पूरी चर्चा के दौरान ऐसा भी कुछ सामने आया है जिससे
यह प्रतिक्रिया उपजे:)

Vinod Sharma

unread,

Oct 13, 2012, 1:17:43 AM10/13/12

to

कृपया चर्चा में चल रहे अक्षरों का उच्चारण यहाँ सुनें और बताएँ कि क्या ये सही हैं।

eg

unread,

Oct 13, 2012, 2:06:20 AM10/13/12

to

अब ठीक है। धन्यवाद शर्मा जी। इन ध्वनियों को सुनना आवश्यक था।

seema agrawal

unread,

Oct 13, 2012, 3:00:00 AM10/13/12

to

धन्यवाद सर मैं आपकी बात से सहमत हूँ यदि निरंतर गलत प्रयोग से किसी शब्द या अक्षरी का रूप परिवर्तित हो रहा है तो उसके सही रूप को सामने लाना भी जरूरी है ..चर्चा उठाने का एक कारण यह भी था

साथ ही मैं भी अपने विचार(या यूँ कहिये संदेह ) की उचित संतुष्टि चाहती थी ...पुनः आभार

Anil Janvijay

unread,

Oct 13, 2012, 3:16:14 AM10/13/12

to

विनोद शर्मा जी,

मुझे तो ज़्यादातर अक्षरों के उच्चारण इस साइट पर बड़े भ्रष्ट लगे। टवर्ग और तवर्ग के उच्चारणों में कोई फ़र्क ही नहीं है। पवर्ग के उच्चारण भी बहुत ख़राब हैं। झ को ज ही बोल रहे हैं ये सज्जन। हाँ श और ष का उच्चारण ठीक था। ऋ का उच्चारण भी रि की तरह नहीं र की तरह कर रहे हैं, जो उचित नहीं है।

2012/10/12 seema agrawal <>

धन्यवाद सर मैं आपकी बात से सहमत हूँ यदि निरंतर गलत प्रयोग से किसी शब्द या अक्षरी का रूप परिवर्तित हो रहा है तो उसके सही रूप को सामने लाना भी जरूरी है ..चर्चा उठाने का एक कारण यह भी था 

--
anil janvijay
कृपया हमारी ये वेबसाइट देखें

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अजित वडनेरकर

unread,

Oct 13, 2012, 3:17:54 AM10/13/12

to

eg

unread,

Oct 13, 2012, 3:19:34 AM10/13/12

to

ऋ का उच्चारण सही है। बाकी मैने नहीं सुने। ऋ और रि में अंतर होता है। 'र' ऋ का अर्ध स्वर है इसलिये इसका उच्चारण र के अधिक निकट होगा न कि रि या रु के।

Anil Janvijay

unread,

Oct 13, 2012, 3:24:34 AM10/13/12

to

राओ साहब या राव साहब या Rao का जो भी उच्चारण होता हो (क्षमा सहित)

अब मैं भी कह सकता हूँ

eg

unread,

Oct 13, 2012, 3:27:54 AM10/13/12

to

आप इसके लिये स्वतंत्र हैं :)

लेकिन एक बार थोड़ा अध्ययन कर लीजिये कि ऋ का उच्चारण 'र' के निकट होगा या 'रि/रु' के!

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 13, 2012, 3:45:14 AM10/13/12

to

ऋ के दो प्रकार बताए हैं वहाँ

eg

unread,

Oct 13, 2012, 3:46:52 AM10/13/12

to

डबल वाले का खात्मा हो चुका है। कुछ वैदिक उद्गाता जानते हों तो नहीं पता।

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 13, 2012, 3:58:02 AM10/13/12

to

ऐसे कैसे । वहाँ बाकायदा पहले ऋ के साथ र् और दूसरे के साथ रि का उच्चार है ।
हममें से अधिकांश ने पहली कक्षा से ऋ में इ स्वर ही सीखा है ।
जब इन ध्वनियों का रिश्ता वैदिक ध्वनितन्त्र से ही था तो आज इस पर बहस क्यों ?
र् + अ और र् + इ से आम आदमी का काम चल रहा है ।

ऋ का अस्तित्व अगर हिन्दी में इ स्वर की तरह और मराठी में उ की तरह बचा हुआ है तो उसमें किसी को आपत्ति नहीं है ।
ये नए र् का फ़च्चर क्यों ? और अगर है तब श्रंगार से आपत्ति क्यों ? क्योंकि वहाँ र् + अ का ही तो उच्चार है ?
आप अगर ऋ में इ देखते हैं तो शृंगार में कोई दिक्कत नहीं है । बहुसंख्य लोग यही लिख रहे हैं ।

Anil Janvijay

unread,

Oct 13, 2012, 4:04:42 AM10/13/12

to

अजित जी, आपकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। मेरे मन में भी यही बात आई थी।

eg

unread,

Oct 13, 2012, 4:07:15 AM10/13/12

to

सब ठीक है भाऊ! इस तर्क से ळ की भी आवश्यकता नहीं है। जब मैं ऋ के लिये इतना टेंशन ले रहा हूँ तो मेरी दृष्टि में पीढ़ी दर पीढ़ी हजारो वर्षों से सुरक्षित छान्दस की ध्वनि है। जो उपलब्ध है उसे यूँ ही फेंक देना ठीक नहीं। श्रंगार तो ग़लत है, एकदम ग़लत।

शृंगार के समर्थन में मैं स्वयं हूँ क्यों कि उपलब्ध फॉंटों में उपयुक्त आकार नहीं है।   

अजित वडनेरकर

unread,

Oct 13, 2012, 4:29:54 AM10/13/12

to

मैं शृ के पुराने आकार की बात नहीं कर रहा हूँ ।  श में रिकार के लिए जो भी जुगाड़ अभी है वह पर्याप्त है । ऋ में रि की ही ध्वनि है इससे किसी को ऐतराज कहाँ है ।
आप मूल ध्वनि खोजना चाहते हैं और र् के आसपास उसके होने की बात भी आपको सम्भव लग रही है दिक्कत उससे है । तब श्रंगार सही है । ऋ के दो वैदिक प्रकारों में से एक आपने खारिज कर दिया जिसमें रि ध्वनि है । बचा दूसरा जो र् है । आज के ऋतु, शृंगार, ऋषि को क्या आप रतु, श्रंगार या रशि कहलवाना चाहते हैं ? यह स्पष्ट होना चाहिए । दूसरी बात यह कि ळ का मामला अलग है । यह स्वर नहीं, व्यंजन है । यह विशिष्ट ध्वनि बड़ी सहूलियत और स्पष्टता के साथ विभिन्न भाषा-भाषी उच्चारते हैं ।
जळगाँव और जलगाँव में स्पष्ट उच्चारण भेद है । "नालो बेवे खलललल" और "नाळो बेवे खळळळळळ" दोनों में स्पष्ट अन्तर है ।
श्रंगार की पैरवी मैने नहीं की है । इसके सिंगार रूप के ज़रिये साबित कर चुका हूँ कि यह शृंगार ही है और "श्रिंगार" ही सुनाई पड़ता है । अगर वर्तनी के नज़रिये से वर्षों से कुछ लोग श्रंगार लिख रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं ? यह उस वर्ण की दिक्कत है । सम्पूर्ण वैज्ञानिकता किसी भाषा में नहीं है । ध-घ, क-फ, ख-रव के ज़रिये ये बात साबित हो चुकी है । श्र लिखने वाले नीचे की घुण्डी की कल्पना कर लेते हैं । ऋ की ध्वनि में रु है यह विवाद का विषय नहीं है । रि या रु बोलनेवाले समाज  अपने स्तर पर इसका सही प्रयोग कर रहे हैं ।
झगड़ा क्या है ?

2012/10/12 eg <>

सब ठीक है भाऊ! इस तर्क से ळ की भी आवश्यकता नहीं है। जब मैं ऋ के लिये इतना टेंशन ले रहा हूँ तो मेरी दृष्टि में पीढ़ी दर पीढ़ी हजारो वर्षों से सुरक्षित छान्दस की ध्वनि है। जो उपलब्ध है उसे यूँ ही फेंक देना ठीक नहीं। श्रंगार तो ग़लत है, एकदम ग़लत। 

eg

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Oct 13, 2012, 4:39:04 AM10/13/12

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दुहरा रहा हूँ -  जब मैं ऋ के लिये इतना टेंशन ले रहा हूँ तो मेरी दृष्टि में पीढ़ी दर पीढ़ी हजारो वर्षों से सुरक्षित छान्दस की ध्वनि है। जो उपलब्ध है उसे यूँ ही फेंक देना ठीक नहीं। जो कानों से सुना हो उसे यूँ दहन होता नहीं देख सकता फकत इसलिये कि हम आलसी हैं। 

भाऊ! आप साधारणीकरण कर रहे हैं। मेरा अनुरोध बस यह है कि इस उच्चारण ध्वनि  के लिये शोध कर उसे सुरक्षित किया जाय। 'ऋ' का मामला इतना आसान नहीं। 'ऋ'षि (ईश्वर करे कि रिखि न हो) परम्परा को पुरातात्विक सामग्री मान कर भी सहेज सकें तो अच्छा हो। आप या कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि इस एक ध्वनि से कितने अंतर पड़ेंगे।   

अजित वडनेरकर

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Oct 13, 2012, 4:46:15 AM10/13/12

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प्रियवर,
मैं साधारणीकरण कर रहा हूँ और आप बहुत सहूलियत के साथ कह देते हैं कि

डबल वाले का खात्मा हो चुका है। कुछ वैदिक उद्गाता जानते हों तो नहीं पता।

उससे पहले शर्माजी को धन्यवाद देते हैं कि अब तसल्ली हुई ।
ये तसल्ली किस ध्वनि से थी पहली से या दूसरी से । या दोनों से । कुछ तो स्पष्ट करें । वहाँ तो रकार भी था और रिकार भी । दूसरी को आपने खारिज़ कर दिया । बचा रकार । स्पष्ट तो कहें कि आपको तसल्ली किस बात से हुई?
आप हमेशा अधर में लटका देते हैं:)

eg

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Oct 13, 2012, 4:51:16 AM10/13/12

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ऋ का जो उच्चारण वहाँ है, मेरे सुने से मेल खाता है। बहुत दिन हुये - बीसो वर्ष। इसीलिये कहा कि अब तसल्ली हुई और समयांतराल के कारण ही शोध की बात कह रहा हूँ लेकिन इतना तय है कि उच्चारण न तो 'री' है और न 'रु'। यदि ये होते तो एक अलग से स्वर की आवश्यकता नहीं होती।

एक बार पुन: कह दूँ कि मेरा सारा जोर छान्दस के लिये है। परवर्ती भाषाओं में क्या हो, मुझे रुचि नहीं। अंत में यही होने वाला है कि नागरी का स्थान रोमन ले लेगी। तर्क सरलीकरण के ही होंगे।  

अजित वडनेरकर

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Oct 13, 2012, 5:00:38 AM10/13/12

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'रु' वाला मुद्दा तो खत्म ही समझिए क्योंकि उत्तर भारतीयों में ऋ के इ उच्चार पर कोई समस्या नहीं है । किन्ही भाषायी समाजों के लिए यह रु भी हो सकता है, यह सिर्फ़ उनके लिए एक दिलचस्प तथ्य है, विवाद का विषय नहीं । 'रु' की बात तो प्रसंगवश चली थी ।

अजित वडनेरकर

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Oct 13, 2012, 5:14:11 AM10/13/12

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"ये होते तो एक अलग से स्वर की आवश्यकता नहीं होती"

यही है मुद्दे की बात । एक तरफ़ आप छांदस यानी वैदिकी पर जोर दे रहे हैं और दूसरी ओर उसी छांदस-काल के दो ऋ में से एक को बड़ी सुविधा से लुप्त मान रहे हैं जबकि वही रूप-ध्वनि आज चलन में है ।  वैदिक वाङ्मय में जब ऋ के दो रूप हैं तो ज़ाहिर है दोनो के प्रति आप सम्मान दिखाएँ । दूसरे ऋ का रहस्य जब वैदिक उद्गाताओं के साथ लुप्त होने का आपको अफ़सोस नहीं तो कौन से ऋ का रहस्य अब नई पीढ़ी के सामने खुलने की बाट जोह रहे हैं भाई ? वैदिक उद्गाताओं ने कुछ सोच कर ही तो दो ऋ को व्यवहार में लाने का सोचा होगा । र् सरीखे उच्चार वाले ऋ का भी क्या औचित्य ? र् + अ से इसमें क्या फ़र्क़ है ?
बस यूँही कह रहा हूँ:)

eg

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Oct 13, 2012, 5:42:10 AM10/13/12

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उस दूसरे वाले को भी ढूँढ़ लाइये तो बात बने!

अजित वडनेरकर

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Oct 13, 2012, 7:41:32 AM10/13/12

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हमारा विषय तो शब्द व्युत्पत्ति है । उस पर कभी अंधेरे में तीर नहीं चलाया । ऋ के असली सुर का सवाल आपने उठाया ।
एक छोड़ दो दो हाज़िर हैं । किसी एक को चुन लें । सुर तो उस अंग्रेजी वेबसाइट ने बता दिया जिस पर आपको तसल्ली है:)
अब जो बचा है, उसी पर सन्तोष कर लें । जो अब तक सीखा है उसे ही गुन लिया जाए । यही कह सकता हूँ ।

eg

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Oct 13, 2012, 1:46:41 PM10/13/12

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अपने यहाँ ‘अक्षर’ की अवधारणा है यानि जिसका क्षरण न हो। जैसा सुना, वैसा लिखा पढ़ा और उलट को भी बहुत हद तक वर्णमाला में साध लिया गया। इसी कारण सही वर्तनी के प्रश्न स्वत: ही सही उच्चारण से जुड़ जाते हैं। यदि कोई ग़लत बोलेगा, सुनेगा तो ग़लत लिखेगा भी। एक सलेबल के लिये तमाम अक्षर समूह, उनके उच्चारण में तमाम फोनेटिक्स, लुप्त अक्षर, बलाघात आदि के द्वारा जो कुछ इतर भाषाओं में साधा गया उसे यहाँ सहज ही साध लिया गया। आम और निरंतर विकसित होती भाषा में रिसि हो या ऋषि, अक्षर हो, अच्छर हो या आखर, सब चल जाते हैं लेकिन उंन्मुक्त प्रवाह के लिये भी किनारों की आवश्यकता होती है जिसे मानक कहते हैं। इसलिये किसी अकादमिक पेपर में कोई अच्छर लिखेगा या श्रंगार तो उस पर ऑबजेक्शन उठेगा ही।

अपने यहाँ मानक संस्कृत ध्वनियाँ और अक्षर हैं। जब वर्णमाला में ही ‘ऋ’ से निकसे अर्द्धस्वर ‘र’ की व्यवस्था बताई गयी है तो वैदिक और छान्दस ध्वनियों के लिये ‘ऋ’ के सही उच्चारण यानि ‘र के निकट’ सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है, तब और जब अभी भी सही उचारने वाले लोग बचे हुये हैं।

सरलीकरण के नाम पर पश्चिम अगर Pseudo की जगह sudo, Knowledge की जगह nolege नहीं अपना पा रहा, यूरोपीय संघ का अंग्रेजी सरलीकरण का प्रयास परवान नहीं चढ़ रहा तो उसके मात्र राजनैतिक और सांस्कृतिक कारण ही नहीं, भाषा के अपने कारण भी हैं। इसे अपने यहाँ भी समझना होगा। कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि अरबी/फारसी और अंग्रेजी में क्रमश: नुक्तों और सलेबल की बारीकियों को लेकर संतप्त हो जाने वाले जन जब संस्कृत या मानक हिन्दी की बात आती है तो कथित सरलीकरण के लिये इतने लालायित क्यों हो जाते हैं!

यह बस एक पक्ष भर है, किसी पर आरोप नहीं। मुझे जो कहना था/है, मेरे खयाल से इतना कह चुका हूँ कि लोग समझना चाहें तो समझ सकते हैं। बाकी तो मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना लेकिन मैं सिर्फ इसलिये अपना मुंड नहीं फेंक सकता कि बहुतों के मुंड मुझसे अलग हैं J इस ‘शृंगार/ श्रृंगार/श्रंगार’ चर्चा में मेरी यह अंतिम प्रविष्टि है। हाँ, मैं जो कह रहा हूँ, वह अन्धेरे में तीर कत्तई नहीं है।       


अजित वडनेरकर

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Oct 13, 2012, 4:41:05 PM10/13/12

to

आपकी बातें विरोधाभासी हैं ।
कीबोर्ड-संवाद की भी एक मर्यादा है । उससे आगे यहाँ भँवर पैदा होने लगते हैं । संवाद अबूझ होता जाता है ।
समय का अपव्यय होता है । बहुत सी बातें हाव-भाव और अन्य उपकरणों के ज़रिये बताई जा सकती हैं । यहाँ वह सम्भव नहीं ।
मेरी, अभय की और अनिलजी की बहुत सी बातें आप समझ नहीं पाए हैं ।
अपन तो बहसों से वैसे भी दूर ही रहते हैं । हासिल कम, उलझाव ज्यादा ।
जै हो ।

संजय | sanjay

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Oct 13, 2012, 4:49:11 PM10/13/12

to

इस मंच पर विचारधारा से परे शब्दों पर शानदार चर्चा होती है और हम जैसे कमअक्कलों को ज्ञान प्राप्त होना है. कई बार हमारी अज्ञानता भी उजागर हो जाती है :) मगर ज्ञान प्राप्ति के लिए अंह को त्यागना ही पड़ता है :(
समझ में नहीं आता लोग इस मंच पर हो रही चर्चा पर व्यक्तिगत हो कर आहत क्यों हो जाते है, और मंच छोड़ने की बात भी करने लगते है. ध्यान केवल शब्दों पर रहे और मन खुला रहे तो मजा ही आता है. अब इसे भी कोई अपने उपर न ले ले यह भी डर है. :)

मैने कहीं पढ़ा था 'शब्द ब्रह्म है' इसे इस मचं का सुवाक्य बना लेना चाहिए :)

--
संजय बेंगाणी | sanjay bengani
छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन
ए-507, स्मिता टावर, गुरूकुल रोड़,
मेमनगर , अहमदाबाद, गुजरात.


अजित वडनेरकर

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Oct 13, 2012, 4:55:33 PM10/13/12

to

संजय भाई,
ऐसा कुछ नहीं हुआ है । गिरिजेश भाई ने इस चर्चासूत्र में अन्तिम संवाद की बात कही है और मैने
उनकी बात के प्रति आदर जताया है (अपने अंदाज़ में)

श्रृंगार की सही वर्तनी क्या है? - shrrngaar kee sahee vartanee kya hai?
श्रृंगार की सही वर्तनी क्या है? - shrrngaar kee sahee vartanee kya hai?
श्रृंगार की सही वर्तनी क्या है? - shrrngaar kee sahee vartanee kya hai?

हंसराज सुज्ञ

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Oct 13, 2012, 6:46:18 PM10/13/12

to शब्द चर्चा

विद्वानों की चरम पर जाती चर्चा में भी आनंद अनेरा होता है।

गिरिजेश भाई की यह उक्ति महत्वपूर्ण है--- "लेकिन उंन्मुक्त प्रवाह के लिये भी किनारों की आवश्यकता होती है जिसे मानक कहते हैं।"
वस्तुतः यह दोनो धाराएं आदरेय है। "शुद्धतायुक्त शब्दानुशासन" और "शब्द सहज प्रवाह"
अक्षरलिपि और ध्वनी का संरक्षण आवश्यक है, आज यदि ध्वनी स्पष्ट नहीं हो पा रही तो लिपि से अक्षर ही विस्मृत कर देना गलत होगा।
क्योंकि यदि कल उस ध्वनी का प्रकटन हुआ तो अक्षर ही हमें उपलब्ध न होगा। कौनसा संयुक्त वर्ण किस तरह बने उसका एक मानक रूप तो संरक्षित रहना ही चाहिए, भले लोग भिन्न भिन्न प्रयोग करे और प्रचलन हो जाय तब भी। शब्दानुशासन भी अनिवार्य है और सहज प्रवाह की धारा भी।
आश्चर्य तो यह है कि यह दोनो धाराएँ साथ साथ चल सकती है और विकास में बाधक भी नहीं है। हम क्यों इसे परस्पर विरोध में ले आते है।

हमारे शब्द चर्चा मंच में यह शुद्धतावादी और सहज प्रवाहवादी विरोध बार बार खडे होते रहते है। हमें निर्णय लेना होगा कि मंच को यह दोनो दृष्टिकोण स्वीकृत है और इनमें कोई विरोधाभास नहीं है।

 सविनय,
हंसराज "सुज्ञ"

श्रृंगार की सही वर्तनी क्या है? - shrrngaar kee sahee vartanee kya hai?

seema agrawal

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Oct 17, 2012, 2:53:00 AM10/17/12

to

आप सब विद्वानों द्वारा की गयी चर्चा के माध्यम से  ,उठाये गए प्रश्न  के  समाधान से कहीं अधिक जानकारी प्राप्त हई ..आप सभी का हृदय से धन्यवाद

अजित वडनेरकर

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May 22, 2013, 10:28:03 PM5/22/13

to

रि या रू की चर्चा में एक बात और याद आई।

ऋतु फ़ारसी में रुत हो जाता है और वैदिक ऋ का मराठी या दक्षिणी शैली में रू उच्चार है। खुद हिन्दी, संस्कृत में भी ऋ में निहित ऊ स्वर के स्पष्ट संकेत हैं।

वृक्ष का ही दूसरा रूप रूक्ष बनता है। इसमें से व का लोप है। मालवी राजस्थानी में इससे रूँख, रूँखड़ा जैसे शब्द बनते हैं।

इसी तरह वृक्ष के ऋ में निहित इ स्वर से बिरिख, बिरछ, बिरख जैसे शब्द भी बनते हैं। व का ब में बदलना आर्यभाषाओं में आम बात है।

श्रृंगार का सही शब्द क्या है?

शृंगार शब्द का निर्माण श एवं ऋ के सहयोग से हुआ है। इस आधार पर इस शब्द की सही वर्तनी शृंगार ही सही है। श्रृंगार एक गलत वर्त्तनी है। अशुद्ध वर्तनी श्रृंगार में आधा र की मात्रा को लगाया गया है, जो कि गलत है।

श्रृंगार में कौन सी संधि है?

Answer: ऊपर लिखे तरीक़े इस प्रकार हैं - श् + ऋ, जबकि "श्रृंगार" इस तर है - श् + र + ऋ, जोकि अशुद्ध है।

श्रृंगार शब्द का अर्थ क्या होता है?

श्रृंगार का अर्थ श्रृंगार शब्द 'श्रृंग' एंव 'आर' इन शब्दों के योग से बना है। श्रृंग का अर्थ कामोहेक या काम की वृद्धि और आर का अर्थ आगमन या प्राप्ति है। इस प्रकार श्रृंगार का शाब्दिक अर्थ हुआ काम की प्राप्ति अथवा वृद्धि होना।

श्रृंगार का विलोम क्या होता है?

विप्रलंभ : राधे ने अपने काम को करते समय अपने श्रृंगार में कमी रखी थी और खुद को एक विप्रलंभ रूप दिया था जो काफी अनोखा था.