अपठित बोध ‘अपठित’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता
का परख करना होता है। अपठित गद्यांश अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है, जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गदयांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु उसका स्तर, विषय वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है। प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है। अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें – निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए – प्रश्नः
1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. उदाहरण (उत्तर सहित) यहाँ कुछ अपठित गद्यांशों के उदाहरण दिए जा रहे हैं। छात्र इनका अभ्यास करें। 1. आगाखाँ महल में खाने-पीने की कोई तकलीफ नहीं थी। हवा की दृष्टि से भी स्थान अच्छा था। महात्मा जी का साथ भी था। किंतु कस्तूरबा के लिए यह विचार ही असह्य हुआ कि ‘मैं कैद में हूँ।’ उन्होंने कई बार कहा-“मुझे यहाँ का वैभव कतई नहीं चाहिए, मुझे तो सेवाग्राम की कुटिया ही पसंद है।” सरकार ने उनके शरीर को कैद रखा किंतु उनकी आत्मा को वह कैद सहन नहीं हुई। जिस प्रकार पिंजड़े का पक्षी प्राणों का त्याग करके बंधनमुक्त हो जाता है उसी प्रकार कस्तूरबा ने सरकार की कैद में अपना शरीर छोड़ा और वह स्वतंत्र हुईं। उनके इस मूक किंतु तेजस्वी बलिदान के कारण अंग्रेजी साम्राज्य की नींव ढीली हुई और हिंदुस्तान पर उनकी हुकूमत कमजोर हुई। कस्तूरबा ने अपनी कृतिनिष्ठा के द्वारा यह दिखा दिया कि शुद्ध और रोचक साहित्य के पहाड़ों की अपेक्षा कृति का एक कण अधिक मूल्यवान और आबदार होता है। शब्दशास्त्र में जो लोग निपुण होते हैं, उनको कर्तव्य-अकर्तव्य की हमेशा ही विचिकित्सा करनी पड़ती है। कृतिनिष्ठि लोगों को ऐसी दुविधा कभी परेशान नहीं कर पाती। कस्तूरबा के सामने उनका कर्तव्य किसी दीये के समान स्पष्ट था। कभी कोई चर्चा शुरू हो जाती तब ‘मुझसे यही होगा’ और ‘यह नहीं होगा’-इन दो वाक्यों में अपना ही फैसला सुना देतीं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 2. कैलाश को मृणालिनी की झेंपी हुई सूरत देखकर मालूम हुआ कि इस वक्त उसका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्यों ही प्रीतिभोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि ये कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी बार-बार मना करती कि इन्हें गरदन में न डालो, दूर ही से दिखा दो। बस जरा नचा दो। कैलाश की गरदन में साँपों को लिपटते देखकर उसकी जान निकली जाती थी। पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे साँप दिखाने को कहा मगर कैलाश एक न सुनता था। प्रेमिका के सम्मुख अपने सर्प-कला-प्रदर्शन को ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मित्र ने टीका की – “दाँत-तोड़ डाले होंगे।” प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 3. विद्यार्थी जीवन को मानव जीवन की रीढ़ की हड्डी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। विद्यार्थी काल में बालक में जो संस्कार पड़ जाते हैं, जीवन भर वही संस्कार अमिट रहते हैं। इसीलिए यही काल आधारशिला कहा गया है। यदि यह नींव दृढ़ बन जाती है तो जीवन सुदृढ़ और सुखी बन जाता है। यदि इस काल में बालक कष्ट सहन कर लेता है तो उसका स्वास्थ्य सुंदर बनता है। यदि मन लगाकर अध्ययन कर लेता है तो उसे ज्ञान मिलता है, उसका मानसिक विकास होता है। जिस वृक्ष को प्रारंभ से सुंदर सिंचन और खाद मिल जाती है, वह पुष्पित एवं पल्लवित होकर संसार को सौरभ देने लगता है। इसी प्रकार विद्यार्थी काल में जो बालक श्रम, अनुशासन, समय एवं नियमन के साँचे में ढल जाता है, वह आदर्श विद्यार्थी बनकर सभ्य नागरिक बन जाता है। सभ्य नागरिक के लिए जिन-जिन गुणों की आवश्यकता है, उन गुणों के लिए विद्यार्थी काल ही तो सुंदर पाठशाला है। यहाँ पर अपने साथियों के बीच रहकर वे सभी गुण आ जाने आवश्यक हैं, जिनकी कि विद्यार्थी को अपने जीवन में आवश्यकता होती है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 4. हमारे देश के त्योहार चाहे धार्मिक दृष्टि से मनाए जा रहे हैं, या नए वर्ष के आगमन के रूप में; फसल की कटाई एवं खलिहानों के भरने की खुशी में हो या महापुरुषों की याद में; सभी अपनी विशेषताओं एवं क्षेत्रीय प्रभाव से युक्त होने के साथ ही देश की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता और अखंडता को मज़बूती प्रदान करते हैं। ये त्योहार जहाँ जनमानस में उल्लास, उमंग एवं खुशहाली भर देते हैं, वहीं हमारे अंदर देश-भक्ति एवं गौरव की भावना के साथ-साथ, विश्व-बंधुत्व एवं समन्वय की भावना भी बढ़ाते हैं। इनके द्वारा महापुरुषों के उपदेश हमें बार-बार इस बात की याद दिलाते हैं कि सद्विचार एवं सद्भावना द्वारा ही हम प्रगति की ओर बढ़ सकते हैं। इन त्योहारों के माध्यम से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि वास्तव में धर्मों का मूल लक्ष्य एक है, केवल उस लक्ष्य तक पहुँचने के तरीके अलग-अलग हैं। प्रश्न प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 5. वास्तव में हृदय वही है, जो कोमल भावों और स्वदेश प्रेम से ओतप्रोत हो। प्रत्येक देशवासी को अपने वतन से प्रेम होता है, चाहे उसका देश सूखा, गर्म या दलदलों से युक्त हो। देश-प्रेम के लिए किसी आकर्षण की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वह तो अपनी भूमि के प्रति मनुष्य मात्र की स्वाभाविक ममता है। मानव ही नहीं पशु-पक्षियों तक को अपना देश प्यारा होता है। संध्या समय पक्षी अपने नीड़ की ओर उड़े चले जाते हैं। देश-प्रेम का अंकुर सभी में विद्यमान है। कुछ लोग समझते हैं कि मातृभूमि के नारे लगाने से ही देश-प्रेम व्यक्त होता है। दिन-भर वे त्याग, बलिदान और वीरता की कथा सुनाते नहीं थकते, लेकिन परीक्षा की घड़ी आने पर भाग खड़े होते हैं। ऐसे लोग स्वार्थ त्यागकर जान जोखिम में डालकर देश की सेवा क्या करेंगे? आज ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 6. मानव जाति अपने उद्भवकाल से ही प्रकृति की गोद में और उसी से अपने भरण-पोषण की सामग्री प्राप्त की। सभी प्रकार के वन्य या प्राकृतिक उपादान ही उसके जीवन और जीविका के एकमात्र साधन थे। प्रकृति ने ही मानव जीवन को संरक्षण प्रदान किया। रामचंद्र, सीता व लक्ष्मण सभी ने पंचवटी नामक स्थान पर कुटिया बनाकर वनवास का लंबा समय व्यतीत किया था। वृक्षों की लकड़ी से मानव अनेक प्रकार के लाभ उठाता है। उसने लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया। इससे मकान व झोंपड़ियाँ बनाईं। इमारती लकड़ी से भवन-निर्माण, कृषि यंत्र, परिवहन, जैसे-रथ, ट्रक तथा रेलों के डिब्बे तथा फर्नीचर आदि बनाए जाते हैं। कोयला भी लकड़ी का प्रतिरूप है। वृक्षों की लकड़ी तथा उसके उत्पाद; जैसे-नारियल का जूट, लकड़ी का बुरादा, चीड़ की लकड़ी आदि का प्रयोग फल, काँच के बरतन आदि नाजुक पदार्थों की पैकिंग में किया जाता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः
5. 7. वहाँ वह सूर्य है जो चमकता है। तो सूर्य आखिर है क्या? वेदों में इसे एक पहिएवाले सुनहरे रथ पर सवार देवता कहा गया है, जिसे सात शक्तिशाली घोड़े पलक झपकते ही 364 लीग की रफ़्तार से दौड़ा कर ले जाते हैं। वह अपने रथ पर सवार होकर आसमान में घूमता रहता है और संसार की हर गतिविधि पर नज़र रखता है। किसने इसे बनाया, जिस पर धरती पर मौजूद जीवन पूरी तरह से निर्भर है? क्या यह मरता हुआ विशाल तारा है या कोई वैज्ञानिक चमत्कार या वाकई सूर्य देवता हैं जो वेदों की साकार आत्मा हैं और जो त्रिदेव का प्रतिनिधित्व करता है-दिन में ब्रह्मा, दोपहर में शिव और शाम में विष्णु। भारतीय पौराणिक गाथाओं के अनुसार, सूर्य के माता-पिता थे-अदिति और कश्यप। अदिति के आठ बच्चे थे। आठवाँ बच्चा अंडे की शक्ल का था। इसलिए उसका नाम रखा मार्तंड यानी मृत अंडे का पुत्र और उसका परित्याग कर दिया। वह आसमान में चला गया और खुद को वहाँ महिमामंडित कर लिया। दूसरा किस्सा यह है कि, अदिति ने एक बार अपने पहले सात पुत्रों से कहा कि वे ब्रह्मांड का सृजन करें। किंतु वे इसमें असमर्थ रहे। क्योंकि वे सिर्फ जन्म को जानते थे, मृत्यु को नहीं। जीवन चक्र स्थापित करने के लिए अमरत्व की ज़रूरत नहीं थी, सो अदिति ने मार्तंड से कहा। उन्होंने फ़ौरन दिन और रात का सृजन कर दिया, जो जीवन और मृत्यु के प्रतीक थे। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 8. सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में ऊँची पर्वतमाला है, उसी पर बिल्कुल शिखर पर कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिल्कुल उजड़ा-सा गाँव और बर्फ का तो कहीं नाम-निशान नहीं। बिल्कुल ठगे गये हम लोग। कितना खिन्न था मैं। अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौंदर्य बिखरा था, सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है। इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुंदर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे-किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जानेवाली बेलों की लडियों-सी नदियाँ। मन में तो बस यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लँ, आँखों से लगा लूँ। अकस्मात् हम एक-दूसरे लोक में चले आए थे। इतना सुकुमार, इतना सुंदर, इतना सजा हुआ और इतना निष्कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे मेरी निगाहों ने इस घाटी को पार किया और जहाँ ये हरे खेत और नदियाँ और वन, क्षितिज के धुंधलेपन में, नीले कोहरे में धुल जाते थे, वहाँ पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास, अनुभव किया, उसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 9. गुरु नानकदेव का आविर्भाव आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ। भारतवर्ष की मिट्टी में युग के अनुरूप महापुरुषों को जन्म देने का अद्भुत गुण है। आज से पाँच सौ वर्ष पहले का देश उनके कुसंस्कारों में उलझा था। जातियों, संप्रदायों, धर्मों और संकीर्ण कुलाभिमानों से वह खंड-विच्छिन्न हो गया था। देश में नये धर्म के आगंतुकों के कारण एक ऐसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, जो इस देश के हजारों वर्षों के लंबे इतिहास में अपरिचित थी। ऐसे ही दुर्घट काल में इस देश की मिट्टी ने ऐसे अनेक महापुरुषों को उत्पन्न किया, जो सड़ी रूढ़ियों, मृतप्राय आचारों, बासी विचारों और अर्थहीन संकीर्णताओं के विरुद्ध प्रहार करने में कुंठित नहीं हुए और इन जर्जर बातों से परे सबमें विद्यमान सबको नई ज्योति और नया जीवन प्रदान करनेवाले महान् जीवन-देवता की महिमा प्रतिष्ठित करने में समर्थ हुए। इन संतों की ज्योतिष मंडली में गुरु नानकदेव ऐसे संत हैं, जो शरत्काल के पूर्णचंद्र की तरह ही स्निग्ध, उसी प्रकार शांत-निर्मल, उसी प्रकार रश्मि के भंडार थे। कई संतों ने कस-कस के चोटें मारी; व्यंग्य-बाण छोड़े, तर्क की छुरी चलायी, पर महान् गुरु नानकदेव ने सुधा-लेप का काम किया। यह आश्चर्य की बात है कि विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रांति ले आनेवाला यह संत इतने मधुर, इतने स्निग्ध, इतने मोहक वचनों का बोलनेवाला है। किसी का दिल दुखाये बिना, किसी पर आघात किए बिना, कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखनेवाला, नई संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करनेवाला यह संत मध्यकाल की ज्योतिष्क मंडली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचंद्र की तरह ज्योतिष्मान् है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 10. अनुशासन का अर्थ है- नियम-विधियों का पालन करना। इसका सर्वोत्तम रूप है आत्मानुशासन। जिसके तहत स्व को मर्यादा व संयम के दायरे में रखा जाता है। अनुशासित व्यक्ति अपने आचरण से मूल्यों को व्यवहार में ढालकर आदर्श प्रस्तुत करता है। वह आत्म नियंत्रण से विवेकपूर्ण निर्णय लेता है कि कौन-सा कृत्य करने लायक है और कौन-सा त्याज्य। अनुशासन एक प्रकार का भाव है जो लोकमंगल की ओर प्रवृत्त रहता है। समाज, शासन, लोक तथा सदाचार आदि के नियमों का अनुपालन करना अनुशासन का अंग है। अनुशासन नैतिकता से परे नहीं है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4.
प्रश्नः 5. 11. भारत के वे असली सपूत थे, इसका सबूत उन्होंने पदारूढ़ होने के एक दिन पहले तब दिया जब वे दिल्ली में शृंगेरी के जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य से भेंट करने गए। जगद्गुरु के सामने पुष्प और फल रखते हुए उन्होंने कहा था- आपका आशीर्वाद चाहिए और शंकराचार्य ने राष्ट्रपति के सिर पर हाथ रख कर उन्हें आशीर्वाद दिया था। ऐसी ही एक और घटना याद आती है। उपराष्ट्रपति-निवास के अहाते में एक दिन सवेरे घूम रहे थे तो देखा कि माली के घर में कीर्तन हो रहा है। फिर क्या था, टहलते हुए उधर चले गए और उसके साथ एक कोने में दरी पर बैठ गए। जब कुरसी लाने के लिए कहा गया तो बोले, “भगवान के घर में सब बराबर होते हैं।”-और दरी पर ही बैठे रहे। पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोबिंद सिंह के संस्थान की नींव रखने को आपसे कहा गया तो बोले, “आपने मुझसे इस पवित्र संस्थान की नींव रखने को कहा है। इससे मुझे याद आता है कि अमृतसर से दरबार साहब की नींव डालने के लिए भी एक मुसलमान को ही बुलाया गया था,” और यह कहते-कहते उनका गला भर आया, आँखों से आँसू बहने लगे। बड़े-बड़े योद्धा सिख सरदार श्रोताओं की भी उस समय आँखें भर आईं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 12. उपवास रखना केवल धार्मिक विधि-विधान या कर्मकांड का ही अंग नहीं है। उपवास-व्रत भारतीय संस्कृति के पूर्ण स्वास्थ्य के सूत्र हैं। ऋतु-परिवर्तन के समय व्रत इसलिए रखे जाते हैं कि बदलते मौसम में कई किस्म की बीमारियाँ आती हैं। बीमारियों से लड़ने की रोग-प्रतिरोधक शक्ति तभी प्राप्त होगी, जब शारीरिक और मानसिक शुद्धता होगी। इसी से जीवनी-शक्ति भी प्राप्त होती है, जिससे बल व बुद्धि का बराबर संतुलन बना रहता है। उपवास के दौरान शरीर के पाचन-संस्थान को पूर्ण रूप से विश्राम मिलता है तथा शरीर में विद्यमान पुराने खाद्य अवशेष और दूषित पदार्थ नष्ट होकर मल के द्वारा बाहर निकल जाते हैं। गलत खाद्य पदार्थ ही विजातीय द्रव्य यानी विष का काम करते हैं। इस विष को जब शरीर रोग द्वारा निकालने का प्रयत्न करता है तो भूख स्वतः समाप्त हो जाती है। अतः उस समय उपवास करना अनिवार्य हो जाता है। भोजन लेने से तीव्र निष्कासन क्रिया रुक जाती है। भूख न रहने पर भोजन न किया जाए तो पूर्ण रूप से शारीरिक सफ़ाई होकर रोग का कारण जड़ से समाप्त हो जाता है। उसके पश्चात् नियमित तथा उपयुक्त आहार देने पर रोग के लौटने की आशंका नहीं रहती। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 13. प्रायः लोग कहा करते हैं कि काव्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है, कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है। मनोरंजन करना कविता का वह प्रधान गुण है जिससे वह मनुष्य के चित्त को अपना प्रभाव ज़माने के लिए वश में किए रहती है, उसे इधर-उधर नहीं जाने देती। यही कारण है कि नीति और धर्म संबंधी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करती जैसा की काव्य और उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है, केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’, ‘सदैव सत्य बोलो’, ‘चोरी करना महापाप है, हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जायेगा, झूठा सच्चा हो जायेगा, चोर चोरी करना छोड़ देगा। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 14. सुभद्रा जी के व्यक्तित्व पर रोशनी डालते हुए महादेवी जी लिखती हैं कि अपने निश्चित लक्ष्य पथ पर अडिग रहना और सब कुछ हँसते-हँसते सहना उनका स्वाभावगत गुण था। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उनके चरित्र का यह पक्ष उन्हें और महान बना देता है। लेकिन राजनीतिक जागरूकता ही उनके व्यक्तित्व में नहीं थी, सामाजिक जागरूकता भी उतनी ही अधिक थी। कविता लिखकर जिस विद्रोही स्वभाव का परिचय उन्होंने बचपन में दिया था, वह जीवन पर्यंत रहा। अपने बच्चों पर किसी तरह का अंकुश लगाने की बजाए उन्होंने उन्हें स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने का अवसर दिया। इसी तरह अपनी बेटी का अंतरजातीय विवाह कर उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने में जो साहस का परिचय दिया, वह इस बात से और भी मुख्य रूप में सामने आता है कि उन्होंने यह कहते हुए कन्यादान की प्रथा का विरोध किया कि स्त्री कोई निर्जीव वस्तु नहीं है जिसका कि दान किया जा सके। अपने पारिवारिक जीवन में ही नहीं सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भी उन्होंने अपने प्रगतिशील साहसपूर्ण व्यक्तित्व का परिचय बराबर दिया। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद इलाहाबाद में अस्थिविसर्जन के अवसर पर हरिजन महिलाओं के अधिकारों के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया, वह इसी बात का प्रमाण है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 15. हम विकास की चर्चा यहाँ छोड़ रहे हैं, क्योंकि विश्व के बहुसंख्यक लोगों का इस सारे गोरखधंधे से विश्वास ही उठा गया है। यह सारी बहस तो उन लोगों के बीच की है, जो व्यवस्था के साथ जुड़े हुए हैं। यह इसलिए चलती है, क्योंकि इसके साथ तंत्र की शक्ति है, तंत्र पर हावी पाँच प्रतिशत राजनीतिक और आर्थिक शक्ति वाले हथियाए लिए हुए लोग और उनके 15 प्रतिशत सहायकों के लिए ही रेडियो, टेलीविजन, समाचारपत्र और सारा प्रचारतंत्र बोलता है। सभी मंचों पर वे ही दिखाई देते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कुछ लोग सत्ता के आसनों पर विराजमान हैं और कुछ कतार बनाकर प्रतीक्षा में। अब विकास ने इस धरती को इतना प्रदूषित और विपन्न बना दिया है कि प्रकृति द्वारा प्राणिमात्र को जिंदा रहने के लिए दी हुई प्राणवायु ही ज़हर बन गई है। जीवन-संचार करनेवाले तत्त्वों के बजाय विकिरण का खतरा पैदा हो गया है। पानी का भयंकर प्रदूषण ही नहीं हुआ है, बल्कि पानी की कमी भी हो गई है। औद्योगिक सभ्यता हमारे हाथ में तो आकर्षक पैकेटों में उपभोग की वस्तुएँ रख देती है, लेकिन हमारी आँखों के सामने दूर नदियों में विष छोड़ जाती है, वायु में जहर घोल जाती है। इसी प्रकार रात को दिन बनानेवाली बिजली, अपने उत्पादन केंद्र में पैदा करनेवाले विकिरण के खतरे, वायुमंडल में कार्बन घोलने या बाँध बनाकर उपजाऊ धरती व जंगलों को डुबाकर लाखों लोगों को उजाड़ने की घिनौनी करतूतों की कहानी पीछे छोड़ जाती है। प्रश्नः 1. प्रश्नः
2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 16. ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का यह अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है, अपना आदर्श है। बृहत्तर जीवन में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य की पशुता की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा। मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास बिना सिखाए आ जाती है, वह पशुत्व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जाने तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं। मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए नि:शेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस स्व-निर्धारित, आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 17. ओलंपिक खेलों का अपना एक ध्वज है। यह सफेद रंग का है। इस ध्वज में पाँच छोटे-छोटे गोल घेरे होते हैं। ये पाँच घेरे विश्व के पाँच महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अमेरिका का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन गोल घेरों का आपस में जुड़े होना इस भावना का प्रतीक है कि ये पाँचों महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ओलंपिक खेल आरंभ होने से पहले एक मशाल जलाकर लाई जाती है। इस मशाल को ओलंपिया से चलते हुए उस नगर में लाया जाता है जहाँ ओलंपिक खेल हो रहे हैं। इस ओलंपिक मशाल को जहाँ तक संभव हो दौड़ते हुए ही ले जाया जाता है। मेजबान देश का सर्वोच्च अधिकारी इन खेलों का उद्घाटन करता है। इसके पश्चात् सभी देशों के खिलाड़ियों का मार्च पास्ट होता है। मार्च पास्ट में सबसे आगे एक खिलाड़ी ओलंपिक ध्वज लिए हुए चलता है। ओलंपिक ध्वज के पीछे खेलों में भाग लेने वाले देश के प्रमुख खिलाड़ी अपने-अपने देश का राष्ट्रीय ध्वज लिए हुए चलते हैं। यहाँ ओलंपिक मशाल जलाई जाती है तथा खेल संबंधी नियमों की शपथ ली जाती है। इसके पश्चात् खेल आरंभ होता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 18. हमारा यह कर्तव्य है कि हम विकलांगों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें। उनके प्रति मानवीय दृष्टि का परिचय दें। उनमें निहित हीन भावना को दूर कर उनमें आत्म-विश्वास जगाएँ। उनके पुनर्वास के लिए प्रयत्नशील रहें। उन्हें यह अनुभव कराया जाए कि वे भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। उन्हें भी एक सामान्य व्यक्ति के समान अधिकार प्राप्त हैं। वे भी मतदान करके राष्ट्र के निर्माण में सहायक बन सकते हैं। वे भी अपनी उपलब्धियों का पुरस्कार पाने के अधिकारी हैं। विकलांगों के पुनर्वास के लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें दूसरों के समान रोज़गार, वेतन आदि दिए जाएँ। ऐसा करना कठिन अवश्य है, क्योंकि पढ़े-लिखे सामान्य युवकों के लिए तो रोज़गार उपलब्ध नहीं, फिर भी इनके लिए कुछ स्थान निश्चित किए जा सकते हैं। इनके लिए सरकार रोज़गार के विशेष साधन उपलब्ध कराए। वे जो-जो कर सकते हैं, उन्हें उन कामों में लगाया जाए। बहरा व्यक्ति कई काम कर सकता है। लंगड़ा व्यक्ति हाथों की सहायता से काम कर सकता है। अंधा व्यक्ति सूत कात सकता है। कुछ ऐसे भी काम हैं, जिन्हें विकलांग एक-दूसरे की सहायता से भी कर सकते हैं। प्रश्नः
1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 19. आलस्य जीवन को अभिशापमय बना देता है। आलसी व्यक्ति परावलंबी होता है। वह कभी पराधीनता से मुक्त नहीं हो सकता। हमारा देश सदियों तक पराधीन रहा। इसका आधारभूत कारण भारतीय जीवन में व्याप्त आलस्य एवं हीन भावना थी। जैसे हमने परिश्रम के महत्त्व को समझा, वैसे ही हमारी हीनता दूर होती गई और हममें आत्मविश्वास बढ़ता गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमने एक दिन पराधीनता की केंचुली उतारकर फेंक दी। परिश्रम ही छोटे-से बड़े बनने का साधन है। यदि छात्र परिश्रम न करे तो परीक्षा में कैसे सफल होंगे। मजदूर भी मेहनत का पसीना बहाकर सड़कों, भवनों, बाँधों, मशीनों तथा संसार के लिए उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार, कवि, लेखक सब परिश्रम द्वारा ही अपनी रचनाओं से संसार को लाभ पहुँचाते हैं। कालिदास, तुलसीदास, शेक्सपियर, टैगोर आदि परिश्रम के बल पर ही अपनी रचनाओं के रूप में अजर-अमर हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 20. इलेक्ट्रॉनिक और सामाजिक संचार तंत्रों ने फैलिन के प्रभाव को कम करने में एक सकारात्मक भूमिका निभाई है। भारतीय मौसम विभाग की सटीक और समय पर, प्रभावी पूर्व सूचना का संचार तंत्रों द्वारा प्रसारण ने चक्रवात के प्रकोप से लड़ने की और हानि को कम करने में योगदान दिया है। राज्य द्वारा संचालित आल इंडिया रेडियो, जिसकी पहुँच ओडिशा के 80 प्रतिशत विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में है ग्रामवासियों को चक्रवात के आने से पूर्व तैयारी का अवसर प्रदान किया। उन्होंने विशेष बुलेटिन प्रसारित कर लोगों को सलाह दी कि चक्रवाती परिस्थितियों से किस प्रकार निबटें। सभी समाचार चैनलों ने फैलिन की वास्तविक स्थिति का प्रसारण किया। जिससे लोगों को और बचाव राहत दलों को आपदा की तैयारी में सहायता मिली। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी फैलिन आपदा के दौरान मीडिया के योगदान की प्रशंसा की और इसके प्रभाव को कम करने तथा लोगों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की प्रशंसा की। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 21. परिश्रम उन्नति का द्वार है। मनुष्य परिश्रम के सहारे ही जंगली अवस्था से वर्तमान विकसित अवस्था तक पहुँचा है। उसी के सहारे उसने अन्न उपजाया, वस्त्र बनाए, घर, मकान, भवन, बाँध, पुल, सड़कें बनाईं। तकनीक का विकास किया, जिसके सहारे आज यह जगमगाती सभ्यता चल रही है। परिश्रम केवल शरीर की क्रियाओं का ही नाम नहीं है। मन तथा बुद्धि से किया गया परिश्रम भी परिश्रम कहलाता है। हर श्रम में बुद्धि तथा विवेक का पूरा योग रहता है। परिश्रम का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलती है। परिश्रम करने वाला मनुष्य सदा सुखी रहता है। उसे मन-हीमन प्रसन्नता रहती है कि उसने जो भी भोगा, उसके बदले उसने कुछ कर्म भी किया। परिश्रमी व्यक्ति का जीवन स्वाभिमान से पूर्ण होता है, वह अपने भाग्य का निर्माता होता है। उसमें आत्म-विश्वास होता है। परिश्रमी व्यक्ति किसी भी संकट को बहादुरी से झेलता है तथा उससे संघर्ष करता है। परिश्रम कामधेन है जिससे मनुष्य की सब इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं। मनुष्य को मरते दम तक परिश्रम का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। जो परिश्रम से इनकार करता है, वह जीवन में पिछड़ जाता है। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 22. उन दिनों अब्राहम लिंकन की गिनती अमेरिका के प्रतिष्ठित अधिवक्ताओं में होती थी। अदालत में उनकी प्रैक्टिस बहुत अच्छी चल रही थी। उनके चैंबर में क्लाइंट्स का तांता लगा रहता था। फिर भी वह सबको संतुष्ट करके भेजते थे। एक बार दो भाइयों में जमीन-जायदाद के बँटवारे को लेकर झगड़ा हो गया। पड़ोस के लोगों ने खूब समझाया, किंतु वे एक-दूसरे की बात मानने को तैयार नहीं हुए। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को न्यायसंगत ठहराते हुए कोर्ट में जाने का निर्णय लिया। उनमें से एक, एडवोकेट अब्राहम लिंकन के पास गया और उनसे अपने पक्ष में मुकदमा लड़ने का आग्रह किया। सारा वृतांत सुनने के बाद लिंकन ने कहा, ‘कोर्ट-कचहरी में कुछ नहीं रखा। दोनों भाइयों की भलाई इसी में है कि आपस में सुलह-समझौता कर लो।’ किंतु वह अपनी बात पर अड़ा रहा। लिंकन ने उससे कहा, ‘कुछ देर शांत होकर सोचो।’ लिंकन कुछ देर के लिए अपने चैंबर से बाहर आ गए। लिंकन ने देखा कि दूसरा भाई बाहर घूम रहा है। लिंकन ने उससे भी समझौता कर, समस्या निपटाने की सलाह दी। लेकिन उसे भी यह विमर्श अच्छा नहीं लगा। फिर भी लिंकन ने धैर्य नहीं छोड़ा। उन्होंने दोनों भाइयों को समझाकर अपने चैंबर में बैठा दिया और बाहर निकल कर दरवाज़ा बंद कर दिया। दो घंटे बाद दोनों भाई दरवाज़ा खटखटाने लगे। अब्राहम लिंकन ने द्वार खोला तो दोनों बाँहों में बाँहें डालकर मुसकरा रहे थे। दोनों एक स्वर में बोले, ‘शुक्रिया साहब, हमने समझौता कर लिया है। अब हम मुकदमा नहीं लड़ेंगे।’ यह सुनकर अब्राहम लिंकन को बहुत प्रसन्नता हुई। लिंकन फ़ीस के लालची वकीलों में से नहीं थे। विवेकपूर्ण सलाह देकर ही मुकदमों का निपटारा करवाने में विश्वास रखते थे। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 23. ओजोन की परत को अच्छा करने में प्रत्येक व्यक्ति कई तरीकों से योगदान कर सकता है। हम लोग ओजोन हितैषी उपभोक्ता बन सकते हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम जो भी उत्पाद खरीदते हैं; वे सी.एफ.सी. और ओ.डी.एस. से मुक्त हैं। हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि फ्रिज, वातानुकूलक वायु विलयक डिब्बे और अग्निशामक यंत्रों पर स्पष्ट रूप में लिखा होना चाहिए कि वे ओजोन हितैषी हैं। हमें ओ.डी.एस वाले पुराने फ्रिज और अग्निशामकों को हटा देना चाहिए। किसानों को ओजोन हितैषी पीड़कनाशियों का उपयोग करना चाहिए। फ्रिज ठीक करने वाले मिस्त्रियों को सभी प्रकार के रिसाव जल्दी ठीक करने चाहिए और यह देखना चाहिए कि मरम्मत किए गए प्रशीतकों में टूट-फूट नहीं हैं और उनमें रिसाव भी नहीं है। प्रशीतकों की पुनर्णाप्ति और पुनश्चक्रण के कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए। दफ्तरों में भी ओ.डी.एस. का उपयोग करने वाले उपकरणों के स्थान पर उपयुक्त ओजोन हितैषी विकल्पों को स्थान देना चाहिए। विद्यार्थियों को भी पोस्टरों दवारा, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन करके और ब्लॉग लेखन द्वारा जागरूकता पैदा करने वाले कार्यक्रम शुरू करने चाहिए। यही नहीं उन्हें अपने परिवार, मित्रों और पड़ोसियों को भी ओजोन हितौषी पदार्थों के विषय में बताना चाहिए। ऐसे कई गैर-सरकारी संगठन हैं जो जागरूकता अभियान में सहयोग दे सकते हैं। ओजोन बचाओ, पृथ्वी पर जीवन बचाओ। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 24. भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। ‘त्यक्तेन भुजीथा,’ जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का सही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पाता। बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती है। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था, जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था, और वह भी उस समय जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 25. श्रावस्ती से महात्मा बुद्ध सीधे उस जंगल की ओर गए जहाँ अंगुलिमाल रहता था। दोपहर का समय था। भगवान बुद्ध चलते-चलते थक गए थे। लेकिन वे चलते जा रहे थे, वे रुके नहीं। अचानक उन्हें एक कठोर और भारी आवाज़ सुनाई पड़ी -‘ठहर जा’। वे नहीं ठहरे। वे चलते ही रहे। वही भयानक आवाज़ फिर सुनाई पड़ी “ठहर जा”। वे ठहर गए। उन्होंने आगे-पीछे, चारों ओर देखा। उन्हें काफ़ी दूर सामने से एक भयानक शक्ल आती हुई दिखाई पड़ी। ऊँचा कद, काला शरीर, बिखरे हुए बाल, लाल-लाल आँखें, बड़ी-बड़ी मूंछे, चौड़ा सीना, हाथ में कटार अंगुलिमाल है। महात्मा बुद्ध ने अंगुलिमाल से मुसकराते हुए प्रेमपूर्वक पूछा-“मैं तो ठहर गया, तू कब ठहरेगा?” अंगुलिमाल चकित हो गया। उसके सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। लोग उसे देखकर थरथर काँपते थे। भगवान बुद्ध ने फिर प्यार से पूछा-” कब ठहरेगा तू?” अंगुलिमाल पर भगवान बुद्ध के प्रेम भरे शब्दों का असर होने लगा। अंगुलिमाल भगवान बुद्ध के आगे नतमस्तक हो गया। वह कहने लगा – “महात्मन! आपने मुझे राह दिखाई है। मेरी आँखें खोल दी हैं।” उसने उँगलियों की माला तोड़कर फेंक दी। कटार दूर फेंक दी और भगवान बुद्ध का शिष्य बन गया। प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. 26. एक पुराना इतिहास मुझे भी स्मरण हो आया था। वह इतिहास यह है। बात सन् 35-36 की है। उन दिनों में शांति निकेतन में था। एक दिन प्रातः भ्रमण के लिए निकला था। मैं साधारणतः प्रातः भ्रमण के लिए तभी निकलता हूँ, जब किसी ऐसे उत्साही घुमक्कड़ से, जो श्रद्धेय कोटि के होते हैं, प्रेरणा मिलती है। उन दिनों श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रातः भ्रमण के लिए निकलता था। सही बात तो यह है कि निकलते वह थे, मैं पीछे हो लेता था। तो उस दिन भी मैं उनके साथ ही निकला। भाग्य उस दिन प्रसन्न था। देखा, गुरुदेव धीरे-धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे। कुछ गंभीर मुद्रा में थे। आचार्य सेन ने कहा, “चलो प्रणाम कर लें।” वह आगे चले, मैं पीछे-पीछे। धीरे-धीरे दबे पाँव हम लोग उनके पास पहुँच गए। चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया। उनका ध्यान भंग हुआ। देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करते हुए कहा – “तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही क्यों अवतार रूप में सम्मान दिया गया?” प्रश्नः 1. प्रश्नः 2. प्रश्नः 3. प्रश्नः 4. प्रश्नः 5. NCERT Solutions for Class 9 Hindiद देश की एकता और अखण्डता के लिए कवि ने कौन कौन से सूत्र दिए हैं?➲ देश की एकता और अखंडता के लिए कवि ने निम्नलिखित सुझाव सूत्र दिए हैं... कवि के अनुसार सभी देशवासियों का केवल एक ही ध्येय होना चाहिए और वह यह कि हमारा देश महान बने। कवि के अनुसार सभी भारत वासियों में भाईचारा होना चाहिए तथा सभी भारतवासी एक दूसरे के मंगल की कामना करें।
राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए क्या आवश्यक है?राष्ट्रीय एकता का मतलब ही होता है, राष्ट्र के सब घटकों में भिन्न-भिन्न विचारों और विभिन्न आस्थाओं के होते हुए भी आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का बना रहना। राष्ट्रीय एकता में केवल शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें मानसिक,बौद्धिक, वैचारिक और भावात्मक निकटता की समानता आवश्यक है।
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