वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्यापन कब करना चाहिए - vaibhav lakshmee vrat ka udyaapan kab karana chaahie

वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्यापन कब करना चाहिए - vaibhav lakshmee vrat ka udyaapan kab karana chaahie

वैभव लक्ष्मी व्रत विधि, कथा, आरती, उद्यापन विधि और महत्व (Vaibhav Lakshmi Vrat Vidhi, Katha, Aarti, Udayapni Vidhi and Importance):-वैभव लक्ष्मीजी का व्रत मुख्यतया शुक्लपक्ष में आने वाले शुक्रवार से शुरू करना चाहिए। शुक्रवार के दिन ही व्रत को किया जाता है। वैभव लक्ष्मी जी का व्रत कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति से, कुंआरी लड़की, औरत या आदमी कर सकते है। जब गृहस्थी जीवन को जीने वाले पति-पत्नी एक साथ मिलकर भी वैभव लक्ष्मीजी का व्रत करते हैं, तो माता लक्ष्मीजी बहुत ही प्रसन्न होकर व्रत करने वालों को सुख, सम्पदा और ऐश्वर्य को प्रदान करती है।

वैभव लक्ष्मी व्रत के छह नियम:-वैभवलक्ष्मीजी का व्रत करने से पूर्व व्रत के नियमों को ध्यान में रखते हुए ही व्रत को करना चाहिए।

◆वैभवलक्ष्मी व्रत को किसी भी महीने में शुक्लपक्ष में आने वाले शुक्रवार से अपनी इच्छा शक्ति के अनुसार मन में संकल्प करके 7, 11, 21, 31, 51, 101 या विषम संख्या में अपनी इच्छा पूर्ति तक कर सकते है।

◆व्रत करने वाले व्रती को वैभवलक्ष्मी जी का व्रत अपने निवास स्थान पर ही अपने भक्तिभाव और विश्वास से करना चाहिए।

◆यदि व्रती को कहीं बाहर जाना पड़े तो उस शुक्रवार को व्रत नहीं करके अगले आने वाले शुक्रवार को अपने निवास जगह पर ही सम्पन्न करना चाहिए।

◆जब कभी परिस्थिति वश किसी तरह की मांदगी होने पर उस शुक्रवार को व्रत नहीं करके अगले आने वाले शुक्रवार को व्रत करना चाहिए।

◆व्रती को अपने मन में किये हुए संकल्प के अनुसार ही व्रतों की संख्या को पूरा करना चाहिए।

◆अंतिम व्रत के दिन व्रती को शुक्रवार के दिन विधिविधान से माता वैभवलक्ष्मी जी के व्रत का उद्यापन करना चाहिए। 

◆व्रती के द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार व्रत के पूरे होने माता लक्ष्मीजी की पूजा-अर्चना करके अपने सामर्थ्य के अनुसार भक्तिभाव व श्रद्धानुसार सात बालिकाओं को अपने घर खाना खिलाना चाहिए।

◆उन कन्याओं का आशीर्वाद भी लेना चाहिए और कुछ भेंट स्वरूप वस्त्र और द्रव्य भी देना चाहिए।

वैभव लक्ष्मी व्रत की विधि:-वैभवलक्ष्मी व्रत को करने से पूर्व मन में शुद्ध भावना रखते हुए सभी सामग्री को निम्नांकित रूप से पहले ही तैयारी कर लेनी चाहिए जिससे बार-बार उठखेट नहीं करनी पड़े और पूजा पूरी तरह से हो सके-

◆सबसे पहले व्रत की कथा शुरू करने से पहले एक लकड़ी का बाजोट या एक चौकी (एटरे) पर अक्षत की एक छोटी सी ढ़ेरी बनाकर उस पर जल से भरा एक ताम्र कलश को स्थापित करना चाहिए। 

◆उस कलश पर कोई भी धातु की एक छोटी कटोरी लेकर उस कटोरी में पांच धान्य, कोई भी द्रव्य सिक्का, जेवरात या चांदी का सिक्का रख कर उस पर रख देना चाहिए। 

◆उस बाजोट पर श्रीलक्ष्मीजी का श्रीयंत्र, माता लक्ष्मीजी के सभी स्वरूपों के वाला फोटु या प्रतिमा को स्थापित करना चाहिए। 

◆उस बाजोट पर गाय का शुद्ध घी को एक दीपक में भरना एवं उसमें फुलबाती डालकर प्रज्वलित करना चाहिए और अगरबती को भी प्रज्वलित करना चाहिए। 

◆उसके बाद मन में अपने श्रद्धाभाव से माता लक्ष्मीजी का ध्यान करके उनको अपने पूजा स्थल बुलाने के निमंत्रण देना चाहिए। 

◆फिर उसके बाद मन को एकाग्रचित्त करके माता लक्ष्मीजी की पूजा करनी चाहिए।

◆इस तरह व्रत करने वाले कोई औरत या पुरुष या बालक या बालिका के द्वारा पूर्ण विधि-विधान से पूजा-आराधना करने पर माता वैभवलक्ष्मी जी बहुत ही ज्यादा खुश हो जाती है और अपने प्रिय भक्त की समस्त तरह की कामनाओं को बहुत जल्दी से परिपूर्ण कर देती है।

◆व्रत कथा से पहले नैवेद्य बनाना:-व्रत कथा को शुरू करने से पहले ही माता लक्ष्मीजी को भोग के रूप में अर्पण करने कर लिए नैवेद्य के रूप में अपने घर की रसोईघर में किसी भी तरह की कोई मीठी वस्तु जिनमें दुध व चावल से तैयार खीर, सीरा, गुड़ या शक्कर या बाहर की कोई भी मिठाई और पांच तरह के फल आदि को उपयोग में लेना चाहिए। 

◆जब पूजा-आराधना से पहले माता वैभवलक्ष्मी जी को मन ही मन याद करके उनका आहवान करना चाहिए और स्तुति भी करनी चाहिए। 

◆उसके बाद कथा को पूरे ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। जब कथा पूर्ण हो जाती है तब माता वैभवलक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए। 

◆आरती करने के बाद माता वैभवलक्ष्मी जी भोग को अर्पण किये नैवेद्य को प्रसाद के रूप में वितरित करना चाहिए फिर अपना व्रत को खोलना चाहिए। 

श्री वैभवलक्ष्मी व्रत कथा:- बहुत समय पहले एक महानगर था। उस नगर का नाम कुशीनगर था। कुशीनगर में लाखों की संख्या में लोगों की जनसंख्या निवास करती थी। जिस तरह दूसरे नगरों की जीवनचर्या होती है, वैसा ही कुशीनगर में भी था। यानी अच्छाई बहुत ही कम बुराई बहुत ज्यादा पुण्य बहुत ही कम पाप अधिक संख्या में था।

कुशीनगर में हरिवंश नाम का एक सदगृहस्थ अपनी पत्नी दामिनी के साथ सुखी-सम्पन्न जीवन को चला रहा था। हरिवंश एवं उसकी पत्नी दामिनी भलाई करने वाले और जितना मिले उसमें ही सन्तुष्ट मिजाज वाले थे। धार्मिक कार्यों में उन दोनों की बहुत ही श्रद्धा व विश्वास रखते थे। दुनियादारी से उनका कोई विशेष मतलब नहीं था। अपने आप में अपनी गृहस्थी का ही मतलब रखने वाले थे। पूर्वजों की वाणी के अनुसार "संकट और मेहमान के आने का कोई भी निर्धारित समय नहीं होता है।" कुछ समय के बाद दामिनी के साथ ऐसा हुआ कि जब उसका पति हरिवंश बुरे लोगों के साथ रहने लगा और बुरी संगति में फंसता जा रहा था। उसके पति का मन अपनी गृहस्थी जीवन से भटक गया था। उसका पति बुरे लोगों के साथ रहते हुए शराब पीने लगा व रात को शराब पीकर बहुत देरी घर पर आने लगा, उसको गली-गलोच करने लगा और उसके साथ मारपीट भी करने लगा। इस तरह उसके पति का हमेशा नियम बन गया। वह वेश्यागमन करने लगा, जुए, सट्टे और रेस आदि बुरे कर्म भी करने लगा। जिससे वह बुरी तरह अपने जीवन को भष्ट करने लगा। हरिवंश अधिक धन कमाने की इच्छा से उसकी बुद्धि भष्ट हो गई और वह अनुचित कार्यों को करके अपने शौक को पूरा करने के गलत लोगों के साथ रहने लगा उसको अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहा। अपनी बुरी संगति के फलस्वरूप उसने अपने घर की सभी वस्तुओं को बेच दिया अब उसके घर में बेचने के लिए कुछ भी नहीं बचा था, जिसके कारण जो लोग पहले उसको मान-सम्मान दिया करते थे वहीं लोग उससे दूर होने लगे उसकी कोई भी सहायता करने के लिए तैयार नहीं था। उसके हालात भूख के मारे भिखारी की तरह हो गए थे। लेकिन दामिनी बेहद ही संयमी, संस्कारी और आशा रखने वाली थी। भगवान पर उसकी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास था। वह जानती थी कि यह सब अपने किये गए पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। दुख के बाद सुख अवश्य आता है इसी आस्था से वह नित्य भगवान की भक्ति करती रहती थी और अरदास करती थी कि उसके दुखो को जल्दी दूर करके सुख प्राप्त होवे। समय अपनी गति से चल रहा था इस तरह समय बीतते-बीतते एक दिन अकस्मात दोपहर के समय में उसके घर के दरवाजे पर किसी की आवाज सुनाई दी। आवाज को सुनकर दामिनी अपनी तन्द्रा को तोड़कर उठी। उसे डर सताने लगा कि कोई मेहमान तो नहीं आ गए उनका वह कैसे अतिथि सत्कार करेंगी। क्योंकि उसके घर में खाने के लिए अन्न का एक भी दाना नहीं था, जो अतिथि की सेवा में अर्पित करके उनको सन्तुष्ट कर सके। लेकिन वह संस्कारवान होने से उसका मन अतिथि सत्कार करने के लिए तैयार हो गई। फिर वह उठकर उसने अपने घर का दरवाजा खोला। तो जैसे ही उसने अपने घर का दरवाजा खोला तो उसने देखा कि उसके सामने एक दिव्य पुरुष खड़ा था। उस दिव्य पुरुष के सफेद घुंघराले बाल थे उसका चेहरा उन बालों से ढ़का हुआ था, उस दिव्य पुरुष के चेहरे पर लहराती दाढ़ी व गेरुएँ रंग के कपड़ों को पहने हुए था उसके चेहरे से एक चमकता हुआ तेज टपक रहा था। उसकी आंखों से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अमृत की वर्षा हो रही थी। उस दिव्य पुरुष को दामिनी ने देखकर बहुत ही ज्यादा सुख और शांति महसूस हो रही थी। वह उस दिव्य पुरुष को देखते ही समझ गई कि यह आया हुआ को महान सिद्ध महात्मा है। फिर दामिनी के मन में अतिथि सत्कार की भावना तेज हो गई वह उस महात्मा को सम्मान अपने घर में ले आई। जब दामिनी ने उसे अपने घर पर फटे हुए आसन पर बैठाया तो वह मारे लज्जा के जमीन में गड़ सी गई।

उस तरफ वह सन्त पुरुष दामिनी की ओर एकटकटकी से देख रहा था। अपने घर में जो कुछ भी बचा-खुचा था वह दामिनी ने अतिथि सेवा में समर्पित कर दिया, पर उसने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह तो बस दामिनी को उसी तरह देख रहा था, मानो उसे कुछ याद दिलाने की चेष्टा कर रहा था। जब काफी देर तक दामिनी कुछ न् बोली तो उसने कहा- 'पुत्री, मुझे पहचाना नहीं क्या?' उसका यह प्रश्न सुनकर दामिनी जैसे सोते से जागी और अत्यंत सकुचाते हुए मृदुल वाणी से बोली-'महाराज, मेरी धृष्टता को माफ करें, जो आप जैसे दिव्य पुरुष को मैं पहचानकर भी नहीं पहचान पा रह हूँ पारिवारिक कष्टों ने तो जैसे मेरी सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली हैं।

लेकिन यह निश्चित है कि संकट की इस घड़ी में मुझे आप जैसे साधु पुरुष का ही सहारा है तभी जैसे दामिनी को कुछ याद हो आया वह उस साधु के चरणों में गिरकर बोल उठी- 'अब मैं आपको फचसन गई हूँ महाराज! स्नेहरूपी अमृत की वर्षा करने वाले अपने शुभचिंतक को कोई कैसे भूल सकता है भला वास्तव में वह साधु मन्दिर की राह के मध्य में बनी अपनी कुटिया के बाहर वटवृक्ष के नीचे बैठ साधना किया करता था और मन्दिर आने-जाने वाले सभी श्रद्धालु उसे प्रणाम करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव करते थे। दामिनी भी उन्हीं में से एक थी। जब पिछले काफी दिनों से उसने उसे मन्दिर की ओर आते-जाते नहीं देखा तो उसकी कुशलक्षेम जानने के लिए पूछताछ करते हुए उसके घर की ओर आ निकला था।

दामिनी अभी अपनी सोचों में ही डूबी हुई थी कि साधु महाराज ने मौन भंग किया-'क्या कारण है पुत्री! तू आजकल मन्दिर आती-जाती दिखाई नहीं पड़ती? तुझे जो भी कष्ट है, मुझे बता, शायद मैं तेरी कुछ मदद कर सकूं! व्यक्ति दुःखों के बोझ तले दबा हो तो ऐसे में सहानुभूति के दो बोल ही काफी होते हैं।  दामिनी भी अपने आप पर संयम नहीं रख पाई और बिलखते-बिलखते हुए रोने लगा। तभी वह साधु वात्सल्यपूर्ण स्वर में बोल-'मन छोटा करने से समस्या हल नहीं होगी....सुख-दुख तो एक गाड़ी के दो पहियों के समान हैं। जिनका आना-जाना तो जिंदगीभर लगा रहता है। अपना दुःख किसी को बता देने से मन हल्का हो जाता हैं।' कुछ देर चुप रहने के बाद दामिनी ने बोलना शुरू किया-'महाराज!सर्वसुखों से भरपूर था। मेरे घर में...कण-कण में खुशियों का नृत्य होता था। पति भी नेक और ईमानदार थे सादा जीवन उच्च विचार की आधारशिला पर टिकी थी हमारी गृहस्थी। रुपये-पैसे की कोई कमी नहीं थी। सुबह-शाम घर में ईश वंदना होती थी। लेकिन अचानक न जाने किसकी नजर लग गई-हमारा भाग्य हमसे रूत गया मेरे पति कुसंगति में फंसकर अपना सबकुछ गंवा बैठे। अब तो इस लगता है जैसे साया भी साथ छोड़कर जाने को तैयार बैठा है। भिखारियों से भी बदतर हालत हो गई है।

दामिनी की दुःख भरी दास्तान व करुण दुःख को सुनकर साधु महात्मा का हृदय हाहाकर कर उठा, वह द्रवित स्वर में बोले कि-'पुत्री! कर्म का लिखा हुआ तो सबको अपने जीवनकाल में भोगना ही पड़ता है-तुम्हारे दुखों व कष्टों का भी पूर्वजन्म के कर्मों से रिश्ता है। लेकिन तुम किसी भी तरह की चिंता मत करो सबकुछ पहले की तरह हो जाएगा। दुःख को भोगने पर सुख की प्राप्ति होती है और समय एक जैसा नहीं चलता है। दुःख को भोगने पर ही सुख की सच्ची अनुभूति हो नहीं सकती। तुम मां लक्ष्मी के प्रति पूरी श्रद्धाभाव और विश्वास लगातार बनाए रखो। मां लक्ष्मीजी सबका उद्धार करने वाली और प्यार छलकता सागर है। अपने प्रिय भक्तों पर हमेशा अनुकृपा करने वाली होती है। तुम तो अपने आस्था व श्रद्धाभाव के साथ मां वैभवलक्ष्मी का व्रत करना शुरू करो तुम्हारी श्रद्धा और विश्वास आखिर में अवश्य रंग लाएगी। 'दामिनी एक समझदार व ज्ञानवती संस्कारी औरत थी, वह धर्म-कर्म में विशेष विश्वास व आस्था रखने वाली थी। मां वैभवलक्ष्मी के व्रत की बात सुनकर उसका चेहरा दमक उठा- 'महाराज, यदु इस व्रत को करने से मेरे परिवार पर आई मुश्किलें दूर ही सकती है तो इस व्रत को मैं जरूर करूंगी। आप कृपा करके मुझे इस व्रत को कैसे किया जाता है, किस दिन से शुरू किया जाता है और इस व्रत की पूरी विधि मुझे आप बताए?' साधु महात्मा दामिनी की श्रद्धाभाव एवं भक्तिभाव को देखकर खुश होकर बोले- 'पुत्री! पूरे संसार का कल्याण करने वाली मां वैभवलक्ष्मी के व्रत की विधि मैं जनकल्याणार्थ तुम्हें बता रहा हूँ- जो कि तुम अपने मन को एक जगह पर स्थिर करके ध्यानपूर्वक सुनो। मां वैभवलक्ष्मी व्रत को हर एक शुक्रवार को कर सकते है, सबसे पहले व्रत को करने वाले व्रती को अपने मन में ईश्वर को साक्षी मानकर अपनी इच्छा के अनुसार व्रत करने का संकल्प करना होता है। किसी भी माह के शुक्लपक्ष के शुक्रवार से यह व्रत करना चाहिए अपनी इच्छा पूर्ति तक व अपने मन में किये संकल्प के आधार पर व्रत को पूरा करना चाहिए। माता वैभवलक्ष्मी को मन ही मन में प्रणाम करने के बाद व्रत को करना चाहिए। व्रत के दिन प्रातःकाल जल्दी उठकर अपनी दैनिकचर्या को पूरा करते हुए स्नानादि से निवृत होकर साफ-सुथरे कपड़ों को पहना चाहिए।

उसके बाद पूर्व दिशा की ओर मुंह को करके अपने बिछावन पर बैठना चाहिए।

फिर एक लकड़ी का बाजोट लेकर उस पर लाल रंग का कपड़ा बिछाकर उस पर अक्षत या चावल की एक ढ़ेरी को बनाकर उस पर पानी से भरा हुआ तांबे का कलश स्थापित करना चाहिए उस तांबे के कलश पर एक छोटी कटोरी लेकर उस कलश के ऊपर रखकर ढ़क देना चाहिए उस कटोरी में कोई भी चांदी या स्वर्ण का आभूषण या रुपये का सिक्का रखना चाहिए। यदि चांदी या सोने की वस्तुएं नहीं होने पर कोई भी धातु या रुपये के सिक्के को रख देना चाहिए। मां वैभवलक्ष्मी जी की कोई भी एक सभी स्वरूपों वाली तस्वीर या फोटु को उस बाजोट पर या दीवार पर चिपकाना चाहिए। गाय के शुद्ध घी का दीपक और अगरबती या धूपबत्ती को प्रज्वलित करते हुए मन ही मन में अपनी पूर्ण श्रद्धाभाव व विश्वास रखते हुए मां वैभवलक्ष्मी का मन में जाप करते रहना चाहिए। श्री यंत्र' मां लक्ष्मीजी को बहुत प्यारा यन्त्र माना जाता है उसे भी स्थापित करके नमन करते हुए सभी वस्तुओं पर जल को छिटक कर उसके बाद सभी जगहों पर हल्दी, कुंकुमं का तिलक करके फिर सभी जगह पर चावल व फूल को अर्पण करने चाहिए एवं कलश देव की भी पूजा करनी चाहिए। नैवेद्य के रूप में कोई भी पांच तरह के ऋतु फल, कोई भी मिठाई को प्रसाद के रूप ले सकते है। यदि कोई मिठाई या फल नहीं मिलने पर घर की वस्तुओ के रूप में गुड़ या शक्कर को भी प्रसाद के रूप में ले सकते है। उसके बाद अपने विश्वास व भक्तिभाव से मां लक्ष्मीजी करनी चाहिए। उसके बाद चौदह बार ''जय मां वैभवलक्ष्मीजी की जय हो!" प्रेमभाव से बोलना चाहिए। मन में अपनी मुराद को माता के सामने रखना चाहिए और माता से सच्चे मन से अरदास करनी चाहिए। उसके बाद प्रसाद को सबको वितरित करके खुद ग्रहण करना चाहिए। दिन में केवल एक बार ही सात्विक भोजन करके अपने व्रत को पूर्ण करना चाहिए। पूजा में रखे हुए घने या रुपये को लाल कपड़े में लपेटकर अपने सुरक्षित जगह पर रख देना चाहिए। यह सभी वस्तुएं आगे आने वाले शुक्रवारों कि पूजा में काम आएगी। कलश से भरा जल तुलसी के पौधे को अर्पण कर देना चाहिए एवं चावल को पक्षियों को आहार स्वरूप में डालना चाहिए। ऐसी शास्त्रोक्त विधि से व्रत करने वालों को जल्दी ही फल की प्राप्ति होती है।' साधु महाराज के मुखारविंद से यह वृत्तांत सुनकर दामिनी पुलकित हो उठी। 

वैभवलक्ष्मी व्रत की उद्यापन विधि:-उनके चरण स्पर्श कर उत्साहित स्वर में बोली-'अब लगे हाथ उद्यापन की विधि भी बता दें महाराज! इसके बिना तो व्रत अधूरा ही रह जाएगा?' 'अवश्य पुत्री!' कहकर साधु महाराज उद्यापन की विधि बताने लगे- 'चाहे जितने भी शुक्रवार (प्रायः 11 या 21) व्रत करने का संकल्प लिया हो, लेकिन मन में मां वैभवलक्ष्मी के प्रति श्रद्धा तथा आस्था बराबर बनी रहनी चाहिए। 

◆जिस दिन अंतिम शुक्रवार का व्रत हो,उस दिन शास्त्रोक्त विधि से उद्यापन किया जाता है। अन्य शुक्रवारों की तरह ही इस दिन भी पूजन व व्रत करना चाहिए। 

◆लेकिन इस दिन प्रसाद के लिए खीर जरूर बनानी चाहिए। पूजा के बाद नारियल फोड़कर सात कुंआरी कन्याओं के चरण धोकर, कुंकुम का तिलक लगाकर पूजन करना चाहिए, उन्हें अपने सामर्थ्यनुसार दक्षिणा दें, फिर प्रसाद के रूप में खीर वितरित करें। 

◆अब मां वैभवलक्ष्मी के सभी स्वरूपों को मन ही मन में नमन करते हुए कहें- 'हे मां! यदि मैनें शुद्ध तथा निर्मल हृदय से आपकी स्तुति करते हुए वैभवलक्ष्मी व्रत विधि-विधानानुसार पूर्ण किए हो तो मेरी मनोकामना (यहां पर अपनी मनोकामना का स्मरण करें) अवश्य पूरी करना। सन्तानहीनों को सन्तान देने वाली, दुःखियों का दुःख हरने वाली, अखंड सौभाग्य का वरदान देने वाली, कुंआरी कन्याओं को मनचाहा वर दिलाने वाली मां वैभवलक्ष्मी आपकी महिमा अपार है। 

◆अपने हर भक्त की विपत्तियां हरकर उन्हें सुख-समृद्धि प्रदान करना। 'साधु महाराज से वैभवलक्ष्मी व्रत का शास्त्रोक्त ज्ञान प्राप्त करके दामिनी भाव विभोर हो उठी। उसे अपने भीतर एक अनोखे तथा असीमित आत्मबल का संचार होता महसूस हुआ। उसने भी मां वैभवलक्ष्मी के इक्कीस

व्रत आते शुक्रवार से शुरू करने का संकल्प लेकर साधु महाराज को आदर सहित विदा किया और मन ही मन में मां वैभवलक्ष्मी का स्तुतिगान करने लगी। दो दिन बाद ही शुक्रवार आ गया। उसने पहली रात दुखों की मारी दामिनी ठीक से सो भी नहीं सकी। मां वैभवलक्ष्मी के व्रत करने से उसकी समस्याओं का अंत हो जाएगा, यह सोचकर वह मुंह अंधेरे ही उठ बैठा और स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके दामिनी ने अपने सम्मुख रखी चौकी पर चावल की छोटी सी ढ़ेरी बनाकर उस पर तांबे का कलश रखा। लेकिन जब स्वर्णाभूषण रखने की बात आई टी धर्मसंकट में पड़ गई। सारे घने पति के दुर्व्यसनों की भेंट चढ़ चुके थे विवाहिता स्त्री थी, सो मंगलसूत्र भी उतारकर नहीं रख सकती थी, और कोई गहना था नहीं। तभी उसे उन नन्हीं पायलों का स्मरण ही आया, जो उसने अपनी आने वाली सन्तान के लिए बनवाकर रख छोड़ी थी और पति की निगाहों से उन्हें बचा रखा था। उसने झटपट वह पायलें निकली और गंगाजल से धोकर उन्हें शुद्ध करके कलश पर रखी कटोरी में दाल दिया। डिब्बे की तली से बची-खुची शक्कर निकालकर उसे प्रसाद के रूप में रखा और विधु अनुसार व्रत किया। सर्प्रथम उसने अपने पति को प्रसाद दिया आने वाला पूरा सप्ताह बड़ी ही हंसु-खुशी से बिता। बात-बात पर झल्ला उठने वाले उसका पति अपेक्षाकृत शांत एवं संयत रहा-कोई मारपीट तथा क्लेश घर में नहीं हुआ। इसे दामिनी ने मां वैभवलक्ष्मी का चमत्कार समझ और मन ही मन उन्हें प्रणाम किया। मां वैभवलक्ष्मी के प्रति उसकी आस्था और भी बलवती हो गई। इसी प्रकार शास्त्रोक्त विधि से दामिनी ने बीस शुक्रवार के व्रत पूरे कर लिए। इस बीच की परिवर्तन हुए थे उसका पति कुसंगति छोड़कर सीधी राह पर आ गया था और उसका कामकाज भी जमने लगा था घर में यदु किसी चीज की बहुतायत नहीं थी ति कमी बहु नहीं रह गई थी। यह सब मां वैभवलक्ष्मी के चमत्कार और दामिनी की आस्था तथा विश्वास का परिणाम था। इक्कीसवें शुक्रवार को व्रत का उद्यापन करना था। साधु महाराज के वचन अब भी मानो दामिनी के कानों में गूंज रहे थे। उनकी बताई विधि के अनुसार ही दामिनी ने शास्त्रोक्त विधि से उद्यापन किया। सात कुंआरी कन्याओं को भोजन कराकर दक्षिणा दु। आसपास की सौभाग्यवती स्त्रियों में प्रसाद वितरित की। मां वैभवलक्ष्मी के हर स्वरूप को प्रणाम किया और कहा- 'आपकी महिमा निराली हैं मां! अपने मेरे सारे दुःख हर लिए मेरी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर दी...मेरा उजड़ा घर फिर से बस गया। मेरा यह नया जीवन आप की ही देन है मां मैं आजीवन आपकी पूजा-अर्चना करूंगी और दूसरों को भी आपकी महिमा से अवगत कराकर वैभवलक्ष्मी के व्रत रखने के लिए प्रेरित करूंगी।

वैभवलक्ष्मी व्रत का महत्त्व:-वैभव लक्ष्मी के व्रत को करने से मनुष्य के जीवन में आने वाली सभी तरह की कठिनाइयों से मुक्ति मिल जाती है।

◆व्रत को करने से मन की समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है।

 ◆व्रत करने वालों को धन-सम्पत्ति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

◆पारिवारिक जीवन में आ रही कठिनाइयों और बाधाओं से छुटकारा मिल जाता है।

◆दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त होता है।

◆जिस किसी की भी शादी में देरी या नहीं हो रही होती है तो उनको यह व्रत जरूर करना चाहिए जिससे व्रत के प्रभाव स्वरूप अवश्य ही उसकी शादी हो जाती है।

    ।।अथ श्री लक्ष्मीजी की आरती।।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

ब्राह्मणी, रुद्राणी, कमला तू ही जगमाता।

सूर्य, चन्द्रमा ध्यावत नारद ऋषि गाता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

दुर्गा रूप निरंजनी सुख संपति दाता।

जो कोई तुमको ध्यावत ऋद्धि-सिद्धि पाता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

तू ही पाताल बसंती तू ही शुभ दाता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

कर्म प्रभाव प्रकाशक जग निधि के त्राता।

जिस घर थारो वासा तिस घर में गुण आता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

कर सके सोई कर ले मन नहीं घबराता।

तुम बिन यज्ञ न होवे वस्त्र न कोई पाता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

खान-पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।

शुभ गन सुंदर मुक्ता क्षीर निधि जाता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

रत्न चतुर्दश तोकू कोई नहीं पाता।

श्री लक्ष्मीजी की आरती जो कोई नर गाता। 

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाना।

स्थिर चर जगत रचाये शुभ कर्म नर लाता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

राम प्रताप मैया की शुभ दृष्टि चाहता।

जय लक्ष्मी माता जय-जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशदिन सेवत हर विष्णु विधाता।

।।इति श्री लक्ष्मीजी की आरती।।

।।जय बोलो माता लक्ष्मीजी की जय हो।।

वैभव लक्ष्मी माता का उद्यापन कब करना चाहिए?

वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्यापन उपासक को यह व्रत 9, 11 और 21 शुक्रवार के लिए रखना चाहिए. अंतिम शुक्रवार के दिन इस व्रत का उद्दीपन करना चाहिए. उद्दीपन के दिन उपवास रखकर मां वैभव लक्ष्मी का पूजन करें और 7 या 9 कन्याओं को खीर-पूड़ी का भोजन कराएं. वैभव लक्ष्मी व्रत की पुस्तक, दक्षिणा व केले का प्रसाद देकर उन्हें विदा करें.

लक्ष्मी जी के व्रत का उद्यापन कैसे करें?

इक्कीसवें शुक्रवार को माँजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की सात पुस्तकें उपहार में दीं. फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- 'हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है.

वैभव लक्ष्मी का व्रत कौन से महीने से शुरू करना चाहिए?

Lakshmi Panchami 2022 Puja Vidhi : चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को लक्ष्मी पंचमी का व्रत किया जाता है। लक्ष्मी प्राप्ति के लिए मनुष्य इस व्रत को करते हैं। मां लक्ष्मी जो धन, वैभव, सुख समृद्धि प्रदान करने वाली देवी हैं और विष्णुप्रिया हैं। इसलिए इसे लक्ष्मी पंचमी या फिर श्री पंचमी भी कहा जाता है।

वैभव Laxmi पूजा कितने बजे करनी चाहिए?

वैभव लक्ष्मी की पूजा शाम के समय की जाती है। व्रत के दौरान पूरे दिन फलाहार करें। शाम को अन्न ग्रहण कर सकते हैं। शुक्रवार को शाम को स्नान करने के बाद पूर्व दिशा में चौकी पर लाल कपड़ा बिछाएं।