(satyagraha in hindi meaning) सत्याग्रह की परिभाषा क्या है ? सत्याग्रह किसे कहते है ? सिद्धांत निबंध गांधी द्वारा प्रतिपादित सत्य अहिंसा और सत्याग्रह संबंधी विचारों की विवेचना कीजिए मतलब से आप क्या समझते है ? Show उद्देश्य प्रस्तावना सभ्यतागत औचित्य और अंग्रेजी शासन यद्यपि कुछ अंग्रेज सिद्धांतकार एवं राजनयिक ऐसा मानते हैं कि वे भारत में अपने हित के लिए नहीं, बल्कि, भारतीय हितों के लिए मौजूद थे। वे ऐसा दावा करते हैं कि एक नैतिक दायित्व समझकर ही श्वेत लोग भारतीयों को ससभ्य, ससंस्कृत एवं आधुनिक बनाने के लिए यहाँ आए थे। ऐसे मानने वालों में एक लार्ड कर्जन थे जो 1898 से 1905 के बीच भारत के वायसराय रहे थे। 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उन्होंने कहा थाः ‘‘पूर्व में प्रतिष्ठित होने के बहुत पहले से ही पश्चिम के नैतिक विधान में सत्य का बहुत ही महत्वपूर्ण रुझान था, जबकि पूर्व में हमेशा से ही राजनयिक चरित्रहीनता एवं दुष्टता का बोलबाला रहा था’’। एक दूसरे अवसर पर कर्जन का कहना था कि भारत को स्वराज या तो ब्रिटिश संसद के सहारे मिलेगा या हिंसा के द्वारा। महात्मा गाँधी ने कर्जन के इन दोनों दावों का जमकर विरोध किया। गाँधी का कहना था कि भारतीय संस्कृति में सत्य का आरम्भ से ही केन्द्रीय स्थान रहा है और सत्य और नैतिकता के मामले में अंग्रेजों का यह सर्वोच्चता का दावा बिल्कुल गलत है। कर्जन के विरुद्ध गाँधी जी ने यह दावा किया कि भारतीय स्वराज न तो ब्रिटिश संसद के द्वारा आएगा और न हिंसा के द्वारा, बल्कि, भारतीय जनता की सीधे अहिंसक कार्यवाही (यानि सत्याग्रह के सहारे)। अंग्रेजी शासन की वैधता के संबंध में गाँधी, उग्रपंथी एवं बोध प्रश्न 1 सत्याग्रह आरम्भिक प्रयोग अर्थ हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा था: ‘सत्याग्रह को अंग्रेजी में निष्क्रिय प्रतिरोध के नाम से जाना जाता है। निष्क्रिय प्रतिरोध एक ऐसी विधि है, जिसमें निजी पीड़ा के सहारे अपने अधिकारों की रक्षा की जाती है, यह अस्त्रों के सहारे प्रतिरोध की विधि से ठीक उल्टा है। कोई चीज जिसे मेरा अन्तःकरण सही नहीं मानता है, अगर मैं करने से इन्कार कर देता हूँ तो इसका मतलब है कि मैं आत्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहा हूँ। उदाहरण के लिए, सरकार एक कानून पास करती है जो मुझ पर भी लागू होता है। मैं इसे पसंद नहीं करता हूँ। अगर मैं हिंसा के द्वारा सरकार को बाध्य करता हूँ कि वह कानून को वापस ले तो इसका मतलब है कि मैं ‘शारीरिक शक्ति‘ का प्रयोग कर रहा हूँ और अगर मैं इस कानून को नहीं मानता हूँ और इसके लिए हर्जाना भरना स्वीकार कर लेता हूँ, तो इसका मतलब है कि मैं ‘आत्मिक शक्ति‘ का प्रयोग कर रहा हूँ जिसमें स्व का त्याग अन्तर्निहित होता है। गाँधी का कहना था कि भारतीय स्वराज के लिए सत्याग्रह व्यावहारिक रूप से अनिवार्य और नैतिक रूप से अपेक्षित राजनैतिक कार्यवाही था। उनका कहना था कि चूँकि अंग्रेज बहुत अच्छी तरह अस्त्रों से लैस थे, इसलिए भारतीयों को उस स्तर तक अस्त्र-शस्त्र हासिल करने में वर्षों लग जाने की संभावना थी। इस व्यावहारिक कठिनाई के अलावा गाँधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंसा की विधि अपनाए जाने पर होने वाले सभ्यतागत एवं नैतिक परिणामों को अस्वीकार करते थे। उन्होंने इशारा किया था कि भारत को बड़े पैमाने पर अस्त्र से सुसज्जित करने का अर्थ है, इसका यूरोपीयकरण करना या दूसरे शब्दों में, नैतिक रूप से त्रुटिपूर्ण आधुनिक युरोपीय सभ्यता द्वारा भारत को ही गुलाम बनाये जाने की प्रक्रिया को जारी रखना। आधारगत सिद्धांत ‘‘सत्य शब्द सन्त से निकला है जिसका अर्थ है आस्तित्व। यथार्थ में सत्य के अलावा कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। यही वजह है कि ईश्वर का शायद सबसे महत्वपूर्ण नाम ‘‘सन्त’’ या ‘‘सत्य‘‘ है। वस्तुतः यह कहना ज्यादा सही है कि सत्य ही ईश्वर है बनिस्पत कि यह कहना कि ईश्वर सत्य है। ‘‘यह माना जायेगा कि सन्त या ईश्वर का सबसे सार्थक एवं सही नाम है’’। चँूकि ‘‘यथार्थ में सत्य के अलावा कुछ भी आस्तित्वमान नहीं है, ‘‘इसलिए राजनैतिक-व्यावहारिक क्षेत्र भी सत्य से अलग नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, गाँधी के अनुसार सत्य या नैतिकता से राजनीति का पृथक्करण अतर्कसंगत है। उन्होंने लिखा है: ‘‘कुछ दोस्तों ने मुझे कहा कि राजनीति और सांसारिक मामले में सत्य और अहिंसा का कोई स्थान नहीं है। मैं इनसे सहमत नहीं हैं। मेरे लिए व्यक्तिगत मक्ति के साधन के रूप में इसका प्रवेश एवं उपयोग ही हमेशा मेरा प्रयोग रहा है’’। गाँधी जी का सत्याग्रह राजनैतिक आचार में सत्य और अहिंसा को प्रवेश कराने का एक प्रयोग है। गाँधी के अनुसार यद्यपि सत्य निरपेक्ष होता है, लेकिन इसके बारे में हमारा ज्ञान एवं अनुभव सापेक्ष और आंशिक ही है। जिसे हम सत्य मानते हैं, हो सकता है वह दूसरे के लिए असत्य हो। वस्तुतः सत्याग्रही यह मान कर चलते हैं कि उनके विरोधी या शोषक भी सत्य की राह पर चलने वाले हैं। यही वजह है कि अहिंसा सत्य के अन्वेषण का साधन है। गाँधी ने लिखा था कि ‘‘अहिंसा का प्रयोग जिस मलभूत सिद्धांत पर आधारित है, वह यह है कि जो एक आदमी के लिए अच्छा है वह पूरे ब्रह्मांड के लिए भी अच्छा है। सभी मनुष्य सारतः एक हैं। इसलिए जो एक आदमी के लिए सम्भव है, वह सभी के लिए सम्भव है‘‘। सापेक्ष सत्य के आधार पर काम करते हुए सत्याग्रही विरोधी सत्य के दावों को अहिंसक तरीके से निर्दोष ठहराते हुए समाज के मूल संघर्षों को दूर कर समाज में संगति प्रदान करते हैं। गाँधी लिखते हैंः ‘‘ऐसा मालूम पड़ता है कि प्राचीन अन्वेषकों ने ऐसा महसूस किया था कि इस नश्वर शरीर के द्वारा सत्य का पूर्ण अभिज्ञान सम्भव नहीं, इसलिए ये लोग अहिंसा की ओर मुड़े। जिस प्रश्न का इन लोगों को सामना करना पडा वह था कि. ‘‘जिन लोगों ने मेरे लिए बाधाएँ उत्पन्न की क्या मुझे उन लोगों को सहना चाहिए या उन्हें खत्म कर देना चाहिये। उन लोगों को ऐसा अहसास हुआ कि वे जो विरोधियों को खत्म कर दिये, वे जीतने वालों में नहीं थे, बल्कि, जिन लोगों ने दुख या विरोधियों को सहना मंजूर किया वे अपने विरोधियों से आगे निकल गये। जिन्होंने जितना ही हिंसा का सहारा लिया, वे सत्य से उतना ही पीछे हट गये। कल्पित दुश्मनों से लड़ते हुए अपने अन्दर के दुश्मनों की उन लोगों ने अपेक्षा की’’। सत्याग्रही ‘‘प्रेम की शक्ति’’ या ‘‘सत्य की शक्ति’’ का प्रयोग विरोधियों या शोषकों को खत्म करने के लिए नहीं करता है, बल्कि वह संघर्षात्मक या उत्पीड़क सम्बन्धों को पूर्ण रूप से बदल देना चाहता है, जिससे दोनों पक्ष अपने आरम्भिक संघर्ष में नैतिक अन्योन्यश्रितता महसूस कर सके। सत्याग्रह की प्रक्रिया में शोषण का शिकार अपने शोषक को भी उसके कपटपणे असत्य, विश्वासों एवं क्रियाओं से मुक्त कर खुद मुक्त होता है। गाँधी जी ने ‘‘हन्द स्वराज‘‘ में लिखा था ‘‘सत्याग्रह का प्रयोग करने वाला और जिसके विरुद्ध यह प्रयोग किया गया है, दोनों को यह मुक्त करता है‘‘। अहिंसा और सत्याग्रह ‘‘अहिंसा के ऋणात्मक रूप का अर्थ है, किसी भी प्राणी के मन और शरीर को कष्ट न पहुँचाना। इसलिए मैं किसी गलत काम करने वाले को भी कष्ट नहीं पहुँचाऊँगा, उसके प्रति विद्वेष का भाव नहीं रखुंगा, उसकी किसी भी मानसिक यंत्रणा की वजह नहीं बनूँगा‘‘। धनात्मक रूप में अहिंसा का अर्थ है, अथाह प्रेम, महानतम सद्भाव। अगर मैं अहिंसा का अनुयायी हूँ, तो मैं अपने दुश्मन को भी प्यार करूँगा, जैसे कि मैं बुरा काम करने वाले अपने पिता या पुत्र को करता हूँ। इस सक्रिय अहिंसा में सत्य और निर्भयता भी शामिल है‘‘। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि गाँधी के लिए, दूसरों को कष्ट न पहुँचाने की भावना किसी नैतिक या व्यावहारिक सत्य को मापने का एक ऋणात्मक प्रतिमान है। सत्य का धनात्मक प्रतिमान तो यह है कि यह कहाँ तक किसी व्यक्ति की भलाई के लिए क्रियाशील है। हमारी इच्छाओं और प्रेरणाओं को दो वर्षों में बाँटा जा सकता है-स्वार्थपूर्ण और अस्वार्थपूर्ण। सभी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ अनैतिक हैं, जबकि दूसरों की भलाई करने के लिए अपने को सुधारना सही मायने में नैतिक है ‘‘सर्वोच्च नैतिक नियम तो यह है कि हम लोगों को मानव मात्र के लिए निरन्तर काम करते रहना चाहिए’’। तपस संघर्ष, संकल्प एवं स्वपीड़न पर आधारित सत्याग्रह तर्क की पुरक भूमिका निभाती है। तर्क के सहारे दूसरों को प्रभावित करना वस्तुतः सत्याग्रह का सार है। लेकिन सत्याग्रह मूलभूत सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक या विचारधारात्मक संघर्षों के निराकरण करने में तर्क की सीमाओं को जानता है। ऐसे संघर्षों में विवेकपूर्ण मतैक्य जल्दी हासिल नहीं किया जा सकता। गाँधी इस बात पर जोर देते थे कि विरोधियों या उत्पीड़कों को बदलने के लिए विवेक की सामान्य प्रक्रिया का प्रयोग करने के बाद ही सत्याग्रह की सीधी कार्यवाही का प्रयोग किया जाना चाहिए। यूं तो सत्याग्रह सीधी कार्यवाही की सबसे शक्तिशाली विधियों में से एक है, लेकिन सत्याग्रही दूसरी अन्य विधियों को निःशेष करने के बाद ही सत्याग्रह का आश्रय लेता है। इसलिए पहले वह गठित सत्ता-प्रतिष्ठानों के पास लगातार प्रयत्न करेगा, लोकमतों का समर्थन मांगेगा, जनता के विचारों को शिक्षित करेगा, वह ऐसे किसी भी व्यक्ति के सामने अपने पक्ष को प्रस्तुत करेगा जो उसे सुनना चाहता है। इन सभी विधियों को आजमाने के बाद ही वह सत्याग्रह का सहारा लेगा। सत्याग्रह अभियान में सामाजिक प्रणाली के सत्य को तीन सोपानों में स्थापित करने की बात कही जाती है। 1) विरोधियों को तर्क के सहारे कायल करना और विरोधियों के विचारों के प्रति भी अपने को खुला रखना, 2) सत्याग्रह के स्वपीड़न के सहारे विरोधियों को निवेदन करना, और 3) असहयोग और नागरिक अवज्ञा। सत्याग्रह की विभिन्न विधियाँ: 1) प्रण, प्रार्थना और अनशन जैसी शुद्धात्मक सत्याग्रही कार्यवाहियाँ, 2) बहिष्कार, हड़ताल जैसे असहयोगी कर्म, 3) धरना, विशिष्ट कानूनों की अवज्ञा एवं करों का भुगतान न करना, जैसी नागरिक अवज्ञाओं का प्रदर्शन, 4) साम्प्रदायिक एकता को प्रोन्नत करने, अश्पृश्यता को दूर करने, प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम को चलाने एवं सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को दूर करने वाले रचनात्मक कर्ग। इन सभी स्थितियों में सत्याग्रही जहाँ सत्य के दामन को पकड़े रहता है, वहाँ वह विरोधियों को हर वह अवसर प्रदान करता है, जिससे वह सत्याग्रही के पक्ष को गलत एवं भ्रांतिपूर्ण सिद्ध कर सके। सत्याग्रह हिंसा का प्रयोग नहीं करता क्योंकि मनुष्य निरपेक्ष सत्य को जानने में असमर्थ है इसलिए वह दूसरे को दण्डित करने का अधिकारी नहीं है। ‘‘मन में यह आदर्श बनाये रखना चाहिए कि सामुदायिक सत्य के स्वयं-नियंत्रित समाज में हर व्यक्ति स्वयं पर इस प्रकार शासन करे कि वह अपने पड़ोसी के रास्ते की कभी बाधा नहीं बने‘‘। जोन बोन्दुरां लिखती हैं कि ष्सत्याग्रह यह दावा करता है कि वह अहिंसक तरीके से मानवीय आवश्यकताओं को पूर्ति करने वाला ऐसे सत्य की रचना करेगा जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य होगा एवं दोनों को पारस्परिक संतोष प्रदान करने वाला होगा। अतः सत्याग्राहियों का कार्यात्मक सिद्धांत होगाः सत्य को सापेक्ष, अहिंसक और सहिष्णु मानना तथा स्वयं पीड़न का सहारा लेना। गाँधी इन बातों को निम्नांकित उद्धरण में उचित ठहराते हैं: ‘‘सत्याग्रह का प्रयोग करते हुए मुझे यह अनुभव हुआ कि आरम्भिक अवस्था में सत्य का अन्वेषण विरोधियों पर हिंसा के प्रयोग को स्वीकार नहीं करता है बल्कि, बड़े धैर्य और सहानभूति से विरोधियों के भ्रम को दूर करती हैं। क्योंकि हो सकता है जो किसी को सत्य मालूम पड़े, वह दूसरे को असत्य जान पड़े’’। इसलिए आचार की स्वर्ण संहिता पारस्परिक सहिष्णुता है। इसके पीछे यह मानना है कि हम लोग सभी एक जैसा नहीं सोचते हैं और हम लोग सत्य को खंडित एवं दृष्टि के विभिन्न कोणों से देखते हैं। सबों का अन्तःकरण एक जैसा नहीं होता। इसलिए यह सिद्धांत वैयक्तिक आचार का एक अच्छा मार्ग दर्शक है। सबों पर एक ही आचार संहिता लादना उनके स्वतंत्र अन्तःकरण पर असह हस्तक्षेप होगा। वास्तविक अधिकार और न्यायपूर्ण नियमों के बारे में लोगों की अवधारणा एक जैसी नहीं होती। यही कारण है कि हिंसा के बदले एक सत्याग्रही अपने विरोधियों को भी वही स्वतंत्रता एवं मुक्ति की भावना का अधिकार देता है, जो वह खुद अपने लिए सुरक्षित रखना चाहता है। वह खुद को क्षति पहुंचाकर संघर्ष जारी रखता है। प्रजातंत्र का विकास सम्भव नहीं है, अगर हम दूसरे पक्ष को सुनने को तैयार नहीं हैं। विरोधियों को सुनना अगर हमने अस्वीकार कर दिया है, तो इसका मतलब है कि हमने अपने विवेक के दरवाजे को बंद कर दिया है। अगर असहिष्णुता हमारी आदत बन जाती है, तो यह डर है कि हम सत्य को भी खो दें। इसके बावजूद कि प्रकृति ने हमारी समझ की कुछ सीमाएँ निर्धारित कर रखी हैं, फिर भी हम लोगों को जो भी समझ है, उसके अनुसार निर्भय होकर काम करना चाहिए। हम लोगों को खुले मन से यह स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए कि जिसे हम सत्य मानते थे, वह असत्य था। मन का यह खुलापन ही हम लोगों में अन्तर्निहित सत्य को दृढ़ करता है। सत्याग्रह के विचार का क्या अर्थ है उत्तर?सत्याग्रह के विचार में सत्य की शक्ति पर आग्रह और सत्य की खोज पर बल दिया जाता था। इसका अर्थ था कि अगर अपका उद्देश्य सच्चा है यदि आपका संघर्ष अनयाय के खिलाफ है तो उत्पीड़क से मुकाबला करने के किसी शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं है।
सत्याग्रह का क्या अर्थ है?"सत्याग्रह' का मूल अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह (सत्य अ आग्रह) सत्य को पकड़े रहना और इसके साथ अहिंषा को मानना । अन्याय का सर्वथा विरोध(अन्याय के प्रति विरोध इसका मुख्या वजह था ) करते हुए अन्यायी के प्रति वैरभाव न रखना, सत्याग्रह का मूल लक्षण है।
सत्याग्रह के तीन प्रमुख स्वरूप कौन से हैं?Solution : सत्याग्रह के तीन स्वरूप हैं: असहयोग, सविनय अवज्ञा, और बहिष्कार। महात्मा गांधी ने इन तीनों स्वरूपों का भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में इस्तेमाल किया।
सत्याग्रह पर महात्मा गांधी के क्या विचार थे?यदि आपका उद्देश्य सच्चा है और आपका संघर्ष अन्याय के विरुद्ध है तो आपको अपने उत्पीड़क का मुकाबला करने के लिए किसी भी शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार के प्रतिशोध की भावना अथवा आक्रामकता का सहारा लिए बिना एक सत्याग्रही केवल अहिंसा के माध्यम से ही अपने संघर्ष में सफल हो सकता है।
|