Show अच्छे कर्मों का फल भी होता है अच्छाधर्मग्रंथों और सूत्रों में मानव-जीवन की सम्पूर्ण कार्यपद्धति का दिन, तिथि, प्रहर, पल आदि के अनुसार विवरण देते हुए पर्याप्त मार्गदर्शन दिया गया है। गुण-दोषों के आधार पर दुष्कर्मों के दुष्परिणामों का उल्लेख मिलता है। धर्मग्रंथों और सूत्रों में मानव-जीवन की सम्पूर्ण कार्यपद्धति का दिन, तिथि, प्रहर, पल आदि के अनुसार विवरण देते हुए पर्याप्त मार्गदर्शन दिया गया है। गुण-दोषों के आधार पर दुष्कर्मों के दुष्परिणामों का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में प्राचीन ग्रंथों के विवेचन को अपेक्षित मान्यता भले ही न मिल रही हो और कर्मों को परिणामों के संबंध न जोड़ते हों तब भी कर्म की प्रधानता मान्य है। पारलौकिक व्यवस्था में स्वर्ग और नरक का महत्वपूर्ण स्थान है। स्वर्ग और नरक के विधान के अतिरिक्त वर्तमान के सुख-दुख पर पूर्व कृत कर्मों की छाया के अस्तित्व पर विचार किया जाता है। गौतम स्वामी ने मानवीय कष्टों, दुर्भाग्य आदि से संबंधित अनेक प्रश्रों के उत्तर प्राप्त कर जनकल्याणार्थ उद्घाटित किए थे। लगभग 2500 वर्ष पूर्व के 33 प्रश्नोत्तर का सारांश यहां प्रस्तुत है। दान करने से जो व्यक्ति जी चुराता है, चोरी करता है और धर्म की हंसी उड़ाता है वह व्यक्ति सदा धर्महीन रहकर जीवन भर कष्ट उठाता है और मर कर दुर्गति पाता है। कुछ लोग सर्व सुविधाओं के स्वामी होते हुए सभी सुविधाओं से वंचित रहते हैं, क्योंकि वे साधु-महात्माओं की सेवा करते हुए दिए गए दान पर बाद में पछताते हैं। हरे-भरे वृक्षों को काटने वाले अगले जन्म में नि:संतान होते हैं। और ये भी पढ़े
पर स्त्री को बुरी नियत से देखने वाला और साधु-संन्यासियों के दुर्गुणों का बखान करने वाला व्यक्ति अगले जन्म में काना होता है। शहद के छत्ते के नीचे आग जलाने वाले अंधे होते हैं। मिठबोला, परनिंदा से प्रमुदित और धर्मसभा में सोने वाला व्यक्ति बहरा होता है। अमानत में खयानत करने वालों का जवान बेटा मरता है। पशुओं के बच्चों एवं उनकी माता को मारने वालों के माता-पिता बचपन में ही मर जाते हैं। स्वाद के वशीभूत होकर जो लोग पशुओं का मांस खाते हैं, उनकी मीठी वाणी से भी श्रोता आकर्षित नहीं होते।
उठो उठो कितना सोते हो देखो सूर्य चढ़ा है।। बीत गई है निशा तेज ने नभ में रंग भरा है।। स्वर्णमय शिखरों को देखो देखो वन प्रांतों को।। कलरव करती सोन चिरैया देखो बागानों को।। रंगबिरंगे फूल खिले हैं नाच रही नन्हीं कलियां।। चम्प -चमेली और केतकी महक रहीं गलियां - गलियां।। नभ से उतरी नभ गंगा की निर्मल पावन धारा ।। संगम धर्म- ज्ञान- भक्ति का देख रहा संसारा।। देखो हलधर निज खेतों में कैसे!भाग्य गढ़ते हैं।। त्याग - तपस्या के बल पर कैसे!जीवन भरते हैं।। उठो उठो अब और नहीं जीवन को व्यर्थ गंवाओ।। बीत गई है निशा कार्य पर फिर अपने लग जाओ।। कवि - सिद्धार्थ द्विवेदी मनुष्य जैसा कर्म करता है , वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है l बिना कर्म किये न ही संसार का सृजन हो सकता है और न ही लय l हम कितनी भी महँगी गाड़ी क्यों न खरीद लें लेकिन जब तक उसमे पेट्रोल नहीं डालेंगे गाड़ी आगे नहीं बढे गी , बिना पेट्रोल के करोडो रुपयों की गाड़ी का भी कोई मोल नहीं , क्यों की गाड़ी को चलाने का कार्य तो पेट्रोल का ही है l ठीक इसी तरह ये जो शरीर रूपी गाड़ी है इसको चलाने का कार्य भी कर्म रूपी पेट्रोल का है , बिना कर्म के ये सुन्दर काया किसी काम की नहीं l इसलिए यह संसार कर्म प्रधान है , कर्म ही इस शरीर के विकास एवं विनाश का कारण है ,अच्छे कर्मो से यदि इस काया और समाज का विकास होता है , तो उसके विपरीत बुरे कर्मो से इस काया और समाज का नाश भी होता है l एक व्यक्ति किसी मार्ग से गुज़र रहा था , मार्ग में उसे आम का बागीचा दिखाई पड़ा l अब ध्यान दीजिये , आम का पेड़ देखा आंखो ने , लेकिन आँख वहाँ तक चल कर नहीं गए , चल कर पैर गए , पैर गए लेकिन तोडा हाथो ने पैर ने नहीं , अच्छा तोडा हाथो ने लेकिन स्वाद लिए जीभ ने , स्वाद लिया जीभ ने लेकिन रखा पेट ने l तो एक व्यक्ति ने महात्मा से प्रश्न किया की देखा आँखो ने , वहाँ तक गये पैर , तोडा हाथों ने , स्वाद लिया जीभ ने और रखा पेट ने , तो मार पीठ को क्यों पड़ी , पीठ की क्या गलती थी , गलती तो आँखो की ही थी , उसने ही आम देखा था , तो बागीचे के मालिक ने पीठ को क्यों मारा उसे सज़ा क्यों मिली l महात्मा ने कहा की तुम्हारे प्रश्न में ही उत्तर है , महात्मा ने कहा ये बताओ जब बागीचे के मालिक ने पीठ पर लाठी बरसाए तब रोया कौण आँसू कहाँ से आये , उस व्यक्ति ने कहा की आँखो से , तो इस का तात्पर्य यही हुआ की कितना भी घूमना क्यों न पड़े अंत में कर्मो का फल उसे ही मिलता है , जिसने वह कर्म किया l आँखो ने ही आम देखा था और अंत में उसे ही सज़ा मिली l श्री रामचरित मानस का कथन है .... कर्म प्रधान विश्व रचि रखा l जो जस करइ सो तस फल चाखा l ये विश्व कर्म प्रधान है , जो जैसा करता है , वैसा ही फल उसे मिलता है l इसलिए हम सब को अपने कर्मो पर विश्वास रखना चाहिए , और मात्र उसका ही सम्बल हमे होना चाहिए l अपने किये गए कर्मो से ही हम इस ब्रम्भाण्ड में अपने अस्तित्व को स्थापित कर सकते हैं l --------------+++++++जय श्री सीताराम +++++++++-------------- plzz comment Popular posts from this blog
यात्रा मनुष्य जीवन का सबसे सुखद अनुभव है।जीवन की ऊहापोह में जब मन अशांत और हताश होता है,तब यात्रा का सुखद अनुभव मन को नवीन कर देता है।मन की हताशा पुनः उत्साह का रूप धर लेती है और विशाल गंभीर हृदय से विश्वास और दृढ़ता का मोती खोज कर,उसके आलोक में अपने पथ को फिर एक बार आलोकित करती है।वैसे तो मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक सुदीर्घ यात्रा है।इस यात्रा के दौरान कई बार वह टूटता और बिखरता है।कितने ही सपनों को वह साकार होते और मरते देखता है किंतु यात्रा के यही अनुभव अंत काल में उसे एक सुखद नींद का आभास देते हैं।मनुष्य आदि-अनादि काल से ही यात्राओं के अनुभवों को अपनी स्मृतियों में संचित करते आरहा है।नयी सभ्यताएं ,नयी व्यवस्थाएं नए संस्कार इन्हीं सुदीर्घ कालीन स्मृतियों की देन हैं। हर व्यक्ति का अनुभव निजी है,व्यक्तिगत है।किन्तु यही अनुभव शब्दों के माध्यम से सर्वग्राही हो जाता है।प्रत्येक व्यक्तिमन उसका अनुभव करते हुए जीवन को धन्य समझता है।हनुमान जी की समुद्र यात्रा न जाने कितने ही मन को आज भी उत्साह और वीरता से भर देती है।समुद्र की ऐसी ही यात्रा का सौभाग्य मुझे इस बीच प्राप्त हुआ।जब हमने एली कपट खटाई
बड़े से बड़े वृक्षों में भी यदि दीमक लग जाए , तो वो पूरे वृक्ष का नाश कर देता है , फिर चाहे उस वृक्ष की जड़ें कितनी भी मजबूत क्यों न हो , देखते ही देखते वह अपनी मजबूती खो बैठता है , और मर जाता है l हमारे सम्बन्धों का भी कुछ यही हाल है , हमारे सम्बन्ध कितने ही गहरे क्यों न हों , उनमें किनता ही प्रेम क्यों न हो , एक बार यदि खटास का दीमक उन सम्बन्धों में लग जाये , तो सब कुछ हमारी आँखों के सामने ही नष्ट हो जाता है , और हम कुछ नहीं कर पाते l यदि आप को अपनी पत्नी पर विश्वास है , तो आप को उससे प्रेम भी है , जिस क्षण विश्वास टूटा , उसी क्षण प्रेम समाप्त l वास्तव में तो विश्वास ही प्रेम है l कहते हो की प्रेम करता हूँ , और विश्वास नहीं करते अविश्वास करते हो ,अपमान करते हो , यह प्रेम नहीं है , यह आप का भ्रम है कि यही प्रेम है l जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि l बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ll (मानस ,बालकाण्ड , सो - 57 .ख ) जल भी जब दूध से मिल जाता है , तब वह भी दूध ही के दाम बिकता है , लेकिन यदि दूध में गलती उठो - उठो
उठो उठो कितना सोते हो देखो सूर्य चढ़ा है।। बीत गई है निशा तेज ने नभ में रंग भरा है।। स्वर्णमय शिखरों को देखो देखो वन प्रांतों को।। कलरव करती सोन चिरैया देखो बागानों को।। रंगबिरंगे फूल खिले हैं नाच रही नन्हीं कलियां।। चम्प -चमेली और केतकी महक रहीं गलियां - गलियां।। नभ से उतरी नभ गंगा की निर्मल पावन धारा ।। संगम धर्म- ज्ञान- भक्ति का देख रहा संसारा।। देखो हलधर निज खेतों में कैसे!भाग्य गढ़ते हैं।। त्याग - तपस्या के बल पर कैसे!जीवन भरते हैं।। उठो उठो अब और नहीं जीवन को व्यर्थ गंवाओ।। बीत गई है निशा कार्य पर फिर अपने लग जाओ।। कवि - सिद्धार्थ द्विवेदी ध्यान कैसे करें
कोई कार्य करना और उस कार्य को सही से करना इन दोनों में काफी अंतर् है , मात्र हथोड़ा मारने से 'कील' दिवार में नहीं धंसती उस हथोड़े को सही जगह पर यानि की 'कील ' के बीचो बीच मारने पर ही उसे दिवार पर ठोका जा सकता है l यही 'फार्मूला' या 'सूत्र ' हर जगह पर लागू होता है , मेहनत करनी चाहिए पर सही दिशा में , यदि हम चले जा रहे हैं और हमे पता नहीं है कि जाना कहाँ है और किस मार्ग से जाना है तो सब बेकार है , ऐसे हालातों में हम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पायेगें वरन बस घूमते रह जायेंगे l इसलिए हम सब को सही दिशा निर्देश की आवश्यकता सब से पहले है बाकि सब उसके बाद आता है l उपर्युक्त सभी बातों को यदि हम अपने जीवन का 'सूत्र ' बना लें तो हमे अपने गंतव्य तक पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता , यहाँ पर हम जिस विषय पर आज प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे वह है 'ध्यान ' , पूरे विश्व में ध्यान को लेकर आज काफी उत्साह लोगों के भीतर दिखाई पड़ता है , हर कोई ध्यान कर रहा है और अपने जीवन को आनंद से भरा हुआ पा रहा है , ध्यान की अनेक विधियां हैं छोटे बालक को पाप नहीं लगता
(1) छोटे बालकों से प्रायश्चित्त न कराया जाय धर्मराज यमराज प्राश्चित्त के विषय में एक विशेष परामर्श देते हुए कहते हैं कि पाँच वर्ष से दस वर्ष की अवस्थावाले बालक से यदि कोई पाप कर्म बन गया हो तो यद्यपि वह सामान्य नियम से दण्ड का अधिकारी और प्रायश्चित्त करने के लिए बाध्य है , किन्तु विशेष नियम यह है कि ऐसे बालक से प्रायश्चित्त कर्म न कराया जाय , बल्कि उस पाप कर्म का प्रायश्चित्त उसका भाई , पिता अथवा अन्य कोई भी बन्धु - बान्धव कर दे तो इससे उस बालक की शुद्धि हो जाती है l (2) छोटे बालक को पाप नहीं लगता अतो बलातरस्यापि नापराधो न पातकं l राजदण्डो न तस्यास्ति प्रायश्चित्तं न विद्यते l l ( यमस्मृति . 13 ) यदि पाँच वर्ष से कम अवस्था के बालक से कोई पाप कर्म हो जाय या कोई अपराध हो जाय तो उसे वह पाप नहीं लगता और न वह दण्ड का अधिकारी ही होता है , क्योंकि इस अवस्था में प्रायः बालक अबोध रहता है , उसे पापा - पुण्य , अच्छे - बुरे , अपने - पराये का कोई बोध ही नहीं रहता , वह तो सहज भाव से क् अच्छे कर्म क्या है?अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के कर्मों का फल मिलता है। यदि मानव अच्छे कर्म करता है तो वह इस जन्म के साथ अगले जन्म में भी सुख भोगेगा लेकिन बुरे कर्म करेगा और जीवों की हिंसा, दूसरों को परेशान करेगा तो उसे अगले भव में नरक या तिरमन्स गति मिलेगी। मानव को यदि सुख पाना है तो वह अच्छे कर्म करे तथा बुरे कर्मों को करने से बचे।
हमारा कर्म क्या होना चाहिए?अच्छे कर्र्मो का फल शुभ व बुरे का फल अशुभ। वह कभी ऐसा जोड़-घटाना नहीं करता है कि अच्छे कर्मो में से बुरे का फल निकालकर फल दे। जो जैसा करता है उसे वैसा ही भोगना पड़ता है।
हम अच्छे कर्म कैसे करते हैं?त्याग और परहित से बढ़ कर कोई सुख नहीं हैं इसे यथा सम्भव अपने आचरण में लाना चाहिए । कभी किसी अंधे को सड़क पार कराकर , किसी प्यासे को पानी पिला कर देखिए ,लोगों से मधुर व्यवहार करके देखिए इसमें आपका कोई पैसा खर्च नहीं होगा पर अतुलनीय सुख की प्राप्ति होगी। विश्वास करना सीखिए ।
कर्म का महत्व क्या है?श्री कृष्ण जी ने भी गीता में- कर्मों को ही सबसे उत्तम बताया है क्योंकि कर्म हो हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं। अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो हमारे साथ अच्छा होगा अगर हम बुरे कर्म करेंगे तो हमारे साथ बुरा ही होगा। भगवान की न्याय वयवस्था बहुत ही ज्यादा सुदृढ है.
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